श्रीमती सरला माहेश्वरी, पूर्व राज्यसभा सांसद, ने लिखा है:
औरतों की कम होती हुई आबादी
""आँकड़ों की नीरस और बेजान भाषा के पीछे जो अन्तर-कथा छिपी रहती है उस अन्तर-कथा की व्यथा का मै आप सबको सहभागी बनाना चाहती हूँ । यह अन्तर-कथा वैसे तो सिर्फ मेरी है, मेरी जाति की है, लेकिन इसके लिये मैं कहाँ तक दोषी हूँ ? जो जन्म लेने के साथ ही परिवार में विषाद का कारण बन जाती हूँ। मेरा जन्म, मुझे जन्म देने वाली माँ के चेहरे पर खुशी या गर्व के बजाय निराशा और भय समाज भर देता है। वो माँ जो प्रसव की असहनीय पीड़ा से जूझते हुए एक नये जीवन का सृजन करती है, लेकिन उस सृजन के प्रति उसके परिवार की बेरुखी उसे अपराध बोध से भर देती है, मुझे जन्म देकर किसी पाप-बोध से भर जाती है। वो मुझे चाहकर भी चाह नहीं पाती और जाने -अनजाने 'मैं' उस पाप-बोध की वेदी पर बलि चढ़ने लगती हूँ, जो पाप मैंने नहीं किया, मेरी माँ ने नहीं किया।"
जमशेदपुर, (झारखण्ड) से रंजना सिंह का मेल प्राप्त हुआ, इनकी एक मार्मिक कविता यहाँ जारी कर रहें है।
"जीवन सब का मैं संवारूंगी, तेरे घर को स्वर्ग बनाऊँगी ।
तेरे पथ के सब कांटे चुनु, तेरे सारे सपनो को बुनू ।
मुझे शिक्षा दे, संस्कार दे, मुझे ममता और दुलार दे।
ऐ माँ मुझको आने दे, और इस जग पर छाने दे।।"
रंजना सिंह कविता देखें
जबकि 23 वर्षीय डॉ.गरिमा तिवारी लिखती हैं " मुझे नहीं पता कि मेरा विचार आपके मुहिम के अनुरूप है या नही, अगर आपको ऐसा लगता है कि मेरा विचार आपके मुहिम को विषय से भटक सकते हैं तो इन्हे ब्लॉग पर ना जोड़े, मुझे तनिक भी आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि किसी भी मुहिम के सार्थक होने के लिये विषयानुकुल विचारों से ही आगे कदम बढावा जा सकता है, अन्य बातें भटकाव पैदा कर सकती हैं। इनके विचार जानने के लिये शीर्षक " भ्रूणहत्या को मैं कई तरीकों से देख रही हूँ"
डॉ.गरिमा तिवारी के विचारों को भी जाने
ऊपर दिये गये सभी विचार और कविता की एक झलक है, आप इनके पूरे विचार को नीचे देये गए लिंक में जाकर देख सकते हैं। कूछ लेख हमें ओर भी मिले हें, पर उनके विचार यहाँ प्रकाशित विचारों से मिलते-जूलते होने के चलते, दे पाना संभव नहीं हो पा रहा है। कृपया उनसे आग्रह है कि वे पुनः प्रयास करें। आप भी भाग लेवें इस बहस में। Dt: 24th july 2008
आगे देखें - बहस : भ्रूण हत्या
1 विचार मंच:
हिन्दी लिखने के लिये नीचे दिये बॉक्स का प्रयोग करें - ई-हिन्दी साहित्य सभा
सरला जी बात आपकी सही है/ दहेज का दानव और सामाजिक परम्परा इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है. गनीमत इतनी ही है कि धीरे-धीरे सुधार हो रहा है/
मुकेश