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गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

‘‘मजदूर दिवस व अव्यवस्थित लॉकडाउन’’ - शंभु चौधरी

मेरी मान्यता के अनुसार ‘‘ कल-कारखानों से अभीप्राय उन उद्योगों से है, जिसमें समूह में मानव ऊर्जा का प्रयोग किया जाता हो, भले ही उसमें उत्पादन में सहयोगी हेतु विद्युतीय मशीनों व अन्य संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता हो इनमें यदि मानव ऊर्जा का प्रयोग न किया जाए तो ये सभी संसाधन महत्वहीन व नरकंकाल के बराकर हैं । - शंभु चौधरी ’’
Das Capital
मई दिवस को हर साल पहली मई को अंतर्राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाता है । इसकी शुरुआत 1 मई, 1890 को पेरिस, फ्रांस में 14 जुलाई 1889 को हुई इस दिन दुनिया भर में कुल 80 प्रतिशत मजदूर अपने कार्यस्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से बंद कर देते हैं । आज दुनिया के सामने कोरोनावायरस के संकट ने इसके नये स्वरूप पर हमें कुछ नया लिखने को मजबूर कर दिया है। सन 1918 की स्पेनी फ्लू ने पूरे विश्व में लगातार दो साल तक तबाही मचा दी थी। यह जनवरी 1918 में पैदा हुई और दिसम्बर 1920 तक चली और इसने 50 करोड़ लोगों को संक्रमित किया जो उस समय की दुनिया की आबादी का एक चौथाई है । इससे मरने वालों की संख्या अनुमानतः 170 लाख से लेकर 4 करोड़ के बीच बतायी गई है।  [देखें विकिपीडिया] इस काल में दुनिया भर में स्वः निर्मित लॉकडाउन हो गया था । हर व्यक्ति स्वयं व खुद के परिवार को बचाने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हो गए। बस हर व्यक्ति इसी बात की दुआ कर रहा था कि यह बीमारी उसके घर में प्रवेश ना करे । स्पेनी फ्लू की महामारी ने मजदूरों के जीवन को भी काफी हद तक प्रभावित कर दिया था।  नब्बे प्रतिशत मजदूरों का जीवन संकट में आ गया था । कल-कारखाने बंद हो चुके थे । आज की तरह कोई सूचना का साधन न होने से मनगढंत कथाओं का बोलबाला था। पादरी, मौलबी, पंडितों ने इस अवसर को अपने-अपने धर्म के प्रचार में जम कर लगाया। उनको और भयभीत करते रहे, अफवाहों को फैलाते रहे । जिसका जितना बस चला वह उस तरह से अफवाहों को फैलाने लगा। समाचार पत्र उन अफवाहों का प्रचार माध्यम बन चुके थे ।

आज हम 21वीं सदी में जी रहें हैं । हमारे पास संचार के तमाम सुख-सुविधा जैसे मोबाइल फोन, इंटरनेट संचार, टीवी संचार, सोशल मीडिया संचार, समाचार पत्र आदि उपलब्ध है । जबकि आज भी हम धार्मिक अफवाहों का शिकार हो रहें हैं।  वुहान से निकला कोरोनावायरस ने दुनिया भर में कोहराम मचा दिया है। हर कोई अपने-अपने देश के सरकारी आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य है । लगभग पूरी दुनिया लॉकडाउन की चपेट में आ चुकी है। अब तक 212 देशों में इस महामारी ने, न सिर्फ उस देश में अपना आतंक फैला दिया है । लाखों लोग इस महामारी से संक्रमित हो चुके हैं। अब तक इस बीमारी का कोई ठोस इलाज, सिर्फ इस महामारी से समाज को, लोगों को कैसे बचाया जा सके के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं खोजा जा सका है । दुनिया भर के वैज्ञानिक इस महामारी की रोकथाम के लिए रोज़ाना रिसर्च कर रहे हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस महामारी को ‘कोरोना आतंकवादी’ की संज्ञा भी दे डाली है । जिसके प्रभाव से प्रायः सभी देशों में आज मजदूर तेजी से बेकार होते जा रहें हैं जो हमें किसी खतरनाक मंदी के दौर की तरफ ले जाने का संकेत भी दे रहा है ।

दुनिया मेरी इस बात से सहमत हो या नहीं मैं आज इस बात को लिखने को बाध्य हो रहा हूँ कि मजदूर एक प्रकार की ऊर्जा है जो किसी अन्य ऊर्जा से उसकी शक्ति को कम आंकना हमारी भूल होगी। कार्ल मार्क्स ने इस ऊर्जा का संगठित करने व उसके हक के लिए जितना कुछ भी किया उसे भी नाकारा नहीं जा सकता । कार्ल मार्क्स की एक पुस्तक दास कैपिटल 1867 ई. इस पुस्तक में पूँजी एवं पूँजीवाद का विश्लेषण है एवं इसका मजदूरों पर प्रभाव व उनको इस व्यवस्था के शोषण से मुक्त करने के उपाय बताये गए हैं। इस पुस्तक के द्वारा एक सर्वथा नवीन विचारधारा प्रवाहित हुई जिसने संपूर्ण प्राचीन मान्यताओं को झकझोर कर हिला दिया । इस पुस्तक के प्रकाशित होने के कुछ ही वर्षों के बाद रूस में साम्यवादी क्रांति हुई । हांलाकि आज का युग पूँजीवादी व्यवस्था को सही ठहराता है । इसका तर्क यह दिया जाता है कि कम पूंजी से उद्योगों को चलाया जाना और आज की जरूरतों को पूरा करना संभव नहीं है, परन्तु साथ ही इस व्यवस्था के सर्मथक यह बताना भूल जाते हैं कि टाटा, बिड़ला, रिलायंस, ईमामी समूह जैसी संस्थान भारत में कम पूंजी से कल कारखाने की स्थापना की थी । कल कारखाना का सिर्फ एक ही मतलब नहीं होता, कि जिसमें लोहे के संचालित बीजली के उपकरण लगे हों।  मेरी मान्यता के अनुसार ‘‘ कल-कारखानों से अभीप्राय उन उद्योगों से है, जिसमें समूह में मानव ऊर्जा का प्रयोग किया जाता हो, भले ही उसमें उत्पादन में सहयोगी हेतु विद्युतीय मशीनों व अन्य संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता हो इनमें यदि मानव ऊर्जा का प्रयोग न किया जाए तो ये सभी संसाधन महत्वहीन व नरकंकाल के बराकर हैं । - शंभु चौधरी ’’

आज जब हम लॉकडाउन के इस युग में जिसे हम सभी देख-सुन रहें हैं । यदि सिर्फ इस एक क्षेत्र की ही बात करें तो मानव ऊर्जा के महत्व को हम इंकार नहीं कर सकते । पूंजीवाद व्यवस्था धरी की धरी रह गई । यूएसए, इटली, फ्रांस, स्पेन, यूके जैसी सर्वशक्तिशाली महाशक्तियाँ जो पूंजीवादी व्यवस्था की परिचायक है इस लॉकडाउन को लेकर सबसे अधिक चिंतित है । उनको लगने लगा है कि मजदूरों को और नहीं बैठाया जा सकता इससे तमाम व्यवस्था चरमारा जायेगी ।

भारत में भी मार्क्सवाद का एक लंबा युग चला। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की स्थापना 1925 में हुई आगे चल कर इसका विभाजन 1964 में हो कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की स्थापना हुई । भारत में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की पकड़ बनी हुई है वहीं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की पकड़ गैर हिन्दी भाषियों में अच्छी पकड़ थी । इन राजनैतिक पार्टियों ने एक तरफ मजदूरों का दोहन पूंजीवादी व्यवस्था के साथ मिलकर अपने राजनैतिक सत्ता लोभ के चलते जमकर किया । सिर्फ बंगाल में ही सत्ता में 35 सालों के इनके शासन काल में लाखों मजदूर बेकार हो गए, सैकडों परिवारों ने रोजगार चले जाने से आत्महत्या कर ली, लगभग 56 (छप्पन) हजार कल-कारखाने  को माकपा के शासन काल में नर कंगाल बना दिये गये । मानवीय ऊर्जा का दोहन राजनीतिक लाभ में लिया जाने लगा। परिणाम सामने है ।

यही भूल हम आज कर रहें हैं। अचानक से हुए इस लॉकडाउन को व्यवस्थित भी किया जा सकता था, आज एक तरफ भारत की सड़कों पर लाखों मजदूर भूखमरी की मार झेल रहें हैं तो दूसरी तरफ भारत में आर्थिक महामारी को दौर भी जल्द शुरू हो जाए तो कोई बड़ी घटना नहीं होगी। इसका सबसे बड़ा कारण होगा अव्यवस्थित लॉकडाउन जिसे इतिहास याद करेगा । जयहिन्द।

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