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शनिवार, 25 मई 2019

जिन्ना की राह पर भारत

अब इस बात को गौर करें कि ‘‘जयश्री राम’’ या ‘‘भारत माता की जय’’ का नारा हो या आजादी के समय स्वाधिनता का प्रतीक ‘‘वंदे मातरम्‘‘ नारे के स्वरूप को इस प्रकार प्रस्तुत किये जाने लगे कि इसे बोलने का अर्थ ही बदल गया। अब इन नारों में राजनीति बू आने लगी।
आइये अब हम कुछ इतिहास के पन्ने समेट लेते हैं। पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में सन् 1947 में जिन्ना ने नई सत्ता की शुरूआत की थी, वही 16वीं लोकसभा के गठन के बाद ही मोदी ने भी नई सत्ता की  शुरूआत की। आप सोचेगें कि इन दोनों के बीच क्या सामन्यता है। आप पहले इनकी भाषा को पढ़ लें, फिर आगे बात करेगें। 
पाकिस्तान आजाद होते ही अली जिन्ना ने अपने इस भाषण में पाकिस्तान के सभी नागरिकों का आभार व्यक्त करते हुए कहा था -
‘‘पाकिस्तान हमेशा उनका एहसानमंद रहेगा जिन्होंने पाकिस्तान बनाने में अपनी बड़ी कुर्बानियां दी हैं। हमें यह मौका भी दिया कि हम दुनिया को यह बता सकें कि किस तरह से अलग-अलग इलाकों को मिलाकर बने एक राष्ट्र में एकता रह सकती है और रंग और नस्ल के भेदभाव से परे होकर सबकी भलाई के लिए काम किया जा सकता है। उन्होंने पाकिस्तान की तरफ से अपने पड़ोसी देशों और दुनिया भर को शांति का संदेश दिया। जिन्ना ने कहा कि पाकिस्तान की कोई आक्रामक महत्वाकांक्षा नहीं है और यह देश संयुक्त राष्ट्र चार्टर के प्रति बाध्य है, पाकिस्तान दुनिया में शांति और समृद्धि के लिए काम करेगा।’’

वहीं 2014 में प्रधानमंत्री बनते ही मोदी जी का संसद में दिये गये पहले भाषण का एक अंश जो इस प्रकार है - ‘‘यह भारत के भाग्य के लिए एक शुभ संकेत है। राष्ट्रपति जी ने अपने अभिभाषण में चुनाव, मतदाता, परिणाम की सराहना की है। मैं भी देशवासियों का अभिनंदन करता हूँ, उनका आभार व्यक्त करता हूँ कि कई वर्षों के बाद देश ने स्थिर शासन के लिए, विकास के लिए, सुशासन के लिए, मत दे कर पांच साल के लिए विकास की यात्रा को सुनिश्चित किया है। भारत के मतदाताओं की ये चिंता, उनका यह चिंतन और उन्होंने हमें जो जिम्मेवारी दी है, उसको हमें परिपूर्ण करना है। लेकिन हमें एक बात सोचनी होगी कि दुनिया के अंदर भारत एक बड़ा लोकतांत्रिक देश है, इस रूप में तो कभी-कभार हमारा उल्लेख होता है। लेकिन क्या समय की माँग नहीं है कि विश्व के सामने हम कितनी बड़ी लोकतांत्रिक शक्ति हैं, हमारी लोकतांत्रिक परंपराएं कितनी ऊँची हैं, हमारे सामान्य से सामान्य, अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति की रगों में भी लोकतंत्र के प्रति श्रद्धा कितनी अपार है। अपनी सारी आशा और आकांक्षाओं को लोकतांत्रिक परंपराओं के माध्यम से परिपूर्ण करने के लिए वह कितना जागृत है। क्या कभी दुनिया में, हमारी इस ताकत को सही रूप में प्रस्तुत किया गया है? इस चुनाव के बाद हम सबका एक सामूहिक दायित्व बनता है कि विश्व को डंके की चोट पर हम यह समझाएं। विश्व को हम प्रभावित करें। ’’ इन्होंने भी अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाकर दुनिया को शांति व भाईचारे का संदेश दिया।
पिछले 70 सालों में भारत और पाकिस्तान के परिणाम हमारे सामने है। भारत न सिर्फ आर्थिक रूप से मजबूत हुआ, शिक्षा से लेकर विज्ञान तक, कल-कारखानों से लेकर व्यापार तक, कृषि से लेकर सुरक्षा तक सभी जगह भारत मजबूत होता चला गया। पंजाब में पृथकतावादी खालिस्तान आंदोलन से लेकर असम में उल्फा उग्रवादियों का सफाया यहां कि जनता ने खुद कर दिया। भारतीय हिस्से के कश्मीर में वे तमाम जन सुविधाएं उपलब्ध है जो भारत के अन्य राज्यों में में उपलब्ध है।
वहीं पाकिस्तान के मदरसों में मानव बम के कारखाने फलने-फूलने लगे। पाकिस्तान  ने वही प्रयास भारत में भी भारतीय मुसलमानों को बहका कर करने का लगातार प्रयास किया गया जिसमें उसको कभी कामयाबी नहीं मिली। यही कारण है कि पाकिस्तान के मुसलमानों की सोच में और भारत के मुसलमानों की सोच में आकाश-पाताल का अंतर है। धर्म के नाम पर जो देश भारत से अलग होकर पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान बना। दुनिया भर को शांति का संदेश देने वाले मोहम्मद अली जिन्ना का सपना सन् 1971 में तब चकनाचूर हो गया जब पाकिस्तान भाषा के नाम पर दो हिस्सों में बँट गया। धर्म ने जिसे भारत से अलग किया वही धर्म एक समय लाखों बंगाली मुसलमानों के जान का दुश्मन बन चुका था। बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलायें अपने बच्चों के साथ भाग-भाग के भारत में शरण लेने लगी थी। शब्दों में ना लिखे जाने वाले काम पाकिस्तानी सेनाओं ने उनके साथ किया। यही हाल आज बलूचिस्तान का है। धर्म ना तो दो भाषा को बांध कर रख सका ना ही विकास कर सका । पाकिस्तान किस प्रकार अंदर ही अंदर खोखला बनता चला गया इस बात का भी अंदाजा उसे देखकर सहज लगाया जा सकता है।
वहीं भारत धर्मनिरपेक्षता के मार्ग का चयन किया। जहां हमें काफी सफलता मिली, परन्तु साथ ही  धर्मनिरपेक्षता की आढ़ में मुसलमानों की तुष्टिकरण की राजनीति,  सत्ता में आने के लिए किया जाने लगा। विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद जामा मस्जिद की राजनीति ने इसे और बल दिया। मुसलमानों की  तुष्टिकरण से स्वाभाविक रूप् से हिन्दुओं में असंतोष फैलता चला गया। 2013 में मुजफ्फरनगर की घटना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।  सेकुलरवाद की राजनीति करने वाले आजाम खान और सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाले हुकुम सिंह, संगीत सोम, सबके मुह में जहर भरा था, हर कोई धर्म की लहलहाती फसल को काटने में लगा था। जिसका परिणाम हमने 2014 में देखा कि किस प्रकार सेक्युलरवादी दलों का सफाया हिन्दी भाषी प्रान्तों से हो गया।
2014 में जो लोग, मुसलमानों के खिलाफ थे वे ही 2019 आते-आते मानवबम बनाते चले गये। मोदी सरकार भी स्नेह-स्नेह इस आग को अपने नेताओं के माध्यम से घी डलवाते रहे। 2019 लोकसभा के चुनाव में भोपाल से लेकर बंगाल तक हमने इसे देखा और सुना है कि किस प्रकार मोदी समूह की एक महिला एक तरफ महात्मा गांधी के कातिल को महिमामंडित कर रही थी तो दूसरी तरफ हिन्दुस्तान के महान समाज सुधारक ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, जिन्होंने विधवा-पुनर्विवाह कानून पारित करवाया, बाल विवाह का विरोध किया, बांग्ला लिपि के वर्णमाला पर काम किया, बँगला पढ़ाने के लिए सैकड़ों विद्यालय स्थापित किए तथा रात्रि पाठशालाओं की भी व्यवस्था की। संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास किया की प्रतिमा को एक झटके में खंडित कर दिया।
यह दो घटना सामान्य नहीं मानी जा सकती। यह आरएसएस विचारकों की सोच व्यक्त करती है। संवैधानिक संस्थाओं की बात छोड़ दें तो कहीं गाय के नाम पर, कहीं ‘‘जयश्री राम’’ के नाम पर, कहीं हिन्दुओं के अल्पसंख्यक हो जाने के नाम पर हिन्दू वोटों का पोलोराइजेशन (ध्रुवीकरण) किया गया। एक नये प्रकार का राष्ट्रवाद जिसमें हिन्दुओं में भी डर / खौफ पैदा कर दिया गया। भला हो भी क्यों नहीं? यदि मुसलमानों के वोटों का पोलोराइजेशन सेक्युलरवादी दलों के द्वारा किया जा सकता है तो सांप्रदायिक ताकतों ने हिन्दू वोटों का पोलोराइजेशन करके क्या गुणाह कर दिया?
कांग्रेस ने पिछले 50 सालों से मुसलमानों की तुष्टिकरण की राजनीति की, ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द धीरे-धीरे मुसलमानों की तुष्टिकरण का पर्यायवाची बन गया। वहीं अब ‘राष्ट्रवाद’ हिन्दू तुष्टिकरण का पर्यायवाची बनता जा रहा है।
अब इस बात को गौर करें कि ‘‘जयश्री राम’’ या ‘‘भारत माता की जय’’ का नारा हो या आजादी के समय स्वाधिनता का प्रतीक ‘‘वंदे मातरम्‘‘ नारे के स्वरूप को इस प्रकार प्रस्तुत किये जाने लगे कि इसे बोलने का अर्थ ही बदल गया। अब इन नारों में राजनीति बू आने लगी। हिन्दू तुष्टिकरण के रूप में इन नारों का प्रयोग खुल कर होने लगा ।
यदि हम महात्मा गांधी के हत्यारे पर इतना गर्व कर सकतें है इन्दिरा गांधी या राजिव गांधी के हत्यारे पर गर्व करने से हम किसी को कैसे मना कर सकतें हैं। गांधी की फिलोस्फी को मानने वाले दल के लोग ही उसके हत्यारे को महिमामंडित करने वाले लोगों को राजनीति पनाह देता हो, जनता उसको चुन कर संसद में भेजती हो तो भविष्य का आप खुद ही अंदाज लगा सकते हैं कि आने वाले दिनों में भारत में कैसी राजनीति पनपने वाली है ।

महाराष्ट्र में दो राजनीतिक दल है वे भी हिन्दुओं की राजनीति करते हैं परन्तु उनके राजनीति में मराठा हिन्दू है। युपी या बिहार के हिन्दू नहीं है। इसी प्रकार आंध्रा में एक राजनीति दल मुसलमानों की राजनीति करता है परन्तु उसकी भाषा में पूरा हिंदुस्तान के मुसलमानों को एकत्र करने की बात हो रही है। अब देश की एक बड़ी राजनीति पार्टी की जगह मैं उसे मोदी पार्टी बोलकर लिखूं तो ज्यादा उपयुक्त शब्द होगा उसके नेता अमित शाह व योगी आदित्यनाथ खुलकर हिन्दुओं की राजनीति करने लगे। इस बार के चुनाव में तो जमकर इस विचारधारा का प्रयोग किया गया। निश्चित रूप से यह एक ऐसा औजार बन चुका है जो धर्मनिरपेक्ष ताकतों की काट बन चुका है।
इसबार 2019 के लोकसभा के चुनाव में विपक्ष ने कहीं भी इस बात पर संगठित होने का प्रयास नहीं किया कि वे धर्मनिरपेक्ष ताकत है और सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से बहार रखना होगा। इस बार चुनाव में धर्मनिपेक्षता नहीं बल्की इनके संगठित होने का एक ही एजेंडा था ‘‘मोदी को सत्ता से कैसे बहार रखा जाए’’ यानि पिछले पांच सालों में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें जो महज एक मात्र मुसलमानों की सुरक्षा व उसके तुष्टिकरण को ही धर्मनिरपेक्ष समझती थी और जामा मस्जिद से इनकी राजनीति शुरू होती और वहीं जाकर समाप्त हो जाती थी में काफी बदलाव आया है। अब धर्मनिरपे़क्ष राजनीतिक दलों को यह बताना पड़ रहा है कि वे भी हिन्दू हैं।
अबतक मैंने दोनों पक्षों की बात जस की तस रख दी। अब आपके मन में यह प्रश्न रह गया होगा कि इस लेख में मैंने जिन्ना को क्यों घसीटा? सवाल वाजिब है। पाकिस्तान ने मानव को मानव बम में तब्दील किया आज विश्व में मुसलमानों की एक लंबी फौज तैयार हो गई जो दुनियाभर में आतंक का साम्राज्य बसा लेना चाहता है। विश्वभर में इसके खातमें को लेकर तरह-तरह की योजनाएं बनाई जा रही है। क्या भारत भी इसी रास्ते पर निकल पड़ा है ? ‘‘सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास’’ के फ्रेम का दायरा सुनने में जितना बड़ा लगता है। वास्तव में ऐसा है नहीं। यदि मोदी जी सच में भारत को यह संदेश देना चाहते हैं तो उनको सर्वप्रथम अपनी बात पर आना होगा कि ‘‘मैं अपने मन से माफ नहीं कर पाऊंगा’’ उस महिला को संसद पद से इस्तीफ़ा दिला के देश को यह संदेश दे कि वे ऐसे तत्वों को संसद में जाने से रोक देगें। यदि ऐसा नहीं होता है तो भारत को भी जिन्ना की राह पर चलने से मोदी रोक नहीं पायेगें।
लेखक स्वतंत्र  व  पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी  


गुरुवार, 23 मई 2019

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती -

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती -

स्व. हरिवंशराय बच्चन  जी की एक कविता का जिक्र करते हुए आज फिर से अपनी बात रखूगां। 
लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती ।

हमारा लक्ष्य है जनता के हित में कार्य हो। हमारी पूंजी महज पांच रुपये की कलम है । ना तो हम मोदी जी के जैसे खान-पान कर सकते हैं ना ही कपड़े पहनने की कल्पना भी कर सकते हैं, ना ही राहुल गांधी की तरह हमें विरासत में राजगद्दी मिल सकती है। हम जनता के बीच से निकलते हैं और उनके बीच ही समा जाना पसंद करते हैं।   

2019 : 17वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम एक तरफ विपक्षी पार्टियों  की उम्मीदों पर पानी फेर दिया तो वहीं मोदी समर्थकों खेमे में ख़ुशियाँ बिखेर दी। इस बात को स्वीकार करने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि कल तक मैं भी "गोदी मीडिया" के एक्ज़िट पाल को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। देश के प्रायः सभी राजनीतिक पंडित कहे जाने वाले पत्रकारों के लिए उत्तरप्रदेश में महागठबंधन की असफलता, बिहार के सुसाशन बाबू की सफलता,  बंगाल में भाजपा को ऐतिहासिक जीत और आंध्रप्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की हार, इस लोकसभा  चुनाव में चौंका देने वाले माने जायेंगे।


लोकतंत्र में इस बात को जो नहीं स्वीकार करता कि उसकी हार हो चुकी है उसे या तो लोकतंत्र में आस्था नहीं है या फिर वह व्यक्ति लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी जी ने अपने ताजा संदेश में कहा कि ‘‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’’ वहीं विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा कि ‘‘यह दो अलग-अलग विचारधारा की लड़ाई है। हमें मानना पड़ेगा कि मोदी जी जीते हैं। इसलिए मैं उन्हें बधाई देता हूँ। ’’  दो माह के तनावपूर्ण चुनावी यात्रा, कड़वाहट भरे बयानों के पश्चात नेताओं के सकारात्मक बयान ही हमारी जीत है।



आज इस बात की चर्चा करना कि चुनाव में क्या हुआ या क्या कहा गया या क्या लिखा गया इससे मीडिया को भी ऊपर उठना होगा। स्वाभाविक तौर पर हम बुद्धिजीवी वर्ग में खुद को मानते हैं। हमारे बीच भी विचारों की लड़ाई चलनी ही चाहिये। यदि पत्रकारों के बीच भी विचारों की शून्यता आ जायेगी तो फिर बचेगा ही क्या? 



हमें अपने कार्य को पुनः सजगता के साथ करने की जरूरत है बिना किसी राजनैतिक विचारधारा से प्रभावित होकर नई ताजगी, नई ऊर्जा, नए जोश के साथ अपने पिच पर पुनः डट जाना चाहिये। समीक्षा के लिए हमारे पास फिर से नये पांच साल हैं, वह भी पिछले पांच सालों के आंकड़ों के साथ । हमारा लक्ष्य है जनता के हित में कार्य हो। हमारी पूंजी महज पांच रुपये की कलम है । ना तो हम मोदी जी के जैसे खान-पान कर सकते हैं ना ही कपड़े पहनने की कल्पना भी कर सकते हैं, ना ही राहुल गांधी की तरह हमें विरासत में राजगद्दी मिल सकती है। हम जनता के बीच से निकलते हैं और उनके बीच ही समा जाना पसंद करते हैं। पत्रकार का जीवन पुण्य प्रसून बाजपेयी से बेहतर कोई नहीं समझ सकता। उनको लगातार परेशान किया गया एक नही, दो, दो नहीं तीन-तीन चैनलों से लगातार उनको हटा दिया गया। उनकी बेचैनी का अंदाज सिर्फ लगा लें कि यदि आने वाले दिनों में यही हाल हमारे साथ हो तो क्या करेगें हम? हम गुलाम तो हो ही चुके हैं अब क्या अपने विचारों को भी गुलाम बना दें?

किसी राजसत्ता के अधीन गुलाम होना और उनकी गुलामी करना यह एक बात है पर विचारों को भी गुलाम बना देना तो जानवर बन के जीने के बराबर है। मैं यहां सिर्फ इस तर्क को समझाने के लिये यहां ‘‘मंगल पाण्डेय’’ का उदाहरण दे रहा हूँ। मंगल पाण्डेय ब्रितानी हकुमत के गुलाम सिपाही थे, परन्तु उनके विचार स्वतंत्र थे, तभी उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की। यदि उनके विचार भी गुलामी की जंजीरों में जकड़े होते तो? आपके विवेक पर छोड़ता हूँ। कुछ देर सोचियेगा।



उनके (पुण्य प्रसून बाजपेयी) यूट्यूब पर जो वीडियो सुनने को हमें लगातार मिल रहे थे उससे उनके चेहरे के भाव को हम यदि नहीं पढ़ पा रहे थे तो हमें पत्रकार नहीं होना चाहिये। संभवतः ऐसे कई पत्रकार होंगे, मेरी अज्ञानता के कारण उनके नामों को इस लेख में नहीं जोड़ पा रहा हूँ पर उनके दर्द को, हम महसूस नहीं करेंगें तो, हमारे दर्द को कौन करेगा? सत्ता में कौन आयेगा या जाएगा यह हमारे विचारों को यदि प्रभावित करता हो तो हमें इसी वक्त पत्रकारिता के पेशे को त्याग कर राजनीति से जुड़ जाना चाहिये। कई पत्रकार ऐसा कर चुके हैं। करने में कोई हर्ज भी नहीं हैं वे ईमानदार हैं कम से कम जनता को धोखा तो नहीं दे रहे।

ताज़ा उदाहरण आशुतोष का ही हमारे सामने है उन्होंने पत्रकारिता को छोड़कर राजनीति स्वीकार कर ली, पर उनके विचारों में वह तनाव था जो वे राजनीति ज्वाईन करने के बाद उनके अंदर देखा गया था । आज उन्होंने राजनीति को छोड़ पुनः पत्रकारिता को स्वीकार कर लिया। उनकी साख में कोई आंच नहीं आ सकती। उन्होंने जो कुछ भी किया ईमानदारी से किया।

हम किसी विचारधारा के ना तो कभी समर्थक रहें है ना ही किसी विचारधारा के विरोधी। हम एक स्वाद टेस्टर के रूप में अपना काम पहले की तरह आज भी करते रहेगें। चाय का स्वाद यदि मीठा होगा तो हम नमकीन कैसे बोल दें? हम किसी के समर्थक या भक्त तो नहीं बन सकतें। पत्रकारिता का एक मात्र धर्म है सत्ताधारी दल के कार्यों की लगातार समीक्षा करते रहना। विरोध पक्ष की बातों को बिना भेदभाव के सामने रखना। अपने विचारों का तड़का ना लगाते हुए रोजाना सूर्य की तरह उगना, चमकना, धहकना, फिर शाम होते-होते ढल जाना। 


वहीं संपादक की अलग भूमिका होती है, पत्रकारों की अलग। संपादक का कार्य है विचारों को प्रतिनिधित्व करना, भले वह सत्ता पक्ष को हो या प्रतिपक्ष का, जनता का हो या समाचार पत्र का। पत्रकारों को अपने विचारों में किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करना चाहिये यदि वह ऐसा करते है तो उसके विचार हमेशा विवाद ही पैदा करेगें। कभी मेरी बात पर आप गौर करियेगा। जयहिन्द।

लेखक स्वतंत्र  व  पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी  

बुधवार, 22 मई 2019

चुनाव आयोग: दाल में काला

चुनाव आयोग: दाल में काला  
किसी भी विषय के शोध में उसकी समस्या का निदान ही शोधकर्ता के लिये प्रमुख माना जाता है। कहा जाता है कि समस्या को ठीक से समझ लेना ही उसका आधा हल माना जाता है। कई बार समस्याओं को हम खुद की नाकामियों को छुपाने के लिए भयानक बना देते हैं या फिर समस्या को समझते-बुझते हुए भी कुछ ऐसी हरकतें करते हैं कि समस्या को सुलझाने की जगह और विकराल बना देते हैं। आज के चुनाव आयोग के अपरिपक्व के इस निर्णय के कारण ही कल का दिन पूरे देश के लिए तनावपूर्ण होनेवाला है। 

चुनाव समाप्त होते ही जिसप्रकार से मीडिया में ‘‘एक्जिट पोल’’ आने लगे उससे विपक्ष में स्वभाविक रूप से खलबली का माहौल बनना था। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और तेदेपा प्रमुख एन. चंद्रबाबू नायडू लगातार विपक्ष के सभी नेताओं से मिलकर एकजूट करने का प्रयास चुनाव से पूर्व भी करते रहे और चुनाव के सामाप्त होते ही पुनः सक्रिय हो गए। दिल्ली में सोनिया गांधी, अरविंद केजरीवाल, उत्तरप्रदेश में मायावती-अखिलेश से और बंगाल आकर ममता बनर्जी से भी मुलाकात की। 


कल 22 दल के नेताओं ने एक साथ मिलकर चुनाव आयोग से अपील की थी कि वे लोकसभा के चुनाव में उच्चतम अदालत के निर्णय के अनुसार प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र के अन्तर्गत आनेवाले सभी विधानसभा क्षेत्रों के पांच-पांच ईवीएम मशीनों के वीवीपेट पर्ची की गिनती शुरू होने से पहले कराये ताकि इस बात का मिलान हो सके कि  ‘‘ईवीएम मशीनों’’ से किसी प्रकार की छेड़-छाड़ नहीं की गई है। परन्तु चुनाव आयोग इस बात को मानने को तैयार नहीं है।


आज एक साथ दो खबरें आई - 
पहला- की देश में पहली वार केन्द सरकार की तरफ से मतगणना के दिन संभावित हिंसा को देखते हुए गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को अलर्ट जारी किया है। गृह मंत्रालय की तरफ से  राज्य के मुख्य सचिवों और डीजीपी को इस संबंध में सचेत करते हुए कहा गया है कि वे किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार रहे । 
दूसरा- भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का अलग बयान आता है कि उनके नेता भी स्ट्रांग रूम के पास सतर्क रहें। खास कर ओड़िसा और बंगाल के लिए अलग से निर्देश जारी किये गए । सवाल उठता है कि ऐसा कौन सा पहाड़ कल टूटने वाला है या सुनामी आने वाली है जिसके लिये अचानक से कल तक जो चुनाव में जीत की निश्चिंत होकर कमाऊ की गुफा में ध्यान करने चले गये थे। एक तरफ विपक्षी खेमा परेशान था तो मोदी खेमे में पार्टी चल रही थी । आज अचानक से यह सब परिवर्तन क्यों ?

किसी भी विषय के शोध में उसकी समस्या का निदान ही शोधकर्ता के लिये प्रमुख माना जाता है। कहा जाता है कि समस्या को ठीक से समझ लेना ही उसका आधा हल माना जाता है। कई बार समस्याओं को हम खुद की नाकामियों को छुपाने के लिए भयानक बना देते हैं या फिर समस्या को समझते-बुझते हुए भी कुछ ऐसी हरकतें करते हैं कि समस्या को सुलझाने की जगह और विकराल बना देते हैं। आज के चुनाव आयोग के अपरिपक्व के इस निर्णय के कारण ही कल का दिन पूरे देश के लिए तनावपूर्ण होनेवाला है।
इससे पहले की आगे की बात करेे हम निम्न बातों पर गौर करें।
1. प्रधानमंत्री मोदी जी का मीडिया दर्शन के समय "फाटकेबाजों" की बात उनके श्रीमुख से निकलना।
2. चुनाव समाप्त होते ही 19 मई की शाम को विभिन्न मीडिया हाऊसेस की तरफ से ‘‘एक्जिट पोल’’ जारी करना, जिसमें एनडीए को 300 से लेकर 350 सीटें आने की संभावना जतायी गई।
3. 19 मई से 21 मई अमित शाह चुप रहे पार्टी मनाते रहे।
4. 22 मई को जैसे ही चुनाव आयोग का फैसला सामने आता है कि पांच वीवीपेट की पर्ची- प्रति विधानसभा की गिनती पहले नहीं की जायेगी
5. केन्द्र सरकार के साथ-साथ मोदी पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी सतर्क जारी करने लगे।


 इन पाचों बातों का एक दूसरे चौली-दामन का रिश्ता है। मोदीजी के द्वारा फाटकेबाजी की बात कहना, ‘‘एक्जिट पोल’’ में एनडीए को 300 से लेकर 350 सीटें आने की संभावना व्यक्त करना, उत्तरप्रदेश में मायावती व अखिलेश के महागठबंधन को अनुमान से कम सीटें देना, बंगाल में एनडीए को अनुमान से अधिक सीटें देना, बिहार में अनुमान से अधिक सीटों का आना, जो पूरे देश में चिन्ता का विषय है कि क्या कहीं ईवीएम से छेड़छाड़ तो नहीं हो रही। इसके साथ ही ट्रकों में ईवीएम मशीनों का पकड़ा जाना, स्ट्रोंग रूम की सुरक्षा को लेकर जगह-जगह से असंतोष का होना, भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी के द्वारा अपनी चिंता सार्वजनिक करना व तमाम विपक्षी दलों की बात का दरकिनार करना और चुनाव आयोग की हठधर्मिता इस बात को मजबूत करती है कि चुनाव आयोग किसी खास उद्देश्य की पूर्ती के लिए कार्य कर रहा है। खुले शब्दों में कहा जाए तो जनमत के साथ खिलवाड़ करने का मन बना लिया है। चुनाव आयोग ने। जिसका परिणाम कितना भयावह होगा इस बात का अंदाज भी सरकार को लग चुका है और इसीलिये मतगणना के दिन इस प्रकार की सुरक्षा की बात केन्द्र सरकार को करनी पड़ रही है ।


अब बात करते हैं कि चुनाव आयोग  क्यों नहीं चाहता की वीवीपेट की पर्ची की गिनती पहले हो जाए। क्योंकि चुनाव आयोग इस बात से भलीभांती वाकिफ है कि इससे दो तरह के परिणाम सामने आयेंगे। यदि पहले गिनती करा ली जाती है तो आधी से अधिक लोकसभा की सीटों पर विवाद शुरू हो जायेगा कि पूरी शत-प्रतिशत पर्चिओं की गिनती हो। जो चुनाव आयोग नहीं चाहता कि ऐसा हो। जब ईवीएम का 'जीन' जनता के सामने निकल जायेगा तब विवाद होने पर चुंकि 95 प्रतिशत की गिनती हो चुकी होगी उसे दौबार गिनती नहीं करनी होगी और वह बाकी के ईवीएम की पोल को जनता के सामने लाने से बच जायेगा। 

यदि चुनाव आयोग की मंशा पाक-साफ होती तो वह विपक्ष की इस मांग को स्वीकार कर लेता। परन्तु दाल में काला तो जरूर है ।
जयहिन्द ।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी

मंगलवार, 21 मई 2019

चुनाव आयोग की नियत पर खोट?

चुनाव आयोग की नियत पर खोट?


 चुनाव आयोग भी रूल 49MA  के तहत यह स्वीकार करती है कि ईवीएम में खराबी हो सकती है और मतदाता ने अपना मत जिस राजनीति पार्टी को दिया है उसे ना जाकर किसी ओर राजनीति दल को जाने पर क्या करना होगा इसकी व्यवस्था की है। परन्तु जिन-जिन जगहों से ऐसी शिकायतें आई उसे दबाने का काम आयोग की भूमिका पर फिर एक नया प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है।  
देश के लोकतंत्र में यह शायद यह पहली बार हो रहा है कि देश की 70 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाला विपक्ष, चुनाव आयोग के सामने इतना कमजोर और बौना साबित हो चुका है जो कहीं न कहीं लोकतंत्र के किसी खतरे का संकेत भी दे रहा है।  पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी  ने भी ईवीएम की सुरक्षा को लेकर उठ रहे सवालों लेकर अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहे कि  " ईवीएम की सुरक्षा  की पूरी ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग की है कि किसी को शक  करने की  कोई जगह ना मिले। " यानि कि देश की जनता पिछले दो-तीन दिनों की ईवीएम की हलचलों से काफी चिंतित है।

 रूल 49MA   :  चुनाव आयोग कि भूमिका को लेकर खुद चुनाव आयोग के एक सदस्य ने जो सवाल जनता के सामने रखे, उससे भी चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़े हो चुके हैं। चुनाव के दौरान बार-बार और बड़ी संख्या में ईवीएम  मशीनों की खराबी को लेकर शोर-शराबा होता रहा। चुनाव आयोग अपनी कारस्थानियों को छुपाने के लिये लोगों को धमकाता रहा। उनके ऊपर एफआईआर करता रहा।  शरद पावर का बयान सामने आया कि "ईवीएम से गलत वोट पड़ रहें हैं" यानि कि जिसे वोट दिया जा रहा है उसे ना जाकर किसी अन्य राजनीतिक दल को वह वोट जा रहा है । ऐसी ही कई ख़बरें विभिन्न राज्यों से आती रही।  चुनाव आयोग भी रूल 49MA  के तहत यह स्वीकार करती है कि ईवीएम में खराबी हो सकती है और मतदाता ने अपना मत जिस राजनीति पार्टी को दिया है उसे ना जाकर किसी ओर राजनीति दल को जाने पर क्या करना होगा,  इसकी व्यवस्था की है। परन्तु जिन-जिन जगहों से ऐसी शिकायतें आई उसे दबाने का काम आयोग की भूमिका पर फिर एक नया प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है।    रूल 49MA   के लिये चुनाव आयोग ने क्या प्रचार किया ?  जबकि इस बार चुनाव आयोग ने प्रचार में काफी धन खर्च भी किया है।  क्या रूल 49MA  के विषय में जनता को जागरूक नहीं किया जाना चाहिये  था कि ऐसी कोई बात हो तो जनता चुनाव आयोग को तुरन्त इत्ला करें ताकि चुनाव में परदर्शिता लाई जा सके। इसके विपरित चुनाव आयोग उन लोगों को जेल भेजने का काम करती पाई गई।


आयोग की नियुक्ति :  चुनाव आयोग की नियुक्ति पर भी कांग्रेस पार्टी की तरफ से बयान आया कि इस बात पुनः विचार करने की जरूरत है कि आयोग की नियुक्तियाँ कैसे की जाए । यानि कि आयोग की नियुक्तियाँ भी सवाल के घेरे में आ चुका है। वहीं आयोग को इस बार सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा जमा कर यह स्वीकार करना पड़ा कि उनके पास विशाल शक्ति है । कहने का अभिप्रायः यह है कि आयोग के हर हरकतों पर कहीं ना कहीं प्रश्न खड़ा होना शुभ संकेत तो नहीं माना जा सकता ।


20 लाख ईवीएम मशीनें  :  एक आरटीआई से पता चला की चुनाव आयोग के पास 20 लाख ईवीएम मशीनें कम है जिसके जबाब में चुनाव आयोग की प्रवक्ता शेफाली शरण ने कहा कि ‘‘हकीकत में चुनाव आयोग एक-एक ईवीएम को अपनी निगरानी में रखता है। यहां तक कि एक भी ईवीएम को इधर से उधर नहीं किया जा सकता है। किसी भी ईवीएम को कहीं ले जाने के लिए चुनाव आयोग से आधिकारिक इजाज़त लेनी पड़ती है। चुनाव आयोग के पास ‘ईवीएम मैनेजमेंट साफ्टवेयर’ EMS है, इसके जरिए हरेक ईवीएम और वीवीपैट मशीन की हर वक्त मॉनिटरिंग होती है।’’ परन्तु वह उस बात को स्पष्ट नहीं कर रही कि उनके पास कितनी ईवीएम आयी और वर्तमान में उसकी क्या स्थिति है और किस राज्यों में कितनी ईवीएम खराब है कितनी सही ? साथ ही यह भी सवाल उठता है कि जब आयोग इतनी सख़्त निगरानी रखता है तो चुनाव के पश्चात उत्तरप्रदेश और बिहार में इतनी बड़ी तादाद में ट्रकों में लोड इतनी मशीनें एक साथ क्या करने जा रही थी। इससे पूर्व तो ये मशीनें कभी इस प्रकार ना तो पकड़ी गई ना ही कभी कोई शिकायत मीडिया में किसी पार्टी ने लगाया था। यदि किसी ‘मोक’ ट्रेनिंग के लिए भी ये मशीनें भेजी जा रही थी या वहां से वापस आ रही थी तो जैसा कि चुनाव आयोग खुद कह रहा है कि उसके पास सभी मशीनों पर निगरानी ‘ईवीएम मैनेजमेंट साफ्टवेयर’ कर रही है तो उसकी सूचना उम्मीदवारों को क्यों नहीं दी गई ताकि यह जो अफवाहें बाजार में फैल रही है उसपर लगाम लगाया जा सके। परन्तु इन ईवीएम मशीनों के अवैध हरकतों पर आयोग की चुप्पी किसी नये शक को जन्म दे रही है। क्या कहीं ‘‘एक्जिट पोल’’ के आँकड़ों से इसका कोई संबंध तो नहीं ? 


नेचुरल जस्टीस :  आयोग किसी के नामांकन पत्र को वैध कारण बता कर रद्द कर सकती है परन्तु वह ‘‘ नेचुरल जस्टीस’’ का पूरा अवसर उस उम्मीदवार को देना होगा। जबकि इस बार चुनाव आयोग ने सिर्फ रात का वक्त देकर  ''नेचुरल जस्टीस'' को भी ताक पर रख दिया। किसी भी पत्र के जबाब के लिये कम से कम एक दिन का कार्यकारी दिवस देना उस व्यक्ति उस व्यक्ति का संवैधानिक हक बनता है जबकि एक ही दिन में आयोग ने उस उम्मीदवार को दो नोटिस जारी कर दी और शाम छह बजे की नोटिस का जबाब वह भी 500-500 किलोमीटर की दूरी तय कर के दूसरे दिन ग्यारह बजे तक जबाब देने को कहा जाना आयोग की निष्पक्षता पुनः सवाल तो खड़े कर ही जाता है। भले ही चुनाव आयोग उनकी सुनाई पूरी कर के भी उस उम्मीदवार के नामांकन को रद्द कर सकती थी। जल्दबाजी में किसी के दबाव में लिया गया निर्णय एक प्रश्नचिन्ह अपने पीछे छोड़ देता है।


 तीन सदस्यीय पीठ :  चुनाव आयोग को यह पूरा अधिकार है कि वह राजनीति पार्टियों को विभिन्न शिकायतों का समय पर निपटारा करे, परन्तु यहां भी सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ता है। अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी के मामले में लगातार चुनाव आयोग की चुप्पी और फिर उनको सभी मामलों में बरी कर देना भी चुनाव आयोग कि निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर रहा है । जिसका उल्लेख चुनाव आयोग के एक सदस्य ने अपने आरोप में लगाया कि उनके विचारों को मिनट बुक में नहीं दर्शाया गया है। तब सवाल यह भी उठता है कि तीन सदस्यीय पीठ का निर्णय था कि दो सदस्यीय पीठ का निर्णय? 


वीवीपेट की पर्ची :  इसी प्रकार आज पुनः 22 विपक्षी दल के प्रतिनिधियों ने वीवीपेट की पर्ची  की गनती को लेकर अपनी स्थिति को स्पष्ट करने की मांग की कि किस प्रकार इसकी गिनती की प्रणाली क्या अपनाने जा रही है? यानि कि चुनाव आयोग किसी घपले को अंजाम देने की ताक में तो नहीं है? विपक्ष को अब चुनाव आयोग की हर हरकतों पर शंका का होना लोकतंत्र के लिये शुभ तो नहीं माना जा सकता ।
2019 के चुनाव में एक बात तो धीरे-धीरे साफ होती जा रही है कि चुनाव आयोग किसी भी प्रकार से निष्पक्ष नहीं हैं जो लोकतंत्र के लिये किसी खतरे का संकेत दे रहा है कि कोई एक व्यक्ति लोकतंत्र को जब चाहे अपना ग़ुलाम बना सकता है।  जयहिन्द ।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी

व्यंग्य - गरम-गरम चाय - शंभु चौधरी

व्यंग्य -  गरम-गरम चाय - शंभु चौधरी  
हाँ ! तो मैं सोच रहा था कि कोई "स्टार्टअप इंडिया " के अंतर्गत नया करोबार कर लिया जाए। पत्रकारिता करते-करते हम इतने कमजोर हो जाएंगे यह पहली बार एहसास हुआ। दिमाग जिस तेजी से सड़कों पर समाचार चुनने में, लिखने में काम कर रहा था वह रोजगार खोलने के नाम पर पूरा रूह ही कांपा दिया। दिमाग के परचे-परचे उखड़-उखड़ कर हाथ में आने लगे।  

वैसे आम बेचना बुरा तो नहीं हैं ? जब से भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी के विचार सुने तो मुझे स्टार्टअप इंडिया के अंर्तगत कई नये-नये आइडिया मेरी ज्ञानेंद्रियों में उछल-उछल के अपने आप आने लगे। कल जब मेरे एक मित्र से चर्चा की कि मैं आम का धंधा शुरू करने वाला हुँ तो उसने मेरे दो दिनों की मेहनत पर पानी ही फेर दिया, मानो वह किसी शोध खाने से ताजा-ताजा पककर निकला हो। बताने लगा कि " भाई ! आम का मौसम तो बस दो ही महीने का होता है फिर दस महीने क्या करोगे ?"  फिर आम के साथ 'आम पपड़ा', आम का आचार, आम का शर्बत का भी कारोबार शुरू कर लो बताने लगा इसके लिए एक छोटा सा फ़ैक्टरी भी डाल लो आजकल बैंक से स्टार्टअप के नाम पर पैसा भी मिल जायेगा। थोड़ा मुसकराते हुए भाई इस घंधे में मुझे भी पार्ट टाइम नौकरी रख लेना । बस प्रेस का काम समाप्त होते ही तेरे पास आ जाऊँगा तेरे काम में हाथ भी बंटा दूँगा और कुछ कमाई भी हो जायेगी वैसे ही आजकल प्रेस की नौकरी से गुजारा नहीं चलता। 

अब मैं उसकी बात सुनकर नई उलझन में पड़ गया। स्टार्टअप खोलने के लिए इतने बड़े महानगर में जगह किधर से लाऊँगा । रात भर छोटी सी जगह में करवटें बदलता रहा। पत्रकारिता करते-करते  15 साल से ऊपर हो गए अभी तक एक लाख जमा नहीं कर पाया। कुली-कबाड़ी ही मेरे से अच्छे हैं जो कम से कम मेहनत-मजदूरी कर मेरे से अच्छा कमा लेते हैं। पिछले माह ही एक स्टोरी तैयार की थी जिसमें देखा कि कोलकाता के एक कटरे में काम करने वाले ‘झाकिया’ जिसे लोग ‘झाका वाला’ भी बोल कर बुलाते हैं जो अपनी टोकरी में व्यापारियों या ग्राहकों का माल उठाकर उनके बताये स्थान पर पंहुचा देता है। उनके पास बेंत की एक चोड़ी टोकरी होती है जिसमें कुछ रस्सियां भी बंधी रहती है जो सामान बांधने के काम आती है। कोलकाता में ये झाका वाले लगभग सभी बिहार/झारखंड के ही हैं। ये लोग हर साल फसल बुवाई के समय गांव चले जाते हैं। मुझे तो गांव गये ही चार साल हो गये । परिवार को ही दो बार यहां बुला लिया करता हूँ उनका घुमना भी हो जाता है।  ख़रीददारी भी हो जाती है।

यह सब सोचते-सोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। सुबह रोजाना की तरह सारे समाचार पत्र पढ़ने में एक घंटा निकाल दिया । लोकसभा के सातों चरण के चुनाव समाप्त हो चुके थे । मीडिया पार्टी एक तरफ मोदी पार्टी को 300 सीटें से कम देने को तैयार नहीं थी तो दूसरी तरफ विपक्ष को मीडिया की बात गले ही नहीं उतर रही थी । चुनाव के समय बंगाल की राजनीति में नया दंभ भरने वाली पार्टी का बहुत सारा काम मुझे भी मिला था। आपसे क्या छुपाना रोजी-रोटी किसे नहीं प्यारी लगती। सत्ता में कोई आये (मरे), कोई जाए (जीयें), अपना तो ‘‘कफन का करोबार’’ करना है । चुनाव के समय नहीं कमाये तो पत्रकार ही क्या?  अब श्मशान में भी कोई मुर्दे की लाश से व्यापार ना करें तो वह कैसा व्यापारी?  पत्रकार तो रोजना जो खबरें देता है उसमें लाशें ही गिनना तो  हमारा काम है जैसे 'कफन बेचना' । एक व्यापारी 'मुर्दे' के लिए उनके परिवार वाले को 'कफ़न' बेच सकता है तो हम जिंदा इंसानों को "मुर्दे के कफन" क्यों नहीं बेच सकते?  फर्क सिर्फ इतना है एक व्यापारी मुर्दे को कफन उढ़वाता है हम पत्रकार उसके "मुर्दे के कफन" को नोच के उतार देते हैं।


मेरे एक मित्र हैं कुछ ही दिन पूर्व ही ‘‘संमार्ग समाचार’’  से सेवानृवित हुए हैं। बताने लगे की जब तक कोई बड़ी घटना नहीं घट जाती हमें बैचेनी बनी रहती कि आज कुछ घटा ही नहीं कैसे दिन गुजरेगा। दिनभर देश व शहर की गंदगी को समेटना हमारा काम होता है। संपादक उन गंदगी में से उसको छांटता है। प्रकाशक उसे छापता है और हाॅकर आपके-हमारे घर में दिन भर की जमा गंदगी को फैंक आता है। मजे की बात यह है कि इसे पाठक वर्ग बड़े चाव से स्वाद ले-लेकर पढ़ते हैं। विज्ञापन का सुख अलग से वह भी मुफ्त मिलता है।

हाँ ! तो मैं सोच रहा था कि कोई "स्टार्टअप इंडिया"  के अंतर्गत नया करोबार कर लिया जाए। पत्रकारिता करते-करते हम इतने कमजोर हो जाएंगे यह पहली बार एहसास हुआ। दिमाग जिस तेजी से सड़कों पर समाचार चुनने में,  लिखने में काम कर रहा था वह रोजगार खोलने के नाम पर पूरा रूह ही कांपा दिया। दिमाग के परचे-परचे उखड़-उखड़ कर हाथ में आने लगे। 

शाम को चाय की दुकान पर एक अन्य मित्र ने मेरी परेशानियों को भांप ही लिया। पूछ ही बैठा यार! - ‘‘गांव में सब कुशल-मंगल तो है न? ’’ चाय वाले को उसने ही दो चाय बनने का ऑडर देते हुए मेरे से हालचाल पूछने लगा। मैंने भी बिना किसी संकोच के उसे अपनी सारी कहानी एक ही सांस में सुना दी। बोले इसमें क्या बात है। बस मेरे एक मित्र हैं जो बैंक में मैनेजर हैं उनसे बोल कर तेरा सारा काम करवा दूंगा। तुम इसके साथ मेरी एक सलाह और मानो लो साथ में "चाय और पकौड़े" का कारोबार और जोड़ देना। तर्क के साथ उसने मुझे समझाया ‘‘अब देखो विदेश से आकर पीजा-बर्गर धरल्ले से बिकने लगा की नहीं।’’ साथ में एक गट्टर बना लेना सारा कचरा उसी में जमा करना उससे कुछ ही दिन में गैस भी पैदा होने लगेगी। 

तभी चाय वाले ने मेरे हाथ में गरम-गरम चाय का ‘भांड’ पकड़ा दिया । चाय पीते-पीते फिर हम मीडिया की बातें करने लगे । कुछ 23 मई से पहले ही मोदीजी को शपथ दिला रहे थे कुछ उनकी सरकार छीनने में लगे थे। मैं भी वहां से उठा और समाचार चुनने के लिए सड़कों की धूल छांकने लगा।  - शंभु चौधरी 

रविवार, 19 मई 2019

‘‘एक्जिट पोल’’ - अपना-अपना तुका


 ‘‘एक्जिट पोल’’ - अपना-अपना तुका 
अंततः दुनिया के विशाल लोकतंत्र का चुनाव सात चरणों में कुल मिलाकर शांतिपूर्ण ढंग से निपट गया। इसके साथ ही चुनाव आयोग में भी मतभेद सामने आ गये कि यहाँ भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा । इसके पूर्व में आरबीआई में भी यह घटना घट चुकी है। देश के सर्वोच्च अदालत के चार जजों ने प्रेस के सामने आकर देश को चेताया कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। फिर सीबीआई की घटना जगजाहिर है। कहने का अभिप्रायः है कि कुछ तो गड़गड़ है जो देश के लोकतंत्र को भीतर ही भीतर खाये जा रहा है।

आज जैसे ही चुनाव समाप्त हुआ देश की गोदी मीडिया अपनी-अपनी दुकान सजा कर बैठ गये कोई उत्तरप्रदेश में भाजपा को 57-58 सीटें देकर दिल्ली में मोदी की सरकार बनावा रहा था तो कोई बसपा-सपा को 57-58 सीटें बांट रहा था इनके चुनावी सर्वेक्षण की बात करें तो बंगाल में एक गोदी मीडिया भाजपा को 18 से 23 सीटें देकर उत्तरप्रदेश की भरपाई करते दिख रहा था । ये सभी आंकडे एक दूसरे से इतने विपरीत नजर आ रहे थे कि इनका कूल अंतर 90 से 98 सीटों के बीच का देखा जा रहा था । इंडिया टीवी और सीएनएस के सर्वे में एनडीए को 300, न्यूज24 और चाणक्य के एग्जिट पोल में एनडीए 350 (+/-14), इंडिया टुडे और एक्सिस के सर्वे में एनडीए को 339 से 365, सीएनएन और आईपीएसओएस के सर्वे में एनडीए को 336, व एबीपी और एसी निल्सन के सर्वे में एनडीए को 267 सीटें मिलने की बात बता रहें हैं। 
इनकी बातों में ही अंतर इतना बड़ा है कि किस पर भरोसा किया जाए किस पर नहीं यह सोचने की बात है। यानि कि एनडीए को 267 से 365 के बीच सीटें मिल रही है। अर्थात इनकी बातों का ना तो आपस में सिर मिल रहा है ना पैर। सबके सब तुका लगा दिये कि बस जो लह गया तो लह गया, नहीं लहा तो कुछ दिन मुंह छुपा लेगें। जबकि दक्षिण भारत के इनके ही आंकड़े बता रहें हैं कि उन राज्यों में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन रहा है। यानि कि कांग्रेस को फायदा होने की संभावना यही गोदी मीडिया जता रही है। उत्तरप्रदेश में एनडीए को नुकसान और अन्य सभी राज्यों में सिर्फ बंगाल और ओडिशा को छोड़कर कुछ ना कुछ नुकसान भले ही वे एक-दो सीटों का ही हो रहा है।  गोदी मीडिया खुद मान रही है । 
इनके गणित का एक पेंच आप देखें कि जैसे ही एनडीए को कोई बड़ा नुकसान होता दिखता है तो उसे तत्काल किसी अन्य राज्य से भरपाई कर दे रहें हैं  । जैसे उत्तरप्रदेश में 20-25 सीटें कम हो रही है तो उसे बंगाल से, 40 से 50 सीटें कम हो रही है तो बंगाल, ओडिशा से और 50-55 सीटों का अंतर आते ही उसे महाराष्ट्र व बिहार से भरपाई कर दे रहे थे। जो भी हो असली परिणाम तो 23 तारीख को ही आने हैं पर एक बात साफ हो गई कि इन ‘‘एक्जिट पोल’’ में झूठ के अलावा कुछ भी नहीं है। सब अपना-अपना तुका चला रहे थे। इन लोगों ने जो धन लिया था उसे ब्याज सहित लौटा रहे थे और सबसे पहले कौन कितना वफादार है यह जता रहे थे। जयहिन्द ।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी  

बुधवार, 15 मई 2019

17वीं लोकसभा - एजेंडा सेटिंग

17वीं लोकसभा - एजेंडा सेटिंग
"2014 में दिये नारों में जनता से सीधे संवाद नजर आता था जैसे मंहगाई, अच्छे दिन और घर-घर मोदी ये सभी नारों में एक मनोवैज्ञानिक तथ्य ‘जनता से संवाद’ काम कर रहा था।  जबकि 2019 के चुनाव में इनके नारे से ‘जनता से संवाद’ गायब है और इनके समर्थक चाहकर भी मोदी लहर नहीं बना पा रहे थे जैसा पिछले लोकसभा चुनाव में हुआ था। राम मंदिर, जय श्री राम, हिन्दू-मुस्लिम, सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट एयर स्ट्राइक, एनआरसी का मुद्दा जहां जो काम लगे वहां वही लगा दिया गया। भाजपा के तमाम नेताओं को समझ में नहीं आ रहा था कि 'किस' जनता को क्या कहना है और क्या नहीं कहना है। किसी भी जगह मोदीजी जनता से सीधा संवाद जो पिछले लोकसभा में कर रहे थे नहीं कर पा रहे थे। उसकी जगह मोदी जी भूगोल के साथ-साथ विज्ञान को भी बदलने लगे"
17वीं लोकसभा के सातवें और अंतिम चरण का चुनाव आगामी रविवार को शेष 59 सीटों के लिय मतदान होने जा रहा है इसके साथ ही चुनाव आयोग का चेहरा भी ‘मोदी रडार’  से साफ-साफ दिखने लगा कि किस प्रकार चुनाव में मोदी का सहयोग कर रहा है ‘चुनाव आयोग’ । गुजरात से एक गुंडा बंगाल आकर पैसे के ताकत पर बंगाल में अराजकता फैला जाता है।
‘विद्यासागर’ की मुर्ति को तुड़वा जाता है। बंगााल की संस्कृति पर हमला कर जाता है कोई इसका विरोध करे तो देश के लोकतंत्र पर खतरा पैदा हो जाता है ? देश के सर्वोच्च अदालत ने जब सीधे मोदी सरकार पर हमला किया कि ‘‘देश के लोकतंत्र को खतरा पैदा हो चुका है’’ तब दिल्ली के तथाकथित बिकाऊ मीडिया हाऊसेस की जुबान को लकवा मार गया था? जब आरबीआई पर हमला हुआ, जब सीबीआई को पंगु बना दिया गया, जब चुनाव आयोग को भ्रष्ट अफिसरों से भर दिया गया तब इनका लोकतंत्र किस महखने में ‘स’राब की बोतलें खोल रहा था? लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को तबायतों का अड्डा बना देने वाले मीडिया हाऊस खुद को लोकतंत्र का रक्षक मानते हैं पर इनकी हरकतें तो बताती है ये लोकतंत्र के भक्षक हैं । भाजपा का चरित्र तो दिल्ली के चुनाव में सड़क-सड़क पर चर्चा का विषय बना हुआ है कि किस प्रकार ये लोग किसी महिला के लेकर कितने नीचे स्तर तक गिर सकते हैं। कोई यही बात इनकी महिला नेताओं को लेकर करे तब? सत्ता के लोभ ने इनके स्तर को इतना नंगा कर दिया कि अब ‘शरम’ भी इनसे ‘शरमा’ जायेगी । असभ्यता और अनैतिकता इनके खुन में रमा-रचा-बसा है कोलोस्ट्रोल की परतें जम गई है इनके खुन में जो-जो पाप 70 साल में नहीं देखे आज की युवा पीढ़ी यह सब देख-सुन व सीख रही है ।
खैर ! अब परिणामों के घनघोर बादल छटने लगे हैं। इसबार के चुनाव में भाजपा ने कई बार अपनी रणनीतिओं में बदलाव किया कभी ‘‘राम मंदिर’’ को भुनाने का प्रयास किया गया, जब इस पर बात नहीं बनती दिखी तो, पांच साल किसानों को ठगती रही मोदी सरकार ने ठीक चुनाव से पूर्व जल्दीबाजी में अपने अंतिम बजट में दस हजार किसानों को 2000-2000/- खैरात में बांटे । पांच साल व्यापारियों को कंकाल बना देने के बाद उन्हें आयकर में 12,500/- का प्रलोभन देने का काम किया गया जो आंख में धूल झौंकने के बराबर है क्योंकि 5 लाख से ऊपर आय के होते ही यह छुट गायब हो जाती है। फिर भी इनको लगा कि इससे भी बात नहीं बनी तो जैसा सभी अनुमान लगा रहे थे कि मोदी जी चुनाव से ठीक पहले पाकिस्तान पर हमला भी कर सकते हैं कुछ ऐसा ही किया भी गया और राहुल की तरह, मोदीजी को भी पिछली कांग्रेस सरकार की तरह सर्वशक्तिमान नेता के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा । विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के तकतवार नेता को अचानक से इन कलपुर्जे की क्या जरूरत आ पड़ी। जब मोदी जी इतना काम किये हैं कि पिछले 70 सालों में कभी हुआ ही नहीं जैसा कि इनके घोषणा पत्र में कहा गया है तो फिर ऐन चुनाव के वक्त यह छल-प्रपंच किसके लिए किये गये?
इस बीच विपक्ष लगातार मोदी के पिछले पांच सालों के कार्याकाल व तमाम संवैधानिक संस्थाओं को लेकर शोर मचा ही रहा था, वहीं राहुल गांधी ‘राफेल’ के मुद्दे को किसी भी हालत में छोड़ने को तैयार नहीं थे। लगातार ‘‘चौकीदार चोर है’’ बोल-बोल कर मोदी पर प्रहार किये जा रहे थे । 
2019 के चुनाव में भाजपा की रणनीति में तीन बार बदलाव लाया गया। पहले इनका नारा बड़े-बड़े विज्ञापनों से यह प्रचारित किया गया कि ‘‘नामुमकिन अब मुमकिन है’’  फिर इसमें मोदीजी का नाम जोड़ा गया ‘‘ मोदी है तो मुमकिन है’’ यह बताने का प्रयास किया गया कि मोदी के आने से वह काम हुआ जो कभी नहीं हो सका था पर जैसे ही इस नारे का उल्टा अर्थ सामने आने लगा तो अचानक से मोदी ने ‘‘मैं भी चौकीदार’’ से कांग्रेस पर पलटवार करना चाहा। यानि 'राहुल' का वार सही जगह जाकर लग चुका था। मोदी अपनी सारी रणनीति भूलकर खुद 'चौकीदार' के एजेंडे में उलझ गये और साथ ही अपनी पूरी टीम को भी उसमें उलझा डाले। इसे पत्रकारिता में ‘‘बुलेट एजेंडा सेटिंग’’ बोला जाता है जो सीधे सामने वाले के मस्तिष्क में जाकर अटेक करता है। किसी ने उन्हें ज्ञान दिया कि इससे आप ‘राफेल’ के मुद्दे को ही खुद जनता के बीच ले जा रहें हैं तो रातों-रात मोदी की पार्टी ने फिर अपने नारे में बदलाव कर दिया ‘‘फिर एक बार मोदी सरकार’’  जबकि पिछले 2014 के लोकसभा के चुनाव में मोदी पार्टी के कई नारे थे जिसमें - बहुत हुई मंहगाई की मार- अबकी बार मोदी सरकार’’ , ‘‘अच्छे दिन आने वाले हैं।’’ ‘‘हर-हर मोदी-घर-घर मोदी’’  आप एक नजर नारों के इस गणित को ही देखें । 
2014 में दिये नारों में जनता से सीधे संवाद नजर आता था जैसे मंहगाई, अच्छे दिन और घर-घर मोदी ये सभी नारों में एक मनोवैज्ञानिक तथ्य ‘जनता से संवाद’ काम कर रहा था।  जबकि 2019 के चुनाव में इनके नारे से ‘जनता से संवाद’ गायब है और इनके समर्थक चाहकर भी मोदी लहर नहीं बना पा रहे थे जैसा पिछले लोकसभा चुनाव में हुआ था। राम मंदिर, जय श्री राम, हिन्दू-मुस्लिम, सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट एयर स्ट्राइक, एनआरसी का मुद्दा जहां जो काम लगे वहां वही लगा दिया गया। भाजपा के तमाम नेताओं को समझ में नहीं आ रहा था कि 'किस' जनता को क्या कहना है और क्या नहीं कहना है। किसी भी जगह मोदीजी जनता से सीधा संवाद जो पिछले लोकसभा में कर रहे थे नहीं कर पा रहे थे। उसकी जगह मोदी जी भूगोल के साथ-साथ विज्ञान को भी बदलने लगे। कभी कुछ, कभी कुछ कह डालते हैं जो स्वतः विवाद पैदा कर देती है। कहने का अर्थ है कि 2019 के चुनाव में मोदीजी ना तो पिछले पांच सालों की सफलता पर कोई बात कह पा रहे थे ना ही  भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ही मोदीजी के कार्यकाल की सफलता पर कोई चर्चा कर रहें थे। 

हां! भाजपा के घोषणा पत्र में मोदी सरकार के कार्यों की चर्चा जरूर की गई है ‘‘संकल्पित भारत - सशक्त भारत’’ के नाम से 2019 का भाजपा के संकल पत्र में लिखा है कि ‘‘कोई एक सरकार बीस साल तक चलती है तो एक-दो ऐतिहासिक निर्णय लेती है। श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने पांच वर्षों में अनेक ऐसे निर्णय लिये हैं, जो ऐतिहासिक और आमूलचूल बदलाव को मूर्त रूप देने वाले हैं । स्वच्छता आंदोलन, उज्जवला योजना, सौभाग्य योजना, नोटबंदी, जीएसटी, सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक, हर घर बजली, 2.5 करोड़ से ज्यादा परिवारों को आवास तथा पचास करोड़ लोगों को मुफ्त चिकित्सा देने के लिए आयुष्मान भारत योजना और 14 करोड़ लोगों को मुद्रा लोन के तहत ऋण जैसे अनेक ऐसे कार्य हैं, जो कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने करना तो दूर, कभी सोचा तक नहीं ।’’ 
अर्थात चुनाव में भाजपा के घोषणा पत्र में कही गई बातों की कोई चर्चा नहीं हो रही थी, ना ही भाजपा का यह संकल्प पत्र को आम जनता पढ़ पा रही थी।  जनता तो मोदीजी और अमित शाह के आये दिन के भाषणों  के टेप गोदी मीडिया के माध्यम से ही सुन व पढ़ रही थी जिसमें सिवा हिन्दू खतरे में है को छोड़कर कोई नई बात थी तो "डाक्टर मोदी जी" का तीसरा ज्ञान ‘‘नाले के गेस पैदा करने से "रडार ज्ञान" तक, डिजिटल कैमरा से लेकर ई-मेल ज्ञान’’ मानों देश की युवाओं को वह यह बता रहे हैं जो दादी मां अपने बच्चों को कैसे बहला फुसला के खाना खिला देती थी। मोदीजी के संकल्प घोषणा पत्र में एक नजर उसके आंकड़ों पर देखें तो 66.5 करोड़ देश की आबादी को मोदी की तमाम योजनाओं से सीधे लाभ पंहुचा है। यानि कि लगभग देश की आधी आबादी को मोदी सरकार ने सीधे लाभ पंहुचा है। वहीं 10 करोड़ किसानों के बैंक खातों में 2000/- रुपये ठीक चुनाव से पहले जमा करा कर लगभग 75.5 करोड़ लोगों को सीधे लाभ दिया गया । इस प्रकार देखा जाए तो मोदी सरकार ने कुल 90 करोड़ मतदाताओं में से 75 करोड़ मतदाताओं को जो कुल मतदाताओं का 83% होता है को तो सीधे मोदी सरकार से लाभ मिला है तो फिर उनको अपने कामों पर वोट ना मांगना, समझ से परे है।  कभी सेना का नाम पर, तो कहीं राम के नाम पर तो कभीं नेहरू, राजीव गांधी को अपमानित कर, तो कहीं विद्यासागर जी की मुर्ति को खंडित कर, कहीं हिन्दुओं को भड़का कर, तो कहीं पुलमावा के शहीदों के नाम वोट करने का प्रथम युवा मतदाताओं से आह्वान कर, तरह-तरह की बात, जगह-जगह, अलग-अलग बात करते देखे गए। इसके साथ ही गोदी मीडिया साथ-साथ अपनी ताकत झौंके हुए है। 

मुझे एक बात अभी तक समझ में नहीं आ रही जब मोदी सरकार की इतनी सफलता है तो उनको अपने कामों पर वोट ना मांगते देखकर घोर आश्चर्य भी हो रहा है और इनके रणनीतिकारों के दिवालियापन पर अफसोस भी । ऊपर मैंने इनके नारे के फर्क की बात की, फिर इनके घोषणा पत्र की बात की अब तीसरे भाग में कुछ चुनावी अंकगणित पर भी चर्चा कर लेते हैं।

2014 में पांच राज्यों प्रमुख राज्यों जिसमें उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तिसगढ़ और बिहार जो भाजपा का गढ़ माने जाते थे जिसमें पिछले लोकसभा के चुनाव में भाजपा ने उत्तरप्रदेश में 41.3% वोट प्रतिशत शेयर के साथ में 80 में 71 सीटें,  राजस्थान में 54.9% वोट प्रतिशत शेयर के साथ में 25 में 25 सीटें , मध्यप्रदेश में 54% वोट प्रतिशत शेयर के साथ 29 में 27 सीटें, छत्तिसगढ़ में  में 48.7% वोट प्रतिशत शेयर के साथ 11 में 10 सीटें और बिहार में वर्तमान यूपीए गठबंधन को 51.6% वोट प्रतिशत शेयर के साथ 40 में 30 सीटें आज इनके पास है। यानि की इन पांच राज्यों में ही भाजपा को 163 सीटें मिली थी। जो 2019 के चुनाव में उत्तरप्रदेश में वोट प्रतिशत घटकर 35% वोट प्रतिशत के नीचे घिसने का अनुमान लगाया जा रहा है इसके प्रमुख कारण है - योगी सरकार से ब्राहमणों की बड़ी नाराजगी वहीं मोदी सरकार की नोटबंदी व जीएसटी से परेशान बुनकर उद्योग का कमजोर तबका खासा नाराज दिख रहा है। जबकि 2014 में ‘‘मोदी लहर’’ में बाबजूद बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी पार्टी को 41.8% वोट प्रतिशत शेयर प्राप्त हुए थे।  यह ‘‘मोदी लहर’’ जैसा कि सबने 2014 में देखा और अनुभव भी किया था आज किसी भी रूप में यह कोई ‘मोदी लहर’ यूपी में नहीं है। वहीं पिछले विधानसभा चुनाव में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ़ में भाजपा की सरकार चले जाने से वहां भी लोकसभा के चुनाव के वे सम्मीकरण जो 2014 में थे गड़बड़ाये हुए हैं। अर्थात कि उत्तर प्रदेश में 10%  और इन तीनों राज्यों - राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ़ में 7% से 10% वोट शेयर प्रतिशत में गिरावट का अंदाज आंका जा रहा है। 
वहीं बिहार की बात ले लें तो, इस बार बिहार में लोजपा और नितीश की सरकार से लोगों को नाराज साफ देखा जा रहा है जो नितीश कुमार के चेहरे से भी साफ झलक रहा है। कहने का अभिप्रायः यह है कि बिहार में भी भाजपा 2014 के मुकाबले उतनी मजबूत नहीं दिखाई पड़ रही है।  अर्थात इन पांच राज्यों में कुछ न कुछ खोना निश्चित है । जो लगभग 80 सीटों के आसपास माना जा रहा है । 
अब महाराष्ट्र, गुजरात में भी भाजपा को कुछ नुकसान तो जरूर होगा यह नुकसान दोनों राज्यों में मिलाकर 10 सीटों के आसपास से रहेगी।  इसी प्रकार भाजपा को अन्य राज्यों में जैसे दिल्ली, कर्नाटका, झारखंड, हरियाणा और असम में भी हानि के संकेत मिल रहे है। कुल अनुमान के अनुसार इसबार भाजपा को पिछले चुनाव परिणाम से लगभग 100 सीटों का भारी नुकसान का आंकलन साफ दिख रहा है जिसकी भरपाई बंगाल व ओडिशा से कदापी संभव नहीं हो सकता यदि अमित शाह की बात भी मान ली जाए तो तब भी  बंगाल की कुल 42 सीटें, ओडिशा की कुल 21 सीटें और त्रिपुरा की दो सीटों में आधी भी भाजपा को दे दी जाए यानि कि 65 सीटों में 30-32 सीटें भी भाजपा के खातें में जोड़ भी दी जाए जो एक काल्पनिक बात है तब भी भाजपा को बहुमत से 70 सीटें कम रहेगी। जो ना तो अखिलेश - मायावती की जोड़ी पूरी कर सकती है ना ही शरद पवार और ममता की जोड़ी । जयहिंद !

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी

शनिवार, 11 मई 2019

न्यू मीडिया: भारत में लोकतंत्र की नई किरण

न्यू मीडिया: भारत में लोकतंत्र की नई किरण
न्यू मीडिया का यह प्रयोग कम लागत में कोई भी शुरू कर सकता है बस उसके अंदर कार्य करने का ज़ज़्बा होना चाहिये जो सत्य के साथ अपने विचारों को आज भी बिना की किसी ख़ौफ़ और डर के रख सके।  भारत में लोकतंत्र की नई किरण देखने में  भले ही आज छोटी लगती हो पर जब चारों तरफ बाढ़ आ जाती है तो लोग खुद को बचाने के लिये अपने साथ एक दीया साथ रख लेते हैं जो रात के अंधेरे में ही उनके जिंदा रहने का सबूत दुनिया को बता देती है। 

आज "यू ट्यूब" टी.वी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अच्छा विकल्प बनता जा रहा है वह भी ऐसे समय में जब देश की अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किसी न किसी राजनीति विचारधारा से प्रभावित नजर आती है।  पिछले दिनों चुनाव के दौरान बिहार की एक चुनावी सभा में कन्हैया कुमार ने जैसे ही कहा कि आप टीवी चैनल देखते हैं? उनका इशारा ‘‘गोदी मीडिया’’ की तरफ था। बस इतना ही कहना था कि चारों तरफ से तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी । कहने का अभिप्राय यह है कि देश की आम जनता इस बात को अच्छी तरह से समझ चुकी है कि इन मीडिया हाऊसेस ने अपनी साख खो दी है। कम-ओ-वेस यही हाल समाचार पत्रों का भी होते जा रहा है । लोगों का इन समाचार पत्रों से भी विश्वास हटते जा रहा है जो खुद को एक समय लोकतंत्र का चौथा प्रहरी मानते थे आज ये लोग खुद को सत्ता का दलाल बना चुके हैं । 
वहीं दूसरी तरफ "यू ट्यूब"  की तरफ जनता का झुकाव पैदा हो जाना किसी नये संकेत की तरफ इशारा तो नहीं कर रहा है कि आने वाले दिनों में करोड़ों रुपये से संचालित होने वाले समाचार हाऊस के दिन लदने वाले हैं? यह बात यहीं नहीं ठहर रही है "यू ट्यूब" की बढ़ती मांग के साथ-साथ इंटरनेट पर संचारित होने वाली वेब पत्रिकाएँ जैसे भड़ास4मीडिया पोर्टल के संस्थापक और संपादक यशवंत सिंह, विनोद दुआ द्वारा "द वायर" आशुतोष के द्वारा "सत्य हिन्दी डाट कॉम", पुण्य प्रसून वाजपेयी के द्वारा यू ट्यूब पर धारावाहिक आना,  "स्वराज एक्सप्रेस",  अभिजात शर्मा के द्वारा ‘‘न्यूज चक्र’’  आज देश के राष्ट्रीय पटल पर अपना स्थान बना चुके हैं।

इनके दर्शकों की संख्या तेजी से बढ़ते जा रही है जो एक लाख से 50 लाख के बीच देखी जा रही है । इन "यू ट्यूब" या वेब पोर्टलों का तेजी से फैलाव इस बात का भी प्रमाण है कि जनता को उन चापलुस पत्रकारों की बातों पर ज्यादा विश्वास नहीं रहा, उनको लगता है कि ये पत्रकार झूठ परोस रहें हैं और भ्रम फैला रहें हैं। इन यू ट्यूब या वेब पोर्टलों का चंद समय में ही लोकप्रिय हो जाना, आपातकाल की याद दिला देती है जब तमाम समाचार पत्रों ने श्रीमती इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये के सामने घुटने टेक दिये थे तब गली मौहल्ले व पान-चाय की दुकानों पर लोग लंबी लाइनों में खड़ा होकर बीबीसी सुनने लगते थे। स्व. रामनाथ गोयनका को आज भी इसी के कारण याद किया जाता है कारण कि वे एक मात्र उस दौर के संपादक थे जिन्होंने जयप्रकाश नारायणजी का खुल के साथ दिया और श्रीमती गांधी के सामने घुटने टेकने से साफ इंकार कर दिया था।

सनु 2014 के बाद का यह संक्रमण काल जिसमें टी.वी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया समाचारों में झूठ का समावेश जिस तेजी से बढ़ा है यह भले ही इनके टीआरपी को एक समय के लिये बढ़ा दे पर इनका अंत निश्चित है। क्योंकि कोई भी प्रत्रकार कितना भी समय की चपेट में आकर वह अपने विचारों को छोड़ दे, खुद की आत्मा को गिरवी रख दे, पर वह अंदर ही अंदर घुटता रहेगा जब तक वह सच बोल नहीं लेता। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो वह पत्रकार है ही नहीं।

आज रवीश कुमार को लोग पलक झपकते ही सुनने को लोग ऐसे ही बेताब नहीं रहते, कारण साफ है रवीश कुमार सीधे जनता के मुद्दों से खुद को जोड़े रखने में देश के तमाम टीवी ऐंकरों से काफी आगे निकल चुके हैं। भले ही इसके पीछे उनकी कड़ी मेहनत रही हो, पर समाचारों को संपादित करने में उनकी मेहनत साफ झलकती है, जो पुण्य प्रसून वाजपेयी के संपादन में भी झलकती है के अलावा किसी दूसरे ऐंकरों के संपादन में नहीं झलकती, लगता है वे किसी रोबोट की तरह समाचार के वाचक बनकर उतना भर ही बोल पाते हैं जितना उनकी खोपड़ी में भरा जाता है। यानि कि वे व्यक्ति न रह कर एक मशीन की तरह आते हैं और एंकरिंग कर के घर में टंगी अपनी खोपड़ी को पुनः सर पर लगा लेते हैं।
"यू ट्यूब" या वेब पोर्टलों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर वैसे तो कई और भी चैनलों  या वेब पोर्टल की भरमार देखी जा सकती है पर उनकी विश्वनियता पर उतना भरोसा नहीं किया जा सकता । साथ ही ऐसा नहीं है कि ये पारंपरिक  इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया "यू ट्यूब" या वेब पोर्टलों पर नहीं हैं पर उनकी साख समाप्त हो जाने के कारण उनकी पहचान भी भीड़ में खो चुकी है यहाँ इस बात का जिक्र भी करना जरूरी समझता हूँ कि जिस प्रकार बेगूसराय लोकसभा चुनाव में कन्हैया कुमार ने "यू ट्यूब" इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रयोग कर अपने चुनाव का प्रचार किया और दुनिया भर के समाचार पटल पर चंद दिनों में ही छा गये यह भी किसी नये सुबह होने का संकेत दे रही है।
न्यू मीडिया का यह प्रयोग कम लागत में कोई भी शुरू कर सकता है बस उसके अंदर कार्य करने का ज़ज़्बा होना चाहिये जो सत्य के साथ अपने विचारों को आज भी बिना की किसी ख़ौफ़ और डर के रख सके।

भारत में लोकतंत्र की नई किरण देखने में  भले ही आज छोटी लगती हो पर जब चारों तरफ बाढ़ आ जाती है तो लोग खुद को बचाने के लिये अपने साथ एक दीया साथ रख लेते हैं जो रात के अंधेरे में ही उनके जिंदा रहने का सबूत दुनिया को बता देती है। जयहिन्द!

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी

राफेल: खतरा ही खतरा

राफेल: खतरा ही खतरा
माननीय अदालत को यह तो साफ हो गया कि वे आसानी से  मुक्त नहीं हो सकती । बंद लिफाफे में सुनवाई कर वह बुरी तरह फंस चुकी है जो अदालत के इतिहास में लिखा जा चुका है कि बिना प्रतिपक्ष को सुने बंद लिफाफे में भी वह भी देश की सर्वोच्च अदालत में कोई फैसला हुआ था जो ना सिर्फ न्यायिक प्रक्रिया के दृष्टि से असंवैधानिक ही नही गलत भी था।  
गत् 10 मई' 2019 को देश की सर्वोच्च अदालत में राफेल मामले की पुनः सुनवाई हुई सर्वोच्च अदालत बंद लिफाफे की राजनीति में इस कदर फंस चुकी है कि अब उससे निकलना ठीक उसी प्रकार है जैसे गले की हड्डी ना खाये बनती है ना निकाले बनती है।  माननीय अदालत को यह तो साफ हो गया कि वे आसानी से  मुक्त नहीं हो सकती । बंद लिफाफे में सुनवाई कर वह बुरी तरह फंस चुकी है जो अदालत के इतिहास में लिखा जा चुका है कि बिना प्रतिपक्ष को सुने बंद लिफाफे में भी वह भी देश की सर्वोच्च अदालत में कोई फैसला हुआ था जो ना सिर्फ न्यायिक प्रक्रिया के दृष्टि से असंवैधानिक ही नही गलत भी था। अब इसकी सुनावाई के दो पहलु है पहला सरकार खुद को निर्दोष मानती है । दूसरा सरकार ही अब उसी अदालत को ब्लैकमेल करेगी और कल की अदालत में ऐसा ही हुआ जहाँ सरकारी वकील ने सीधे-सीधे तीन जजों की बेंच की धमकी ही दे डाली कि उनके दायरे में ही नहीं कि व देश की सुरक्षा के मामले में कोई सुनवाई कर सकें। तब सवाल उठता है कि जब सरकार को इसी अदालत से क्लिनचीट की जरूरत ही क्या थी? जब इस अदालत के दायरे में ही नहीं कि वह इस सौदे की जांच कर सके।

आपने ओसामा बिन लादेन या सद्दाम हुसैन का नाम सुना तो सुना होगा। नहीं सुना है तो आज इसके बारे में सुन लें यह वे ताकतवर लोगा थे जिनका सभी अपराध इस्लाम के नाम पर होता था। उनके ऊपर कोई भी हमला होता तो वे एक ही बात कहते कि ‘‘इस्लाम को खतरा है’’ या ‘‘इस्लाम पर हमला हो गया’’ यही बात जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है तबसे किसी न किसी बहाने से मोदी जी, अमित शाह, योगीजी व इनके तमात छुट भईया नेतागण, मोदी भक्त और गोदी मीडिया को दिनभर यही बात करते दिखाई देती है ‘‘हिन्दू खतरे में है’’  ‘‘हिन्दू धर्म असुरक्षित है’’ या फिर देश की सुरक्षा खतरे में है।  अब कल की ही बात ले लें, भारत के अटार्नी जनरल (महान्यायवादी) के.के. वेणुगोपाल को भी लगता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में आ जायेगी। उच्चतम अदालत में यही गुहार लगाते हैं कि ‘‘यह राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल है। दुनिया की कोई अन्य अदालत इस तरह के तर्कों पर रक्षा सौदे की जांच नहीं करेगी’’ अटार्नी जनरल ने उच्चतम अदालत को चेतावनी देते हुए कहा कि यह एक रक्षा सौदा है मसलन देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है, तकनीकी मामला है जिसे आसानी से समीक्षा करने  नहीं दिया जायेगा। कहने का अभिप्रायः यह था कि मोदी की सरकार के पास खतरा ही खतरा है जिसकी सुरक्षा में वे दिन-रात विदेशों के चक्कर लगाकर करते रहते हैं। कभी छुपकर पाकिस्तान जाते हैं तो कभी पाकिस्तानियों से पाठानकोठ हमले की जांच करवा के देश की रक्षा करते है। 
खैर राफेल पर पुनः आतें हैं -
अदालत में जिन बातों पर दलीलों दी गई उनमें प्रशांत भूषण ने कहा कि - 
  1. यह निर्णय (14 दिसंबर का निर्णय) सरकार द्वारा आपूर्ति किए गए गलत और अधूरे तथ्यों पर आधारित है।
  2.  समझौते दस्तावेज से ‘‘मानक भ्रष्टाचार विरोधी खंड’’ को क्यों हटाया गया? क्या किसी अपराधी क्रिया को अंजाम दिया जाना था?
  3.  सरकार ने निर्णय लेने की प्रक्रिया के बारे में कोर्ट को पूरी जानकारी नहीं दी है।
  4.  बेंचमार्क की कीमत 5 बिलियन यूरो तय की गई थी, लेकिन अंतिम सौदे में बेंचमार्क के ऊपर कीमत 55.6% बढ़ गई।
  5.  INT के सदस्यों की आपत्तियों के बावजूद (Sovereign guarantee clause)  संप्रभु गारंटी खंड को हटा दिया गया था।
  6.  INT के असंतोष तीन सदस्यों के निर्णय को अदालत से छुपाया गया।
  7. सरकारी हलफनामे में, सरकार ने स्वीकार किया कि ‘‘पीएमओ द्वारा निगरानी’’ की जा रही थी। क्या इसे ‘‘समानांतर वार्ता’’ नहीं माना जा सकता?।
  8. इस डील के बाद अंबानी की कंपनी को फ्रांस सरकार की तरफ से ‘कर’  में भारी छूट भी दी गई। जो किसी शक के दायरे में खड़ा करता है। 
जबकि अरुण शौरी ने कहा कि माननीय अदालत का पुर्व निर्णय सरकार द्वारा दिये गये झूठ पर आधारित था, इसलिए इसकी समीक्षा जरूरी है। अदालत ने सभी पक्षों की दलीलों पर सुनवाई करते हुए अपना फैसला सुरक्षित कर लिया है पर इतना तो जरूर है कि अब माननीय उच्चतम अदालत के सामने 'हिन्दू समाचार' में छपे वे नये दस्तावेज हैं जिसे भारत सरकार ने अपने पास छुपा रखा था और एक प्रकार से स्वीकार भी कर लिया है कि ये सभी दस्तावेज जो ‘हिन्दू’ में छपे हैं, सरकारी फाइल की प्रतिकॉपी है। जिसे पीएमओ की निगरानी शब्द से जोड़ दिया गया है। तो यह सवाल उठता है कि सरकार ने क्या पहले संसद और अदालत से झूठ बोला था? कि प्रधानमंत्री जी का इसमें कोई दखल नहीं है, क्या रक्षा मंत्री का संसद में दिया गया बयान झूठ पर आधारित था जैसा कि नये शपथपत्र में सरकार ने स्वीकार किया है कि ‘‘पीएमओ द्वारा निगरानी’’ की जा रही थी। अब यह निगरानी भारत के अटार्नी जनरल वेणुगोपाल को लगता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। भला हो भी क्यों नहीं ?
मोदी सरकार के आने के बाद हर बात को देश की सुरक्षा से जोड़ा जा रहा है। मुफ्ती की सरकार बनाने से लेकर सेना की हत्या करवाने तक, चुनाव में  ‘जवाहरलाल नेहरू’ से लेकर ‘राजीव गांधी’ तक, ‘राम‘ से लेकर ‘जय श्रीराम’ तक, ‘अली’ से लेकर ‘बली’ तक ‘बंदे मातरम्’ से लेकर ‘‘भारत माता की जय’’ तक सब जगह खतरा ही खतरा हो गया। राष्ट्रीय सुरक्षा ही राष्ट्रीय सुरक्षा है। सब जगह मोदी सेना ‘‘भारत की सुरक्षा’’ में लगी है । मानो हर तरफ भारत की सुरक्षा को खतरा ही खतरा पैदा हो गया इन पांच सालों में। जब इतना खतरा एक साथ पैदा हो गया तो मोदी सरकार कर क्या रही थी ?
जयहिन्द ।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी

बुधवार, 8 मई 2019

मांछे तेल तिके मांस भाजा होबे

मांछे तेल तिके मांस भाजा होबे 
 बंगाल में एक कहावत है - ‘‘मांछे तेल तिके मांस भाजा होबे’’ कहने का अभिप्राय है कि पत्रकारों को उसकी कमज़ोरी से मारा जाए। जो पत्रकार पैसे से बिक जायेगा उसे पैसे से खरीद लिया जाता है, जो नहीं बिके उसे धमकाया या उसके मालिकों को डराया जाता है। विज्ञापन का प्रलोभन या उसे हटा देने की धमकी से मीडिया हाउस ना सिर्फ परेशान हो चुकी है लाचार भी है।


पिछली कांग्रेस की सरकार में एक बात थी कि इनके नेता बार-बार एक ही बात की धमकी देते थे कि ‘‘वे चुन कर आयें हैं ’’ उनका यही अहंकार कांग्रेस पार्टी को ले डूबा। आज वही कांग्रेस पार्टी चुनावी समर में हाथ-पांव मार रही है खुद को बचाने की जद्दोजहद में लगी है। जो एक समय इस अहंकार में दंभ भरते थे वे आज हासिये पर खड़ें हैं। आज वहीं हाल भाजपा के नेताओं का हो चला है। बात-बात में गाली देना, धमकाना, गौरी लंकेश का उदाहरण देना व मानहानि का मुकदमा कर देना इनके दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है। इनको पता है कि एक बार मानहानि का मुकदमा फाइल हो जाने के बाद पूरा मामला ठंडे बस्ते में कम से कम पांच साल तो चला ही जायेगा। किसी बात को साबित करने की एक लंबी प्रक्रिया है इतने में तो कमजोर पत्रकार खुद ही मर जायेगा और अंत में झक मार कर खुद घुटने टेक देगा। बंगाल में एक कहावत है - ‘‘मांछे तेल तिके मांस भाजा होबे’’ कहने का अभिप्राय है कि पत्रकारों को उसकी कमज़ोरी से मारा जाए। जो पत्रकार पैसे से बिक जायेगा उसे पैसे से खरीद लिया जाता है, जो नहीं बिके उसे धमकाया या उसके मालिकों को डराया जाता है। विज्ञापन का प्रलोभन या उसे हटा देने की धमकी से मीडिया हाउस ना सिर्फ परेशान हो चुकी है लाचार भी है। भाजपा (मोदी भाजपा) जब किसी पत्रकार को जबाब नहीं दे सकती तो उस पत्रकार को अपने समर्थकों से ना सिर्फ अपमानित करावाती है उसके घर-परिवार के सदस्यों पर भी भद्दे व अपमानित करने वाले शब्दों से प्रहार करती है।  और इसे मीडिया जगत के उस वर्ग की मौन स्वीकृति प्राप्त है । जो इन दिनों खुद को गोदी मीडिया कहलाने में फूलों नहीं समा रहे। यह सिलसिला लगातार जारी है। परन्तु इन सब के बीच एक अच्छी बात लेह से सामने आई -

लेह प्रेस क्लब  (Press Club Leh ) की घटना:  जहां भाजपा के एक नेता के द्वारा पत्रकारों को नगद बांटते दिखाया गया है। जब इसका विरोध किया गया तो प्रेस क्लब को धमकी दी गई कि उसके विरूद्ध मानहानि का मुकदमा किया जायेगा। इसके पूर्व एक दिवालिया संस्थान के मालिक के द्वारा पांच हजार करोड़ का मामला एक पत्रकार पर पहले ही किया जा चुका है। इसी प्रकार के कई मुक़द्दमे की सूची तैयार हो सकती है जो पिछले पांच सालों में सामने आये हैं। अभी राफेल के दस्तावेज़ पर ‘हिन्दू’ समाचार में छपने पर ‘‘समाचार पत्रों पर आपराधिक मुकदमा करने तक की धमकी दी गई थी’’ ख़ुदा न खास्ता कोई कमजोर पत्रकार होता तो मोदी भाजपा अभी तक उस पत्रकार को सूली पर चढ़ा डालती। इनका एक ही लक्ष्य है किसी भी प्रकार से देश की उस व्यवस्था पर प्रहार करना है जो सोचता हो, जो अच्छे-बुरे में अंतर करता हो और सबसे बड़ी बात वह देश के संविधान में विश्वास रखता हो। ना तो वह पत्रकार कभी कांग्रेस का गुलाम था ना आज किसी मोदी भाजपा का ग़ुलाम बनने को तैयार है। जो लोग इस बात का भ्रम फैला रहें है कि इनके पांच सालों के कार्यकाल में ही देश की सुरक्षा हुई  जो इससे पहले कभी नहीं हुई थी यह पांच सालों का सबसे बड़ा ‘झूठ’ है कि इनका ‘सच’ स्वतः इनके ही झूठ से दबकर मर रहा है । इससे बड़े आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है जो व्यक्ति देश की सुरक्षा को वीडियो गेम समझता हो, देश के किसानों की आत्महत्या व सेना की शहादत को एक ही समस्या समझता हो वह देश का प्रधानमंत्री बना रोजना लाखों की नई-नई सूट पहनकर विदेशों के चक्कर लगा रहा है।

यह बात सही है कि पत्रकारों का एक छोटा सा वर्ग ‘गोदी मीडिया’ बन चुका है परन्तु इससे देश के ईमान को  नहीं ख़रीदा जा सकता ना ही गोदी मीडिया का अपना कोई नहीं वजूद है, गिरगिट की तरह ही गोदी मीडिया वक्त बदलते ही अपना रंग बदल लेता है। भारत ने मुगलों का शासन देखा उस दौर में हजारों चारण पैदा लिये जो राजा के गुणगान में कशीदे पढ़ा करते थे पर राणा प्रताप एक ही पैदा हुआ जिसे आज भी देख रहें हैं, अंग्रेजों के शासनकाल में हजारों चापलूसों को उनकी गुलामी करते देखा गया, आज जो लोग राष्ट्रवाद की बात कर रहें हैं उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में कभी ‘‘बंदे मातरम्’’ नहीं गाया, तिरंगे झंडे को लेकर कल तक जो खुद को अपमानित समझते थे, आरएसएस की शाखा में आज भी बंदे मातरम्’’  सुनाई नहीं देता  जिसे (बंदे मातरम्’) सत्ता में आने के लिए अपना हथियार बना के देश के लोगों को मुर्ख बनाने चले हैं। आज का यह गाना ‘‘एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग’’ यदि रावण के काल में लिखा व गाया, गया होता तो तब का रावण इस गाने को लिखने, सुनने वाले, फिल्मानेवाले, चित्रकार, कलाकार, सबको फाँसी पर लटका दिया होता। गणिमत है की भारत का संविधान इनके आड़े हाथों बीच में रोड़ा अटकाये खड़ा है नहीं तो अब तक सच लिखने व बोलने के जुर्म में कई पत्रकारों को फाँसी के फंदे पर लटका दिया गया होता ।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी  

शुक्रवार, 3 मई 2019

मुद्दा विहीन चुनाव-2019

निहारिका, एम.ए (मास कॉमनिकेशन)


सब बस एक-दूसरों पर व्यक्तिगत हमला करने से भी नहीं चूक रहें हैं। नेताओं और उम्मीदवारों की भाषा-शैली निम्न स्तर की होती जा रही है । उनके भाषण का स्तर हास्यप्रद हो राह है। यानी एक सटीक वाक्य में कहा जाए तो इस बार का लोकसभा चुनाव 2019 एक  ‘‘मुद्दा विहिन’’ चुनाव  के रूप में जनमत में देखा जा रहा है। एक प्रकार से इसे अनौपचारिक रूप से जनता के विश्वास के साथ धोखा है।
निहारिका
'चुनाव' लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण अंग है।  यह प्रक्रिया लोकतंत्र को अतिमजबूत तब बनाती हैं जब चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्षता पूर्वक संपन्न की जाती है। भारत विश्व का सबसे बड़ा सशक्त लोकतंत्र है, तब यहाँ आम चुनावों को सम्पन्न कराना भी  बहुत ही कठिन व चुनौतीपूर्ण कार्य तो  है, किंतु यह यहां एक माहपर्व के रूप में या  लोकतंत्र के सबसे बड़े त्योहार के रूप में इसे मनाया जाता है। इसलिए इस  चुनावी महापर्व को सफल बनाना एवं  शांति व सौहार्द्धपूर्वक पूर्ण करना सबकी जबाबदेही है। इसके लिये चुनाव आचार संहिता का सख़्ती से पालन करना भीअतिआवश्यक होता है। जिससे चुनाव आयोग, मतदाताओं को आकर्षित, प्रभावित और लुभाने वाले अनुचित प्रयासों से बचा सके। ऐसे में सरकारों व राजनीति दलों को यह तय करना होता है कि वे ऐसे कोई भी अनाचार को रोकें, जिससे आचार संहिता का उल्लंघन न हो और चुनावी  माहौल न बिगड़े।

वर्तमान में17वीं लोकसभा का चुनाव के अबतक चार चरणों के मतदान पूरे किये जा चुके हैं एवं तीन चरणों का मतदान होना अभी बाकी है। किंतु इस लोकसभा चुनाव में एक खास बात देखी जा रही है इस बार महत्वपूर्ण मुद्दों से नमस्कार कर लिया गया है। यानी कि मंहगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा, गरीबी, नई फसल योंजनाएं, रोजगार, स्वच्छता, पर्यावरण संरक्षण, किसान एवं कृषि  आदि जैसे मुद्दों को नजरअंदाज करके सभी  राजनीतिक दलों  के नेतागण एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप, गाली-गलौज, अपशब्द, व्यक्तिगत एवं जातिगत हमला आदि करने में लगे हुए हैं।कोई किसी को मुर्ख कहता है कोई किसी को चोर  किसी को बच्चा कहता है, कोई स्वयं को चौकीदार कह रहा है, कोई किसी खास को तो यह भी कह रहा है कि उसकी पूरी जाति ही चोर व भगौड़ा ह। इसमें  से कोई  कोई भी अपने पूर्व कार्यों को ब्यौरा व रिपोर्ट कार्ड नहीं दिखाता और  न तो आने वाले चुनावी परिणाम के फलस्वरूप उनकी सत्ता आने पर आम जनता के लिए कोई ठोस कदम एवं दूर दृष्टि ही दिखाता है।
सब बस एक-दूसरों पर व्यक्तिगत हमला करने से भी नहीं चूक रहें हैं। नेताओं और उम्मीदवारों की भाषा-शैली निम्न स्तर की होती जा रही है । उनके भाषण का स्तर हास्यप्रद हो राह है। यानी एक सटीक वाक्य में कहा जाए तो इस बार का लोकसभा चुनाव 2019 एक  ‘‘मुद्दा विहिन’’ चुनाव  के रूप में जनमत में देखा जा रहा है।
एक प्रकार से इसे अनौपचारिक रूप से जनता के विश्वास के साथ धोखा है। पिछले चुनाव की बात करें तो  कम से कम या हल्के-फुल्के वादे जैसे काले धन की वापसी, नदियों की स्वच्छता, किसानों को राहत, गरीबों को लाभ देने जैसे फरेबी भाषण व वादे भी सुनने को मिलते थे किन्तु इस सत्रहवें लोकसभा चुनाव में तो इसका भी आभाव दिख रहा है। कहीं-न-कहिं आज के इन हालातों की वजह तथा जिम्मेवार आम जनता व जनमत स्वयं भी है।
वर्तमान में नेताओं, मंत्रियों एवं देश के शीर्ष पदों पर आसीन लोगों व कुछ राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों के द्वारा प्रयोग की जानेवाली निम्न स्तर की भाषा शैली, अपशब्द, एवं अभद्र वाक्यों को प्रयोग निकट भविष्य में सवेदनशील एवं चिंताजनक है। इससे विश्वस्तर पर देश की छवि धूमिल होती है। इस विषय पर गहन चिंतन करना आवश्यक है।
निहारिका, एम.ए (मास कॉमनिकेशन)
यह लेख, लेखक के निजी विचार हैं।

गुरुवार, 2 मई 2019

बिकाऊ पत्रकारिता

बिकाऊ पत्रकारिता 
मीडिया हाउस भी यही चाहता है कि जनता उसके दिखाये मार्गों का ही अनुसरण करें, साथ ही ये आपस में भी एक दूसरों को नीचा दिखाने व दिल्ली में किसकी सरकार सत्ता पर काबिज होगी  इसकी हौड़ में लगें हैं । क्या ‘जी-न्यूज’ सत्ता में आयेगा कि ‘आजतक’ ? क्या ‘रजत शर्मा’ की सरकार बनेगी कि ‘अर्नब गोस्वामी’ की?  इसीप्रकार प्रिंट मीडिया में भी दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर इस दौड़ में सबसे आगे की पंक्ति में दिखाई दे रहें हैं। एक’आध को छोड़कर किसी ने भी अपनी ज़िम्मेदारी का सही से निर्वाहन नहीं किया है । सबके सब बिकाऊ पत्रकारिता का हिस्सा बन चुके हैं। 
देशभर में सातवें और अंतिम चरण के चुनाव का नामांकन भरे जा चुके हैं जिसका चुनाव आगामी 19 मई को होने जा रहा है इसके संपन्न होते ही चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों से निकलने वाले आंकड़ों का खेल खेलने लगेगी। गोदी मीडिया के डब्बों से भी भर-भर लौटा सीटें निकलने लगेगी। चुनाव में कौन जीतेगा या कौन हारेगा यह तो 23 मई या उसके बाद ही पता चल सकेगा परन्तु गोदी मीडिया यह पहले ही बता देगी कि देश में किस मीडिया हाउस की सरकार बनने जा रही है।
इसबार का चुनाव कई मायने में बहुआयामी और देश के पिछले सभी चुनावों से कुछ हठकर भी है। जहां सत्ताधारी मोदी पार्टी अपने कार्य पर नहीं, सेना की शहादत पर वोट मांग रही है तो वहीं विपक्ष एक सूर में अपनी अलग-अलग ताल ठोक उस गाने को चरितार्थ कर रहा है ‘‘मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा’’  बंगाल में ममता-माकपा-कांग्रेस और दिल्ली में ‘आप’ व कांग्रेस का गठबंधन अंतिम क्षणों तक फाँसी के फंदे पर हिचकोले लेता रहा। कभी हां, कभी ना, होता रहा । वहीं दूसरी तरफ पिछले पांच राज्यों के विधानसभा में सीटों के बँटवारे को लेकर नाराज़ चल रहे अखिलेश व मायावती की जोड़ी ने उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को ही किनारे लगा दिया । मोदी को सत्ता से हटाने का अंक गणित जिन आंकड़ों को लेकर विपक्ष चला रहा था वह अंक गणित, चुनाव शुरू होने से पहले ही धराशाही हो गया। सभी पार्टियां अपने जनाधार से कोई समझौता नहीं करना चाहती, सबकी यही इच्छा है कि उसे इतना मिल जाए कि सत्ता की भागीदारी में सौदा अच्छे से किया जा सके। यही हालात भाजपा के साथ भी है जिसमें शिवसेना के उद्धव ठाकरे व लोजपा के रामविलास पासवान बार-बार आँखें तरेर रहे थे। राजनीति दलों का जोड़-घटाव या गुणा-भाग तो समझ में आता है पर मीडिया हाउसेस का नहीं ।
यहां राजनीति पंडितों का यह आकलन भी गौर करने योग्य है कि विपक्ष के पास खोने को कुछ नहीं है जबकि मोदी पार्टी का जनाधार पिछले 2014 के लोकसभा चुनाव के अनुपात में काफी तेजी से नीचे गिरा है और ‘मोदी लहर’ नामक  कोई चीज 2019 के इस चुनाव में नहीं है जैसा 2014 में था। कुल मिलाकर सभी पक्षों ने यह तो स्वीकार कर ही लिया है कि इस बार के 17वीं लोकसभा के चुनाव में किसी एक दल की सरकार नहीं बनने वाली है। 
साथ ही 17वीं लोकसभा के चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर तरह-तरह के संदेह पैदा हुए हैं । बड़ी संख्या में ईवीएम मशीनों के खराबी की शिकायतें आती रही। चुनाव संचालन के रूल 49MA की शिकायतों को छुपाया गया, मतदाताओं को डरा कर बहार भगा दिया गया। यह सब चलता रहा, पर एक बात तो साफ हो गई कि जो ईवीएम मशीनें कल तक ठीक थी वे ही मशीनें वीवीपेट के आ जाने के बाद खराब कैसे हो गई? जो किसी गुप्त रहस्य की तरफ इशारा/संकेत करती है कि दाल में कहीं काला तो जरूर है नहीं तो चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों में शिकायतें आने के बाद बदली जाने वाली मशीनों के तथ्यों को छुपा क्यों रही है? साफ-साफ इस बात का जिक्र क्यों नहीं कर रही कि इन सभी मशीनों में एक ही तरह की शिकायत ही आ रही है कि वोट जिसे डाला जा रहा है उसे ना जाकर किसी अन्य दल को जा रहा है। जिन मशीनों को खराब बोल कर चुनाव आयोग ने हटा दिया उन मशीनों की कोर्ट की निगरानी में फॉरेंसिंग जांच करानी चाहिये कि मामला आखिर है क्या? 
पुनः जिस प्रकार बनारस में सेना के एक पूर्व सैनिक तेज बहादुर यादव के नामांकन को दबाव में आकर रद्द किया गया स्पष्ट रूप से चुनाव आयोग की भूमिका संदेह के घेरे में आ चुकी है । दूसरी तरफ भारत की प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा घड़ा जो ‘फेक-लहर’ के साथ-साथ इस बार ‘फेक जहर’ भी फैलाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहा है। ये दोनों ही बातें लोकतंत्र के लिये किसी खतरे से कम नहीं है।
17वीं लोकसभा के चुनाव में समाचारों में  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विचारों को जहरीले सांप ने डंस लिया है। हर घटना के पीछे कोई न कोई 'जहर' काम करता दिखाई दे रहा है। चाहे वह देशद्रोही बनाने का 'जहर' हो या फिर 'देश प्रेमी' बनाने का। एक जमाना जब मीडिया सिर्फ देशप्रेमी बनाने की हौड़ में लगी रहती थी। कवियों की कविताएं में देश भक्ति के भाव झलकते थे अब इनकी कविताओं में यह बताया जाता है कि देशद्रोही कौन है । खुदा ना खास्ता कल न उच्चतम अदालत भी कोई फैसला इनके खिलाफ कर देगी तो वह भी देशद्रोही की श्रेणी आ जायेगा। देश को लुटने वाले लोग अब अदालत में यह दलील भी देने लगे है कि यह राष्ट्र की सुरक्षा का मसला है । अतः उन समाचार पत्रों के मालिकों को भी जेल भेज देना चाहिये जो उनकी बातों से सहमत नहीं है। पत्रकारों को जान से मारने लेकर उनके परिवारों को धमकाने व उसे नौकरी से निकालने की शुरूआत तो हो ही चुकी है। इसके साथ ही 'फेक चैनल' के संचालन से लेकर 'फेक साक्षात्कार' का प्रसारण भी होने लगा है। यह सब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सहयोग के बिना कदापी संभव नहीं है। 
देश का कोई एक व्यक्ति मीडिया से भी बड़ा हो सकता है यह कल्पनाहीन बातें थी, कल तक गांव का एक पत्रकार सीना तानकर चलता था । उस पत्रकार से सरकार की तमाम एजेंसियां, पदाधिकारी व नेतागण घबड़ाते नजर आते थे, आज इसमें तेजी से ह्रास हुआ है । अब वही संवाददाता सही माना जा रहा है जो अफवाहों या फेक न्यूज को फैलाने में मीडिया हाउस का साथ दे रहा  है। 
मीडिया हाउस भी यही चाहता है कि जनता उसके दिखाये मार्गों का ही अनुसरण करें, साथ ही ये आपस में भी एक दूसरों को नीचा दिखाने व दिल्ली में किसकी सरकार सत्ता पर काबिज होगी इसकी हौड़ में लगें हैं । क्या ‘जी-न्यूज’ सत्ता में आयेगा कि ‘आजतक’ ? क्या ‘रजत शर्मा’ की सरकार बनेगी कि ‘अर्नब गोस्वामी’ की?  इसीप्रकार प्रिंट मीडिया में भी दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर इस दौड़ में सबसे आगे की पंक्ति में दिखाई दे रहें हैं। एक’आध को छोड़कर किसी ने भी अपनी ज़िम्मेदारी का सही से निर्वाहन नहीं किया है । सबके सब बिकाऊ पत्रकारिता का हिस्सा बन चुके हैं। 
अब हमें इस बात का इंतजार रहेगा कि 23 मई को किस मीडिया हाउस की सरकार दिल्ली की सत्ता पर काबिज होती है। सरकार किसी की भी बने किसी को लड्डू खाने मिलेगा,  किसी को रसगुल्ला, पर इतना तो तय है कि यह जहरीला होगा। इस बार के चुनाव मे इन मीडिया हाउसों के चंद पत्रकारों ने अपने निजी स्वार्थ के चलते पूरे पत्रकारों की प्रतिष्ठा को शक के दायरे में ला खड़ा किया है। अब पाठक वर्ग साफ-साफ कहने लगा है कि यह समाचार अमूक पार्टी द्वारा संचालित है। जो अब तक उसकी ऐसी छाप नहीं थी जो पत्रकारों के लिए एक सोचनीय विषय है। देश के हरे-भरे वातावरण में इन समाचार हाउसेज ने जो जहर फैलाया है उसे लोकतंत्र की हत्या के अपराध से कम नहीं आंका जा सकता है। जिसका दूरगामी परिणाम आने वाले दिनों में हमारे बच्चों के भविष्य पर भी पड़ेगा और अब नई पौध भी नाथुराम गोडसे से लेकर प्रज्ञा ठाकुर की मिशाल कायम कर सत्ता प्राप्ती का सुख लेना चाहेगी।  जयहिन्द ।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी