इस शहर में कवि और साहित्यकारों की भरमार है,
ये सभी लावारिस इंसान है।
खो गई इनकी कलम भी भीड़ में,
न कोई अलग पहचान है।
हर कोई अब खोजता हर एक को,
जैसे दफ़ना दिया गया हो कोई शहर,
कब्र में ये कैसी आहट हो रही,
हर कोई मुर्दा यहाँ इंसान है।
दस्तकें मत दो....!! इन बन्द दरवाजों को,
हर कोई भीतर यमराज है,
तुम्हें भय हो न हो मौत का,
भय मौत को, तुमसे अब हो चला।
खो न जायें हम कहिं, खुद में ही;
'कलम' की भी खुद की पहचान है,
वक्त मिल जाये लिखने के बाद दोस्तों!
तो देख लेना, उसमें भी थोड़ी सांस है।
रोज पैदा हो रहे हैं हम मशरूम की तरह
कोई भीड़ चीर निकलता नहीं,
हर कोई बस एक ही ढर्रे पर जमे
मंच को कोई बदलता नहीं।
इस शहर में कवि और साहित्यकारों की भरमार है,
ये सभी लावारिस इंसान है।
खो गई इनकी कलम भी भीड़ में,
न कोई अलग कोई पहचान है।
बुधवार, 9 जुलाई 2008
अलग पहचान
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 7:38 am
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1 विचार मंच:
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बहुत बढ़िया !
घुघूती बासूती