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रविवार, 30 नवंबर 2008

अपना मंच की गोष्ठी में गूंजे कवियों के स्वर

कोलकाता. संध्या हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय महानगर द्वारा भाषा और साहित्य के अनुरागियों के लिए स्थापित अपना मंच की प्रथम काव्य गोष्ठी शनिवार २९ नवम्बर को राष्ट्रीय महानगर सभा कक्ष में संपन्न हुई. गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ रचनाकार और भारतीय वांग्मय पीठ के प्रणेता प्रो. श्यामलाल उपाध्याय ने की. कार्यक्रम का सफलतापूर्वक संयोजन प्रदीप कुमार धानुक ने किया, जबकि फर्स्ट न्यूज़ के संपादक संजय सनम ने अत्यन्त भावपूर्ण अंदाज में गोष्ठी का सञ्चालन किया. प्रारम्भ में राष्ट्रीय महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया ने गोष्ठी के आयोजन और अपना मंच के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए अपने विचार रखे. उन्होंने कहा कि अपना मंच का मुख्या उद्देश्य नवागत रचनाकारों को मंच प्रदान करना है. अपना मंच की और से हर गोष्ठी में एक अनुभवी और एक उदीयमान रचनाकार को गोष्ठी के श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में सम्मानित किया जाएगा. गोष्ठी में ४५ रचनाकारों में काव्य पाठ किया. वरिष्ठ कवि योगेन्द्र शुक्ल "सुमन" और नन्दलाल 'रोशन' को इस काव्य गोष्ठी के श्रेष्ठ कवि के रूप में चुना गया. इस गोष्ठी में डॉक्टर लखबीर सिंह निर्दोष, मुश्ताक अहमद, कालीप्रसाद जैसवाल, डॉक्टर सेराज खान बातिश, गुलाब बैद, प्रसन्न चोपडा, मृदुला कोठारी, सुशीला चनानी, शम्भू जालान निराला, हरिराम अग्रवाल, सुरेंद्रदीप, विश्वजीत शर्मा विश्व, विजय दुगर, संजय निगानिया, जीतेंद्र जितांशु, सत्य मेधा, राधेश्याम पोद्दार, श्रीकृष्ण अग्रवाल मंगल, रामावतार सिंह, अनीता मिश्रा सरीखे कवि -रचनाकारों ने अपनी रचनाये सुनायीं. जनसत्ता के वरिष्ठ उपसंपादक एवं सुपरिचित लेखक विनय बिहारी सिंह भी गोष्ठी में उपस्थित थे. ज्यादातर कवियों ने मुंबई ब्लास्ट एवं आतंकवाद पर ताजातरीन रचनाएँ सुनायीं. आयोजन की व्यवस्था में गोपाल चक्रवर्ती और हरीश शर्मा का योगदान रहा।

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

स्मृति: हरिवंशराय बच्चन



लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती|
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है|
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है|
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती|

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है|
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में|
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती|

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो|
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्श का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम|
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती|


- हरिवंशराय बच्चन

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार - कैलाश वाजपेयी


वर्ष 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए हिन्दी के कवि कुंवर नारायण को चुना गया है। वर्ष 2006 के इस पुरस्कार के लिए कोंकणी के रवीन्द्र केलकर और संस्कृत के विद्वान सत्यव्रत शास्त्री को संयुक्त रूप से चुना गया है। कुँवर नारायण को 41वाँ और केलकर तथा शास्त्री को 42वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार संयुक्त रूप से दिया जाएगा। पुरस्कार स्वरूप 7 लाख रुपए दिए जाएँगे। ज्ञानपीठ द्वारा विज्ञप्ति के अनुसार कोंकणी व संस्कृत के लिए पहली बार ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया है। नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (1959) के कवियों में रहे हैं।

कुँवर नारायण हमारे दौर के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार हैं। उनकी काव्ययात्रा 'चक्रव्यूह' से शुरू हुई। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दी के काव्य पाठकों में एक नई तरह की समझ पैदा की।

उनके संग्रह 'परिवेश हम तुम' के माध्यम से मानवीय संबंधों की एक विरल व्याख्या हम सबके सामने आई। उन्होंने अपने प्रबंध 'आत्मजयी' में मृत्यु संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ हमारे सामने रखा। इसमें नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए।

नचिकेता के इसी कथन को आधार बनाकर कुँवर नारायणजी की जो कृति 2008 में आई, 'वाजश्रवा के बहाने', उसमें उन्होंने पिता वाजश्रवा के मन में जो उद्वेलन चलता रहा उसे अत्यधिक सात्विक शब्दावली में काव्यबद्ध किया है। इस कृति की विरल विशेषता यह है कि 'अमूर्त'को एक अत्यधिक सूक्ष्म संवेदनात्मक शब्दावली देकर नई उत्साह परख जिजीविषा को वाणी दी है। जहाँ एक ओर आत्मजयी में कुँवरनारायण जी ने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया है, वहीं इसके ठीक विपरीत 'वाजश्रवा के बहाने'कृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है।
यह कृति आज के इस बर्बर समय में भटकती हुई मानसिकता को न केवल राहत देती है, बल्कि यह प्रेरणा भी देती है कि दो पीढ़ियों के बीच समन्वय बनाए रखने का समझदार ढंग क्या हो सकता है। उन्हें पढ़ते हुए, मुझे लगता है कि कुँवर नारायणजी हिन्दी कविता के पिछले ५५ वर्ष के इतिहास के संभवतः श्रेष्ठतम कवि हैं।


कुंवर नारायण की कुछ कविताएँ


उदासी के रंग


उदासी भी
एक पक्का रंग है जीवन का
उदासी के भी तमाम रंग होते हैं
जैसे
फ़क्कड़ जोगिया
पतझरी भूरा
फीका मटमैला
आसमानी नीला
वीरान हरा
बर्फ़ीला सफ़ेद
बुझता लाल
बीमार पीला
कभी-कभी धोखा होता
उल्लास के इंद्रधनुषी रंगों से खेलते वक्त
कि कहीं वे
किन्हीं उदासियों से ही
छीने हुए रंग तो नहीं हैं ?
******


( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )


दुनिया की चिन्ता


छोटी सी दुनिया
बड़े-बड़े इलाके
हर इलाके के
बड़े-बड़े लड़ाके
हर लड़ाके की
बड़ी-बड़ी बन्दूकें
हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके
सबको दुनिया की चिन्ता
सबसे दुनिया को चिन्ता ।
******


( काव्य संकलन इन दिनों से साभार )


यकीनों की जल्दबाज़ी


एक बार खबर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही
और यूं फैली
कि कविता अब नहीं रही !
यकीन करनेवालों ने यकीन कर लिया
कि कविता मर गई
लेकिन शक करने वालों ने शक किया
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
और इस तरह बच गई कविता की जान
ऐसा पहली बार नहीं हुआ
कि यकीनों की जल्दबाज़ी से
महज़ एक शक ने बचा लिया हो
किसी बेगुनाह को ।
कभी पाना मुझे
तुम अभी आग ही आग
मैं बुझता चिराग
हवा से भी अधिक अस्थिर हाथों से
पकड़ता एक किरण का स्पन्द
पानी पर लिखता एक छंद
बनाता एक आभा-चित्र
और डूब जाता अतल में
एक सीपी में बंद
कभी पाना मुझे
सदियों बाद
दो गोलार्धों के बीच
झूमते एक मोती में ।
*******


( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय‘ अंक से साभार )


जिस समय में


जिस समय में
सब कुछ
इतनी तेजी से बदल रहा है
वही समय
मेरी प्रतीक्षा में
न जाने कब से
ठहरा हुआ है !
उसकी इस विनम्रता से
काल के प्रति मेरा सम्मान-भाव
कुछ अधिक
गहरा हुआ है ।
******


(समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार)


दीवारें


अब मैं एक छोटे-से घर
और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूं
कभी मैं एक बहुत बड़े घर
और छोटी-सी दुनिया में रहता था
कम दीवारों से
बड़ा फ़र्क पड़ता है
दीवारें न हों
तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर ।

विधानसभा भूल गई सेठिया जी को श्रद्धांजलि देना

प्रकाश चंडालिया
पश्चिम बंगाल विधान सभा में सोमवार २३ नवम्बर २००८ को कला, साहित्य, संगीत और पत्रकारिता जगत की कुछ विशिष्ट विभूतियों के निधन पर शोक व्यक्त किया गया और दिवंगत आत्मावों को श्रद्धांजलि दी गई. जिन लोगो को विधान सभा में श्रद्धांजलि दी गई, उनमे सभी अपने-अपने क्षेत्र की जानीमानी और चर्चित शक्सियत हैं. हाँ, दो-एक नाम ऐसे अवसरों पर जोड़ दिए जाते हैं, जिनका सत्तारूढ़ पार्टी से सरोकार होता है, और इसी बहने उनकी आत्मावों को भी श्रद्धांजलि देकर शांत कर दिया जाता है. इस बार भी यह परम्परा कोई अपवाद नही थी. पर दर्द देने वाली बात यह है कि विधानसभा में जिन्हें श्रधांजलि दी गई, उनमे हिन्दी और राजस्थानी के शीर्ष कवि कन्हैयालाल सेठिया का नाम नही था. भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से विभूषित सेठिया जी कई दशकों से कोल्कता में ही रहते थे. यही नही, तमाम बड़े नेता कोलकाता आते, तो उनके ६, आशुतोष मुख़र्जी रोड स्थित जाकर ही उनसे मुलाकात करते. इसी २२ नवम्बर को असाम के राज्यपाल शिवचरण माथुर सेठिया जी को श्रद्धांजलि देने उनके निवास गए थे. उनकी सुरक्षा व्यवस्था राज्य सरकार ने ही कि थी. सो, यह तो माना नही जा सकता कि सेठिया जी के नाम से राज्य विधान सभा अवगत नही थी. कोलकाता में राजस्थान और मारवाडी के नाम पर अनगिनत संस्थाएं हैं. कुछ संस्थावों के अखिल भारतीय कार्यालय भी यहाँ ही हैं. अखिल भारतवर्षीय मारवाडी सम्मलेन, राजस्थान फाउंडेशन, पश्चिम बंगाल प्रादेशिक मारवाडी सम्मलेन, राजस्थान परिषद् कोलकाता मारवाडी सम्मलेन जैसी संस्थाओं के पदाधिकारियों को विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष प्रतिवाद दायर करना चाहिए. विधान सभा में राजस्थानी समाज के एकमात्र विधायक इसमे सक्रीय भूमिका निभा सकते हैं. यदि यह भूल है, तो उसे निश्चय ही सुधारा जा सकता है, पर यदि इसमे सुधार नही होता है, तो निश्चय ही माना जाना चाहिए कि राजस्थानी समाज के प्रति राज्य सरकार की मनोभावना में कहीं न कहीं खोट अवश्य है. साहित्य, और कला क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति का यदि हम सम्मान नही करेंगे, तो एक दिन हम अपना सम्मान खो बैठेंगे.सामाजिक समरसता कि दुहाई देने वाली साम्यवादी सरकार सेठिया जी के साहित्य अवदानों का मूल्यांकन करते हुए उन्हें अपेक्षित श्रद्धांजलि देगी, ऐसा विश्वास है.

बुधवार, 19 नवंबर 2008

भारतीय संस्कृति संसद में बच्चन के मधुकाव्य पर अभिनव आयोजन



कोलकाता। हरिवंश राय बच्चन के जन्मशती समारोह के अन्तर्गत संसद परिवार की ओर से आयोजित संगीतमय कार्यक्रम बच्चन का मधुकाव्य शहर के काव्यानुरागी श्रोताओं के लिए यादगार अनुष्ठान बन गया। खचाखच भरे सभागार में लोगों ने मधुशाला एंव अन्यान्य रचनाओं के माध्यम से भरपूर ज्ञानरंजन किया। हाला, प्याला, साकी और मधुशाला रुपी प्रतीकों के माध्यम से कवि के राष्ट्रदर्शन, भक्ति, श्रृंगार, वेदना व ऋतु सम्बन्धी रूबाइयों का प्रस्तुतीकरण विभिन्न रागों में किया गया। जिससे दर्शकमंत्रमुग्ध हो गए। इसके अलावा बच्चनजी की सुप्रसिद्ध कविताएं इस पार-उस पार एवं पथभ्रष्ट की आवृति की गई। मधुकाव्य से सम्बन्धित रोचक संस्मरण एवं बच्चन जी के जीवन से सम्बद्ध प्रेरक घटनाओं का भी जिक्र किया गया। कार्यक्रम का सफल संचालन, संयोजन संस्था के कर्मसचिव श्रीराम चमडिय़ा ने किया। काव्यपाठ आदि में अंशग्रहण किया सर्वश्री काशीप्रसाद खेरिया, गोविन्द फतेहपुरिया, श्यामसुन्दर बगडिय़ा, श्रीराम चमडिय़ा, राजगोपाल सुरेका, महेश लोधा, विजय झुनझुनवाला, विश्वनाथ केडिया, राजीव माहेश्वरी, प्रमोद शाह, केशव बिन्नानी, चंद्रशेखर लाखोटिया एवं सर्वश्रीमती डा। तारा दुगड़, चित्रा नेवटिया, नीता सिंघवी एवं विद्या भण्डारी ने। अनुष्ठान की सफलता के लिए जनसंपर्क प्रभारी अजय अग्रवाल सक्रिय थे।

सोमवार, 17 नवंबर 2008

भूतों की दुनिया - पवन निशान्त





धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी गरीबी
पैसा कमाने के सपने तो होंगे पर जरूरत नहीं होगी
जरूरत पूरी करने की चुभन तो होगी पर एहसास मर जाएगा
न्यूज प्रिंटर की तरह धड़ाधड़ बाहर आएंगी जरूरतें
चिल्लाएंगी हंगामा करेंगी पर अधूरी जरूरतें
पूरी होने वाली जरूरतों का घोंट देंगी गला
सुबह का अखबार कौन पढ़ना चाहेगा
अल्सुबह काम पर जाना होगी सबसे बड़ी जरूरत
तब रात में निकलने शुरू होंगे अखबार या तब
जब कोई उन्हें पढ़ने की जरूरत जताएगा
दिन भर बिना कमाये लौटेगा आदमी
रात में काम पर जाएंगी औरतें, लगी रहेंगी काम में
यक्ष प्रश्न बार-बार परीक्षा लेगा उनकी
किसका बिस्तर गर्म करें कितनों का बिस्तर गर्म करें
कि गरम हो सके सुबह का चूल्हा
बिस्तर गरम कराने वाले छोड़ चुके होंगे शहर
शहर के अस्पताल भरे होंगे उनसे
हाहाकार मचा होगा अस्पतालों में-
ऊं जूं सः मा पालय, ऊं जूं सः मा पालय पालय।
बच्चे निकलेंगे पूरा परिवार संगठित होकर
कमाएगा और पाएगा फूटी कौड़ी
तब जागेगा प्यार आर्थिक अभाव में
प्यार भूख में होगा पर भूख न लगेगी
बाजारवाद की व्याख्या करके
विजयी भाव से भर जाएगा प्यार
इतिहासकारों का शरीर फट चुका होगा
अर्थशास्त्रियों के भेजे में हो जाएगा कैंसर या मधुमेह से
मारे जा चुके होंगे सब के सब
जनता का आदर्श हो जाएगा आर्थिक अभाव
पूंजी का कोई अर्थ न रह जाएगा
जो पूंजी वाला होगा, वही सबसे गरीब होगा
पैसे वाला पैसे वाले से दूर भागेगा
जो जितना अमीर होगा उतना अश्पृश्य हो जाएगा
जो जितना गरीब होगा उतना अपना होगा
पूंजी के साथ आने वाले मर्ज उड़न छू हो चुके होंगे

मुझे भूतों की दुनिया दिखती है

उस दुनिया में मारामारी नहीं है
आदमी भड़ुआ नहीं है औरत बाजारी नहीं है
बच्चों के आगे बड़ा होने की लाचारी नहीं है
बड़ी हो रही है भूतों की दुनिया
समय के सहवास में हुए स्खलन से हो रहा है उसका जनम
किसी पल कबीर की उलटबांसियों की तरह
सामने आकर खड़ी हो सकती है भूतों की दुनिया
उनकी आंखों में लाल डोरे फैलने लगे हैं
जाप चल रहा है चल रहा है और तेज हो रहा है
तीव्रतम हो रहे हैं उनके स्वर-
परित्राणाय साधुनाम......

भूतों की हथियार मंद दुनिया से
हमले का अंदेशा लगता है


पवन निशांत का परिचय
जन्म-11 अगस्त 1968, रिपोर्टर दैनिक जागरण, रुचि-कविता, व्यंग्य, ज्योतिष और पत्रकारिता
पता: 69-38, महिला बाजार,
सुभाष नगर, मथुरा, (उ.प्र.) पिन-281001
E-mail: pawannishant@yahoo.com

रविवार, 16 नवंबर 2008

डॉ.गुलाबचंद कोटड़िया की कविताएँ



डॉ.गुलाबचंद कोटड़िया का जन्म 07 अगस्त 19935 लोहावट गांव जिला जोधपुर (राजस्थान) में हुआ । आपकी शिक्षा: अजमेरे इंटर, विशारद (बी.ए.हिन्दी)
आपकी अबतक निम्न पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।
पाँच हिन्दी कहानी संग्रह
1. रो मत अक्कल बाई 2. बाई तूं क्यों आई? 3. भावनाओं का खेल 4. विधि का विधान 5. जंग खाए लोग
पाँच हिन्दी कविता संग्रह
संवेदना के स्वर, ठूंठ की आशीष, मिट्ती के रंग हज़ार, रहुँ न रहुँ और रेत की पीड़ा
एक राजस्थानी कविता संग्रह: देश री सान-राजस्थान
एक राजस्थानी कहानी संग्रह: थोड़ा सो सुख
छह बाल साहित्य की पुस्तकें:
101 प्रेरक प्रसंग, 101 प्रेरक कथाएं, 101प्रेरक पुंज, प्रेरणा दीप, 101 प्रेरक बोध कथाएं और 101 प्रेरेक कहानियां
तीन निबन्ध संग्रह:
घूमता आईना, जीवन मूल्य और दाम्पत्य ज्यामिति (शीघ्र प्रकाश्य)
आकाशवाणी चेन्नई एवं दिल्ली से रचनाएं प्रसारित। दूरदर्शन मैट्रो से स्वलिखित नाटक में अभिनय। सौ से अधिक काहानियां व लगभग 750 लेख, कविताएंविभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
सम्मान:
साउथ चक्र, राजस्थानी एसोसियशन तमिलनाडु द्वारा 'राजस्थान श्री', तमिलनाडु हिंदी अकादमी, भारती भूषण, रामवृ्क्ष बेनीपुरी जन्म शताब्दी सम्मन, हिंदी सेवी सम्मन, साहित्यानुशीलन समिति राजस्थानी भाषा में डी.आर.लिट्, सुभद्राकुमारी चौहान जन्म शताब्दी सम्मन, भाषा रत्न सम्मन, साहित्य महोपाध्याय, भारती भूषण एवं अन्य कई सम्मान।
संप्रति: स्वतंत्र लेखन
पता: 469, मिंट स्ट्रीट, चेन्नई- 600079. फोन: 044-25203036


इनकी दो कविताएँ:


बूंद


बूंद
गिरी धरती पर
सौख़ ली गई
मानव पर पोंछ ली गई
समुन्दर में लुप्त हो गई
पेड़ पौधों की जड़ों में
जीवन दायिनी बन गई।
पत्ते पर गिरी
थोड़ी देर मोती सी चमकी
सूर्य की गरमी से
वाष्प बन उड़ गई।
एक बूंद विष मृत्यु की गोद में सुला देती है,
एक बूंद अमृत अमर बना देती है,
यह भी किसी ने नहीं जाना
बूंद को किसी ने
महत्व नहीं दिया,
वह क्रंदन कर उठी
लोग क्यों नहीं
कहतें हैं वह महान है।
बूंद बूंद घड़ा भरता है
क्या वे उससे भी अनजान हैं?


अग्नि नक्षत्र


तमिलनाडु में व
दक्षिणी प्रदेशों में
ग्रीष्म ऋतु में
एक महीना अग्नि नक्षत्र
प्रति वर्ष लगता है।
लगता तो पूरे भारत में होगा
परन्तु अहम् खास यहीं पा गया।

झूलसते हैं लोग
उनके जीव फड़फड़ाते हैं
भूमि, जीव-जन्तु, घास, पेड़,
पशु-पक्षी, उस महीने में
त्रस्त हो जाते हैं भयंकर
गर्मी से तोबा-तोबा कर उठते हैं।

पशु पक्षियों को तो छाया भी
विश्राम हेतु मिल जाती है
दैनिक मजदूरों को भरगर्मी में
पसीने में सराबोर होते हुए
काम करना ही होता है
जिनके पास
खाने को सुबह है तो शाम नहीं
उनके लिए अग्नि नक्षत्र का
कोई महत्व नहीं होता
होता है तो भी मजबूर है
हाँ धनी संपन्न लोग
सुविधा प्राप्त होने के कारण
एयरकंडीशनर कमरों में दुबक जाते हैं
ठंढे की तरह।



कवि मंच में आप भी भाग लें।

शनिवार, 15 नवंबर 2008

घर का चूल्हा जलता देखा - शम्भु चौधरी



घर का चूल्हा जलता देखा
चूल्हे में लकड़ी जलती देखी
उस पर जलती हाँड़ी देखी,
हाँड़ी में पकते चावल देखे,
फिर भी प्राणी जलते देखे।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


खेतों में हरियाली देखी
घर में आती खुशीहाली देखी
बच्चों की मुस्कान को देखा,
मन में कोलाहल सा देखा,
मंडी में जब भाव को देखा
श्रम सारा पानी सा देखा।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


घर का चूल्हा जलता देखा
बर्तन-भाँडे बिकता देखा
हाथ का कंगना बिकता देखा,
बिकती इज़्ज़त बच्चों को देखा
खेते -खलिहानों को बिकता देखा
हल-जोड़े को बिकता देखा।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


बैल को जोता, खुद को जोता,
बच्चों और परिवार को जोता
ब्याज के बढ़ते बोझ को जोता
सरकार को जोता, फसल को जोता,
घरबार- परिवार को जोता
दरबारी-सरपंच को जोता,


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


मुर्दों की संसद को देखा
बन किसान मौज करते देखा,
घर का चूल्हा जलता देखा
बेच-बेच ऋण चुकता देखा
फिर किसान को मरता देखा
फांसी पर लटकता देखा।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।

साहित्य शिल्पी पर टिप्पणियाँ



-शम्भु चौधरी, एफ.डी.-453/2,
साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106, मोबाइल: 0-9831082737.
16 नवम्बर'2008

स्मृति शेष: कन्हैयालाल सेठिया की कालजयी रचनायें



कन्हैयालाल सेठिया
११ सितम्बर १९१९ : ११ नवम्बर 2008


आज हिमालय बोला


जागो, जीवन के अभिमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
लील रहा मधु-ऋतु को पतझर,
मरण आ रहा आज चरण धर,
कुचल रहा कलि-कुसुम,
कर रहा अपनी ही मनमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
साँसों में उस के है खर दव,
पद चापों में झंझा का रव,
आज रक्त के अश्रु रो रही-
निष्ठुर हृदय हिमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
हुआ हँस से हीन मानसर,
वज्र गिर रहे हैं अलका पर,
भरो वक्रता आज भौंह में,
ओ करुणा के दानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !


कुँआरी मुट्ठी !


युद्ध नहीं है नाश मात्र ही
युद्ध स्वयं निर्माता है,
लड़ा न जिस ने युद्ध राष्ट्र वह
कच्चा ही रह जाता है,
नहीं तिलक के योग्य शीश वह
जिस पर हुआ प्रहार नहीं,
रही कुँआरी मुट्ठी वह जो
पकड़ सकी तलवार नहीं,


हुए न शत-शत घाव देह पर
तो फिर कैसा साँगा है?
माँ का दूध लजाया उसने
केवल मिट्टी राँगा है,
राष्ट्र वही चमका है जिसने
रण का आतप झेला है,
लिये हाथ में शीश, समर में
जो मस्ती से खेला है,
उन के ही आदर्श बचे हैं
पूछ हुई विश्वासों की,
धरा दबी केतन छू आये
ऊँचाई आकाशों की,
ढालों भालों वाले घर ही
गौतम जनमा करते हैं,
दीन-हीन कायर क्लीवों में
कब अवतार उतरते हैं?


नहीं हार कर किन्तु विजय के
बाद अशोक बदलते हैं
निर्दयता के कड़े ठूँठ से
करुणा के फल फलते हैं,


बल पौरुष के बिना शन्ति का
नारा केवल सपना है,
शन्ति वही रख सकते जिनके
कफन साथ में अपना है,
उठो, न मूंदो कान आज तो
नग्न यथार्थ पुकार रहा,
अपने तीखे बाण टटोलो
बैरी धनु टंकार रहा।

डॉ.विजय बहादुर सिंह की कुछ कविताएँ:


डॉ. विजय बहादुर सिंह का परिचय:


प्रख्यात आलोचक और कवि डॉ.विजय बहादुर सिंह ने हाल में ही भारतीय भाषा परिषद में निदेशक के पद का कार्यभार सम्भाला है। 'नागार्जुना का रचना संसार', 'नागार्जुन संवाद', 'कविता और संवेदना', 'समकालीनों की नज़र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल', 'उपन्यास: समय और संवेदना, महादेवी के काव्य का नेपथ्य आदि आलोचना पुस्तकें तथा मौसम की चिट्ठी, पतझड़ की बांसुरी, पृथ्वी का प्रेमगीत, शब्द जिन्हें भूल गयी भाषा तथा 'भीम बेटका' काव्य कृतियां प्रकाशित। भवानी प्रसाद मिश्र, दुष्यंत कुमार और आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी की ग्रंथावलियों का संपादन। आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी की जीवनी 'अलोचक का स्वदेश' एवं शिक्षा और समाज सम्बंधी कृतियां ' आओ खोजें एक गुरु' और 'आजादी के बाद के लोग' प्रकाशित।


1. सच:


सच, सच की तरह था
झूठ भी था झूठ की तरह
फिर भी
मिलते जुलते थे दोनों के चेहरे
समझौता था परस्पर
थी गहरी समझदारी
राह निकाला करते थे
एक दूसरे की मिलकर
सच की भी अपनी दुकानदारियां थीं
मुनाफे थे झूठ के भी अपने
सच, सच की तरह था।


2. विश्वास


विश्वास
एक ऐसी खूंटी है
जिस पर टंगे हैं सबके कपड़े
उसके भी
जो विश्वासघाती है।


3. बरसों बाद


बरसों बाद बैठे हम इतने करीब
बरसों बाद फूटी आत्मा से
वही जानी-पहचानी सुवास
बरसों बाद हुए हम
धरती हवा आग पानी
आकाश...


4.क्षितिज


क्षितिज पर
छाई हुई है धूल
उदास धुन की तरह
बज रही है खामोशी...

सांस की तरह आ-जा रही है
वो मेरे फेफड़ों में
धड़क भी तो रहा हूं मैं
ठीक दिल की तरह...


5. अनकिया


अनकिया
गया नहीं किया
हूं
जितना कर गयीं तुम


6. पतझर


पतझर
लटका हुआ है पेड से
पेड़ की चुप्पी तो देखिये
देखिये उसका धीरज


7.इतनी खास हो तुम


करीब मेरे मगर खुद के आस-पास हो तुम
लहकती बुझाती हुई आग की उजास हो तुम
चहकते गाते परिन्दे की तुम खामोशी हो
खिली सुबह की तरह शाम सी उदासी हो तुम
हजार चुप से घिरी हलचलों के घेरे में
रूकी रूकी-सी हिचकती सी कोई सांस हो तुम
बने नहीं कि टूट जाय एक बुत जैसे
इतनी आम इतनी खास हो तुम।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

स्मृति शेष: जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो....


श्री सेठिया जी के काव्यों पर हिन्दी जगत के विचारों की एक झलक:
आपकी कविता तथा कला का मणि-कांचन संयोग मुझे बहुत पसन्द आया । ऐसे संयोजित रूप से अपनी भावनाओं तथा चिन्तन स्फुरणों को काव्याभिव्यक्ति देकर आपने रचना सौष्ठव का अत्यन्त सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है। आपकी रचनाओं को पढ़कर स्वतः ही लगता है कि कविता इस युग में मरी नहीं है बल्कि और भी गहन गंभीर होकर जीवन के निकट आ गई है। - सुमित्रानन्दन पन्त


आप अन्तर्मुखी कलाकार हैं। अन्तर्जगत में प्रवेश कर वस्तुवादी जगत की जो व्याख्या करते हैं, उससे सत्य शतमुखी होकर उजागर होता है । छोटी-छोटी अभिव्यक्तियां मधु की वे बूंदे हैं जिनमें अनेक पुष्पों के पराग की सुगन्ध समाहित है। मैं अपनी श्रद्धा व्यक्त करता हूँ। - डॉ.रामकुमार वर्मा


प्रणाम- ‘प्रणाम’ पढ़ने बैठा, तो इसके गीत मुझे लिपट गये और तीन दिन की बैठकों में ही इसे पूरा पढ़ गया। आप चिन्तन के कलाकार हैं । चिन्तन को विवेचन। विश्लेषण का रूप देना आसान है, गंभीर बात गंभीर विधा पर उसे गीत का रूप देना और गीत में तितली की सी जो सकुमारता अनिवार्य है उसे बचाये रखना बहुत-बहुत मुष्किल है। आप इस मुश्किल काम में इतने सफल हुए है कि गीतकारों में मुझे कोई दूसरा नाम ही याद नहीं आ रहा है कि जिसने इस कार्य में, आपके समकालीन काव्य में ऐसी सफलता पाई हो । आपके चिन्तन की पृष्ठभूमि संस्कृति-धर्म-दर्शन है इससे आपकी सफलता का मूल्य और भी बढ़ गया है।
मर्म- ‘मर्म’ मिला। एक-एक हीरा बार-बार देखा, परखा, पहचाना, माना । मेरा अभिवादन ।
अनाम- रत्नकृति ‘अनाम’ मिली । आपने एक नई विधा की ही सृष्टि नहीं की। एक नया विधान भी साहित्य को दिया जिसके द्वारा आपके गीत भी अनुशासित हैं और दूसरी कृतियां भी। आप अमर कार्य कर रहे हैं।
‘ताजमहल’- मिला, जैसे मजदूर को भला मालिक मजदूरी से निबटते ही शरबत पिला दे, वाह ।
- कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’


प्रणाम- ‘प्रणाम’ की कविताएं मेरे मर्म पर बड़ी शक्ति से रेखापात कर गई ।
खुली खिड़कियां चैड़े रास्ते- नयापन और काव्यत्व दोनो से समृद्ध है । - कुबेरनाथ राय


प्रतिबिम्ब- ‘प्रतिबिम्ब’ के गीत पढ़कर हिन्दी के उज्जवल भविष्य की आशा बंधती है ।
प्रणाम- ‘प्रणाम’ के सभी गीत उच्च कोटि के हैं । - रामधारीसिंह ‘दिनकर’


प्रतिबिम्ब-‘प्रतिबिम्ब’ आप के सुन्दर हृदय का प्रतिबिम्ब है। - मैथिलीशरण गुप्


मर्म- ‘मर्म’ गहरे में स्पर्ष करनेवाली कृति है । - जैनेन्द्रकुमार जैन


अनाम- चिन्तन का यह नया आयाम है । हम लोगों के लिये यह चिन्तन बोध का विशेष दिशा निर्देष है । बहुत कुछ नया प्रयोग किया है । - बालकवि बैरागी


तुमुल साहित्यिक कलह के कोलाहल में श्रद्धा की ऐसी सहज अभिव्यक्ति, ऐसी नपी-तुली भाषा, ऐसी तन्मयता, यह तो आश्चर्य की बात है । ‘प्रणाम’ के गीतों में सहज समर्पण का स्वर है । - विष्णुकांत शास्त्री


आपके लिखने में जो गहराई है, वह असामान्य है, विरल है। - भवानी प्रसाद मिश्र
कन्हैयालाल सेठिया का उर्दू काव्य ताजमहल के सौन्दर्य पर चमकता हुआ प्रदीप्त हीरा है । - अली सरदार जाफरी


महाकवि सेठिया शब्द ब्रह्म के साधक हैं ।- प्रो0 सिद्धेश्वर प्रसाद






दैनिक भास्कर, जयपुर ने बुधवार 2008 के एक पेज के स्मृति शेष: कन्हैयालाल सेठिय जी पर विशेष अंक निकाला, इसमें लिखा है कि ' 'धरती धोरां री' और 'अरै घास री रोटी' जैसे अमर गीतों को रचकर राजस्थान को एक नई पहचान और गरिमा दिलाने वाले कवि कन्हैयालाला सेठिया नहीं रहे। वे राजस्थान ही नहीं बल्कि देश के इने-गिने कवियों में थे, जिनकी रचना 'धरती धोरां री' को तो इतना सम्मान प्राप्त हुआ कि वह राजस्थान ही नहीं बल्कि विश्वभर के राजस्थानी भाषा प्रेमियों के लिए प्राणगीत के समान बन गई है। उनका काव्य केवल हिंदी व राजस्थानी तक ही सीमित नहीं था उर्दू भाषा पर भी उनका अधिकार चमकृत करने वाला था।"



श्री श्यामजी आचार्य ने राजस्थान से लिखा:

प्रयाग में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के हीरक जयंती समारोह में कन्हैयालाल सेठिया ने हिन्दी भाषा-भाषियों के भूखंड में एक सांस्कृतिक महासंघ की कल्पना की थी। उन्होंने कहा था कि "हिन्दी के विशाल वट-वृ्क्ष की शाखाएं सुदूर देशों में भी पल्लवित-पुष्पित और फलित हो रही हैं। वह दिन दूर नहीं जब विश्व के हिन्दी भाषा-भाषी भूखण्ड एक सांस्कृतिक महासंघ के रूप में गठित होकर अपने वर्चस्व को प्रतीति विश्व को करा सकेंगे।"
उन्होंने इसी हीरक जयंती समारोह में हिन्दी लेखन के बारे में कहा था- 'हिन्दी के अधिकांश लेखक शाश्वत सत्य की अन्वेषक ऋषि-प्रज्ञा की उपेक्षा कर पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं। सतत विकाशशील चेतना को वादों के नागपाश में आबद्ध करने का जो विश्व-व्यापी षड्यंत्र चल रहा है उससे हम हिन्दी के लेखकों को बचाएं और समग्र सत्य के प्रति ही हमारा लेखन प्रतिबद्ध रहे, यही हिन्दी की अस्मिता और समृद्धि के लिए श्रेय है। केवल परिस्थितियों से जुड़ा हुआ साहित्य कालक्रम में मात्र घटना बनकर रह जाता है और वह जीवंत मूल्यों से कट जाता है।' उनका सृजन आत्म-दर्शन करने वाला और पाठक को भी भीतर क्षांकने की प्रवृत्ति पैदा करने वाला था। 'सृजन' शीर्षक से अनकी कविता पढ़िए -



मुझे है शब्द की प्रतिष्ठा का ध्यान,
वही जहां जिसका स्थान
अनुशासित मेरे भावाकुल छन्द,
उनमें परस्पपर रक्त का संबंध,
नहीं सृजन मेरे लिए व्यसन,
वह संजीवन प्राण का स्पन्दन।


उनकी कविताओं में मानव-मात्र के लिये अगाध स्नेह, प्यार और संवेदना का स्पंदन था। अनकी कविता 'सबसे मेरी प्रेम सगाई" पढ़िए-



मेरा है संबंध सभी से
सबसे मेरी स्नेह सगाई।
मैं अखण्ड हूं, खंडित होना
मेरे मन को नहीं सुहाता
पक्ष विपक्ष करूं मैं किसका
मैं निष्पक्ष सभी से नाता
मेरे सन्मुख सभी बराबर
राजा, रंक, हिमालय, राई।।

सबके कुशलक्षेम का इच्छुक
सब में सत है, मुझे प्रतिष्ठा
सब ही मेरे सखा बंधु हैं
मैं सबके मन की परछाई।।

सबकी पद-रज चंदन मुझको
सबके सांस सुरभिमय कुंकुम
सबका मंगल मेरा मंगल
गाता मेरी प्राण विहंगम
जीवन का श्रम ताप हरे, यह
मेरे गीतों की अमराई
सबसे मेरी प्रेम सगाई।


राजस्थानी, हिन्दी, उर्दू और संस्कृत में मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने वाले दार्शनिक कवि सेठिया की स्मृतियां राजस्था की धरा को उनके गीतों से गुंजाती रहेगी। चाहे वह 'धरती धोरां री' या 'अरे घास की रोटी' हो या कि 'कुण जमीन को धणी' ये गीत ही इस प्रदेश की प्रेरक शक्ति बन गए हैं। साभार: दैनिक भास्कर, राजस्थान: 12 नवम्बर 2008
समाचार पत्रों की नजर में









पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत:


पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत ने स्व. सेठिया के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए फैक्स संदेश में कहा कि - " साहित्य मनीषी कन्हेयालाल सेठिया के निधन का समाचार पाकर मैं स्तब्ध रह गया। उन्होंने अपनी कालजयी रचनओं से राजस्थानी साहित्य, कला व संस्कृति की जो सेवा की है, वह सदैव स्मरण की जायेगी। उन्होंने अपनी काव्य रचना "धरती धोरां री...." के जरिये राजस्थान की समृद्धि व सांस्कृतिक पहचान पूरे देश व विदेश में पहुंचाई। उनके निधन से पूरे राजस्थान व साहित्य जगत की ऐसी क्षति हुई है जिसकी पूर्ति करना असंभव है। सेठियाजी के साथ मेरे वर्षों से व्यक्तिगत संबंध थे। राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलवाने के प्रश्न को लेकर वे कई बार मुझसे मिले और ये उनके प्रास का ही फ़ल था कि राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलवाने का संकल्प विधानसभा में 2003 में पारित किया गया।"


वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण बिहारी मिश्र


हिन्दी जगत के वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण बिहारी मिश्र ने कहा कि- " कवि सेठिया राजस्थानी के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में सम्मानित थे। राजस्थानी भाषा को उन्होंने आजीवन प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करते रहे। पिछले कुछ दिनों से वयजनित निष्क्रियता उनमें आ गयी थी। अपनी साहित्य साधना से उन्होंने लोक यात्रा की कृतार्थरा आयोजित की। किसी भी व्यक्ति के लिये यह बड़ी उपलब्धी है।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

दूर अँधेरा करे जो दिल का ऐसा दीप जलाना है



मुश्किल सफ़र है फिर भी मंज़िल तुम्हें मिले
मझधार में हो नाव तो साहिल तुम्हें मिले
हमने ख़ुदा से रात दिन मांगी है यह दुआ
हर हाल में जो ख़ुश रहे वो दिल तुम्हें मिले

*****

बादल की तरह हमको छुपा ले जो धूप में
ऐसा तो एक दोस्त भी क़ाबिल नहीं मिला
भटकी रही हमेशा ये लहरों के दरमियां
इस ज़िंदगी को आज तक साहिल नहीं मिला

*****

याद के सहरा में अब जाऊं तो जाऊं किसलिए
थम गए आँखों के आँसू हिचकियां कम हो गईं
रेज़ा रेज़ा होके टूटा मेरे का दिल का आईना
दोस्ती में अब मेरी दिलचस्पियां कम हो गईं

*****

कौन है दोस्त यहां यार किसे कहते हैं
किसको ख़ामोशियां इज़हार किसे कहते हैं
फूल देकर किसी लड़की को रिझाने वालों
तुमको मालूम नहीं प्यार किसे कहते हैं

*****

साथ तेरा मिला तो मुहब्बत मेरी
दिल के काग़ज़ पे उतरी ग़ज़ल हो गई
तूने हँस के जो देखा मेरी ज़िंदगी
झील में मुस्कराता कँवल हो गई

*****

तेरी हर अदा है कमाल की
कि अज़ीब तेरा ये नाज़ है
जिसे सुनके गाती है ज़िंदगी
तू धड़कनों का वॊ साज़ है

*****

तेरे हुस्न में है बड़ी कशिश
तेरी आंख प्याला शराब का
है बदन की ख़ुशबू इस तरह
तू है फूल जैसे गुलाब का

*****

ग़मज़दा आँखों का पानी एक है
और ज़ख़्मों की निशानी एक है
हम दुखों की दास्तां किससे कहें
आपकी मेरी कहानी एक है

*****

हमको तुमको हर हालत में अपना फ़र्ज़ निभाना है
राह से भटके हर राही को मंज़िल तक पहुँचाना है
दिल से दिल तक सीधी सच्ची प्यार की कोई राह बने
दूर अँधेरा करे जो दिल का ऐसा दीप जलाना है

कुछ मुक्तक [कविता] - देवमणि पांडेय
http://www.sahityashilpi.com/

नहीं रहे.... अमर गीत 'धरती धोरां री' के रचनाकार

नहीं रहे.... अमर गीत
धरती धोरां री !
आ तो सुरगां नै सरमावै,
ईं पर देव रमण नै आवै,
ईं रो जस नर नारी गावै,
धरती धोरां री !
के रचनाकार
युगकवि श्री कन्हैयालाल सेठिया
कथा-व्यथा की तरफ से हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि
कथा-व्यथा का इस माह का अंक श्री सेठिया जी को समर्पित
http://kathavyatha.blogspot.com/

नोट: अगले माह हेतु आपकी नई सामग्री आमंत्रित की जाती है।
शम्भु चौधरी
संपादक,
कथा-व्यथा

सोमवार, 10 नवंबर 2008

महामनीषी पद्मश्री श्री कन्हैयालाल सेठिया नहीं रहे...


11 नवम्बर 2008; कोलकाता: महामनीषी पद्मश्री श्री कन्हैया लाल सेठिया नहीं रहे। आज इनके बड़े पुत्र से बात हुई कि दोपहर तीन बजे उनकी अमर शोभा यात्रा इनके निवास स्थान : भवानीपुर में 6, आशुतोष मुखर्जी रोड, कोलकात्ता-20 से नीमतल्ला घाट की ओर प्रस्थान करेगी।


मनीषी, कर्म-प्रतिभा एवं संवेदनशीलता की त्रिवेणी के साकार प्रतीक, करोड़ों राजस्थानियों की धड़कनों के प्रतिनिधि गीत ‘धरती धौरां री’ एवं अमर लोक गीत ‘पातल और पीथल’ के यशस्वी रचियता, श्री कन्हैयालाल सेठिया का जन्म 11 सितम्बर 1919 ई0 को राजस्थान के सुजानगढ़ शहर में एक सुप्रसिद्ध व्यवसायी परिवार में हुआ था । माता श्रीमती मनोहरी देवी व पिता छगनमल जी दोनों ही शिक्षाप्रमी थे । महाकवि श्री सेठिया जी का विवाह लाडनू के चोरड़िया परिवार में श्रीमती धापूदेवी के साथ सन् 1939 ई0 में हुआ । आपके परिवार में दादाश्री स्वनामधन्य स्व.रूपचन्द सेठिया का तेरापंथी ओसवाल समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था। इनको श्रावकश्रेष्ठी के नाम से संबोधित किया जाता है। श्री जयप्रकश सेठिया इनके बड़े पुत्र हैं, छोटे पुत्र का नाम श्री विनय प्रकाश सेठिया है और एक सुपुत्री सम्पतदेवी दूगड़ है ।


जब आप आठ वर्ष के थे, तभी से पद्य-रचना करने लगे । उस समय इनकी कविता का विषय भारत के स्वाधीनता-संग्राम से जुड़े लोगों की गौरवगाथा लिखना था । इनकी पहली कृति राजस्थानी में ‘रमणिये रा सोरठा’ 1940 में प्रकाशित हुई । हिन्दी की प्रथम कृति ‘वनफूल’ भी इसके बाद 1941 में प्रकाशित हुई । उसकी भूमिका डॉ.हरिवंश राय ‘बच्चन’ ने लिखी थी । तब से अब तक कवि चिन्तक, दार्शनिक सेठियाजी अनवरत लिखते रहे हैं । आपकी दो दर्जन से अधिक काव्य-रचनाओं में प्रमुख हैं-हिन्दी काव्य


कृतियाँ ‘वनफूल’, ‘मेरायुग’, ‘अग्निवीणा’, ‘प्रतिबिम्ब’, ‘अनाम’, ‘निर्गन्थ’, ‘दीपकिरण’, ‘मर्म’, ‘आज हिमालय बोला’, ‘खुली खिड़कियाँ चौड़े रास्ते’, ‘प्रणाम’, ‘त्रयी’ आदि और राजस्थानी काव्य-कृतियाँ हैं- ‘मींझर’, ‘गळगचिया’, ‘रमणिये रा सोरठा’, ‘धर कूंचा धर मजलाँ’, ‘कूँ कूँ’, ‘लीलटांस’ आदि ।
श्री सेठिया जी के साथ लेखक शम्भु चौधरी


1942 में जब गांधीजी ने ‘करो या मरो’ का आह्नान किया, तब इनकी कृति ‘अग्निवीणा’ प्रकाशित हुई । जिस पर बीकानेर राज्य में इनके ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चला और बाद में राजस्थान सरकार ने आपको स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी के रूप में सम्मानित भी किया । महात्मा गांधीजी की मृत्यु पर भी आपकी एक कृति प्रकाशित हुई थी । इसमें देश बंटवारे के दौरान हुई लोमहर्षक व वीभत्स घटनाओं से जुड़ी रचनाएं संग्रहीत हैं । इसके बाद 1962 में हिन्दी-कृति ‘प्रतिबिम्ब’ का प्रकाशन हुआ । इसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है । इसकी भूमिका हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने लिखी है ।


आपकी ‘लीलटांस’ को 1976 में साहित्य अकादमी द्वारा राजस्थानी भाषा की उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में पुरस्कृत किया गया एवं ‘निर्ग्रन्थ’ पर भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ज्ञानपीठ का ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ मिला । 1987 में आपकी राजस्थानी कृति ‘सबद’ पर राजस्थानी अकादमी का सर्वोच्च ‘सूर्यमल्ल मिश्रण शिखर पुरस्कार’ प्राप्त हुआ । सन् 2004 में आपको ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया । आपके समस्त साहित्य को ‘राजस्थान परिषद’ ने चार खंडों में ‘समग्र’ के रूप में प्रकाशित किया है । एक खंड में राजस्थानी की 14 पुस्तकें, दो खंडो में हिन्दी एवं उर्दू की 20 पुस्तकें समाहित हैं । चौथा खंड इनके 9 ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में हुए अनुवाद का है जिसमें मूल पाठ भी साथ है ।


श्री सेठिया जी का परिवार 100 वर्षों से ज्यादा समय से बंगाल में है । पहले इनका परिवार 199/1 हरीसन रोड में रहा करता था । सन् 1973 से सेठियाजी का परिवार भवानीपुर में 6, आशुतोष मुखर्जी रोड, कोलकात्ता-20 के प्रथम तल्ले में निवास कर रहा है। ई-हिन्दी साहित्य सभा की तरफ से हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित।
कुछ ओर फोटो ग्राफ्स यहाँ से लें:
इनकी दो अमर रचना
इनकी दो अमर रचना



पातल’र पीथल


अरै घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमर्यो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
हूं लड्यो घणो हूं सह्यो घणो
मेवाड़ी मान बचावण नै,
हूं पाछ नहीं राखी रण में
बैर्यां री खात खिडावण में,
जद याद करूँ हळदी घाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूँ
जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूँ
भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
मैं’लां में छप्पन भोग जका मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाल्यां नीलम रै बाजोट बिनां धरता कोनी,
ऐ हाय जका करता पगल्या
फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया
हिंदवाणै सूरज रा टाबर,
आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिख स्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,
मैं झुकूं कियां ? है आण मनैं
कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां ? हूं सेस लपट
आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूँ दिल्लीस तनैं समराट् सनेषो कैवायो।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो
कै आज हुयो सूरज सीतळ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो
आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,
बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै
रजपूती गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो
राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैर्यां रै मन रो कांटो हो बीकाणूँ पूत खरारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो
धावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो
राणा री हार बंचावण नै,
म्है बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?
मर डूब चळू भर पाणी में
बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो
तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपती खून रगां में है ?
जंद पीथळ कागद ले देखी
राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई
आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाळ संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं
राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं
आ बात सही बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो
स्याळां रै सागै सोवै लो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो
बादळ री ओटां खोवैलो;
म्हे आज सुणी है चातगड़ो
धरती रो पाणी पीवै लो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो
कूकर री जूणां जीवै लो
म्हे आज सुणी है थकां खसम
अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में
तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ नै राणा लिख भेज्यो आ बात कठै तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़तां ही
राणा री आँख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूँ कायर हूँ
नाहर री एक दकाल हुई,
हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं
मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूँ घोर उजाड़ां में भटकूं
पण मन में मां री याद रवै,
हूँ रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,
ओ सीस पड़ै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला,
पीथळ के खिमता बादल री
जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै
बा कूख मिली कद स्याळी नै?
धरती रो पाणी पिवै इसी
चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी
हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तलवार थकां
कुण रांड़ कवै है रजपूती ?
म्यानां रै बदळै बैर्यां री
छात्याँ में रैवैली सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकै लो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्याँ ऐंठ्योड़ी
लोही री नदी बहा द्यूंला,
हूँ अथक लडूंला अकबर स्यूँ
उजड्यो मेवाड़ बसा द्यूंला,
जद राणा रो संदेष गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही।


मींझर से



धरती धोरां री !


धरती धोरां री !
आ तो सुरगां नै सरमावै,
ईं पर देव रमण नै आवै,
ईं रो जस नर नारी गावै,
धरती धोरां री !
सूरज कण कण नै चमकावै,
चन्दो इमरत रस बरसावै,
तारा निछरावल कर ज्यावै,
धरती धोरां री !
काळा बादलिया घहरावै,
बिरखा घूघरिया घमकावै,
बिजली डरती ओला खावै,
धरती धोरां री !
लुळ लुळ बाजरियो लैरावै,
मक्की झालो दे’र बुलावै,
कुदरत दोन्यूं हाथ लुटावै,
धरती धोरां री !
पंछी मधरा मधरा बोलै,
मिसरी मीठै सुर स्यूं घोलै,
झीणूं बायरियो पंपोळै,
धरती धोरां री !
नारा नागौरी हिद ताता,
मदुआ ऊंट अणूंता खाथा !
ईं रै घोड़ां री के बातां ?
धरती धोरां री !
ईं रा फल फुलड़ा मन भावण,
ईं रै धीणो आंगण आंगण,
बाजै सगळां स्यूं बड़ भागण,
धरती धोरां री !
ईं रो चित्तौड़ो गढ़ लूंठो,
ओ तो रण वीरां रो खूंटो,
ईं रे जोधाणूं नौ कूंटो,
धरती धोरां री !
आबू आभै रै परवाणै,
लूणी गंगाजी ही जाणै,
ऊभो जयसलमेर सिंवाणै,
धरती धोरां री !
ईं रो बीकाणूं गरबीलो,
ईं रो अलवर जबर हठीलो,
ईं रो अजयमेर भड़कीलो,
धरती धोरां री !
जैपर नगर्यां में पटराणी,
कोटा बूंटी कद अणजाणी ?
चम्बल कैवै आं री का’णी,
धरती धोरां री !
कोनी नांव भरतपुर छोटो,
घूम्यो सुरजमल रो घोटो,
खाई मात फिरंगी मोटो
धरती धोरां री !
ईं स्यूं नहीं माळवो न्यारो,
मोबी हरियाणो है प्यारो,
मिलतो तीन्यां रो उणियारो,
धरती धोरां री !
ईडर पालनपुर है ईं रा,
सागी जामण जाया बीरा,
अै तो टुकड़ा मरू रै जी रा,
धरती धोरां री !
सोरठ बंध्यो सोरठां लारै,
भेळप सिंध आप हंकारै,
मूमल बिसर्यो हेत चितारै,
धरती धोरां री !
ईं पर तनड़ो मनड़ो वारां,
ईं पर जीवण प्राण उवारां,
ईं री धजा उडै गिगनारां,
धरती धोरां री !
ईं नै मोत्यां थाल बधावां,
ईं री धूल लिलाड़ लगावां,
ईं रो मोटो भाग सरावां,
धरती धोरां री !
ईं रै सत री आण निभावां,
ईं रै पत नै नही लजावां,
ईं नै माथो भेंट चढ़ावां,
भायड़ कोड़ां री,
धरती धोरां री !


मींझर से

शनिवार, 8 नवंबर 2008

रोज मरने का इंतज़ार

उसे पहले अपने खून से सींचा,
फिर उसे अपने दूध से पाला,
आँसुओं को आंचल से पोंछ
उसे आंचल में छुपाया,
जब 'वह' खड़ा हुआ तो
एक नई नारी ने प्रवेश कर
पुरानी नारी को
वृद्धाश्रम की याद दिला दी।
कारण स्पष्ट था,
न तो उसे
फिर से जन्म लेना था,
न ही उसे- उस औरत के आंचल में
फिर से छुपना ही था,
न ही उसे- उसके किसी कष्ट का
होता था आभास,
बस करता था-
रोज मरने का इंतज़ार,
बस करता था-
रोज मरने का इंतज़ार।

by shambhu choudhary

बुधवार, 5 नवंबर 2008

कहीं उजड़ न जाये अरतापात बनाने वाला गांव

प्रेषक: श्री महेश कुमार वर्मा, पटना,

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श्रीराम तिवारी, डोरीगंज : अरता के पात पर उगेलन सूरूज देव छठी घाटे...। रक्त वर्ण वाले उदित सूर्य की आभा का प्रतीक अरतापात के महत्व को बताने वाले इस गीत का एक दूसरा पहलू दिघवारा प्रखंड के झौवां गांव में सोमवार को दृश्यमान हो उठता है। गांव की गलियों में चलते हुए छठ के कर्णप्रिय गीतों की जगह यहां लोगों के खांसने की आवाज सुनायी पड़ती है। अरतापात की निर्माण प्रक्रिया ऐसी है कि इस काम में लगे लोगों में अधिकांश टीबी व दमा के शिकार हो जाते हैं। अरतापात बनाने वाले लालजी दास, मरछिया देवी, फकिरादास, नारायणदास, बुद्धू दास..जैसे करीब दो दर्जन ऐसे नाम हैं समय से पहले ही कालकवलित हो चुके हैं। ये ऐसे नाम हैं जिनकी मौत पिछले एक-दो वर्षो के दौरान हुई है। संरक्षण के अभाव में यह गांव उजड़ने लगा है। सूर्योपासना व लोक आस्था के पर्व छठ का चार दिवसीय अनुष्ठान अरतापात के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। अंतिम अ‌र्घ्य के बाद श्रद्धालु अरतापात को अपने घर के दरवाजे पर साटते हैं या पूजा वाले स्थान पर रखते हैं, ताकि भगवान सूर्य की कृपा बनी रहे। लाखों श्रद्धालुओं का अनुष्ठान पूर्ण हो सके इसके लिए इस गांव के बच्चा से वृद्ध तक पूरे वर्ष अरतापात निर्माण में लगे रहते हैं। इसी गांव में निर्मित अरतापात बिहार, झारखंड व उत्तर प्रदेश के बाजारों में बिकता है। बीड़ी उद्योग की तरह अरतापात को कुटीर उद्योग का दर्जा नहीं मिल सका है। अत: इसके निर्माण में लगे मजदूरों को श्रम विभाग द्वारा उपलब्ध करायी जाने वाली सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है। श्रमिक अस्पतालों में इलाज व बीमा की सुविधा से भी वंचित हैं। वहीं पूरे वर्ष काम करने के बाद भी इतना पैसा नहीं हो पाता कि ठीक से जीवन यापन कर सकें। लाल-लाल अरतापात बनाने में इस गांव के हिन्दू-मुसलमान, ब्राह्मण-क्षत्रिय के साथ अन्य जातियों के लोग पूरे वर्ष लगे रहते हैं। अकवन की रूई से अरतापात का निर्माण होता है। गांव के बच्चे व महिलाएं दियारा क्षेत्र से अकवन की रूई एकत्रित कर घर लाती हैं। इस रूई की धुनाई की जाती है। धुनाई के क्रम में निकलने वाले जहरीला कण के कारण लोग बीमार पड़ते हैं। धुनाई के बाद गिली मिट्टी पर गोलाकार छोटी रोटी की तरह पतली अरतापात बनायी जाती है। इसे अरारोट व रंग के साथ उबाल कर सूखाया जाता है। इसके बाद अरतापात तैयार हो जाता है। महिला मंच नामक स्वयं सेवी संगठन ने स्वयं सहायता समूहों का गठन कर यहां की महिलाओं को कुछ आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी है परन्तु बीमार लोगों के उपचार की व्यवस्था नहीं हो सकी है। महिला मंच की अध्यक्ष नजबून निशा कहती हैं कि अब भी यहां के लोगों के इलाज की व्यवस्था नहीं करायी गयी तो पूरा गांव ही समाप्त हो जायेगा।

साभार: दैनिक जागरण, पटना, ०४.११.२००८, पृष्ठ १४

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

'अणुव्रत' हमें सूक्ष्म से भी सूक्ष्म दृष्टि प्रदान करता है।



सूर्य और अंधेरे की ताकत का इस बात से सहज ही अंदाज लगाया जा सकता हे कि दोनों एक दूसरे के समानान्तर कभी नहीं रहते। जबकि सूर्य को अपनी शक्ति से ही देदीप्यमान होना पड़ता है और अंधेरे के साथ प्राकृतिक ने हवा, पानी और बादलों को सहयोगी बना दिया। फिर भी पल भर का अन्तर नहीं रहता एक दूसरे आने-जाने में। प्रकाश का प्रवेश ही काफी होता है, अंधेरे को मिटाने के लिए। हाँ ! प्रकाश का बना रहना ही अंधेरे को हटाना कहा जा सकता है। आचार्यवर तुलसी जी इस पृथ्वी पर एक अखण्ड दीप के समान आलोकित महानआत्मा हैं जो हम सबके जीवन को ज्योतित करने के लिए अवतीर्ण लिए हैं।
आचार्यवर तुलसी जी इस पृथ्वी पर एक अखण्ड दीप के समान आलोकित महान आत्मा हैं जो हम सबके जीवन को ज्योतित करने के लिए अवतीर्ण लिए हैं। इस अखण्ड दीप का जलना इस बात का द्योतक है कि भले ही अंधकार कितना ही शक्तिशाली, बलवान, ताकतवर, क्रोधी या उद्दण्ड रहा है, भीतर से वह काफी कमजोर और डरपोक भी है, जो एक छोटे से दीप की टीमटीमाती लौ के सामने भी नहीं खड़ा रह पाता।

इस अखण्ड दीप का जलना इस बात का द्योतक है कि भले ही अंधकार कितना ही शक्तिशाली, बलवान, ताकतवर, क्रोधी या उद्दण्ड रहा है, भीतर से वह काफी कमजोर और डरपोक भी है, जो एक छोटे से दीप की टीमटीमाती लौ के सामने भी नहीं खड़ा रह पाता। फिर भी हम अपने आपको उसके सामने समर्पित कर देते हैं।

तेज हवा का झोंका आते ही या पानी की हल्की सी बूंदे भी इस जलती हुई लौ को अपने बांहों में भर कर उड़ा ले जाती है। पुनः अखण्ड दीप उसे बार-बार जलाती रहती है। यह क्रम संसार में चलता रहता है और चलता रहेगा। इसका दूसरा कोई विकल्प अभी तक नहीं हो पाया है। सूर्य का प्रकाशमान होना, छुप जाना, अंधेरे का संसार फैल जाना यह क्रम है जो हमारे जीवन का अब अंग सा बन चुका है। एक बात हमने अपने जीवन में भी अनुभव किया होगा जो व्यक्ति स्वयं को दिव्यमान कर लेते हैं दीप को सदैव जलाये रखते हैं, उनके मुखमंडल पर आभा की किरणें सदा झलकती रहती है। इसीप्रकार हमारे शास्त्रों में व्रत का महत्व है। व्रत भी एक प्रकार का प्रकाश है, जिसे अनैतिकता पर नैतिकता का विजय भी कहा जा सकता है। इस व्रत से भी महान व्रत है- 'अणुव्रत', अणुव्रत से हम सीधा सा अंदाज लगा सकते हैं कि हम सूक्ष्म से भी सूक्ष्म कारणों के निवारण या समाधान के लिये व्रत करें। जिसे आंतरिक या बाहरी दोनों रूप से किया जा सकता है। हमारे पास सब सुविधा रहते हुए भी हम भटकते रहतें हैं, जिसका समाधान 'अणुव्रत' से किया जा सकता है। जिस प्रकार हम 'अहिंसा' का अर्थ सिर्फ 'हिसा' से लगा लेते हैं, पर आत्मीय हिंसा, स्वःहिंसा, विचारों की हिंसा की ओर हमारा ध्यान कदापि नहीं जाता ।
जबकि जैन धर्म में 'अणुव्रत' हमें सूक्ष्म से भी सूक्ष्म दृष्टि प्रदान कर हर प्रकार की हिंसा पर भी नियंत्रण करने का मार्ग दिखाती है। अणुव्रत की आचार संहिता नैतिकता की आचार संहिता है। उसे समझने के लिए अणुव्रत के दर्शन को समझना आवश्यक है। आचार्यवर तुलसी जी ने बहुत संक्षेप में अणुव्रत दर्शन के व्यापक कोण प्रस्तुत किए हैं -


" हमारी दुनिया में सब कुछ परिवर्तनशील ही नहीं होता, कुछ शाश्वत भी होता है। प्रकृति शाश्वत है। मनुष्य की प्रकृति भी शाश्वत है। उसमें आदतें हैं और उन आदतों के हेतु- क्रोध, मान, माया और लोभ आदि तत्त्व हैं। अच्छाई नई नहीं है, बुराई भी नई नहीं है। ये सब चिरकालीन हैं। केवल इनका रूप बदलता रहता है। फिर मनुष्य क्यों नहीं बदलता? अणुव्रत बदलने का दर्शन है। मनुष्य अपनी प्रकृति का निरीक्षण करे, उसे समझे और उसमें परिवर्तन लाने के लिए अभ्यास करे, अणुव्रत इसीलिए है।"


"तुलसी विचार दर्शन" में आचार्य महाप्रज्ञ जी ने लिखा है कि "आचार्य तुलसी का अर्थ है एक महान आत्मा, एक शब्दातीत आत्मा। महान का लघु में समावेश संभव नहीं होता, शब्दातीत को शब्दों में बांधना भी संभव नहीं होता। फिर भी शब्दों की दुनिया में जीता हूँ, इस लिए शब्दातीत को शब्दों में बांधने का प्रयत्न किया है।"


वैसे तो जैन धर्म को समझना बहुत साधना का कार्य है पर आचार्यवर तुलसी जी ने इसे इतने सरल शब्दों में परिभाषित कर जन-जन तक पहूँचा दिया। अणुव्रत के माध्यम से जैन धर्म को तो और व्यपकता प्रदान की है आपने। इस युगपुरुष गुरूवर आचार्य तुलसीजी को मेरे सादर प्रणाम।


-शम्भु चौधरी, एफ.डी. -453/2, साल्ट लेक सिटी, कोलकाता- 700106

राष्ट्रीय महानगर का सांध्य संस्करण नए जोश के साथ पुनः शुरू

कोलकाता. तेजतर्रार युवा पत्रकार प्रकश चंडालिया के संपादन में निकलने वाले हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय महानगर का प्रकाशन नए जोश और तल्ख़ तेवरों के साथ फ़िर शुरू हो गया है. महानगर का प्रकाशन पिछले मई महीने में स्थगित कर दिया गया था. कम्पनी की योजना आक्रामक तेवरों वाले टैब्लोइड साप्ताहिक एवं सामाजिक पत्रिका प्रकाशित करने की थी. लेकिन इस दौरान महानगर के सांध्य संस्करण के हजारों पाठकों ने प्रबंधन पर दबाव बनाये रखा और नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीय महानगर का सांध्य संस्करण ४ नवम्बर से फ़िर स्टैंड पर आ गया. जनसत्ता, संडे मेल जैसे अख़बारों में वर्षों तक खोजी पत्रकारिता कर चुके प्रकाश चंडालिया ने कोलकाता में सांध्य पत्रकारिता को नया आयाम दिया है. कई समाचारपत्रों में वे नियमित कालम लिखते रहे हैं. उनकी बेबाक लेखनी और आक्रामक तेवरों से राजनैतिक पार्टियों के नेता और बयान-बहादुर कर्मी बौखलाए रहते हैं. १९९९ में एक राष्ट्रीय पार्टी के गुंडों ने सांध्य अख़बार के दफ्तर में जबरदस्त तोड़फोड़ तक कर डाली थी. गैर हिन्दी भाषी प्रदेश में बगैर किसी औद्योगिक घराने और सरकारी विज्ञापनों के समर्थन के अखबार चलाना और बाकायदा १० वर्षों से पाठकों में लोकप्रिय बनाये रखना, कलम की धार का परिचय देता है. प्रकाश ने बताया कि पाठकों के दबाव के कारण फिलहाल साप्ताहिक संस्करण कि योजना स्थगित कर दी गई है, लेकिन सामाजिक विषयों पर आधारिक पत्रिका का प्रकाशन शीघ्र शुरू किया जाएगा.

रविवार, 2 नवंबर 2008

जय छ्ठ मंईया की।



पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, कले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ (बिहार में इसे खज़ूर भी कहते हैं) नारीयल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर 12 दीपक लगे हो, गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ अपने बाल धो कर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख दिया जाता है, यहीं से छठ पूजा का व्रत शुरू हो जाता है। 'देवकरी' स्थान पर काफी सावधानी रखी जाती है। इसे छठ मंईया का पूजा स्थल भी कहा जा सकता है।


जय छ्ठ मंईया की। इस त्यौहार की शुरूवात नहाय-खाय, और खरना से शुरू होती है। आईये सबसे पहले यह जाने की नहाय-खाय और खरना क्या होता है।


नहाय-खाय: इस पर्व के पहले दिन नहाय-खाय के दौरान व्रतियों द्वारा स्नान कर कद्दू की सब्जी व अरवा चावल का प्रसाद ग्रहण किया जाता है। इस अवसर पर व्रती 24 घंटे निर्जला उपवास रखेते हैं। तत्पश्चात संध्या अस्ताचलगामी सूर्य को अ‌र्घ्य देंगे। चार दिवसीय इस महापर्व के दूसरे दिन बड़ी संख्या में श्रद्धालु आस-पास के नदी, तालाब या सरोवरों में स्नान कर खीर-पूड़ी का प्रसाद भगवान सूर्य को अर्पण करतें हैं। सूर्यास्त के पूर्व व्रतियों ने भगवान सूर्य को नमन करते हुए मनोवांछित फल की कामना की जाती है। नवनिर्मित चूल्हे पर आम की लकड़ी के द्वारा प्रसाद बनाए जाते हैं। इसके साथ ही प्रारंभ हो जाता है व्रतियों के घर 'खरना का प्रसाद' प्राप्त करने के लिए श्रद्धालुओं के आने-जाने का सिलसिला। देर रात तक श्रद्धालु व्रतियों के घर आते-जाते हैं।


खरना: खरना के अवसर पर दूध और गुड़ से बने खीर प्रसाद (तस्मई) का काफी महत्व होता है व्रती इसे ही ग्रहण करतें हैं, इसके साथ ही शुरू हो जाता है 36 घंटे का निराहार व्रत इस महाव्रत की बहुत बड़ी मान्यता होती है, इस व्रत को करने वाले महिला, पुरुष, बच्चे को समाज में काफी मान और श्रद्धा से देखा जाता है।


इस महापर्व के तीसरे दिन व्रतधरी अस्ताचलगामी सूर्य को नदी या तलाब में खड़ा होकर प्रथम अर्घ्य अर्पित करते हैं। छठ पर्व के चौथे और अन्तिम दिन पुनः अदयीमान सूर्य को दूसरा अर्घ्य देने के साथ ही यह पर्व समाप्त हो जाता है। इस पर्व में 'ठेकुआ' (आटा+चीनी या गुड़ से तला हुआ), ईख, मुली, केला, सूप, दौरा, दीप, कलश, पंखा, झाड़ू का विशेष महत्व होता है। छठ पुजा के अवसर पर लोग श्रद्धा से प्रसाद भिक्षा के रूप में मांग कर ग्रहण करते हैं। छठ पर्व के त्यौहार में भिक्षा मांगने का प्रचलन भी है। इस पर्व के अवसर पर यदि कोई आपके सामने भिक्षा मांगने आ जाये तो आपकी मनोकामनाएं भी भिक्षा ग्रहण व्रती के साथ स्वतः जुट जाती है। आपको कभी ऐसा अवसर मिल जाये कि जब कोई छठव्रती आपसे भिक्षा मांगने आ जाये तो अपनी मनौती के साथ उसके सूप पर भिक्षा दे देना चाहिए। आपकी मनोकामना ठीक उसी क्रम में पूरी हो जाती है जिस क्रम में आपने भिक्षा दिया है। ठीक इसी प्रकार कभी छठ मंईया का प्रसाद मिले तो इसे श्रद्धा से ग्रहण करने से कहते हैं कि "छठ मंईया प्रसन्न होकर आपकी सभी मनोकामनाओं को पूरी कर देती है।"


यह बात सही है कि इस पर्व का महत्व बिहार, यु.पी के लोगों में ही अधिक देखा जाता है। बिहार,U.P. में रहने वाले बंगाली, मारवाड़ी, और गुजराती बड़ी संख्या में इस त्यौहार में शामिल ही नहीं होते कई परिवार तो यह पर्व मनाने भी लगे हैं। इस पर्व में लोकगीतों का काफी महत्व आज भी देखा जाता है। इस त्यौहार के लोकगीतों को ध्यान से सुना जाये तो मानो समस्त प्राणियों की मंगलकामना गीत हैं ये लोकगीत। इस पर्व में कई जगह गाय(cow) से भी व्रत कराया जाता है। इस पर्व की इतनी बड़ी मान्यता है कि कई विद्वान, साहित्यकार, इस पर्व के डाले(दौरी बांस की बनी टोकरी) को (जिसमें प्रसाद, सूप, अर्घ्य देने का समान रखा जाता है) को अपने सर पे रख कर घाट तक ले जाते हैं। कई व्रतधारी तो पूर्ण रुप से दण्डवत प्रणाम करते हुए घाट तक जाते हैं। कहतें हैं कि भारत विचित्रता का देश है, यहाँ की संस्कृति विभिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न प्रकार से बदल जाती है, जिस तरह यहाँ की बोलियों में कई तरह की मिठास देखने को मिलती है। बनारस की बोली हो या लखनवी अंदाज, भौजपुरी हो या मैथिली। सभी एक से बढ़कर एक हैं। इस चार दिन के त्यौहार में नदी के किनारे मेला भी लगाया जाता है, कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है। हाँ ! इस अवसर को कुछ राजनीति करने वाले दल अपने लाभ के लिये भुनाने का प्रयास भी करते पायें जाते है। जिसके चलते अन्य प्रान्तों में इस त्यौहार को राजनैतिक रंग दिया जाने लगा है।


केरवा जे फरेला घवद से ओह पर सुगा मंडाराय
जे खबरी जनइबो आदित से सुगा देले जुठियाए
जे मरबो रे सुगवा धनुक से सुगा गिरे मुरछाय,
जे सुगनी जे रोवे ले वियोग से आदित होइ न सहाय।


जिस लोकगीतों मे एक 'सुगनी' के दर्द को इतनी मार्मिक्ता से दर्शाया गया है, उस बिहारी समाज को कभी बंगाल, महाराष्ट्र तो कभी दिल्ली में प्रताड़ना छेलना पड़ता है। शायद इस समाज को देखने का नज़रिया हम अभी तक नहीं बदल पाये हैं। हम भले ही अपने आपको सभ्य समाज का अंग समझते हों पर हम से कहीं ज्यादा यह समाज मुझे सभ्य दिखाई देता है। हमारी भाषा में तो केवल विष ही विष झलकता है। वह राज ठाकरे हो या शीला दीक्षित चाहे वह लालू यादव हो या नितिश कुमार, सब के सब इस समाज के दर्द को आज तक समझने का कभी भी प्रयास नहीं किया, आखिर क्या कारण है जो समाज संस्कृति रूप से हम से भी कहीं ज्यादा शिक्षित है, वह आज हम सबके दया का पात्र बना हुआ है।
जय छ्ठ मंईया की।


- शम्भु चौधरी
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शनिवार, 1 नवंबर 2008

भारतीय संस्कृति का प्रतीक पर्व छठ


लेखक : बसंत लाल 'चमन' और महेश कुमार वर्मा, पटना, बिहार से

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हमारा देश भारत विविध संस्कृतियों का अनुपम राष्ट्र है। किसी भी देश की संस्कृति का उदय अकस्मात नहीं होता है अपितु परम्परागत मान्यताओं, आस्थाओं और जीवन-मूल्यों के आधार पर होता है। धर्म संस्कृति का आवश्यक अंग होने के कारण अनेक पवित्र कर्मों को उत्पन्न करता है। पर्व-त्यौहार संस्कृति के जिवंत प्रमाण है।

कोई त्यौहार पुरे देश में हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है तो कोई केवल सिमित स्थान में ही जनप्रिय होता है। जैसे - होली, दशहरा, दिवाली जहाँ व्यापक रूप से पुरे देश में मनाया जाता है तो वहीँ तमिलनाडू के पोंगल, पंजाब का बैशाखी, बिहार का छठ पर्व अपने-अपने क्षेत्र में लोकप्रिय है।


बिहार का छठ पर्व अपने-आप में एक अनूठा पर्व है। यह विशेषकर हिन्दुओं का पर्व है। इस पर्व में बच्चे-बुढे, महिला-पुरूष सबों का सामंजस्यपूर्ण बर्ताव सामाजिक एकता की कड़ी को नई जीवन देती है। महीनों पहले से ही ईसकी तैयारी शुरू हो जाती है।


छठ पर्व की शुरुआत कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के चतुर्थी से होता है। चतुर्थी के दिन व्रती (महिला - पुरूष) पवित्रता पूर्वक स्नान करके कद्दू-भात का भोजन करते हैं। तत्पश्चात छठी मैया के व्रत का सिलसिला शुरू होता है। पंचमी के रोज 'खरना' की पूजा होती है जिसमें गुड़-खीर का भोग लगाया जाता है और अड़ोस-पड़ोस सबों को प्रसाद बाँटा जाता है। षष्ठी के रोज व्रती नदी किनारे डाला सजा के फल-फूल-नैवेद्य वगैरह के साथ संध्या काल में डूबते हुए भगवान भास्कर को अर्ध्य समर्पित करते हैं। पुनः सप्तमी के रोज उगते हुए भगवान् सूर्य को नदी किनारे अर्ध्य देते है। इस प्रकार छठ पर्व का कार्यक्रम सम्पन्न होता है।


त्यौहार देशव्यापी हो या क्षेत्रीय हो, ये हमारी जीवनचर्या को किन्हीं न किन्हीं रूपों में प्रभावित करती है। हमारी संस्कृति के आधारभूत तत्त्व धार्मिक सिद्धांत, सामाजिक परम्पराएं और जीवन-दृष्टिकोण की नींव पर खड़ी है। इस नींव को इस आधार को सतत सुदृढ़ता प्रदान कराए रहने में छठ पर्व का अतुलनीय योगदान सदा से रहा है। अपनों के बीच सबसे बड़ी चीज जो हमें छठ पर्व देती है वह है - परस्पर मेल-मिलाप की भावना का। सभी एक-दुसरे के कामों में हाथ बंटाने को तत्पर दीखते हैं। कहीं भी किसी से भी छोटी से छोटी भी गलती न हो जाए इसका बड़ा ख्याल रखते है। हमेशा एक-दुसरे को प्रोत्साहित करने को आतुर रहते हैं।


इतने सारे सदगुणों-सद्व्यव्हारों-सदाचरणोँ जैसी भावनाओं का विकास ख़ुद-ब-ख़ुद छठ पर्व के शुभागमन से हो जाता है। कहाँ तक कहें, छठ पर्व हमें परस्पर एकता, एकरसता, एकरूपता और एकात्मकता का पाठ पढाते हैं। और यही हमारी संस्कृति की आधारशिला है।
संक्षेपतः छठ पर्व जहाँ एक ओर भारतीय संस्कृति की कड़ी को मजबूती प्रदान करती है वहीँ दूसरी ओर सौहार्द्रता, सहिष्णुता, एक-सूत्रता और राष्ट्रीयता के साथ मानवता का सुखद संदेश देते हुए हमें और अधिक सभ्य और संस्कृतिवान बनाने के लिए सन्मार्ग भी दिखाती है। अतः आएं इस वर्ष के छठ पर्व को भी हम भारतीय संस्कृति के प्रतीक-पर्व के रूप में हर्षोल्लास पूर्वक मनाएँ।