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शनिवार, 7 जून 2008

काश! एक पुत्री होती....

मानवीय वेदना का एक क्षण
किसी को, किसी से, कोई मतलब नहीं;
हर कोई अपने आप में खोया हुआ है।
आकाश में तारों का चमकना,
दिन और रात को
सूरज और चाँद का समय पर आना,
इनको हमारी वेदना से;
लगाव इतना है कि ये हमें;
वक्त का एहसास करा जाते हैं।
हम! इनके इशारे पर नाचने-गाने लगते हैं।
परन्तु पास के एक कमरे में पड़ा एक इंसान,
इस तड़पन से कि कोई उन्हें देखने एक बार
कमरे में आये तो सही।
दिनभर की हलचल में सिर्फ़,
दिन में दो बार कमरे में आता है,
रामु काका,
दे जाता है एक अदद रोटी का टुकडा़
थोडा़ नमक, एक प्याज;
साथ में एक गिलास पानी,
और दे जाता था बासी समाचार।
दिन इसी तरह ढल जाता था।
एक दिन 'वृद्धाश्रम' का समाचार देख
जा पहुंचा मैं भी 'वृद्धाश्रम'
तब मुझे लगा,
पुत्र की चाहत कितनी बुरी है
काश! एक पुत्री होती।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

4 विचार मंच:

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36solutions ने कहा…

काश, समाज इस दर्द को वक्त से पहले ही समझ जाये ।
दिल को छू गई आपकी कविता ।

धन्यवाद ।


आरंभ

डॉ .अनुराग ने कहा…

satya vachan...

बालकिशन ने कहा…

गहरी पीडा को शब्द देती रचना.
क्या कहें?

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा झकझोरते भाव.

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