Translate

गुरुवार, 27 मई 2021

मेरा गाँव....

 

लेखक- शंभु चौधरी, B.Com,MA(MC), LL.B, Advocate


रामप्रसाद जी गांव जा रहे थे। रास्ते में बस रुकी रामप्रसाद जी भी हल्का होने के लिये नीचे उतर गये। सड़क के एक किनारे बस के पीछेखड़ा होकर जैसे ही हल्का हो रहे थे उनके कान खड़े हो गए। 
कोई जोर-जोर से चिल्ला रहा था - "कद्दूले लो कद्दू" ! 

रामप्रसाद जी को लगा कि बस की सवारी के पासआम, लिच्चू, केला, खीरा, शर्बत, चाय बेचते तो बहुत बार देखा पर आज कद्दू बेचते पहलीबार ही सुना। 

रामप्रसाद जी हल्का होकर पैजामा का नारा ठीककरते हुए कद्दू वाले की तरफ लपक लिए।.. भाई! अरे भाई!  जोर से आवाज़ लगाई, अरे ओअअअ कद्दू वाले भाईईईईई... 

कद्दूवाला हो हल्ला में कुछ नहीं सुन रहा था।बस यात्रियों के चारों तरफ बेचने वालों का अजीब सा वातावरण था, जिसमें बेचने वाले कीआवाज तो सुनी जा सकती थी, पर आपकी आवाज़ उनकी तेज आवाज में गुम हो जाती। जैसे रात केएक बजे जब लोग गहरी नींद में थ्री टायर के डिब्बे में सोते हुए यात्रा कर रहें हों औरकिसी प्लेटफॉर्म पर चाय वाला अंदर घुस कर आवाज़ लगाने लगता है - चाय पी लो चाय, तभीकोई यात्री अपनी कंबल से मुंह निकाल कर चाय वाले से पूछता है - ओ चाय वाले भाईईईईई.- कौन सा टेशन आया है?  

चाय वाले की मन में लगा कि यह चाय माँगेगा,पर जैसे ही उसका पूरा सवाल सुना, चाय वाले का पाँव प्रोटोकॉल की तरह अकड़ गया। बेरुखीसे जबाब देते हुए .. बोला  "बथुआ"..और आगे बढ़ गया.. चाय.. चाय....

 रामप्रसाद आवाज देते सोचने लगे.. तभी फिर कद्दू वाला पास आया पूछा बाबू काहे चिल्ला रहे थे?

रामप्रसाद जी उसके कुतर्क से थोड़ा संभलकर अरे नहीं कद्दू का भाव पूछ रहा था। गांव जा रहा हूँ, सोचा बच्चों के लिए कुछ खरीद लूं। कद्दू वाले ने जबाब दिया सौ रुपये किलो, अब रामप्रसाद जी को काटो तो खून नहीं, शहर में तो कद्दू 20-30रुपये का एक मिलता है। पलट के उससे फिर पूछ लिए शायद सुनने में भूल हुई होगी। आवाज की उस भीड़ में फिर जोर से  "कितना"?

कद्दू वाले ने फिर वही उत्तर दोहरा दिया। 100रुपये... किलो।

 रामप्रसाद जी थोड़ा चौंकते हुए -  कद्दू किलो! कद्दू किलो से कब बिकने लगा?

बाबू जबसे देश में फ्री की वैक्सीन लगेगी सबको बोल कर 1200-1500 में बिक रही है उससे सवाल करने में आपलोगों की फटती है। गरीब से हजार सवाल? बोल कर आगे बढ़ गया।

रामप्रसाद जी किसी प्रकार लुढ़कते-पढ़कते अपने गांव पंहुच तो गए, पर गांव की हालत देखते ही उनका पांव जम गया। यह क्या हो गया गांव को, चारों तरफ सन्नाटा बिखरा पड़ा है।  बस स्टैंड से अपना सामान लेकर जैसे ही घर की दहलीज पर कदम रखा ही था कि मां दौड़ते हुए मेरे से लिपट गई, जोर-जोर से रोने लगी,.. बेटा कुछ करो.. पूरा गांव करोना की आग में जल रहा है। कल पंसारी की दुकान वाला बोल रहा था, दादी आप घर से ना निकलो, समान मेरा आदमी दे आयेगा, आप फोन से सामान लिखा दो।

तभी देखा बड़े भाई कुछ लोगों से बात कर रहे थे, मां को सांत्वना देते हुए भईया को प्रणामपाती की, हांलाकि वे मुझसे 1 मिनट ही बड़े थे, मां ने बताया कि यह पहले पैदा हुआ था, बस तब से आजतक मैं उनको अपना बड़ा भाई मानता आ रहा हूँ। भईया गाँव में रहकर खेती-बाड़ी देखने लगे, मैं शहर में एक अखबार के दफ्तर में नौकरी करने लगा।

भईया ने मेरे और मेरी मेहरारु (Wife) का हालचाल पूछा, बच्चों के लिए पूछा, फिर बोले मुझे अभी इसी वक्त करीम चाचा ने बुलाया है।

 उन्होंने ने भाभीजी को आवाज दी- अरी...! , देखो कौन आया है?

मां अब भी मेरे हाथ को पकड़े हुई थी। मां ने कहा पानी गरम कर देती, तुम मुंह-हाथ धो लो, फिर खाना लगा दूंगी।

तब तक भाभीजी मेरे पास आकर बोली, शहर क्या घर बसा लिए हमें तो भूल ही गए। भाभीजी का यह स्नेह भरा प्यार दिल को भेद देता था। मैंने भाभीजी को पांव छूकर प्रणाम करना चाहा तो बोल पड़ी..  अरे बस.. बस.. आप तो बस भईयाजी को ही प्रणाम कर लिया करो, मैं तो आपसे पांच साल छोटी हूँ। भाभी का व्यवहार ऐसा था कि भईया भी हंसते हुए बाहर चले गए। रामप्रसाद जी ख्यालों में खो गए।

----

पिछले माह ही कई मंत्री, मुख्य मंत्री, आदि सैकड़ों नेताओं का झुंड का झुंड, उसी प्रकार दूसरे राजनीति दलों के नेता भी चुनाव प्रचार करने आये थे सब नेताओं के साथ उनके प्रचारक पत्रकारों का समूह भी गांव घूम कर गए थे, बता रहे थे, गांव में करोना नाम की कोई चीज दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती। सब लोग अपने काम में व्यस्त हैं। सुनकर बहुत राहत महसूस किया था।

 

करोना ने तो शहर में तो तबाही मचा रखी थी, हां! दो माह से कुछ कम हुआ था, पर अभी भी एम्बुलेंस की आवाज  दिन-भर सुनाई देती थी।

 कुछ राहत की बात थी कि मंत्री जी लगातार करोना को मात देने के लिए एक दिन में 24 घंटा चुनाव प्रचार में व्यस्त थे। चुनाव आयोग को भी गाइड कर रहे थे। जब सब कुछ धीरे-धीरे पटरी पर आने लगी। वैक्सीन भी आ गई और मंत्री जी अपनी चुनावी सभाओं में लोगों को मुफ्त में वैक्सीन बांटने लगे तो, विपक्षियों को कहाँ बर्दाश्त कि सारा क्रेडिट  मंत्री जी ले जाए।

 भाई! काम करने वाले से ही गलती होती है। मुझे तो संपादक मंडली ने दो बार नोटिस थमा दी, आप मंत्री जी की प्रसन्नता के कसीदे ना लिखें तो आपको हटा दिया जायेगा। हमें सरकारी विज्ञापन विभाग से बार-बार धमकियां मिल रही है। हमें अखबार चलाना है। न्यूज एजेंसी सरकार के नियंत्रण में है। उनके तरफ से भी बार-बार संकेत आ रहें हैं आप सरकारी नियमों का पालन नहीं कर रहे।

 रामप्रसाद जी का भी अपना परिवार है, पेट पालना है। गाँव से भले ही हर साल अनाज साल भर का आ जाता हो, फिर भी, बच्चों की पढ़ाई, दवा, घर का भाड़ा, बिजली, यातायात, दूध-दही, मोबाइल फोन का खर्चा, पॉकेट खर्च, साफ-सफाई, मोटर साईकिल की बैंक की किस्तें, ये सब देने के बाद, बीबी-बच्चों के कपड़े लेने तक के पैसे हाथ में नहीं बचते, शादी के बाद से आज 10 साल हो गए, सीमा ने कभी रामप्रसाद जी से एक साड़ी नहीं मांगी। एक बार नाराज हुई तो बोली आप मुझे मायके भेज दो, मां विदाई में एक साड़ी तो जरूर देगी।

 मुझे याद आता है जब बिटू जब गोद में थी, तो सीमा को लेने ससुराल गया था। ससुर जी ने विदाई करते समय  100 रुपये चुपचाप मेरे जेब में डाल दिये। बोले रख लो रास्ते में काम आयेगा बस का किराया दे देना। मेरी आंखों में शर्म तो बची नहीं थी, बस बाकी कुछ नहीं कह सका। तब मेरी नौकरी भी नहीं लगी थी, पिता जी ने कहा अब शादी कर लो, अब कब तक शादी नहीं करोगे, तीस साल के तो हो गये? मैं कुछ नहीं कह सका एक बकरे की तरह मुझे आनन-फानन में सजाकर घोड़ी पर चढ़ा दिया गया।  देखते-देखते शादी के दसवें माह में ही एक बेटी हो गई थी। मां ने बहुत कहा बेटा गिरा दो अभी इतनी जल्दी क्या है? नौकरी लग जाने दो। सीमा किसी भी तरह तैयार नहीं थी, मेरा मन भी बच्चे को गिराने की बात स्वीकार नहीं कर रहा था।

 मां का हाथ मुझे छोड़ ही नहीं रहा था, भईया गांव के लोगों के साथ निकल चुके थे। गांव की परिस्थितियों से अभी तक बस इतना ही वाक़िफ़ हो पाया था कि जो कुछ चुनाव के समय सुना था उससे स्थिति पूरी विपरीत है। अभी चुनाव समाप्त हुए महज 15 दिन ही तो हुए थे, क्या इस तरह रातों-रात परिस्थितियों में इतना बदलाव आ जाएगा?

 गांव की सड़कों पर सन्नाटा बिखरा पड़ा था, मां का डर, भईया का अचानक से करीम चाचा के पास जाना। सब कुछ न कुछ खराब संदेश दे रहा था।

 मैंने मां से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा - हां! मां! "गर्म पानी कर दे, हाथ-मुंह  धो लेता हूँ।"

 अप्रैल के भरी तपती दुपहरी में भी गर्म पानी से गरारा, कुल्ला, स्नान आदि कर कपड़े सारे बदलकर,  भाभीजी के हाथ का बना गर्मागर्म भोजन करने बैठ गया। भाभी की बेटी भी ग्यारह साल की हो गई थी, मेरी बेटी से बस एक साल बड़ी थी, मेरे पास आकर मेरे से ढेरों बातें करने लगी।

भाभीजी ने बताया कि स्कूल सब बंद होने से घर में ही पढ़ाई करती है, अब तो बहुत कम बात करती है, आज आपसे बात कर के बहुत खुश है, सोचती हूँ इसको आपके पास शहर भेज दूं। आपके पास रहेगी तो कुछ सीख भी लेगी।

रामप्रसाद जी एक तरफ अपनी लाचारी को झांकने लगे, भाड़े के एक छोटे 8 फीट वाय 10 फीट के एक कमरे में यह कैसे रह पायेगी, पहले से तीन प्राणी हैं, यहाँ इतना बड़ा आंगन, चार कमरे, दो दलान, खेती की जमीन, बगान, खुली हवा, शुद्ध भोजन, क्या कुछ नहीं है गांव में, और शहर में?

 बस एक भाड़े का कमरा, दो पैसे की नौकरी, जिल्लत, जद्दोजहद, भाग-दौड़, अपमान, मालिकों के आगे झुक कर खड़ा रहना, ना जाने क्या-क्या फिर भी गांव के लोगों को, शहर क्यों अच्छा लगता है? शायद शहर की चकाचौंध ने गांव की खूबसूरती को ही लील लिया हो।

 तभी भाभीजी ने थाली परोसते हुए पूछा - "सत्तू भर कर एक पराठा और बना देती हूँ! आप भोजन अच्छे से कर लिजिए।"

 सत्तू का पराठा सुन कर ही मेरी जीभ में पानी भर आया। हां में सर हिलाते हुए भोजन करने लगा, तभी मां ने भाभीजी को कहा- बहू वो जो कल घी बनाई थी उसमें से ही घी लगाना, मां के हाथों से बना, गाय का घी, घर का आटा, घर का बना भुजे चने का सत्तू, कुआँ का पानी, बगान की लकडिय़ों से लकड़ी के चुल्हें में  पका भोजन, भाभीजी जी के हाथों से बना खाना, इसका स्वाद शहरों के पांच सितारा होटलों में पैसे देने से भी कहां मिलेगा।  

खाना खाते ही मुझे जोर की नींद आने लगी। सीमा को पंहुच की खबर देना ही भूल गया था सो  मोबाइल फोन हाथ में लेकर सीमा को लाईन मिलाने लगा। सीमा का फोन बार-बार इंगेज आ रहा था। हैरान होकर भाभीजी को भी कहा कि आप फोन मिलाकर बोल दो, मैं थोड़ी देर आराम कर लेता हूँ।

भाभीजी का सकारात्मक उत्तर सुनकर मैं निश्चित होकर सो गया। पर फोन को चार्ज में लगाना ही भूल गया था।

इधर में सोया ही था कि उधर फोन भी सोने लगा। मेरा मिसकॉल देख सीमा मुझे बार-बार फोन करने लगी, पर मेरा फोन बंद दिखा रहा था। वो भाभीजी को फोन मिला कर समाचार जानने की कोशिश की तो भाभीजी का फोन उसको (सीमा)  इंगेज दिखा रहा था। इस दस मिनट के अंतराल सीमा का गला सुखने लगा। वह बार-बार मुझसे संपर्क करने की कोशिश कर रही थी।

मुझे इतनी गहरी नींद आ चुकी कि पता ही नहीं चला कब रात के आठ बज गए। उठा तो देखा मेरा फोन बंद पड़ा है, हाथों-हाथ अपने बक्से से चार्जर निकाल कर, जैसे ही फोन ऑन ही किया था कि सीमा का फोन बजने लगा।

सीमा काफी घबराई हुई लगी। इस चार-पांच घंटों में सीमा के बस प्राण नहीं गए, बाकी कुछ बचा नहीं था।

भाभीजी बात करना ही भूल गई थी, और भाभीजी फोन का म्यूट (घंटी की आवाज को साईलेंट मूड में डाल देना) करने के कारण सीमा का फोन आने पर भी वह सुन नहीं पाई।

 अक्सर हम अपने फोन को पासवर्ड से लॉक कर देते है या फोन को साईलेंट (Silent) मूड में डाल देते हैं जिसके चलते कई बार परेशानियों का कारण बन जाता है। इस बात को भूल जाते हैं कि यदि कभी आपात-स्थिति आई तो यह फोन घर के किसी काम नहीं आ सकेगा। भाभीजी भी थकी हुई होगी सो वह भी सो गई थी। शायद नींद में ख़लल पैदा न हो इसके लिए फोन को साईलेंट मूड में डाल दी हो । कई लोगों को यह आदत है कि वे फोन को साईलेंट मूड में डाल कर ही सोते हैं।

मां तो आज भी पुराने जमाने के काले रंग के 3 किलो वजन वाले फोन की तरह मोबाइल फोन से वैसे ही बातें करती है जैसे पहले हम लोग किया करते थे, इतनी जोर से बोलना पड़ता था कि आसपास के सारे लोगों को पता लग जाता था कि मां ने आज बेटी को ससुराल में कौन सी रैसिपी बनानी सिखाई है।

---

सीमा ने बताया कि कैसे उसके यह पल गुजरा, जैसे अस्पताल में मरीज के मुंह में ऑक्सीजन की पाईप तो लगी है पर सिलेंडर में ऑक्सीजन ही नहीं, यदि आज रात तक बात नहीं होती तो सीमा की स्थिति का बयान करना भी संभव नहीं था, गोवा के सरकारी अस्पताल की तरह हो जाता, रास्ते में लाजेस्टिक के कारण डॉक्टरों ने मरीजों को मरने छोड़ कर खुद गहरी नींद में सो गये। एक दिन नहीं लगातार एक सप्ताह तक इनकी लाजेस्टिक समस्या का समाधान नहीं हो सका, ठीक वैसे ही जैसे सरकारी कोष से खरीदे दर्जनों ऐम्बूलेंसों को एक सांसद ने इस महामारी के बीच अपने घर में छुपा रखा था, बहाना इतना अच्छा था कि उनको ड्राइवर ही नहीं मिल पा रहे थे।

 मुम्बई से गोवा महज 15-20 घंटे के रास्ते में अटकी पड़ी है ऑक्सीजन गैस, लोग सरकारी अस्पताल में तड़प-तड़प के मर रहे हैं राज्य के  मंत्री जी गहरी नींद में सो रहे हैं और नेता बोल रहें हैं विरोधी दल के नेता पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए। बात तो सही बोल रहें है। अभी देश में जो कोई भी लोग,  लोगों को बचाने में दिन-रात एक किये हुए हैं सबके-सब सरकार से गद्दारी ही तो कर रहें हैं। वैक्सीन क्यों मांग ली, ऑक्सीजन क्यों  मांग ली, दवायें क्यों मांग ली। जब,सब केन्द्र सरकार को ही करना है तो राज्य सरकारें क्या करेगीं? उन राज्यों से सबक लेना चाहिए जहां के सब मंत्री चुपचाप लाशों को ठिकाने लगा रहें हैं, इनसे कुछ तो विरोधी दलों के नेताओं को  सीखना ही चाहिये।

70 सालों से विपक्षी पार्टी सत्ता पर बस मुसलमानों को बसाती रही, जिसका परिणाम है किस आज देश में दवाओं की, ऑक्सीजन की, भेन्टीलेटर की, अस्पतालों में बेड की, श्मशानों में जलाने की लकड़ी की कमी ही कमी दिखाई दे रही है।  मंत्री जी ने गंगा पर करोड़ों रुपये बहा दिये, तो अब गंगा इतनी पवित्र  साफ हो गई कि गंगा में बह रही सैकड़ों लोगों की तैरती लाशें साफ दिखाई पड़ती है। इसके लिए  मंत्री जी को साधुवाद तो देना नहीं बस दोषारोपन करना ही विपक्ष का काम रह गया है।

यह सब ठीक वैसे ही जैसे भारत में निर्माण वैक्सीन की 85 प्रतिशत माल को हमें विदेशों में पहले भेजना ही होगा। इसमें कोई भी सरकार क्यों न हो उसे इस करार को मानना ही होगा। अब देश के लोगों की जान सिर्फ मंत्री जी के चलते तो नहीं जा रही। जरा सोचिये रातों-रात आप सरकार से 130 करोड़ लोगों के लिए वैक्सीन मांग लेगें तो क्या करेगा कोई। जान बचाकर भागेगा या फिर फाँसी पर चढ़ जायेगा। 

ऐसे लोग ही देश के सबसे बड़े गद्दार हैं जो नदियों में कूद-कूद कर मरने लगे। सरकार को बदनाम करने के लिए विपक्ष भले ही कितना हथकंडा अपना लें।  मंत्री जी व उनकी पूरी टीम अपने कार्यों को अंजाम देती रहेगी। लोगों को नदी में डूबने के लिए उकसा कर विपक्ष के लोग देश की स्थिर सरकार को अस्थिर करने में लगे हैं।

अभी वैसे भी समय एक-दूसरों को मदद करने का नहीं है। यदि आपने किसी की मदद कर किसी की जान बचा दी तो, आप पर हत्या का मुकदमा भी चलाया जा सकता है। जान मारने का ठेका सिर्फ राज्य सरकार का ही है। लोग सरकार के डर से अब तो लाशों को फेंक कर भाग जा रहें है। मृत्यु प्रमाण-पत्र तो भूल ही जाएं।

आप लोगों को तो अस्पतालों के बहार लाइन लगा कर हाथ में वैक्सीन लेते हुए पोस्टरों के साथ "वैक्सीन उत्सव" मनाना चाहिए ना कि  मंत्री जी की बस बुराई करना।

---

खैर! बात हो जाने से उसने इन चार-पांच घंटों में सीमा ने भगवान से जितना वादा किया था, मन्नतें मांगी थी, सारी ड्यू हो गई। ठीक वैसे ही कान की बाली खो जाने पर महिलायें बार-बार उसे खोजती है और जब उसे नहीं मिलती तो दो बात ही होती है या तो पति पर शक जाता है या फिर नौकरानी पर। भगवान के पास जाकर बार-बार सवा रुपये का प्रसाद चढ़ाने का वादा करती है और जब बाली खुद के सिहराने में तकिये के नीचे से दबी मिल जाती है तो सब भूल जाती है, पर सीमा भूलती नहीं वह भगवान से कोई वादा खिलाफी नहीं करना चाहती।

बोली आप जब लौटें तो, हनुमानजी के मंदिर में पांच किलो पेडा का प्रसाद चढ़ाते आना, बाकी की मन्नतें मैं घर में पूरी कर लूंगी।

सीमा के मन के संतोष के लिए सब करना ही था, सो हां बोल दिया। आजकल फोन कितना जरूरी हो गया है। एक पल का संपर्क टूटते ही लोग नाना प्रकार की चिंता करने लगते हैं। जब मैं शहर पढ़ने गया था तो, पिता जी कहा था पंहुचते ही एक पत्र डाल देना। उस समय गांव में या तो किसी बड़े घरों में या फिर पोस्ट मास्टर के पास ही फोन हुआ करता। हमारे पड़ोस में एक फोन हुआ करता वह सिर्फ जीने-मरने के समाचार पर ही बजता था, उस समय उसे लाइटनिंग कॉल के नाम से बोला जाता था। यदि मिल गया तो पहला कॉल तो सिर्फ यह बोल कर रख देते थे फलाना आदमी के रिश्तेदार बोल कर लाइन काट देता। फिर मां घंटों फोन का इंतजार उनके घर जाकर करती रहती। पूछती रहती किसका फोन था?

मेरे संपादक ने मुझे साफ हिदायत दे रखी थी कि आप राजनीति के पचड़े में ना पड़े, सो यह सब झूठ है जो मैंने लिखा है । बस किसी तरह सरकार को अस्थिर करने के लिए हजारों की संख्या में में लोग खुद मरे जा रहें है। अब इसमें मंत्री जी का क्या दोष उन्होंने तो संविधान नहीं लिखा था । भारत का संविधान जिसने लिखा आप उसे सवाल कीजिए। चुनाव कराने की व्यवस्था उसी में लिखी है। 

हमारा भारत देश कितना महान हो गया है पाकिस्तान से बदला लेते-लेते,  दो बार सरकार बन गई, अभी तक बदला लेने की बात तो दूर की कौड़ी  है, पाकिस्तान का बाल भी बांका नहीं कर सके, उल्टे भारत से ज्यादा इनको बांग्लादेश वा पाकिस्तान की चिंता सताती है।

अब भारत देश विश्व-कविगुरु रविन्द्र नाथ टैगोर की तर्ज पर विश्वगुरु मंत्री बनने की तैयारी जो करनी है। अब आप ही देखिये मंत्री जी ने पिछले साल चाइना के 100 से भी ज्यादा एप्स बंद कर चीन को घुटनों के बल गिरा दिया था, जिसका ही परिणाम है कि आज उसे भारत को कच्चा माल, ऑक्सीजन भरने के सिलेंडर मजबूर हो कर भारत को निर्यात करना पड़ा।

मंत्री जी के एक मंत्री बता रहे थे कि आप लोग पॉजिटिव रहिये। किसी भी राज्य में चुनाव कराना एक संवैधानिक व्यवस्था है। समय से पूर्व यदि उन राज्यों में, जहां की सरकारों का कार्यकाल पूरा हो चुका है या होने वाला है, उन राज्यों में चुनाव कराना ही होगा अन्यथा उन सरकारों को भंग कर उन सभी राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगा देना होगा, जो लोकतंत्र के लिए स्वस्थ्य परंपरा नहीं होगी।  मंत्री जी लोकतंत्र जीवी हैं।

चुनाव आयोग भी एक संवैधानिक संस्था है। हमें इन पर कोई भी अंगुली नहीं उठानी चाहिए। मद्रास उच्च न्यायालय की टिप्पणी पर असंतोष व्यक्त करते हुए कहा कि माननीय न्यायाधीशों को कुछ भी बोलने की छूट नहीं देनी चाहिये। एक बार तो सभी पत्रकारों को लगा कि बात तो सही है। हमने इस दृष्टि से तो कभी सोचा ही नहीं। अब इसमें मंत्री जी का क्या दोष। चुनाव आयोग पर ऐसी टिप्पणी  जिसमें अदालत ने कहा कि आप लोगों पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए। बिलकुल भी अनुचित था। सारे पत्रकार अचानक से पॉजिटिव गए। तभी एक पत्रकार पीछे से उठ कर पूछ ही बैठा - सर ! यह तो आप सही बोल रहें हैं कि चुनाव समय से हो । पर यह कहाँ लिखा है कि एक ही राज्यों में चुनाव आठ चरणों में, बड़ी-बड़ी रैलियाँ, सभाओं का आयोजन किया ही जाना जरूरी है? अन्य राज्यों से गाड़ियों में भर-भरकर असामाजिक तत्वों को दूसरे राज्य का माहौल बिगाड़ने के लिए भेजा जाय। चुनाव आयोग इन सब पर तो नियंत्रण कर ही सकती थी?

फिर सभी पत्रकार पॉजिटिव से नेगेटिव हो गए।

मंत्री जी ने फिर पॉजिटिव होने की बात कही, आपने जिस राज्य के संदर्भ की बात परोक्ष में की है  उस राज्य की कानून-व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा चुकी थी, केन्द्र सरकार के पास कोई विकल्प नहीं बचा था। हम भी नहीं चाहते कि चुनाव को लंबा खींचा जाए, पर मंत्री की खुद की व्यस्तता भी एक मायने रखती है। चुनाव आयोग को इनके समय के अनुसार कार्यक्रम तय करने होते हैं। इसमें कोई गलत भी नहीं है। देश में चुनाव प्रचार तो करना ही होता है अन्यथा गलत लोग ही चुनाव जीत कर पुनः आ जाएगें।

 तभी दूसरे पत्रकार ने फिर पूछा सर अब और कितना पॉजिटिव होना है?

चारों तरफ ही पॉजिटिव -पॉजिटिव ने लोगों की सांसें छिननी शुरू कर दी है?

मंत्री महोदय’ बस उठ गए बोले अब कोई सवाल नहीं... पॉजिटिव रहिये, पॉजिटिव लिखिये और पॉजिटिव सोचिये बाकी आप देख लीजिए जाते-जाते एक शब्द बोल दिए ... बाकी आप लोग तो समझदार हैं ही ।

---

रामप्रसाद जी यह सब सोच ही रहें थे कि तभी भाभीजी ने आकर पूछा, भाई’साब को आने में देरी होगी उनका फोन आया था, आप खाना खा लीजिए खाना परोस देती हूँ।

रामप्रसाद जी का मन तो नहीं था खाने का, पर खाना का नाम सुनते ही कमरे में अच्छे घी की खुशबू महकने लगी। हाँ , में सर हिलाते हुए बोला बस सुबह वाला घी थोड़ा सा चपोड़ देना।

भाभी ने भी हां, में सर हिलाते हुए कहा, मां ने आम का मिठ्ठा आचार भी बनाया है वह भी डाल दूंगी। तब तक आप हाथ मुंह धो लीजिए।

 एक बार फिर सीमा से बात की, बिटू से बात की, और सभी समाचार पूछे, ऑफ़िस में भी संपादक से भी बात की। संपादक जी ने बताया कि चारों तरफ से समाचार अच्छे नहीं आ रहे। मुझे भी सतर्क रहने की सलाह दी।

---

आज देश का हर व्यक्ति यह सोच रहा है कि देश को यह क्या हो गया, कल तक सब कुछ ठीक ही चल रहा था। पिछले साल आई करोना की महामारी से हम अब उबरने लगे थे। फिर यह क्या हो गया अचानक से, मानों पलक झपकते ताश के पत्ते की तरह अस्पतालों में, घरों में, सड़कों पर हजारों लोग में दम तोड़ने लगे। अदालत ने इसे सरकार की विफलता की संज्ञा देते हुए ‘नर-संहार’ कहा। फिर भी हम सरकार से सवाल करने से डर चुके थे। हमारी लाचारी इस कदर नपुंसक हो चुकी थी कि चाह कर भी कलम उठा नहीं सकते थे अब, हमने पिछले कुछ सालों में सरकार के पास गिरवी रख चुके थे।

---

भाभीजी खाना लेकर आ गई थी, उठ कर हाथ-मुंह धोकर, थाली के पास रखी पुरानी चादर पर पालती मार कर बैठ गया। भोजन का स्वाद फलका, आचार की भीनी-भीनी खुशबू, भूख को और बढ़ा रही थी, भाभी जी गरम-गरम फूले हुए फुलके  ला कर दे रही थी, जैसे ही भोजन करने बैठा था कि, मां भी आ गई और पास बैठकर बार-बार बहू को बता रही थी कि मुझे बचपन में खाने का कितना शौक था।

बचपन के किस्सा सुनाने लगी। मां का यह प्यार अनूठा ही था, जिसे शब्दों में समेटा भी नहीं जा सकता था। जैसे पुराने अखबारों की कतरनों से हम समाचार को खोजकर संदर्भ के साथ जोड़ते थे ठीक वैसे ही मां कब-कब की बातों को याद कर बहू को बताने लगी।

माँ बता रही थी कि दोनों भाई घर में पैदा हुआ थे, तब कच्चा दो कमरे का खपरैल का घर था। एक कमरे में सास व ससुर सोते थे, दूसरे में मैं, इनके पिता के साथ। बाहर छपरैल में खाना बनाती थी। गांव में एक अस्पताल तो था पर कोई अस्पताल तभी जाता जब कोई एक्सीडेंट हो जाता।। डाक्टर भी अक्सर सरकारी काम से शहर ही जाते रहते, एक नर्स और एक कंपाउंडर दो तीन सफाई के कर्मचारी से पूरा महकमा में इलाज होता था। अब तो अस्पताल काफी बड़ा हो गया सुना है पर कभी जाने को मौका नहीं मिला। 

उस समय छोटा सा अस्पताल सरकार ने बना दिया था। परिवार नियोजन का तब खूब प्रचार चल रहा था। फिर हंसती हुई जब ये दोनों जुड़वाँ पैदा हुए तो सबने हंसते हुए कहा था, भाभी अब तो 'दो' एक साथ कर ली, तीसरा मत करना। मुझे इतनी हंसी आई कि आज भी सोचती हूँ तो हंसी आ जाती है। इनके पिता तो एक माह के बाद ही पीछे लग गए। बड़ी मुश्किल से जान छोड़ते। थोड़ा हंसते हुए माँ ने अपनी बात जारी रखी। तब तक बहु माँ की थाली, और अपनी थाली लेकर पास ही बैठ गई, मैंने बिटिया के बारे में पूछा तो, भाभी बोली कि वो खा कर सो गई है। 

मां बताने लगी कि जब दोनों का जन्म होने का समय आया तो इनके पिता जी एक बार बोले, कि तुमको शहर के किसी अच्छे डाक्टर से दिखा लाता हूँ। जांच भी हो जाएगी और सुना है वे मशीन से देख कर बता देगें ..... फिर बोलते-बोलते रुक गई। मैंने ही मना कर दिया नहीं सातवां माह चल रहा है मुझे कहीं नहीं जाना। जो होगा भगवान की मर्जी। फिर एक हल्की सांस लेते हुए .... भगवान ने एक साथ झोली ही भर दी। तब मेरी सास ने मुझे बताया कि तेरे ससुर जी पूरे गांव में लड्डू बांटे थे। माँ की बातों में दर्द भी झलक रहा था तो खुशी भी। कभी साड़ी के आंचल से आंखों को पूंछती तो कभी हंसती हुई अपनी बातें बताती। 

अब तो भगवान ने मुझे दो बेटियाँ भी दे दी। सोनू और तेरी बेटी बिटू । फिर रोटी को चबाते हुए बोलने लगी... गांव में बस एक ही नर्स थी जो बच्चा जन्माने के लिए आती थी। एक-दो बार वही आकर देख लेती और बोलती भाभी दर्द होने से बुला लेना, अभी दस दिन बाकी है। वह दिन का हिसाब लगाती रहती और समय पर उसे कैसे पता चल जाता कि आज मुझे दर्द होगा वो सब तैयारी कर के चली जाती। कमरा अलग कर देती। मिट्टी को दो घड़ा लाकर रख देती। कमरे की खिड़की को अच्छे से बंद कर देती। मुझे सिर्फ साया-ब्लाउज में ही रहने बोल जाती। काम करने को मना कर देती। दिन में दो बार आकर संभाल जाती। शाम के वक्त वो फिर आ गई इस बार साथ में एक महिला को भी साथ लाई थी, दोनों ने भीतर से कमरा बंद कर लिया था। मुझे तभी पेट में दर्द उठना शुरू ही किया था। नर्स को देखकर रोने लगी थी..... ‘‘दीदी बचाओ बहुत दर्द हो रहा है।“ उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं क्या हुआ। जब नींद टूटी तो सुबह हो चुकी थी । मेरी गोद में दोनू बच्चे रो रहे थे। सास ने बताया कि दोनों जुड़वाँ  लड़का हुआ है तेरे बायें वाला पहले और दायें वाला बाद में हुआ है। सास ने पहले वाले को बड़ा काला टीका लगा दिया था और दूसरे वाले को छोटा काला टीका लगा रखा था। 

माँ की बातें सुनते-सुनते हमें काफी देर भी हो गई थी, बीच में माँ ने भाभी से पूछा - ‘‘अरे श्यामा ने बहुत देर कर दी, रोटी बनाई है न उसकी?’’  

भाभी ने  हाँ कहा,  फिर रूक कर  ‘‘उनका फोन आया था सो बनाकर रख दी हूँ, बोले आने में देर होगी। तुम खा लेना।’’ 

---

खाना खाते-खाते मोबाईल पर समाचार देख।-

"हाईकोर्ट ने प्रदेश के छोटे शहरों, कस्बों व ग्रामीण इलाकों में संक्रमण तेजी से बढ़ने तथा मरीजों के इलाज में हो रही लापरवाही पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा है कि सूबे की स्वास्थ्य व्यवस्था राम भरोसे चल रही है। इसमें तत्काल सुधार की आवश्यकता है।

--- 

हम लोग खाने से उठ कर, मैं बिस्तर पर लेटा-लेटा समाचार देख ही रहा था कि तभी उत्तर प्रदेश और उससे सटे बिहार की बड़ी भयावह तस्वीरें आ रही थी, कई लोग मदद मांगते हुए सोशल मीडिया पर मारे-मारे फिर रहे थे। किसी को अस्पताल में बेड नहीं मिल रहा था, जिसको मिला भी तो, उसे दवा-ऑक्सीजन नहीं मिल रही। गांव में तो अस्पताल के नाम पर बस खानापूर्ति चल रही थी, सब कुछ  “राम भरोसे” चल रहा था, किसी की भी सरकार आयी हो, इन 70 सालों में किसी भी सरकार ने गांव के अस्पतालों-स्कूलों की बात तो छोड़ दीजिये, शहरों में भी कोई ध्यान नहीं दिया। अब कोई पिछली सरकारों से बात तो ही नहीं करता। सारा का सारा दोष सरकार पर ही डाल दिया। भला इन सरकारों का क्या दोष? ये तो कल ही तो सरकार बनाये हैं। सरकार को भले 5-10 साल हो गए, पर उन्हें कितना काम करना पड़ता था। अब करोना को इन लोगों तो नहीं बुलाया जो सबके-सब इन पर पील गए। 

अमूमन हर गांव से रोज़ाना 5 से 10 लाशें जलाने-दफनाने- नदियों में बहाने- या गड्ढे में फेंकने, जिसको जैसा बन पड़ रहा था कर रहा था। कौन किस जाति का है किस धर्म का है, सब कुछ भूला चुके थे। पूरा "राम राज्य" था। पूरे गांव में हाहाकार मचा है। हर जगह ऑक्सीजन के कारण तबाही का नंगा दृश्य सामने आ रहा है।

ये लोग सरकार चला रहे हैं, कोई अस्पताल नहीं। इनका काम सरकारी स्कूल या अस्पताल चलाना नहीं है।। गाय की सेवा से लेकर भगवान राम की सेवा का भार इनके दो कंधों पर आ गया है। राम मंदिर का निर्माण नहीं हुआ तो फिर लोगों के मरने पर स्वर्ग कैसे मिलेगा?

भारत के  मंत्री जी खुद के लिए करोड़ों का विमान, करोड़ों का मकान और ना जाने किन-किन मदों में कितना खर्च कर दिए होगें, सबका हिसाब देना भी जरूरी नहीं। अदालत को बंद लिफाफा बस पंहुचा देते हैं, जज महोदय उस बंद लिफाफे को देख कर ही फैसला सुना देते हैं कि सब कुछ ठीक है।  यह सब एक फ़क़ीर के रहने के लिए ही तो किया है। अब देश का फ़क़ीर अच्छे से रहे यह भी विपक्ष को बर्दाश्त नहीं। कितने बेशर्म हो गए ये लोग।

इतने ईमानदार नेताओं पर कटाक्ष करते हुए हमें डूब मरना चाहिए। हमारी अगली पीढ़ी हमें कभी नहीं माफ करेगी। एक तो बड़ी ताकत से हमने इनको सत्ता में लाया अब उनका साथ छोड़ देंगे। मुसलमानों के अहंकार को चकनाचूर कर दिया, कश्मीर की समस्या को मिनटों में सलटा दिया। राम मंदिर बनने लगा और क्या चाहते है ये लोग? ऐसे गद्दार तो हमने नहीं देखा कभी। आज थोड़ी आपदा क्या आ गई,  लाख-दो लाख लोग महज 10-15 दिनों क्या मर गए? लगे सरकार को जो-तो बोलने लगे। शर्म आनी चाहिए इनको।

रामप्रसाद जी को संपादक ने बार-बार सर्तक कर दिया था, कुछ भी लिखो बस पॉजिटिव ही होना चाहिए।

संपादकों की अपनी लाचारी होती है, मालिकों के जूतों के तले उनको ही सीधे रोज जूते खाने पड़ते हैं। एक दिन का विज्ञापन बंद हो जाने से व्यापारियों को कितना नुकसान होता है इसका अंदाज तो मालिक ही लगा सकते हैं। सब कोई रामनाथ गोयनका तो बन नहीं सकते, जिसने पत्रकारिता की जगत में इतिहास लिख दिया और स्व.इंदिरा गांधी के अहंकार को रौंद डाला था। स्व.इंदिरा गांधी से बड़ी ताकत तो अभी भी मंत्री सरकार के पास नहीं आई है जिस स्व.इंदिरा गांधी ने, ना सिर्फ भारत के संविधान में एक दिन में 59 संशोधन कर डाले थे। पाकिस्तानी सेनाओं को घुटनों के बल रेंगा कर बांग्लादेश को आजाद करा दिया था। किसी सरकार की इतनी ताकत जो यह कर सके? पर इससे क्या होता है। देश को आजाद तो नहीं करा सकी स्व.इंदिरा गांधी। हां! इसका जबाब भी रामप्रसाद ने खोज लिया था।

---

रात कैसे गुजर गई कुछ पता नहीं चला, पौ फटते ही नींद टूट गई। भाभी जी जगी हुई थी, बोली भईया रात काफी देरी से आये थे, खाना खाकर सो गए, बोले सुबह जल्दी जाना है पता नहीं बार-बार किसी से घाट पर लकडियां पंहुचाने के लिए बोल रहे थे। भाभी जी की इस बात से कुछ नया संकेत देने लगा मुझे। जरूर हो ना हो इस गांव या आस-पास के सभी गांवों में जिन-जिन गांवों के लोगों को  मंत्री जी की सभा में जमा किया गया था उनमें से अधिकांश गांव के लोगों को अब करोना हो चुका है जो धीरे-धीरे सबको मौत के मुंह में धकेल रहा था। अब मेरे से भी रहा नहीं जा रहा था। कुछ पता तो करना ही होगा। सोच कर भाभी जी कहा कि थोड़ा बहार घूम आता हूँ, फिर चाय बना देना। भाभी ने हां कह दिया तो, मैं जल्दी से घर के बहार सड़क पर चेहरे को अच्छे से मास्क से ढंक कर निकल पड़ा। अभी थोड़ी दूरी चला ही था कि किसी ने पीछे से आवाज दी। अरे... रामाआआअआा

पीछे मुड़कर देखा, तो मुझे लगा कि स्कूल में पढ़ाने वाले मेरे गुरु जी हैं, हम लोग गांव में उनको मास्टर जी बोल कर ही पुकारते थे।  मैंने रुक कर उनको प्रणाम किया और उनका हाल-चाल पूछा।

उन्होंने भी मेरा समाचार लिया फिर गांव कैसे आना हुआ, जानकर बताने लगे कि इस बार विधान सभा चुनाव के पहले तक गांव में सब ठीक चल रहा था, पर चुनाव के समाप्त होते ही जैसे-जैसे दिन गुजरने लगे किसी को बुखार, किसी को खांसी की शिकायतों से सभी दवाखाने भर गये। मरीजों की कतार लगने लगी। गांव में तीन-चार डॉक्टर ही हैं बाकी सब झोला छाप डॉक्टरों से पूरा गांव भरा हुआ है। सब कोई इलाज करने लगे। कुछ लोग ठीक भी हुए तो कुछ को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। तब तक तो सब ठीक चल रहा था । फिर रुक गए। बोलते-बोलते रोने लगे।

जिलाधिकारी से हम लोग मिल कर भी आये कि कुछ कीजिए। बोले हमने सरकार के पास इसकी सूचना भेजी थी। उधर से संदेश आया कि गांव के लोग खुद ठीक हो जाएगें, आप पैनिक मत फैलायें। सो तब से डी.एम. सा’ब गांव के लोगों से मिलना ही बंद कर दिए। दो-चार दिन बुखार रहने के बाद कुछ तो ठीक हो रहे थे, तो वहीं कई लोगों को सांस फूलने की समस्या सामने आने लगी। हमने फिर सरकार से गुहार लगाई। पर कुछ नहीं कर सके। अब तुम शाम में मिलना आगे की बात बताऊंगा। बोल कर मास्टर जी बात को एक रहस्यमय तरीके से बीच में ही रोक कर आगे बढ़ गए।

मास्टर जी ने जो कुछ रामप्रसाद जी को बताये, उससे रामप्रसाद को अब तक यह तो आभास हो चुका था कि गाँव में सब कुछ ठीक नहीं है। भैया का लकड़ी की बात करना, किसी खतरे का संदेश दे रही थी। रामप्रसाद जी आस-पास की एक चाय की दुकान के पास रुक  गए यूं ही कुछ पूछना चाहा, तो चाय वाले ने बस इतना ही कहा कि हम सच नहीं बोल सकते। सुना है सच बोलने से सरकार जेल में बंद कर देगी। मैंने उनको विश्वास दिलाने की चेष्टा की, कि मैं इसी गांव का फंलाने का लड़का हूँ, पर उसने कुछ भी बोलने से साफ इंकार कर दिया। अब तक मुझे यह तो समझ में आ गया था कि सरकार ने सिर्फ अखबारों का ही गला नहीं दबाई हैं इन गरीब लोगों का भी गला दबा चुकी है। बेचारे गरीब आदमी दाल-रोटी कमायेगें कि कोर्ट के चक्कर लगायेगें? खुद से प्रश्न कर चुप हो गए राम प्रसाद जी।

कुछ आगे बढ़ा तो कुछ युवकों को देख कर उनके पास चला गया। उनसे हाल-चाल पूछने लगा तो सब अचानक से चुप हो गए। बोल अंकल जी घाट पर चले जाओ, सब कुछ जान जायेगें।

रामप्रसाद जी को धीरे-धीरे स्थिति को संग्रहित करते-करते इस निष्कर्ष पर तो आ गये थे, कि गांव में कुछ गड़बड़ तो है। सरकार के डर से कोई बोलना नहीं चाह रहा। ठीक आपातकाल जैसे हालात गांव मैं फैला हुआ तो कोई भी व्यक्ति दीवार से भी बात नहीं करना चाहता था। कब उसे सरकार *”मीसा” में बंद कर देगी। करोना का पहले साल में तो गांव वाले यह कह कर निकाल दिये थे, कि गांव में करोना का कोई भय नहीं है पर जैसे-जैसे चुनाव खत्म होते गए। करोना ने गांव में भी तेजी से अपने पांव पसार लिये थे। इस बार की करोना काफी खतरनाक भी थी, जो आदमी की श्वांस नली को चंद दिनों में जकड़ देती और आदमी को सांस लेने की परेशानी से उसका दम घुटने लगा। समय पर उनको आक्सीजन दवा और इलाज नही किया जाए तो उसकी मौत तय थी।

(*मीसा - आपातकाल के समय यह कानून कांग्रेस सरकार की देन थी जिसमें किसी भी व्यक्ति को बिना उसके अपराध को बताये हिरासत में लेने का प्रावधान था। जिसे बाद में जनता पार्टी की सरकार ने रद्द कर दिया।)

---

भारत के अधिकांश गांवों में पिछली सरकारों न अब तक कोई ऐसी व्यवस्था ही नहीं की थी, कि आदमी को ऑक्सीजन दी जा सके। बेचारे मंत्री जी ने गांवों में घर-घर बिजली पंहुचा दी। उनको यह पता होता कि गांव के लोग ऐसे मरेगें तो ऑक्सीजन तो वह रेल गाड़ियों में लाद कर पंहुचा ही देते। अब रेल गाडी? जब रेल लाइनें ही नहीं बिछाई तो, मंत्री जी क्या दोष इसमें वे टेंकरों से भी प्रयास करे तो भी कैसे करे? गांव में आने-जाने का रास्ता तो टेंकरों के लायक भी तो नहीं। अब सरकार लाचार नहीं हो तो क्या हो? मुझे तो इस करोना के पीछे गहरी चाल नजर आती है, उनको पहले से ही पता था, कि देश में ऐसी महामारी आने वाली है जिसमें लाखों लोग मारे जाएगें। सो पहले से ही बेचारे भोले-भाले मंत्री जी को बुरी तरह से फंसा दिया।  अब इसकी पूरी की पूरी चमड़ी पानी में धूल कर गंगा के पानी को लाल कर दी है और सच पानी की तरह चमकने लगा।

क्या शहर हो या गांव जहाँ सड़कें हैं वहां भी तो लोग अक्सीजन ना मिलने से मर रहे थे, तो गांव में ऑक्सीजन कैसे मिलेगी? सरकार का यह काम तो नहीं कि घर-घर किसी को ऑक्सीजन पंहुचाये, किसी को दवा। उसके लिए शहरों में बड़े-बड़े अस्पताल खोले हुए हैं, जिलों में सदर अस्पताल, कई गाँवों में चिकित्सा केन्द्र। डाक्टर सब जगह उपलब्ध हैं। लोग जायें और अपना इलाज करा ले। सरकार आपके लिए वैक्सीन भी बनवा दी है। लोगों को मुफ्त दी जानी है।

---

रामप्रसाद जी यह सब सोचते-सोचते घर वापस आ गए थे भाभी जी इंतजार ही कर रही थी, बोली आप मंजन-ब्रश कर लिजिए, मैं तब तक आपके लिए चाय बना लाती हूँ।

तभी सीमा का फोन बजने लगा। बोली गैस खत्म हो गया है बुक करा दीजियेगा। अक्सरा मेरे ही फोन से गैस की बुकिंग होती है। गैस कम्पनी में मेरा ही फोन रजिस्टर्ड है। सो यह काम मेरे ही जिम्मे रहता है। जब तक नई सरकार नहीं आई थी गैस का दाम 400 से 500 के बीच हुआ करता था और रिफण्ड 200 के करीब आ जाता था। परन्तु जब से नई सरकार देश ने गैस के दाम कम करने का वादा तो बहुत किया था, पर आज गैस 800 से 900 के बीच मिलती है और रिफण्ड के नाम से 19 रुपये 50 पैसे वापस आते हैं । इसमें इनको कोई दोष भी तो नहीं दिया जा सकता। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में तेल/गैस के दाम अब तय होतें हैं अब जो पहले नहीं होता था। अब हम भी देश की सेवा कर रहें हैं।

अब जरा मुफ्त वैक्सीन की बात कर लें, फिर इस प्रकार की दोहरी प्रणाली तो कभी हमने नहीं देखी थी। खासकर जब देश एक बड़ी आपदा से जूझ रहा हो। इन सभी राजनेताओं की बात जितनी बड़ी-बड़ी लगती है दिल उतना ही छोटा और संकरा है। जिसमें हवा जाने के सारे रास्ते बंद हैं। इनको बस एक ही चीज दिखाई देती है, कैसे देश के नागरिकों को चुनाव के समय मुर्ख बनाया जाए। बस किसी भी प्रकार से जनता को साम-दाम-दंड-भेद से लूट लिया जाए। इन राजनीतिक दलों का बस एक ही उद्देश्य बचा रह गया है। रामप्रसादजी बीच-बीच में यह सब बातें सोचने लगते हैं।

---

भाभी ने चाय के साथ दो गरम-गरम पराठे और आम का आचार लाकर दिया। देखते ही सारी बातें भूलकर नाश्ता करने लगा था।

तभी सोनू अपनी ढेरों किताबें लेकर मेरे पास आ गई। बोलने लगी- ‘‘अंकल देखो !  मेरे पास कितनी किताबें हो गई।“

एक-एक कर के अपनी सभी किताबों का परिचय देने लगी। इसमें बहुत सारी अच्छी-अच्छी कहानी है, पढ़ कर सुनाऊं? उसकी बात से मुझे मेरी बेटी याद आने लगी । वह भी हिन्दी की कहानियां ऐसे ही पढ़कर सुनाती है ।  मैंने सोनू को हां कहा तो, उसने कहानी  पढ़कर सुनाना शुरू कर दिया ।

“एक जंगल में एक सियार रहता था, वह बहुत चालाक था। एक दिन उसे नील पहाड़ी पर नील रंगा देखने को मिला, वह उसमें लोट-पोटेकर देखा कि वह भी नील रंग का हो गया है। उसने जंगल में आकर सबको बताया कि भगवान ने उसे नील कर दिया और भगवान ने आदेश भी दिया है कि - ‘‘जाओ तुम आज से जंगल के राजा बन गए।“

 सब जानवर डर कर उसे अपना राजा मान लिए। एक दिन जोरों की आंधी-बरसात में उसका सारा नीला रंग पानी में बह गया। सबने देखा कि यह सियार तो झूठ बोल रहा था। भगवान ने नहीं इसने नील रंग से खुद को रंग कर खुद को भगवान का फरिश्ता बताने लगा था। सबने उसे घेर लिया और मार दिया। ’’

सानू की कहानी जैसे ही समाप्त हुई थी कि भाई सा’ब आ गए। भाभी की तरफ देखते हुए बोले मेरे लिए गर्म पानी कर दो नहाकर फिर जाना है फिर मेरे पास बैठ गए। उनका बदन पसीने से तर-बतर कर रहा था।  करोना के चलते आज कल प्रायः लोग गर्मपानी का व्यवहार करने लगे थे। बताने लगे करीम चाचा का बागान कटवा रहा हूँ, अचानक से चार गांव से लकड़ी की काफी डिमांड आने लगी।

पिछले साल ही करीम चाचा के जवान लड़के को गांव के कुछ हिन्दूवादी लोगों ने हिन्दू बच्चों को पढ़ाने के चलते उस पर झूठा आरोप लगा कर उसको सड़क पर मार दिया था। कोई बचाने भी नहीं आया। जब गांव में काफी तनाव हो गया तो करीम चाचा ने कहा, “मैंने अपना जवान बेटा खोया है - अल्लाह के लिए अब आप लोग मत लड़ो।“ तब जाकर मामला शांत हो गया, सरकार ने तो आज तक उन अपराधियों को पकड़ा तक नहीं, बोलते हैं कि ऊपर से आदेश है कि किसी को ना पकड़ा जाए।

---

गांव में दो बागान ही है जिसमें आम लगते हैं एक सरपंच जी का वे पार्टी के नेता भी हैं, उन्होंने तो साफ मना कर दिया कि वे लकड़ी नहीं काटने देगें। आम लगे हुए हैं। पर जैसे ही करीम चाचा के पास यह खबर पंहुची, वे बोले कि यह पेड़ किस काम के? आम की बात छोड़ो, आप पूरा बागान ही काट लो। पैसे की बात करते ही रोने लगे। अरे पगलों मेरे बच्चों की लाश को जालने के पैसे कैसे लूंगा? गांव के श्मशान घाट पर चारों तरफ से रोजाना 10-15 लाशें आ रही है। फिर भईया आगे कुछ बोलते, चुप हो गए।

फिर कान के पास धीरे से आकर बोले, सरकार की तरफ से सख़्त मनाही है कि गांव की खबर बाहार नहीं जानी चाहिए। पिछले चार दिनों अब तक 70 लाशें जल गई, कभी गांव में साल भर में चार-पांच लोग ही मरा करते थे। मुझे तो लगता है यह महामारी पूरे गांव को खा जायेगी। सरकार कान में तेल डाल कर सो चुकी है। बस एक ही आदेश दे रही है गांव की खबर बहार ना जाने दें। जिसने भी खबर बहार भेजी उसे .. फिर चुप हो गए। कल सरपंच जी ने सबको बुलाया है।

फिर बात बदलते हुए बोले तेरे लिए पांच बोरा गेहूँ अलग रखा है, चना और मकई भी है। जाते समय बस में लदवा दूंगा। फिर नाहने चले गए। तभी मां ने बीच में बोला तेरे लिए आचार भी डाल रखी हूँ और पांच किलो घी भी बना रखी हूं। वो भी ले साथ ले जाना, सत्तू तो तुमको बहुत पसंद है वो भी 2-3 किलो बांध दूंगी।

---

मैंने हां में सर हिलाया और फिर भईया के नहाकर आने का इंतजार करने लगा।

भईया से यह सब सुनकर मन व्याकूळ होने लगा था।

भईया स्नान-पूजा-पाठ कर के भोजन के लिए मेरे पास ही बैठ गए। मेरा हाल-समाचार पूछने लगे। मैंने बताया कि आजकल सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। सीमा ने कहा कि जाओ भईया जी से सलाह कर लो वही तुम्हारे गार्जन भी हैं। सो बहुत दिनों से यही सोच रहा था एक सप्ताह की छुट्टी मिली तो सोचा गांव भी घूम आता हूँ और आपसे सलाह मशविरा भी कर लुंगा।

तब तक भाभीजी ने भईया के लिए भोजन परोस दिया था, मेरे विषय में पूछने पर भाभी ने जबाब दिया बस अभी ही नाश्ता किये ही हैं। उन्होंने सूर्य भगवान को जल चढ़ाया, थाली से दो-तीन रोटी के ग्रास सब्जी के साथ लेकर पास रखी एक खाली कटोरी में रखा, फिर जल अर्पण कर के कुछ सेकेण्ड आंखों को बंद किये और भोजन करते-करते बीच-बीच में मेरे से बातें भी करने लगे। दिन के लगभग 10 बजने को थे, धूप भी तेज हो गई थी, साथ ही हल्की मंद-मंद ठंडी हवा का झौंका कुछ अलग ही आनंद दे रहा था, जैसे भगवान खुद आकर अपने हाथों से भईया जी को हवा दे रहें हों, उनके मन में कहीं किसी के प्रति बहुत बड़ा आक्रोश भी झलक रहा था तो, एक संतोष भी, कि गांव में आज भी करीम चाचा जैसे लोग रहते हैं जो इस संकट की घड़ी में भी गांव के साथ खड़े हैं।

बता रहे थे कि करीम चाचा बोल रहे थे- "आम के पेड़ तो फिर लग जाएगें, इस जमीन की भी जरूरत हो तो बेच दो", एक तरफ करीम चाचा तो दूसरी तरफ मुखिया जी जिसके पास पिछले दो-तीन चुनावों के बाद इनके पास अपार दौलत जमा हो गई पर अभी तक क्या काम की, जो गांव में संकट के काम ना आ सके? गांव के कुछ लोग उनके पास गए थे। मुखिया जी ने सबको भगा दिया, बोले खैरात नहीं बांट रहे। भागो सब करोना हो जाएगा मुझे।

---

चुनाव के समय यही मुखिया जी गांव-गांव में घूमकर प्रचार कर रहे थे सुना है कि इस बार बहुत नगद पैसा आया था इनके पास,  मंत्री जी की रैली करवाने के लिए। दो गाड़ी आई थी। गांव के लोग बता रहे थे कि इस बार सरकार ने पूरी ताकत झोंक रखी  है।  मंत्री जी ने इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया है। दो-तीन बार गांव में दंगे जैसे माहौल भी बनाया गया। कई गरीब हिन्दुओं के घरों को कुछ लोगों जला दिया, मुसलमानों को उकसाया गया ताकि वे कोई उग्र हरकतें करें, जिससे इनकी पार्टी को चुनाव में फायदा हो सके। सारा ध्यान इन लोगों का किसी भी प्रकार से मुसलमानों को भड़काने में लगा था। ताकी हिन्दुओं के वोटों का धूव्रीकरण आसानी से किया जा सके।

 

किसी न किसी बात में मुसलमानों के साथ कोई झगड़ा करना फिर जब वे लोग उग्र हो जाते तो, उसे सांप्रदायिक रूप देना इनके मुख्य एजेंडा बन चुका था, पता नहीं समाचार वालों को कैसे पहले से पता रहता कि आज अमूक गांव में मुसलमान उग्र हो कर सड़कों पर आयेगें। मुझे तो जरूर इस सबके पीछे कोई गहरी साजिश की बू नजर आती है। देश के मंत्री काफी सक्रिय नजर आते उन दिनों । जबकि आज मंत्री जी का कोई अता-पता ही नहीं इस गांव में।

---

खाते-खाते भईया एक बार अपने मुंह पर अंगुली रखते हुए कर बोले, तुम छाप मत देना ये सब बातें।

मैंने भईया को भरोसा दिलाया कि नहीं यह सब बातें अखबार वाले आजकल छापतें भी नहीं, इन दिनों उनके पास सरकारी विज्ञापनों के पैसे बहुत आते हैं सो समाचार छापने की जगह भी कम हो गई। फिर सरकारी न्यूज एजेंसी के समाचार उनको छापने की बाध्यता रहती है। रहा सहा संपादकीय पृष्ठ और खेल पृष्ठ, संपादकीय पृष्ठ पर अब तो वही लेख छापते हैं जो सरकार की तरफ से आते हैं। खेल पृष्ठ में खेल समाचार के बाद हमेशा जगह कम ही रहती है।  प्रथम पृष्ठ या अन्य पृष्ठों की बात, तो प्रथम पृष्ठ तो सरकार के भेंट चढ़ जाता है। अन्य पृष्ठों में पिछले एक माह से दो-तीन पेज तो मृतकों के विज्ञापनों से ही भर जाता है। स्थानीय समाचार भी बहुत सावधानी से छापा जाता है कहीं सरकार विज्ञापन बंद ना हो जाए इस बात को डर बना रहता है। संपादक जी ने हमें बार-बार हिदायत दे रखी  है, देश की बदनामी ना हो। विदेश वाले हमारे समाचारों का मजाक उड़ाते हें जिससे देश की भारी बदनामी होती है। सो जो भी हो हम मर जाएं पर समाचार नहीं छापना है। मंत्री जी की छवि को कोई आंच नहीं आनी चाहिए।

 

परन्तु देश की कुछ उच्च अदालतें अभी भी वादा खिलाफी कर रही है उनके कथनों को तो छापना ही पड़ता है। ताकत तो है ही, इतनी बड़ी आपदा को चुप रह कर, भीतर ही भीतर बड़ी सावधानी से नियंत्रण कर रहें हैं एक-एक दिन में देश भर में हजारों लोग मारे जा रहें हैं पर किसकी क्या मजाल जो छाप दे। किसी भी समाचार को कैसे दबाना होता है, इनको बखूबी आता है। बस एक साथ विपक्ष पर चारों तरफ से हमला कर देते हैं। विपक्ष उस हमले से खुद को बचाता है तब तक उनकी बात ही भूल जातें हैं लोग। हमलोगों ने पत्रकारिता के कई गूढ़ सीखें, पर  मंत्री जी के गूढ़ को अभी भी सीखना बाकी है।

विपक्षी पार्टियां इस खेल को अच्छे से समझ चुकी थी। मंत्री जी एक-एक सीट पर दाव चले जा रहे थे। पूरे प्रदेश में सरकारी गुप्तचरों को फैला दिया गया था और मीडिया में छोटी से छोटी आपसी झड़प को दंगे का रूप दे कर बढ़ा-चढा कर दिखाने का आदेश दिया जाने लगा।। कभी प्रेस मीडिया की आचार संहिता पर जोर देकर ऐसी सूचनाओं को दबा दिया जाता है तो आज मामला बिल्कुल ही विपरीत था। झूठे समाचारों को खुलकर हिन्दू-मुसलमान कर के दिखाना एक बाध्यता बन चुकी थी।

इन दिनों पता नहीं कब किस खबर से सरकार विदक जाए। जब जिसकी सरकार होती है समाचार पत्रों और मीडिया हाउसों को उनके कहे अनुसार ही चलना होता है, कभी कुछ कम या कुछ वैसी। इन दिनों इन पर नियंत्रण ही सरकार का है। कब किस समाचार पर घोड़ा विदक जाए, बहुत सावधानी रखनी होती है। हमें।

---

भैया खाना खाकर आराम कर ही रहे थे कि सोनू फिर मेरे पास आई बोलने लगी अंकल जी अंकल जी एक कविता सुनाऊँ?

मैंने उसका मन रखने के लिए हां किया तो

भैया हंसते हुए बोले हां!.. हां .. सुनाओ अंकल को ही, मेरे को तो भूल ही गई । सोनू ने हंसते हुए कहा ओ.के. पाप आपको भी सुनाती हूँ और वह दोनों के बीच ही खड़ी हो कर यह कविता सुनाने लगी।

आम की टोकड़ी

छह साल की छोकरी.

भरकर लाई टोकरी।

टोकरी में आम हैं,

नहीं बताती दाम है।

दिखा-दिखाकर टोकरी,

हमें बुलाती छोकरी।

हमको देती आम है,

नहीं बुलाती नाम है।

नाम नहीं अब पूछना,

हमें आम है चूसना। #NCERT Class 1

कुछ देर चुप ही रहा फिर सोनू ने सवाल किया कैसी है मेरी कविता? आपको पसंद आई?

मैंने उसे शाबासी देते हुए कहा बहुत सुन्दर है, तुमको पूरा याद हो गया है? बोली हां मुझे पूरा याद हो गया है। तभी भाभी जी ने सोनू को पास बुला लिया, बोली अंकल को, पापा से बात करने दो। सोनू मुझे बोलते हुए चली गई रात को आपको एक कहानी सुनाऊँगी।  मन ही मन सोचने लगा। यह तो समझ में आ गया था कि सोनू के साथ मेरा समय अच्छा निकल जायेगा, उसकी प्यार-प्यारी बातों से मन भी बहल जाएगा, उसका मन भी लग जाएगा। मैने पहली बार सोनू से बात कर यह अहसास किया कि बिटू से भी मुझे ऐसे ही बातें करनी चाहिये थी वो तो बेचारी घर में अकेली ही है। यहां गांव में तो बच्चों को आस-पास खेलने भी मिल जाता है, शहर में तो हम लोग बच्चों को एक पल भी अलग नहीं छोड़ते।

भाई साब थोड़ा सरक के मेरे पास बैठ गए, इसी काठ की चौकी पर पिता जी हमेशा गांव की पंचायत लगाया करते थे, कोई न कोई बापू जी के पास अपनी समस्या लेकर आ ही जाता था, किसी के भाई-भाई का झगड़ा, तो किसी के बहु-बेटी का, तो कभी जमीन को लेकर, तो कभी पानी को लेकर, समस्या कुछ भी हो बापू जी उसका हल निकाल ही देते। बस एक बात पर बापू जी हमेशा जोर देते जैसी बेटी, बहु भी वैसी ही। "बेटी को अच्छे संस्कार दो, बहु भी संस्कारी ही मिलेगी" इसी चौकी के ठीक ऊपर बाबू जी की एक पुरानी तस्वीर भी लगी थी जिसमें भैया जी और मेरे को तब हम दोनों  पांच साल के हुए होगें, अपनी गोदी पर बैठा कर हंस रहे थे।

कितनी प्यारी तस्वीर है। भैया ने मुझे देखते हुए कहा तुम कितने प्यारे लगते हो ... इस तस्वीर में । गांव की सारी बातें याद आने लगी थी मुझे।

फिर भैया ने मेरे से पूछा, आजकल तुम कुछ परेशान से लग रहे हो, बताओ, क्या कोई बात है क्या? पैसे की जरूरत हो तो बताना मेरे पास बैंक में एक लाख रुपये तेरे लिए ही रखें हैं तेरी बेटी की शादी के लिए। पिछले ही साल सरकार ने पहली बार फसल की सही कीमत दी थी, इसके पहले तो फसल के लिए दलालों की भीड़ लग जाती थी। सरकार काम तो कर रही है पर दलालों का जमावड़ा सरकार के चारों तरफ भरा रहता है जो किसानों को हमेशा से  शोषण करता आया है।

अभी तो बेटी बड़ी भी नहीं हुई है तुम चाहो तो ये पैसे ले जा सकते हो। यदि कोई काम हो तो। भैया का हाथ मेरे सर पर ऐसे रखा था मानो पिता जी ने हाथ रख रखा हो सर पर।

भाई जी की एक-एक बात मुझे हिम्मत बंधा रही थी। मैंने दबे हुए स्वर में कहा, पैसे की जरूरत नहीं, पर मैं इस काम से परेशान हो चुका हूँ। कल तक जिन संपादकों के साथ काम किया था, उनमें अब काफी परिवर्तन आ गया है। अब वहीं संपादकों का दबाब दूसरी तरह का है। पहले सरकार के खिलाफ लिखने के लिए उकसाया जाता था, अब सरकार के समर्थन में लिखने पर। ना लिखने पर बार-बार हटा देने की धमकी मिलती है। पता नहीं कितने दिनों की नौकरी रहेगी। बस यही सोच के थोड़ा घबड़ा जाता हूँ। खर्च रोज बढ़ते जा रहा हैं। नौकरी पांच साल में एक बार ही बढ़ी, वह भी सिर्फ एक हजार रुपये ही महीना का। जबकि पिछले पांच-छह सालों में सब चीज के दाम दोगुने हो गए। मकान मालिक भी हर साल भाड़ा बढ़ा देता है। नहीं तो कमरा खाली कर दो। अब इस शहर में बाल-बच्चों को लेकर कैसे रह पाऊंगा यही सोच कर परेशान हूँ।

भाई जी ने फिर एक सवाल किया। तुम तो बता रहे थे कि तुम्हारे समाचार से सब बहुत खुश रहते हैं, अचानक से क्या हो गया इन संपादकों को? तुम मालिकों से बात क्यों नहीं करते?

---

अभी कुछ बात हो ही रही थी कि गांव के दो लोग दौड़े-दाड़े आये, एक ही सांस में बोलने लगे - ‘‘गज़ब हो गईल-गज़ब हो गईल” भैया ने दोनों को शांत होकर से एक-एक कर बोलने को कहा।

तभी एक ने कहना शुरू किया रात को हमने दस आस्तियां सर्जाइ थी, करीम चाचा के यहां से रात को ही दो ट्रेक्टर लकड़ी आ गई थी, बोल कर गया था कि दो ट्रेक्टर लकड़ी तैयार है दस बजे तक गिरा देगा। तभी एक की बात को दूसरे ने पूरी करते हुए बोलने लगा... पौ फटते ही एक साथ दस-बारह लाशें एक साथ घाट पर आ गई, हम लोग उन लाशों को दाग लगा ही रहे थे कि कल्लू धोबी की लाश भी आ गई, हमारे पास अभी कुछ लकड़ियों बची थी, सो बाकी की तीनों लाशों को दाग लगाने ही वाले थे कि तभी ठाकुर जी के परिवार के किसी व्यक्ति की लाश भी घाट पर आ गई।

भईया ने पूछा तो क्या हुआ अब "अरे बोलते क्यों नहीं?"

बाबा कैसे बोलें- "एक ने कहा"

तभी दूसरे ने कहा- ‘‘सब कुछ तो बर्बाद हो गया अब।“

जैसे ही मुखिया जी को पता लगा कि इस घाट पर पिछड़ी जाति के लोगों को भी एक साथ जलाया जा रहा है, थाने से पहरा बैठा दिये। अब लाश की जाति पूछ कर ही लाश को घाट के अंदर आने दे रहें हैं।  कल्लू धोबी की परिजन, कल्लू की लाश को उठाकर ले गए। पता चला कि वे लोग नदी के पास ही बालू में लाश को गाड़ कर चले गये। अब तक गंगा के चारों तरफ लोग लाशों  को गाड़ कर चले जा रहें हैं। कुछ तो गंगा में लाशों को बहा भी दे रहें हैं। घाट पर भी लाशें भर चुकी है। ठाकूरजी के परिवार की अब तक तीन लाशें सुबह से आ गई है।

पूरा गांव जाति में बंट चुका था आग की तरह आस-पास के गांवों से भी ऐसे ही समाचार आने लगे थे। अस्पताल से लेकर श्मशान घाट तक लोगों के जलाने की व्यवस्था अलग होने लगी। इस  जात-पात ने सबसे ज्यादा नुकसान गरीबों का कर दिया, जो पिछड़ी जाति के हैं, अब ना तो उनको जीने के लिए हवा मिल रही थी ना ही  मरने के लिए जगह। कौन किस से बात करे। जो ताकतवर थे वे तो जज बन गए, जो कमजोर थे वे सब के सब मुजरिम। लेटिन में एक कहावत "ALIUD EST DISTINCTIO, ALIUD SEPARATIO" बहुत प्रचलित है। “कोई चीज अलग दिखती है यह अलग बात है पर उसको अलग कर देना , अलग बात है।“

अलग करना, अलग होना दोनों समाज के बीच एक खाई तो पैदा करती हे। जो लोग सत्ता में हिन्दुत्व के नाम से आये आज वही लोग जब खुद पर जान की बन आई, तो सारे धर्म-कर्म भूल कर अपनी-अपनी जाति को बचाने में लग गए। किसको अस्पताल में जगह मिलेगी, किसको बेड, किसको रूम मिलेगा, किसको जमीन, किसको ऑक्सीजन मिलेगी, किसको नहीं, किसको लकड़ियों से जलाया जाएगा, किसको नहीं, किसको दफनाने की जगह भी नहीं मिलेगी, किसको गंगा में बहाने की। यह अब सरकार के वे लोग तय करेंगें, जो सत्ता में या जिनके पास सत्ता की कुंजी है । हिन्दुत्व खतरे में है,  चुनाव जीतते ही सब भूल गए। आज देश के कुछ राज्यों से ऐसी खबरें आ रही है जो समाज में  जातीय दरार तो पैदा कर रही है, साथ ही आर्थिक बदहाली/ तंगी के अभाव में भी लोग अपने परिजनों को जलाने की जगह दफनाने लगे हैं। मानो एक झटके में ही, हिन्दुत्ववाद का झोला लेकर चलने वाले पंडितों की बखिया ही उधेड़ कर रख दी हो। इसके दूरगामी परिणाम तो होगें ही।

---

मास्टरजी बता रहें थे कि यही हाल अब वैक्सीन का भी हो चुका है। जो संपन्न लोग है वे पैसों से खरीद कर अपनी जान बचा लेगें, बाकी जो गरीब लोग है वे लाइन में खड़े होने की बात तो बहुत दूर की, उनको पता ही नहीं कि यह जो लाइन, अस्पतालों के बाहर लगी हुई है कैसे लग गई?  जब पूरा देश टीका उत्सव मना रहा है। गरीबों को पता ही नहीं यह उत्सव कैसे मनाया जाएगा। यह तमाशा कब तक चलेगा पता नहीं?

भारत सरकार की त्रिस्तरीय मूल्य प्रणाली, किसी ने किसी रूप से लोगों की जान से अधिक व्यापार के हित की सुरक्षा करती देखी जा रही है। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं जो इस प्रकार की त्रि-स्तरीय वितरण प्रणाली लागू की हो, त्रि-स्तरीय मूल्य प्रणाली को भी प्रोत्साहन देता हो। यह सरकार का, जनता से किये वादे के साथ वादाखिलाफी ही नहीं धोखा है। जब मंत्री जी यह कहतें हैं कि देश के प्रत्येक नागरिकों को सरकार मुफ्त वैक्सीन देगी। तो मूल्य चुकाने की बात कहां से आ गई? यदि भारत के एक नागरिक को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है तो यह वादाखिलाफी है। सरकार बोलती कुछ है करती कुछ है।

---

भैया भोजन कर चुके थे, उन लोगों को पास बुला कर धीरे से उनको कुछ बोले, वे दोनों लोग वापस चले गए। साथ-साथ ही भैया जी भी अपनी कंठी-कुरता बदन में डाले और साइकिल के पास जाते-जाते भाभी को बोलते गए –

‘‘रामा को पीछे वाला कमरा दिखना अभी पिछले साल ही बनाया इसके लिए”

रामप्रसाद जी मन ही मन सोचने लगे गांव में इतना कुछ हो गया, मुझे गांव आये भी तो एक साल से ऊपर हो गया था, नोट-बंदी के समय परिवार को लेकर आया था उसके बाद तो बस एक बार ही लाकडाउन से पहले ही अकेले आया था। पिछले दो सालों से छठ पूजा में भी गांव नहीं आ सका था।  इस बार चुनाव के समय संपादक ने मुझे राज्यपाल की #‘बीट लेने में लगा दी थी, सो उनके कार्यक्रम के साथ ही मुझे चलना पड़ता था।

#बीट- एक जगह के ही समाचारों को कार्यालय में भेजना, जैसे खेल समाचार, क्राईम समाचार, विधान सभा या लोकसभा के समाचार, मौसम समाचार आदि।

मन तो यही था कि चुनाव के वक्त गांव में आता, पर इन दिनों देखने में आया कि कई राज्यों के राज्यपाल पूरी तरह से राजनीति करने में व्यस्त नजर आते हैं, कहने को तो राज्यपाल या उप-राज्यपाल का पद संवैधानिक पद है। इनका कार्य राज्य की संविधान अनुकूल, विधान सभा के सत्र को प्रारम्भ कराना,  मंत्री व अन्य मंत्रियों को पद की गोपनीयता की शपथ दिलाना, व राज्य में संवैधानिक संकट होने पर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन करना होता है, राजनीतिक दख़लअंदाज़ी नई बात नहीं है। कांग्रेस के जमाने में भी ऐसा होता था, पर उस समय राज्य में संवैधानिक संकट पैदा होने पर या हो जाने पर, राज्यपाल अपनी मनमानी करते थे, जैसा #एस.आर. मुम्बई केश में हुआ था।

#एस.आर. बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1994 AIR 1918 SC: (1994) SCC1 3) के ऐतिहासिक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 356 और इससे जुड़े विभिन्न प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा की थी। अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को इस फैसले के द्वारा रोक दिया गया। इस मामले के कारण केन्द्र-राज्य संबंधों पर भारी प्रभाव पड़ा।

इन दिनों राज्यपाल की भूमिका राज्य में अपनी पार्टी के एजेंडों को सेट करने में व अन्य विचारधारा को पनपने से रोकना भी हो गया, जो किसी न किसी रूप से मार्कवादी विचारधारा का ही सांप्रदायिक स्वरूप कहा जा सकता है। चीन में ऐसी ही व्यवस्था है जिसमें विरोधी विचारधारा को मौत के घाट उतार दिया जाता है।

सो संपादक जी ने मुझे राजभवन में ही लगा दिया था। दिन भर गाछ के नीचे बैठकर समय निकालते रहते थे, कई पत्रकार वहीं डेरा जमा रखे थे, मैं भी उनके साथ ही रहता, दो-तीन पत्रकारों का समूह बन गया था हमारा, एक फोटोग्राफर पत्रकार भी हमारे साथ हो लिये। हम जैसे ही राज्यपाल कुछ बोलते या कहीं जाते हम कुत्तों की तरह उनके मुंह से निकलने वाली राजनीतिक बातों को चाट लेते। हमारा काम बस इतना ही था कि राजभवन से जितनी गंदगी निकले उसे शहर में फैला दो।

देश में आये दिन झूठ बोल कर चुनावों में जनता को लुभाने का खेल हमने बहुत बार देखा है। प्याज के दाम से लेकर मंगलसूत्र पर चुनाव हुए हैं देश में। पिछली बार ही मंत्री की सरकार पहली बार जब सत्ता में आई थी, तो कालाधन देश में बहुत बड़ा मुद्दा था, काकाजी जी का आंदोलन समाप्त ही हुआ था,  मंत्री को बनी-बनाई जमीन काकाजी जी ने दे दी थी, फसल लगाने भर की देरी थी, जनता बारिश की तरह उमड़ रही थी।

गांव में तो कुछ भी नेहरु जी ने नहीं किया सिवा ‘नहर’ बनाने के।  जब गांव-गांव से लोगों की लाशों का ढेर के ढेर निकल रहे थे। क्या बूढ़ा हो या जवान, स्त्री हो या पुरुष, कोई तो नहीं बचा था अब। क्या हिन्दू हो या मुसलमान, सबकी लाशों को जमीन में दफ़नाया जा रहा था, आकाश से मीडिया के गिद्ध इन लाशों को नोच रहे थे। पूरा देश लहूलुहान हो चुका था, लोग तड़प-तड़प कर मर रहें थे, देश की चिकित्सक यह सब देखकर रोने लगे वे लोग चाह कर भी किसी की जान नहीं बचा पा रहे थे।

---

तभी माँ एक टोकरी में बहुत सारा गोबर ले कर आ गई और तुलसी के पेड़ के बगल में खाली जगह पर बिचाली/पुआल की भूसी से मिला-मिलाकर गोइँठा बनाते हुए मुझसे बातें करने लगी। बोली, तेरे भाई ने दो गाय पाल ली है, सो मेरा तो पूरा समय ही उनकी सेवा में निकल जाता है, सुबह-सुबह उनकी साफ-सफाई, फिर दूध निकाल के नहाने जाती हूँ, नहाने के बाद पूजा-पाठ में ही मेरा एक घंटा लग जाता है, तेरा कन्हैया बहुत नटखट हो गया है मुझे छोड़ता ही नहीं, जब तक उसको नहेला-धुला नहीं देती, कपड़े बदलने के बाद उसको तुरंत भूख लग जाती है, बहू को बोल रखी हूँ, सो पहले भगवान के लिए प्रसाद निकाल के मुझे दे जाती है। लड्डू गोपाल को भोजन करा कर, मैं प्रसाद लेती हूँ  ही कि उधर से गाय रंभाने लगती। उन दोनों को चारा देकर आती हूँ तब, बस थोड़ी देर आराम कर लेती हूँ। मां अपनी साड़ी का पलु संभालते हुए दोनों हाथ गोबर से सने, बस बोले ही जा रही थी।

माँ की उम्र अभी 75 की तो हो ही गई होगी, बाबू जी की शादी, के समय मां उनसे सात साल छोटी थी, मां बताती है कि सब उसका मजाक उड़ाते थे कितनी छोटी लगती है, बहू? तब गांव में लड़कियों की शादी बहुत कम उम्र में ही हो जाती थी, बाबू जी तब 22-23 साल के ही हुए थे।

भाभी जी ने पास आकर धीरे से कहा- ‘‘चलिये पीछे वाला कमरा दिखा लाती हूँ”

अभी तो उसमें चौका बना रखी हूँ, उनका तो मन है अबकी फसल से एक कमरा और बना लेगें, जिसे हमलोग चौका बना लेगें और यह कमरा आपके लिए सजा देगें। आप जब भी आयेगें, बस आप उसमें ही ठहरगें। कमरा अंदर से बड़ा था, दो खिड़कियां बनी हुई थी, इतना बड़ा कमरा देख कर मन हुआ क्यों न आज ही गांव में घर बसा लूँ, पर बिटू की स्कूल, मेरी नौकरी ने मेरे पांव को जंजीरों से बांध रखें थे। शहर से गांव वापस आना मानो किसी दूसरे देश से युद्ध करना है।

कमरे के एक तरफ पुराने बर्तन, बड़े-बड़े तांबे के ग्लास, मिट्टी का दो मुहां चूल्हा, ढेर सारी लकडियां, गोबर-मिट्टी का लेप करने की हंड़ी, उसके पास ही रखा था, पानी का घड़ा, सामान रखने की अलमीरा, जिसमें राशन का सामान भरा था। माथे पर लटकती एक लालटेन जो रात को जलाने के काम आती थी, किरासन तेल की एक #ढ़ीबरी, जो चूल्हे के ठीक ऊपर बने #आले में रखा था। बिजली ना के बराबर ही गांव में आती थी, रात को जब सब सो जाते तो भले जल जाए, दिनभर तो भगवान ही मालिक, कि कब आती, कब जाती किसी को पता ही नहीं चलता।

गैस का खाली सिलेंडर और उसके पास ही गैस का चूल्हा, जिसके ऊपर आटे की टीना रखी थी। भाभी बोलती जा रही थी, गैस एक बार तो आई, पर मां को गैस की रोटी से बदबू आती है तब से उन्होंने गैस मंगाना ही बंद कर दिया, फिर गैस लाने के लिए इनको साइकिल से 20 किलोमीटर दूसरे गांव में जाना भी पड़ता, यहां तो गैस मिलती नहीं। सो इनको मैं ही नहीं जाने देती। मैं भी मां का बहाना ले लेती हूँ। वैसे भी आजकल गैस का इतना दाम लगता है कि इनकी तो हिम्मत भी नहीं होती कि गैस दोबारा लाने की, मां की बात तो बस एक बहाना मिल गया इनको.., हंसते हुए आराम कितना है यह नहीं देखते, फिर थोड़ा रूक कर, सीमा तो गैस में ही खाना बनाती होगी?  बात-बात में मेरे से एक सवाल कर दिया।

#ढ़ीबरी- खाली दवा की किसी शीशी के ढक्कन में ऊपर से छोटा छेद कर, कपडे की लंबी डोरी बनाकर डाल देतें हैं और किरासन तेल से जलाया जाता है। इसमें धुवां तो बहुत होता है, पर रोशनी भी बहुत होती है।

#आले या आला- दीवार में बना मोखा

भाभी की बातों में खो चुका था, अचानक से सीमा की बात आने से फिर सीमा की याद आने लगी, भाभी की बात का उत्तर देते हुए- ‘हां वहां तो लकड़ी या कोयला का चुल्हा तो हम जला ही नहीं सकते, आस-पास के लोग शिकायत कर देगें कि पोल्लुशण होता है। भाभी चौंकते हुए मेरी तरफ देखते हुए ये ‘पोलोसन उसने शब्दों को पकड़ने की चेष्टा करते हुए इसका अर्थ जानना चाहा मेरे से। मैं समझ गया कि कि भाभी को यह सब नहीं पता- मैंने समझाया कि शहर में धुवाँ होने से लोग उसे ‘पोल्लुशण ’ कहते हैं। भाभी ने पूछा यह कैसा नियम हम तो इसी धुवाँ में रोटी बनाते-बनाते बड़ी हो गई कभी लगा ही नहीं कि कोई परेशानी होती हो। हां, कभी-कभी आम की कच्ची लकडियां जब जलाती हूँ तो धुवाँ होने से आंखों से पानी निकलता है तो, मां कहती, इससे आंख साफ हो जाती है।

मन ही मन हिसाब लगाने लगा तो देखा कि बस किरासन तेल और नमक ही बाजार से लाना होता है बाकी सब घर में है। सरसों तेल, घी, आटा, चावल, दाल, सब्जी, फल, सत्तू, बेसन, दूध-दही, मसाला, लकड़ी, क्या कुछ नहीं है घर में अपना, कोई तो खर्च अलग से नहीं। सरकार थोड़ी सी सुविधा और दे, दे गांव में तो कोई गांव छोड़ कर शहर जाएगा ही नहीं।

भाभी ने मुझे गाय देखने को कहती हुई खटाल की तरफ ले जाने लगी। कमरे से बहार आते-आते,भाभी ने केले के 5-6 पेड़ भी दिखाये, बोली साल भर इससे घर में केले की कोई कमी नहीं रहती, आपकी बेटी तो बस केला खा कर पेट भर लेती है, हंसते हुए फिर बोली, छठ पूजा में तो केले के 4-5 थान इसी से मिल जाते हैं, पास ही पेपे (पपीता) के दो गाछ लग हुए थे, उसमें बहुत सारे पपीता कुछ छोटे-कुछ बड़े, लटके हुए थे, थोड़ी ही दूरी में हरे मिर्च-धनिया की क्यारी भी लगी हुई थी। खटाल के ऊपर कद्दू की लतड़, कठहल का पेड़, एक-एक चीज का विस्तार से वर्णन करते हुए मुझे गाय के खटाल के पास ले आई। मैं मन ही मन सोच रहा था, कितना कुछ है गांव में फिर भी हमें गांव क्यों प्यारा नहीं लगता? बचपन तो मैंने इसी घर में गुजारा था, मेरा घर इतना बड़ा है देखा ही नहीं कभी, चंद साल शहर में रहने के बाद भी कभी गांव का ख्याल नहीं आया मुझे, आज अचानक से यह सब देख कर ऐसा क्यों लग रहा है कि हम गांव को क्यों खो दिये? खुद से सवाल कर ही रहा था, कि भाभी ने मेरे ध्यान को फिर अपनी तरफ खींचते हुई अपनी बात पर थोड़ा जोर देते हुए बोली- " यह भूरी वाली गाय तो मेरे पापा ने दी थी" , फिर आपके भाई ने कहा कि एक गाय और ले आता हूँ, तो दो गाय रहने से इनका भी मन लगा रहेगा और घर में दूध-दही, घी, माखन की भी कोई कमी नहीं रहेगी। चारा तो खेत से आ ही जायेगा, बस थोड़ी खिल्ली (सरसों के तेल निकलने के बाद का सुखा चारा) बजार से खरीद लगें, बाकी खेत से ही सब आ जाएगा। अब तो घर में गोइँठा की भी कोई कमी नहीं रहती, गोबर से पूरा घर भी लेप लेती हूँ, भाभी की एक-एक बात में मुझे ऐसा लग रहा था कि मानो हम स्वर्ग को छोड़ कर नरक का जीवन जीने लगे।

भाभी ने दोनों गायों के पीठ को सहलाते हुए उन्हें प्यार करने लगी, गाय के लिए मैं नया था फिर भी मुझे कैसे पहचान ली? एक तो मेरा हाथ सूंघने ही लगी तो, वहीं दूसरी गाय मेरे को देखने लगी थी। भाभी हंसते हुए बोलने लगी, गाय ने आपको कैसे पहचान लिया कि आप उनके ही भाई हो? देखिये कैसे आपको देख रही है। फिर भाभी जी ने पास से थोड़ा चारा दोनों गायें को देते हुए बोलने लगी, बस अब इनको बहार कुछ देर छोड़ आती हूँ, घंटा, दो घंटा दोनों साथ-साथ गांव में धुमेगी, फिर चार बजते-बजते घर वापस आ जाएगी। मैं गाय की इस कला को आज तक नहीं समझ पाया ये कैसे तो घर का रास्ता खोज लेती है, भले ही इनको कितनी ही दूर आप छोड़ आओ, खुद-व-खुद घर वापस चली आती है। पूरा गांव घूम लेगी और शाम ढलते ही अपने घर वापस आ जाती है।

---

एक हम प्राणी हैं, जो अपने घर की सुध/एहसास ही खो चुके, गांव कैसा दिखता यह भी भूल जाते हैं। चंद ही दिनों में शहर इतना प्यारा लगने लगता है हमें, कि गांव की बात सोचते ही बदन में सिहरन होने लगती है। पर आज मुझे कुछ विपरीत सा ही एहसास हो रहा था, इसका क्या कारण है यह समझ नहीं पा रहा था, शायद इतने दिनों से शहर में रहकर ऊब सा गया हूँ या फिर नौकरी की लटकती तलवार ने मुझे यह सब सोचने को मजबूर कर दिया था।

आज मुझे पता नहीं क्यों ऐसा बार-बार एहसास हो रहा था कि शहर एक दल दल है जिसमें आप जितना भी ज्यादा जोर लगाओगे, इस दल दल में उतना ही ज्यादा धंसते चले जाना है। शहर ने मानो गांव की ख़ूबसूरती को लील लिया हो। गांव की संपन्नता को मानों शहर ने अपने खूनी पंजों से कैद कर लिया हो। काम का अभाव, खेती बाड़ी में लगातार घाटा होना, वहीं शहर में काम की सुलभता, रोजगार, पैसे का फ्लो, माल की बिक्री, बाजार, खरीदारों का जमावाड़ा, व्यापार, सरकार, प्रशासन, बिजली, पानी, शौचालाय, पाठशालाएं, अस्पतालों, बड़े-बड़े रास्ते, रेल यातायात, बसों की सुविधा, गाड़ियां, बैंकें, क्या कुछ नहीं है शहर में, बस एक चीज नहीं है वह है समय, किसी के पास समय नहीं है। सब भाग-दौड़ की जिंदगी बसर कर रहें हैं। किसी के पास दो पल का भी समय नहीं है।

तभी फिर भाभी जी ने मेरा ध्यान खींचते हुए कहा कि देवर जी!

आप स्नान कब करेगें, दिन के बारह तो बजने को आ रहें हैं? मुसकारती हुई बोली, मैं आपका पानी लगा देती हूँ, आप स्नान कर लीजिए। भाभीजी के बोलने की इस अदा का मैं कायल हो गया, 'हां' में सर हिलाते हुए कहा - ‘जी लगा दीजिएआज बात करते-करते बहुत देर हो गई।

तभी मां पास आते हुए बोली - बहू जरा टाँट पर रखी पुआल के चार-पांच बंडल बढ़ा देना, बैठी-बैठी काट दूंगी। हम दोनों ने पुवाल के कुछ बंडल खटाल के अंदर बने टाँट से उतारे और मां की तरफ रख दिए। मां हँसिया को धार करने लगी थी।, पुवाल को काटने के लिए।

भाभी ने मां को पुआल दे कर मेरे लिए नहाने का पानी रखने चली गई, कुछ देर बाद मैं भी अपना कपड़ा लेकर नहानघर की तरफ गया तो भाभी ने कहा आपका पानी रख दी हूँ। मैंने देखा की एक बाल्टी में गर्म पानी था और दूसरी में ठंडा पानी। नहाने के बाद, मैंने भी सूर्य देवता को अर्क दिया, शहर में यह सब तो भूल ही चुका था, आज भैया जी को देखा तो सोचा कि अब से पूजा कर सकूं तो बहुत अच्छा, कम से कम सूर्य भगवान को जल तो जरूर अर्पित करूंगा। यह सोचकर आज मैंने भी यह नियम कर लिया। माँ ने दूर से ही बिचाली को बोरे में भरते हुए मेरे से पूछी, भोजन लगवां दूं? मैंने भी उत्सुकता से पूछा - ‘‘बन गया?’’  मां नू बहू को आवाज दी, मालाआा... चावल बन गए तो रामा को भोजन लगा देना।

भाभी ने अंदर से ही आवाज दी बस पांच मीन्ट में लाती हूँ, भाभी ने एक तरफ कुकर में दाल, आलू पकने चढ़ा दिया थे, दूसरी तरफ चावल पकाने लगी थी, कुकर की तीन सीटी की आवाज सुनते ही मुझे जोरों की भूख लगने लगी।

पके हुए चावल से भाप निकल ही रहे थे भाभी ने थाली में चावल, दाल, आलू को चोखा, हरी मिर्च, नमक, अचार और एक तला हुआ पापड़ ला कर मेरे सामने चौकी पर रख दी, फिर पानी का एक ग्लास साथ में एक खाली कटोरी भी ले कर आई।  खाली कटोरी देखते ही, मैंने भी सुबह भईया जी की तरह दो ग्रास भोजन के कटोरी में निकाल कर पानी हाथ में लेकर भोजन को जल अर्पित किया और जैसे ही भोजन करने लगा तो मुझे लगा कि भोजन, भगवान का प्रसाद बन चुका था, उसमें एक अलग प्रकार की खुशबू आने लगी, स्वादिष्ट भी हो चुका था। आज पहली बार ऐसा लगा कि भोजन का दो ग्रास निकाल के अलग कर देने से मन में अजीब की शांति महसूस हो रही है। ऐसा लग रहा था भोजन के एक-एक कण को मेरे शरीर ने स्वीकार कर लिया  है। आज पहली बार लगा कि मेरे शरीर में लाखों जीव, भोजन को स्वीकार कर रहें हैं। मन में शांति तो मिल ही रही थी, यह सब सोच ही रहा था कि, भाभी दही लेकर आई। दही देख मन और प्रफुल्लित हो गया।

---

भोजन करते ही मुझे झपकी आने लगी, मंद-मंद हवा के झोंके से नींद लग गई, शाम के चार कब बज गए, कुछ पता नहीं लगा। नींद खुलते ही देखा मेरे पास पानी का ग्लास पहले से ही ढक कर रख हुआ था। उठ कर पानी पीने लगा। माँ जगी हुई थी, चावल धूप में सुखा रही थी। पश्चिम से धूप पूरी तरह से घर के चारों तरफ फैला हुआ था। भाभी अपने कमरे में आराम कर रही थी शायद, माँ ने आवाज दी, भाभी ने अंदर से ही जबाब दिया- ‘आती हूँ, फिर आकर मेरे से पूछी - ‘‘चाय बना दूँ’’ मैंने हां में उत्तर दिया तो वह सुनकर चली गई। कुछ देर बाद ही भाभी चाय बनाकर ले आई और एक ग्लास में माँ को,  दूसरे में मुझे देकर अपने भी साथ में पीने पास ही जमीन पर बैठ गई, और हम आपस में बातें करने लगे। भईयाजी का फोन आया था, भाभी ने बताया कि कुछ लोग गांव के मुखिया से मिलने गए हैं।

गाय के रंभाने की आवाज आते ही माँ उठ कर पीछे गाय को देखने चली गई।

भाभी चाय के जूठे बर्तनों को उठाते हुए, रात को क्या बना दें पूछने लगी,

मैंने कहा कि जो भी बना लो, सब खा लेता हूँ। भाभी ने लौकी की सब्जी और दाल, रोटी बताया। मुझे कोई इतराज नहीं था। हां ! लौकी की बात करते ही मैंने बस वाली बात भाभी जी को बताई तो हंसने लगी, आप भी न, कोई तो मीठा-सीठा लाते हैं एक देवर जी हैं मेरे कद्दू ही खरीदने लगे। हंसते-हंसते उसने व्यंग्य किया, मिठाई तो मिली नहीं, भाभी की याद आती तो जरूर ले लिए होते, रास्ते में सोनू ही याद आई वह भी कद्दू के लिए। मैं अपनी बेवकूफी पर पश्चता रहा था। अब बोल कर, साथ ही भाभी के ताने सुनकर अलग ही आनन्द आ रहा था। कोई अपना होता है, जो कुछ बोलता है गलती तो थी ही मेरी, सीमा ने बोला भी था कि रास्ते से कुछ खरीद लीजिएगा, कितने दिन बाद जा रहें हैं गांव, पर बस मैं बैठ गया तब याद आया कि कुछ ले लेता।

शाम ढलते ही मास्टर जी दरवाजे पर आ गए, आवाज दी, ‘रामा तैयार हो तो चलो कुछ दिखा लाता हूँ, भाभी ने सुना तो मुझे बताने आई कि आपको कोई खोजने आया है। मैंने बताया कि ‘हां वे हमारे स्कूल के मास्टर जी हैं कुछ जरूरी काम से मिलने आये हैं मैं थोड़ी देर उनके साथ जाकर आता हूँ, भाभी ने कहा आप अच्छे से मास्क लगा लीजिएगा, गांव में करोना बहुत फैला हुआ है।

---

भाभी जी की बात पर सहमति दिखाते हुए अपना मास्क लगाते हुए घर के बहार आ गया। मास्टर जी अपनी साइकिल पर थे। मुझे पीछे बैठा कर खुद साइकिल चलाने लगे। बोले कि आज जो तुमको दिखाने जा रहा हूँ, उसकी चर्चा भी मत करना किसी से। सरकार ने पूरी तरह से प्रतिबंध कर दिया है। सच को अफवाह बता रही है सरकार। दो साल पहले इन लोगों का मैंने काफी प्रचार किया था, वोट भी खूब डलवाये थे इनको, पर आज आत्मग्लानि से डूब गया हूँ। जीवन भर खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊँगा।

करीब तीन-चार किलोमीटर के सफर के बाद हम एक नये गांव में प्रवेश कर गए थे, चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था। घरों के बहार दीये जल रहे थे।

मैंने मास्टर जी से पूछा- ‘सर ये दीये?

बोले तू बस देखते रहो। कोई घर ऐसा नहीं है जिसके बहार किसी के एक दीया, किसी के दो, कहीं तीन-चार दीये नहीं जल रहे, पूरा गांव उजड़ चुका है। मातम में डूब चुका है यह गांव, यह सब बस दस-पंद्रह दिनों में ही हुआ है अभी भी यह क्रम जारी है। यहां से कोई मरीज को अस्पताल तो दूर की बात, दवा देने वाला डाक्टर भी कोई नहीं हैं इस गांव में, सब तरफ करोना का आतंक फैल चुका है। यह बस्ती पिछड़ी जाति की है। फिर रुक कर... कल वापस इसी गांव में सुबह आयेगें। बोल कर साइकिल वापस कर ली।

मुझे घर पर छोड़ते हुए चुपचाप आगे बढ़ गए। मैं चाह कर भी इन समाचारों को समाचार पत्र में प्रकाशन के लिए नहीं भेज सकता था। सरकारी न्यूज एजेंसियों के पास इन गांवों से रिपोर्ट लेने का कोई माध्यम भी नहीं था, संभवतः उनके पास समाचार गई भी हो? तो भी वे इन समाचारों का प्रसारण भी नहीं कर सकते। गांव के कुछ पत्रकार जरूर हैं, जो इन समाचारों को किसी न किसी माध्यम से प्रकाशन के लिए भेजने का प्रयास तो किये होगें पर उनकी आवाज अखबारों के किसी कोने में दब कर रह जाएगी। वैसे भी आजकल जब से समाचार पत्रों का शहरों में विभाजन कर प्रकाशन होने लगा है, सरकार के पास समाचार जाती ही नहीं अब, अब जाकर करेगी भी क्या? सारी सरकारें तो शुतुरमुर्ग की तरह  आँखें बंद कर चुकी है।

--- 

घर के अंदर पंहुचकर, गर्म पानी लेकर मुंह-हाथ अच्छे से धोया, फिटकरी के गुनगुने पानी से ग़रारा किया। खुद को बहुत विचलित पा रहा था मैं आज। आंखों के सामने बार-बार उस गांव का दृश्य आंखों के सामने घुम रहा था। ओह कितना शांत हो चुका था वह गांव, उस शांति में मानो दर्द ही दर्द झलक रहा था। रोने की आवाज भी नहीं आ रही थी किसी घर से। ऐसा आभास हो रहा था कि सब अपनी मौत का इंतजार कर रहें हैं। आज किसकी बारी है?

मैंने देखा कि बाजार में इक्का-दुक्का लोग दिख रहें थे, कपड़े की एक दुकान बस खुली दिखी थी, जिसमें एक बनिया कफ़न की ही दुकानदारी करने में लगा था। इस गांव में दो-चार ही बनीये की दुकान  थी, वे सब कारोबारी थे, कुछ ने राशन-पानी की दुकान खोल रखी थी, तो कुछ ने कपड़े की। इन बनियों की एक विशेषता यह भी थी कि ये लोग फसल भी खरीद लेते थे, उसके बदले में, पैसा, सामान या कपड़ा जो जरूरत होती दे देते। मुनाफा तो जरूर कमाते, पर ग़रीबों के काम भी बहुत आते थे। गरीबों से मुनाफा कमाना, उनपर एहसान करना है, जबकि अमीरों से कमाना, उनका एहसान है,व्यापारियों पर, आपको मेरी बात नहीं समझ में आयेगी। कोवीशिल्ड के पूनावाला, मुनाफा कमा कर भी देश पर एहसान ही तो कर रहें हैं कि और स्पष्ट करूँ? आपदाओं में अवसर, किसी गुजराती ने ही यह शब्द गढ़ा है। मैंने नहीं।

---

गांव के लोगों को  डाक्टर को दिखाना हो या दवा लेने के लिए पास के गांव ही जाना पड़ता था, या मेरे गांव में इन लोगों को आना पड़ता था। बनिया लोग ऐसे तो धर्म-कर्म के बड़े पक्के होते हैं, कमाते हैं तो दान भी अच्छा करते हैं, पर छुआ-छूत को बहुत मानते हैं। इस गांव में तो निचली जाति के ही लोग भरे हैं। पता नहीं इनसे कारोबार करने से इन बनियों का धर्म बढ़ता है कि घटता ? इनके दुकान पर कोई हरिजन भी आ जाए, पैसा लेकर, तो उसकी ऐसी आवभगत करतें हैं कि जैसे कोई भगवान आ गया हो दुकान पर। जब वही हरिजन गंदी टीना ढोते हैं तो उसे दूर भगा देते हैं। प्रकृति के कितने रूप हैं यह अभी भी हमें समझना था।

जहां भी दो-चार बनीयों का घर हो जाता वहां एक मंदिर तो ये लोग बना ही देते हैं। कुछ बड़ी जगह हो तो, ठहरने की धर्मशाला, शहरों में तो स्कूल, अस्पताल भी बनाते हैं। यह सब राजस्थान से आये व्यापारियों में ही विशेष कर देखने में मिलता है। जबकि गुजरातियों में ऐसा बहुत कम देखने में आता है।

इसका मूल कारण यह समझ में आता है मुझे कि राजस्थानी लोग, उस गांव को अपना बना लेते हैं, जबकि गुजराती लोगों में इसका अभाव हैं व्यापार तो दोनों ही करते हैं एक व्यापार कर उसी स्थान में रहने का स्थायी घर बना लेता साथ ही पीढ़ियों दर पीढ़ी अपने मूल स्थान से भी उतना ही लगाव रखते हैं। अपनी मातृभाषा को उतना ही मान-सम्मान भी देते हैं। जबकि गुजरातियों में ऐसा नहीं देखने में मिलता। ये लोग रहने के लिए कितना भी स्थायी मकान बना लें पर इनका स्थायी निवास गुजरात ही होता हैं। इनके सोच में गुजरात ही रहता है। वैसे दोनों ही समुदाय के लोग व्यापारी ही हैं अधिकतम, परन्तु एक का वास सिर्फ शहर में ही पाया जाता है वहीं दूसरे का वास भीतर दूर-दराज गांव तक।

वैसे दोनों ही समाज के लोग प्राकृतिक रूप से लोभी/लालची होते हैं। इनके लिए एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है-

‘‘चमड़ी जाए - पर #दमड़ी ना जाए”

#दमड़ी - पैसा

---

आज जब एक तरफ देश में मौत के आंकड़े तेजी से बढ़ रहें तो ऐसी हालात में  शेयर बाजार भी उतनी तेजी से ऊपर जा रहा है। मैं यह भी सोच के हैरान हूँ कि जब भारत देश महामारी के इस दौर से गुजर रहा हो लगातार एक साल से हजारों की संख्या में लोग रोजाना मर रहें हैं या मारे जा रहे हैं जबकि इस साल 2021 में तो इस देश में मौत ने तो सारे रिकॉर्ड को ही तोड़कर गिनीज बुक में नाम दर्ज करा लिया है,  मंत्री जी बड़े-बड़े आंसु बहा चुके हैं तो यह शेयर बाजार झूम रहा है? मानो मौत के इन आंकड़ों से शेयर बाजार के लाभ को कोई संपर्क तो जरूर होगा। जो शेयर बाजार के दलालों से अच्छा कौन बता पायेगा।

देश में आज डाक्टर, शिक्षक, पढ़े-लिखे पत्रकार, मुर्ख पत्रकार, दलाल पत्रकार, सरकारी नौकरी करने वाले पत्रकार, प्राइवेट नौकरी से संलग्न पत्रकार, वकील, जज, आईपीएस अधिकारी, सब-के-सब लाचार हो चुके हैं। सब ने अपना हथियार डाल दिया है। इस व्यवस्था के सामने। सैकड़ों की संख्या में, डॉक्टर, मेडिकल स्टाफ, पत्रकार, वकील मारे गए, मजाल कि कोई सरकार से बोल दे।

कल्पना कीजिये लोकतंत्र को हम कितना मजबूत बना दिए कि खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानने वाला मीडिया आज इस कदर गुलाम बन चुका है। पैसे की ताकत ने इनके असली रूप को दिखा दिया कि इनके मुंह से निकलने वाले एक-एक शब्द बिका हुआ है।

---

मैं चुपचाप एक कोने में बैठा यह सब सोच ही रहा था, कि तभी सोनू पास आकर बोलने लगी-

‘‘अंकल जी....अंकल जी कहानी सुनाऊँ?’’ मेरा मन तो कहीं खोया हुआ था फिर भी सुबह सोनू  से वादा किया था कि रात को कहानी सुनुगां। सो उसके हां में हां  मिलाते हुए उसकी कहानी सुनने लगा।

आज मेरा इस बार की यात्रा का दूसरा ही दिन था गांव में, अब तक मैं गांव की परिस्थिति से कुछ भी वाकिफ नहीं हुआ था, क्या मेरा गांव भी करोना की आग में जल रहा था, खुद से सवाल पर सवाल किए जा रहा था, जबाब नहीं था मेरे पास। कलम हाथ में होते हुए भी लिख नहीं पा रहा था। सरकार ने सबकी कलम को कालापानी की सजा सुना दी थी। सब कुछ आंखों के सामने से गुजर रहा है। ऐसे ही देश के लाखों गांव की स्थिति हो चुकी थी। यदि सरकारी  आंकड़ों की बात करें तो देश में कुल 6.65 लाख गांवों में से आधे से अधिक गांवों की हालत यही थी। शहरों व महानगरों की बात तो छोड़ ही देता हूँ तब भी गांवों में मरने वालों की संख्या को रोजाना पांच लोगों से भी गुणा कर दिया जाए तो यह संख्या लाखों में स्वतः बदल जाएगी।

---

अचानक से चाचा! सोनु ने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचा-

कहानी सुनाऊँ?

हां हां सुनाओ.. बोलते हुए मैं उसकी प्यारी-प्यारी बातें सुनने लगा।

सोनु कहानी सुनाने लगी -

“एक जंगल में एक जंगली शेर रहता था। वह जंगल के जानवरों को खा जाता था

जंगल के जानवर, शेर के डर से भागते-फिरते

एक दिन एक शिकारी ने उसे पिंजड़े में कैद कर लिया और रात को उस पिंजडे को एक तालाब के पास लाकर आराम करने लगा। शेर ने चालाकी से पास के हिरणों को पास बुलाकर बोला मैं तुम लोगो को कभी नहीं खाऊँगा, यदि तुम लोग मुझे इस पिंजड़े से बाहर निकाल दो। हिरणों को लगा कि शेर अपना राजा है इसे शिकारी कैसे ले जा सकता है, सो सबने मिलकर उस पिंजडे को खोल दिया। शेर दो दिनों से भूखा था, सो बाहर निकलते ही एक हिरण को धर दबोचा। सारे हिरण भाग खड़े हुए। यह बात जंगल में फैल गई । शेर हिरणों को खोज-खोज कर खा रहा है। सारे जानवर इधर-उधर छुपने लगे।“

मैंने कहानी सुनते-सुनते हिरणों की जगह खुद को देखने लगा।

सोनू से उत्सुकता  से पूछा फिर क्या हुआ....

सोनू ने हंसते हुए कहा चाचा डरो मत...अभी आपको बचा लूंगी।

“तभी भागते हिरणों को रास्ते में एक खरगोश मिला।

हिरणों को रोकते हुए पूछा- ‘‘अरे किधर भागे जा रही हो?’’

रूककर एक छोटे हिरण ने कहा, तुम भी भागो, खरगोश भैया, शेर तुमको भी खा जाएगा।

खरगोश बहुत हिम्मती था। उसने सबको रोक लिया बोला तुम लोग डरो मत शेर को आने दो मेरे पास।

जैसे ही शेर आया खरगोश ने उसे रोक कर पूछा।

शेर ने सारी बात उसे बताई

खरगोश बोला ऐसे कैसे हो सकता है? इतने छोटे से पिंजड़े में कैसे बंद हो सकते हो? आप तो जंगल के राजा हो।

शेर बार-बार समझाने लगा।

खरगोश समझने को तैयार ही नहीं हो रहा था।

अंत में शेर ने कहा चलो दिखाता हूँ कैसे बंद था

शेर वापस उस पिंजड़े के पास जाकर खुद ही पिंजड़े के अंदर चला गया,

बोला बाहर से बंद कर के खुद देख लो ऐसे बंद था।

जैसे ही खरगोश ने बाहर से ताला लगाया, शेर ने बोला देखा ऐसे बंद था।

खरगोश ने भी भी मान लिया कि आप सही कह रहे थे।

शेर ने कहा अब खोलो-

खरगोश ने कहा तुम्हारी जगह यहीं ठीक है और यह कहते हुए सभी हिरणों को विदा कर दिया।

जंगल में वापस से खुशियां लौट आई। “

सोनु बोलते-बोलते फिर हंसने लगी।

बोली चाचा देखा बचा दिया ने आपको।

सोनू की इस छोटी सी कहानी में एक साथ कई संदेश छुपे थे जो मुझे किसी आशा की किरणों से कम नजर नहीं आ रहे थे।

तभी मां कमरे में आते हुए बोलने लगी, सोनू तो मुझे रोज कहानी सुनाती है। आज चाचा को सुनाने लगी, अच्छा है। फिर हंसते हुए चाचा को भी तो पता लगे सोनू कितनी कहानी जानती है।

फिर सोनू को कहते हुए - ‘‘जा तेरी मां को बोल, चाचा को खाना लगा देगी।“

सोनू , मेरे से पूछते हुए कैसी लगी मेरी कहानी? मैंने जबाब दिया बहुत अच्छी लगी। तुम इतनी कहानियां कैसे याद कर लेती हो? बताने लगी, सबको सुनाते-सुनाते याद हो गई और फिर एक नई कहानी सुनाने का वादा लेकर भाभी को बोलने चली गई की -

“दादी ने चाचा को खाना लगाने को कहा है।“  जोर से बोलते हुए।

---

माँ पास बैठकर मेरी बेटी और बहू की बातें पूछने लगी। मैं उनको सारी बातें बताने लगा, मां एक-एक बात रोक-रोक कर पूछती, मैं उनकी बातों को जबाब देता। तभी भाभी जी खाना लेकर आ गई, आज खाने में आम भी था। मैंने भाभी जी से पूछा ये कौन सा आम है? तो भाभी ने बताया कि लँगडा आम (Langda Mango favorite variety of mango)। माँ ने फिर लँगडा आम के आने से लेकर पकने तक की सारी बातें बताने लगी। कितने दिन पहले आया था, रोज़ाना तीन-चार आम पक जाते हैं। बिचाली (पुवाल) के नीचे दबा दिये थे कल सो आज पक गए। मैं अभी खाना खा ही रहा था कि भाईसाब भी आ गए।

भाईसाब आते ही भाभी को आवाज देते हुए कहे -‘मालाआा

मेरे को जल्दी से नाहाने का पानी दे दो, और खाना लगा देना, बहुत भूख लग गई है। तब मैं भी धीरे-धीरे खाने लगा कि भैया जी का साथ भी हो जाएगा।

भाई जी स्नान कर पास आ कर बैठ गए। बताने लगे कि घाट पर आज बहुत बाता-बाती हो गई,  मुखिया जी के कुछ लोग घाट को घेर रखे थे। बोलने लगे दलितों को जलाने के लिए यह घाट नहीं है। सो दलित लोग इस बात को लेकर बहुत नाराज़ थे। अब गांव का घाट तो बहुत छोटा है,  तुमको तो याद होगा ही? मेरी तरफ देखते हुए, पापा जी के समय जब दोनों भाई गए थे। मैंने उनको देखते हुए ‘हां’ में उत्तर दिया, फिर क्या हुआ तब? मैंने पलट कर उनसे जबाब पूछा।

बताने लगे, कोई समाधान नहीं निकल पाया अभी तक, मूंछ की लड़ाई है। अब मौत पर भी राजनीति होने लगी। प्रशासन की तरफ से अलग से व्यवस्था की बात सुनी है पर कब तक होगी पता नहीं, गांव के लोग आस-पास के घाटों पर लकड़ी नहीं मिलने से नदी के किनारे सुखी जमीन पर ही लाशों को गाड़ कर वापस चले जा रहें हैं। अब लाश को घर में तो रखा नहीं जा सकता?

इस बार जितनी मौतें हो रही है, ऐसा तो मैंने कभी नहीं देखा था। चारों तरफ लोग बिलख रहें हैं । किसके दर्द को सहारा दूँ ? यह भी नहीं समझ में आ रहा । उस पर मुखिया जी का बर्ताव समझ में नहीं आ रहा क्या करूं। आम की लकड़ी करीम चाचा के बगान से आ रही है । उसी आम की लकड़ियों पर भी अपना हक जता रहें हैं, बोलते हैं गांव की लकड़ी है। गांव के लोगों की ही लाशें जलेंगी। अब उनको कौन समझाए। बोलते हैं,  दूसरें गांव के लोग इस घाट पर क्यों आ रहें हैं? इस घाट को उनके पुरखों ने बनवाया है।

---

रामा इस महामारी से एक बात तो साफ हो गई कि इन नेताओं के आंसू घड़ियाली हैं। चुनाव के समय वोट के लिए जितना दौड़-घूप करते हैं, बड़ी-बड़ी रैलियों निकालने के लिए एक दिन में लाखों रुपये पानी में बहा देते हैं। सभाओं को करने के लिए ना जाने कहां-कहां से लोगों को बसों में, ट्रकों में, ट्रेक्टरों में भर-भर के ले आते हैं, उनके खाने की व्यवस्था से लेकर लाने-ले जाने की व्यवस्था करने के लिए प्रशासन सक्रिय नजर आता है। आज जब चारों तरफ त्राहीमाम मची है तो इनको जाति-पात की बातें नजर आती है। समझ में नहीं आता इनका चरित्र मुझे। मेरी तरफ देखते हुए।

---

तब तक भाभी जी उनके लिए थाली ले कर आई।

भाई'साब ने भोजन को प्रणाम किया फिर दो-तीन ग्रास अलग कर, पानी से भोजन को अर्क दिए, और बात करते-करते खाना, खाने लगे। बोलने लगे। वोट लेते समय इन दलितों के घर भोजन करते हैं ये लोग, आज उन्हीं को श्मशान में जलाने से रोक रहें हैं।

मैंने तो तय कर लिया कि इन पचरों में नहीं पड़ना मुझे, आँखें बंद कर ली हूँ।

फिर आगे बताने लगे मुखिया जी ने अपने घर पर सबको बुलाया भी था। बोल रहे थे कि गांव में हो रही मौतें साधारण मौतें हैं। सरकार ने साफ-साफ बोल दिया है कि किसी भी पंचायत से कोई भी सूचना बाहर नहीं जानी चाहिए।

अब उनको कौन समझाये कि जमीनों में जो लाशें जो दफ़नाई जा रही है उसे कैसे मिटा दिया जाए। किसी को फोटो लेने से कैसे रोका  जाए? पर इन सब बातों का कोई जबाब नहीं हैं ।

बस सरकार की बात मानना है। बोल रहें है। इन समाचारों से देश की बदनामी हो रही है विदेशों में ।

इलाज की तो बात कोई नहीं करता, कि कैसे गांव के लोगों को बचाया जाए। तुम देखना इस बार गांव में बीज रोपने के लिए भी लोग नहीं मिलेगें, फसल की तो बहुत दूर बात की है। अकाल पड़ने वाला है देश में।

भाईसाब बस परेशान होये जा रहे थे।

मां ने उनको सलाह दी, बेटा! तुम खाकर सो जाओ। भगवान सबका अच्छा करेगा। तुम इन नेताओं से बच कर ही रहो, हमें क्या करना कौन किधर जलायेगा, किधर नहीं।

---

हां मां, बोलकर भाई’साब चुप हो गए।

भाईसाब खाना खाकर सोने चले गए। माँ मेरे पास बैठी रही, बचपन की बातें बताने लगी, स्कूल से लेकर शादी तक की बातें, पता नहीं कितनी बातें याद थी मां को, मेरी बेटी भी गांव में पैदा हुई थी। बता रही थी कितनी परेशानी से हुई थी बेटी, डाक्टर ने तो बोल ही दिया था कि पेट चीरना होगा। पर मां की पुरानी ‘दाय/दाई ( In village's of India Daee(Midwife), She worked as well as Semi Nurse's) ने बताया की बच्चा उल्टा है रात-भर आलथी-पालथी (Squat) मार कर, बैठकर रहेगी तो बच्चा सीधा हो जाएगा। फिर डाक्टर को दिखा लाना। सो मां ने रात जागरण कराया था। जिससे कीर्तन-भजन भी हो गया, भगवान की पूजा भी होती रही, मेरी पत्नी के साथ सब जगे भी रहे, सुबह उसको बस थोड़ा पांव खोलने दिया था मां ने, फिर दूसरे दिन डाक्टर को दिखाई थी तो डाक्टर भी चौंक गया था। बोलने लगा बस आप ऐसे ही रहो कुछ दिन, काम कम करने व भारी समान उठाने से मना कर दिया था।

बिटू एक दम नार्मल हुई थी। डॉक्टर’साब अपने घर पर ही बिस्तर लगवा दिये थे, उस समय। गांव में छोटे-मोटे ऑपरेशन या बच्चों की डिलीवरी डॉक्टर अपने चेंबर में या घर पर ही छोटा सा सेट-अप कर के कर/करा देते थे। छोटे शहरों में तो सरकारी लाइसेंस की जरूरत भी पड़ती है पर गांव में कोई समस्या नहीं हैं । हां, इस बहाने कई झोला छाप डॉक्टर भी डॉक्टरी करने लगते हैं। जो भारत के हर गांव में मिल जायेगें आपको, छोटी-मोटी बीमारी में तो ये लोग काम चलाऊ इलाज कर देते हैं, पर जब बड़ी बीमारी होती तो ये अपने जान-पहचान के डॉक्टरस को रेफर कर देते हैं। आजकल, तो गांवों में  बड़े-बड़े अस्पतालों के दलाल जांच केन्द्र के नाम से दुकान खोल लिए हैं, जो मरीजों को इलाज के लिए बड़े अस्पतालों में भेज देते हैं और इलाज के नाम पर उसका चौतरफा लूट शुरु कर देते हैं। भारत के मेडिकल एसोसिएशन, बार-बार इनको चेतावनी व फाइन तो करते रहते हैं पर मरीज तब भी लुटा जाता है।

मां, बात करते-करते मेरे पांवों को दबाने लगी। मैं मना तो नहीं कर सका, पर यह सोचने लगा कि मुझे याद नहीं कि मैंने कब माँ के पाँव  दबाये। बचपन में जब मेरे पाँव सीधे नहीं होते तो मां, रात-रात भर सरसों को तेल लगाया करती थी मेरे पाँवों पर, बोलती - ‘‘अभी तो हड्डी कच्ची है। सीधी हो जाएगी। बाद में परेशानी होगी।’’ तब से लेकर आज तक मुझे चलने में अब कोई परेशानी नहीं होती।

हम लोग शादी के बाद कितने स्वार्थी बन जाते हैं । मैं, मेरा परिवार तक सिमट जाते हैं हम, पर मां की नजर में तो हम आज भी बच्चे हीं रहते हैं चाहे हम कितने भी बड़े आदमी क्यों न बन जाएं। भारतीय सभ्यता आज भी इसलिए पूज्यनीय है कि इस सभ्यता में 'मां' को सर्वोच्च स्थान दिया हुआ है। जन्म से लेकर मरण तक मां का स्थान कोई नहीं ले सकता।

हमें बातें करते-करते रात के दस बज गए। मैंने सोचा कि एक बार सीमा से बात कर लूँ? उसको फोन लगा कर उसका हालचाल जाना, फिर समाचार देखने लगा। माँ बोली ‘सो जा रामा सुबह जल्दी उठ जाना। ‘हां मां बोल कर मैं समाचार देखने लगा।

गांव में आज भी भारत संचार का नेटवर्क अच्छा काम करता है, जब भी गांव आता हूँ तो भारत संचार का सिम जरूर ले आता हूँ, पता नहीं दूसरे-दूसरे नेटवर्क काम करेंगें कि नहीं? इस बात की आशंका हमेशा बनी रहती है कि नेटवर्क मिलेगी भी कि नहीं? जबकि भारत संचार को लेकर ऐसी धारणा मन में बन चुकी है कि यह तो जरूर मिलेगी।

नींद नहीं आ रही थी बार-बार सोनू की शेर वाली कहानी याद आ रही थी। उस कहानी के भीतर मेरे कई प्रश्नों का हल छुपा था, उसे डिकोड करने का प्रयास कर रहा था।

---

क्या शेर सच में जंगल का राजा है? यदि राजा था तो शिकारी ने उसको पिंजड़े में बंद कैसे कर दिया?, क्या हमें ताक़तवर आदमी से चालाकी से पेश आना चाहिए? कि उसके कहे में फंस जाना चाहिए। कहे में फंस गये तो, क्या वह हमारा भी नुकसान करना तो शुरू नहीं कर देगा? ऐसे कई प्रश्नों को डिकोड करना था मुझे, सो नींद तो नहीं आ रही थी, मन में एक समाधान जरूर आ रहा था कि कुल्हाड़ी से लकड़ी काटी जाए कि, खुद का पांव? यह तो हमें ही तय करना होगा।

पत्रकारिता करते-करते कई बार ऐसा होता है कि हम किसी न किसी विचार के नियंत्रण में कैद हो जाते है। हमें सिर्फ वही सही लगता है और सामने वाले हमेशा गलत । तो फिर अदालतों में अपराधियों को सुना क्यों जाता है? उनको बचने के सारे अवसर क्यों दिये जाते हैं, सजा सुनाने से पहले अदालतें दोनों पक्षों की बात, गवाहों के बयान फिर क्यों सुनती है?

परन्तु आज हम क्या कर रहें हैं? विचारों में कैद होने के कारण हम अपना फैसला रातों-रात सुना डालते हैं। बंदा दोषी नहीं भी हो तो बस उसको, उसके परिवार को, समाज की नजरों में इतना गिरा डालते हैं कि वह आत्महत्या करने को भी मजबूर हो जाए और हम टीआरपी पर जश्न मनाते हैं।

पत्रकारिता के व्यवसाय में अब जिम्मेदारी बोल कर कुछ नहीं बची। यह रोजगार नहीं रह कर बंधुआ मजदूरों वाला पेशा बन चुका है। एक बार जंजीर गले में बांध ली बस गुलामी के जीवन से बहार नहीं निकल सकते।

मैं इसी उधेड़बुन में मकड़ी की जाल की तरह उलझता जा रहा था। जितना इस कहानी को सुलझाने का प्रयास कर रहा था उतना ही, घने जंगल में चला जाता। रास्ता भटकने लगा। एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि अब शेर मुझे भी जिन्दा चबा जाएगा। जंगलों में भागता रहा, भागते-भागते  एक संन्यासी की  झोपड़ी में जान बचाने के लिए छुप गया। संन्यासी जी को देखकर उनको प्रणाम कर, अपने प्राणों की भिक्षा मांगने लगा। मुझे देख कर संन्यासी मुस्कराते हुए, मुझे शांत होने का इशारा करते हुए, चुपचाप बैठ जाने को कहा। एक तरफ 'मैं' शेर के ख़ौफ़ से काफी डरा हुआ था। जबकि संन्यासी जी शेर के ख़ौफ़ से बिलकुल ही अनभिज्ञ थे। मैं उनको बोल भी नहीं पा रहा था। संन्यासी किसी समाधि में लीन थे। मैं झोपड़ी के बहार भी नहीं निकल पा रहा था, मन के अंदर डर ने जगह बना ली थी, वहीं इस डर को संन्यासी को बता भी नहीं पा रहा था। जब तक संन्यासी जी को बता नहीं देता तब तक मेरे मन का डर बाहर नहीं निकल पा रहा था। कुछ देर बाद संन्यासी जी अपनी समाधि से उठ कर चुपचाप बहार चले गए।

मैं उनकी इस क्रिया से और परेशान हो गया। बाहर शेर का डर था, अंदर संन्यासी का रहस्य डर में बदल गया। अब मेरे को दो डर में से एक डर को चुनना था। एक तरफ जान जाने का डर सता रहा था तो दूसरी ही तरफ भूखे मरने का डर।

जैसे-जैसे रात गुजरती गई मेरा डर बढ़ता चला गया। मैं भूख से व्याकुल हो चुका था, झोपड़ी में पीने तक का पानी नहीं था। झोपड़ी के बाहर ऐसा लग रहा था कि शेर बैठा हो।

तभी संन्यासी जी वापस आ गए। उनको देखकर एक तरफ मुझे शांति मिली तो दूसरी तरफ उनका डर भी सताने लगा। पता नहीं अब ये मेरे साथ क्या करेंगें? भगवान से प्रार्थना करने लगा। हे भगवान मुझे बचा लो। तभी संन्यासी ने मुझे कुछ खाने को दिया। हाथ में फल देख कर जान में जान आ गई एक डर तो निकला कि अंदर में सुरक्षित हूँ, पर बहार का डर बना हुआ था। संन्यासी ने मेरे आने का कारण पूछा। मैंने उनको अपनी सारी बात बता दी। वे पुनः मुस्कारने लगे। बोले सुबह हो गया है तुम जा सकते हो। शेर जंगल में वापस चला गया। तब तक मेरी नींद टूट गई। मोबाइल फोन की घड़ी पर नजर लगाई तो देखा कि सुबह के पांच बज चुके थे।

---

सोचने लगा डर तो मेरे मन के अंदर है उसे निकालना होगा जो शेर बन कर मुझे डरा रहा है। संन्यासी को पता नहीं था कि बाहर शेर है इसलिए वे बेख़ौफ बहार चले गए थे जबकि उसी समय मैं नहीं जा सका, क्योंकि मेरे मन में शेर की छवि डर पैदा कर रही थी।

उठ कर तैयार होने लगा, रात की बातें सोचते-सोचते तैयार हुआ ही था कि भाभी ने आकर पूछा चाय बना दूँ कि वापस आकर लेगें? मैंने बस एक ग्लास पानी का बोला सो वह तुरन्त लाकर दे दी, पानी पी ही रहा था कि मास्टर जी आ गए। दरवाजे से उनकी आवाज आई- ‘‘रामा तैयार हो?’

मैं जल्दी से बहार निकल कर उनको प्रणाम करते हुए उनकी साइकिल के पीछे बैठ गया।

मास्टर जी चुप थे आज, कुछ भी नहीं बोल रहे थे बस वे साइकिल चलाये जा रहे थे। फिर कुछ देर बाद बोले, "रामा तू तो साइकिल चलाना जानते हो न? "

मैंने जबाब देते हुए कहा ‘‘जी सर” ,

ठीक है जब मैं थक जाऊँगा तो तुम चलाना। आज हमें काफी चलना है। मैं, उनसे कुछ नहीं पूछना चाहता था, यह तो जनता था कि वे जो भी जगह ले जा रहें हैं कोई रहस्य तो होगा उसमें अन्यथा वे इतनी दूर क्यों ले जाते मुझे। उनको मेरे बारे में सबकुछ पता था कि मैं एक समाचार पत्र से जुड़ा हूँ। वे चाहते थे कि जो मैं देख रहा हूँ उसे मेरी नजरों से दुनिया भी देखे। हांलाकि इन समाचारों से आजकल के नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता, वे जानते हैं कल नये समाचार की परतें, पुराने समाचार को ढक देगी।

---

ये समाचार महज़ एक धूल की तरह है जो आज दिखेगी, कल दूसरी धूल उसके ऊपर आकर जम जाएगी। यह क्रम चलता रहेगा। संविधान में किसी की जिम्मेदारी तो तय नहीं की गई है। कितनी भी बड़ी आपदा क्यों ना आ जाए, जनता की मौत से उनका कोई सरोकार नहीं होता कभी।

तभी मास्टर जी की साइकिल एक टूटे पूल के ऊपर से गुजरने लगी। सुबह का सन्नाटा बिखरा पड़ा था, सूर्य देवता पूरब में अपनी लालिमा बिखेरने लगे थे। धीरे-धीरे साइकिल कच्चे रास्ते पर चलती हुई नदी के पास पंहुचने लगी थी। मास्टर जी ने साइकिल को रोक दी, बोले अब हमें पैदल ही आगे का सफर तय करना है। कम से कम एक किलो मीटर चलेगें, वैसे तो इस नदी का छोर बहुत लंबा है। पर हमें बस एक किलोमीटर ही चलना है वहां से गांव का रास्ता वापस मिलेगा जो हमें वापस गांव पंहुचा देगा।

आंखों पर पटटी बांध ली थी हमने। बालू की रेत पर लाशों का जख़ीरा, बालू के अंदर लाशों को गाड़ कर लोग चले गए थे, कई लोग लाशों को गाड़ने की तैयारी कर रहे थे, हर तरफ लाशें ही लाशें सोई हुई थी। नदी के दोनों तट पर यह क्रम चल रहा था। मां भारती चीख-चीख कर हमारी मानवीय सभ्यता को बुला रही थी, हम निर्दयी बन, लाशों की तरह, इन लाशों को देखे जा रहे थे।

सैकडों लाशें, कुछ नदियों में बह रही थी, कुछ जमीन पर सोई। तो कुछ जल रही थी, कुछ सड़ रही थी। चील, गिद्ध,  कौए, आकाश में मंडराने, लगे थे। एक तरफ गांव में दीपावली मन रही थी, दूसरी तरफ मुर्दों का भोज परोसा जा रहा था। आपदा ने मानो देश के हर गांवों में क़हर बरपा दिया था। देश की प्रायः सभी राज्यों की सरकारें लाचार थी। इस लाचारी के बीच भी कुछ नेताओं को नाटक करते देखा जा रहा था।

जिनके कंधों पर देश का भार है वह नाटक कंपनी का बे-ताज बादशाह मान जा सकता है। आंखों में शर्म तो बची नहीं थी इनके, हां ! आंसू टपका कर फिर सत्ता में आने का जोड़-तोड़ शुरू कर दिया थे।

---

मानता हूँ यह एक आपदा है, मानता हूँ ये गरीबों की लाशें थी, जिनके पास जलाने के पैसे भी नहीं थे, मानता हूँ, यह महामारी बहरुपिया है। यदि देश का राजा भी बहरुपिया हो तो क्या किया जा सकता है? उस जंगली शेर को जो इंसानों को झूठ बोलकर मार रहा था, को याद करते हुए मैं मास्टर जी के साथ आगे बढ़ने लगा।  ये लाशें चीख-चीख कर अपनी दस्ताने सुना रही थी। देश का हर परिवार इस कहानी का हिस्सा बन चुके थे। किसी के घर में एक दीया तो किसी के घर में दो दीये जल रहे थे, किसी के घर में तो दीया भी जलाने वाला कोई चिराग भी नहीं बचा था।

इस दर्दनाक दृश्य को दुनिया का कोई इंसान नहीं देख सकता था, पर हमारी खुशक़िस्मती है कि हम भारत में हैं जहाँ हमें सब कुछ देखने को मिल सकता है। अगले साल हम देश में 75वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहें हैं। अभी तक हम गांवों में बिजली, स्वच्छ पानी, शौचालय की ही बात कर रहें हैं। गांवों में बने अस्पतालों का रखरखाव, मरम्मत तो बहुत दूर की बात, सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर तक का अता-पता नहीं हैं इस कोविड-19 फैज़-2 ने तो सरकारी ढांचों की परतें अधेड़ कर रख दी। शहरों में सब कुछ होते हुए भी बड़े से बड़े अस्पतालों में लोग आक्सीजन के बिना तड़प-तड़प कर मरने लगे। देश की कई उच्च अदालतें सरकारों को फटकार लगाती रही, ये बेशर्म होकर जबाब देते रहे । जनता को बचाने का जबाब इनके एफिडेविट से आज तक नदारद है।

मानो कि पूरे कुएँ में ही भांग मिली हो। बहुरूपिये ने खुद ही स्वीकार कर लिया कि वह बहुरूपिया है।

इन लाशों का ढेर देख कर मैं जितना विचलित हो रहा था, मास्टर जी उतने ही गंभीर नजर आ रहे थे। अब तक वे सरकार की किसी व्यवस्था पर एक शब्द भी नहीं कहे थे।

---

मुझे पता था कि ये जब बोलेगें तो कुछ ऐसा बोलेंगे जो पूरे चित्र को एक शब्द में समेट लेगें। पर मुझे तो आदत हो गई थी आंखों देखा हाल बताने की, पिछले 10 सालों से पत्रकारिता करते-करते हर बातों को शब्दों में पिरोने की आदत जो बन गई थी।

अब सरकार बोलती है जो तुम देखो, वह मत लिखो, जो हम बोलते हैं वहीं देखो और वैसा ही लिखो।

अब जिन्दा मछली को कैसे निगल जाएं हम? यह एक प्रश्नचिन्ह जो मेरी नौकरी के बीच अटका हुआ था। संपादक जी बार-बार इस बात की सलाह दे चुके हैं कि हमने आपातकाल देखा है, अनुभव है हमारे पास, समाचार पत्र कागज का पन्ना भर है जो हवा के झोंकों से उड़ जाता है। पत्रकारों को भी उसी हवा में बह जाना चाहिये जिधर सरकार का दबाब बना रहता है।

शहर की गंदगी को टोकरी में भर कर लोगों के घरों में फेंकने ही हमारा काम है, ना कि सरकार की गलतियों को, हां सरकार से तभी सवाल-जबाब किए जाते हैं जब उसके पैसे हमें मिल जाते हैं नहीं तो हमें क्या पड़ी है, उनको चुनने वाली जनता जाने। हमें तो चिट भी मेरी पट भी मेरी । हमें दोनों तरफ से ही कमाने का ही ध्यान रखना है। अभी लाशों को बेच दो, कल इंसानों को, जब कोई बड़ी घटना होती है हमें पैसा देकर जाती है। हर मरने वाला अखबारों को पैसा देकर जाता है, अन्यथा उसे मुक्ति नहीं मिलती।

 

---

हम दोनों नदी के किनारे के हजारों की संख्या में बसे छोटे-छोटे लाशों के घरों को देखते रहे, देखते-देखते ना जाने कब वापस जाने का रास्ता आ गया कुछ पता ही नहीं चला।

मास्टर जी अब भी चुप थे।

हम गांव की तरफ वापस मुड़ चुके थे।

मास्टर जी ने बस इतना ही कहा-

यह महामारी है

इसमें किसी सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता।

दोष तो हम लोगों का है जो ऐसे लोगों को हम अपना देश ऐसे लोगों को सौंप देते हैं।

एक सप्ताह गांव में रहकर रामप्रसाद जी वापस शहर तो आ गए। साथ में ले आये थे गांव की कई यादें जिसे वे अब कभी नहीं भूला सकते थे।

जयहिन्द।

लेखक परिचयः  श्री शम्भु चौधरी का जन्म 15 अगस्त 1956 को कटिहार (बिहार) में हुआ। गत 40 वर्षों से कोलकाता में ही स्थाई निवास। आपकी एक पुस्तक "मारवाड़ी देस का ना परदेस का" प्रकाशित। आपने 57 साल की उम्र में विधि की परीक्षा पास की एवं 62 साल की उम्र में मास कम्यूनिकेशन पर मास्टर की परीक्षा पास की।

बचपन से ही कविता, लघुकथा, व सामाजिक लेख लिखना, देश के कई पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथा, कविताओं, सामाजिक व राजनैतिक विषयों पर लेखों का प्रकाशन। स्वतंत्र पत्रकारिता करना व सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जन मानस को जगाना। "देवराला सती काण्ड" के विरुद्ध कलकत्ता शहर में जुलूस निकालकर कानून में संशोधन कराने में सक्रिय भूमिका का निर्वाह। सामाजिक विषय पर चिन्तनशील कई पुस्तकों का सम्पादन। समाज के युवाओं को संगठित कर उनको विकासमूलक कार्यों में लगाना, राजनीति का समाजीकरण करना, व स्वतंत्र पत्रकारिता में रुचि। कलकत्ता से प्रकाशित "समाज विकास" सामाजिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक पद पर कार्य कर चुके श्री चौधरी जी के कई लेखों ने सामाजिक और राजनीतिक समीकरण में बदलाव लाया है। विधि विषय पर कई पुस्तकों को प्रकाशन। ‘‘मेरा गाँव , Amazon Kindle पर यह इनकी पहली पुस्तक है ।