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शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

बिहार: जीने का अधिकार छीन रही है कोशी


डा. मान्धाता सिंह, कोलकाता, भारत
Email to: Dr. Mandhata Singh


कोलकाता शहर के जाने माने पत्रकार डॉ.मान्धता सिंह ने बिहार के दर्दभरी कथा को एक पत्रकार के रूप में हमें भेजा, भले ही ये एक साहित्यिक मंच हो, परन्तु आज हमें सहित्य की नहीं बिहार के लोगों के दर्द के साथ खड़ा होना होगा। इसलिये इनके इस लेख को हम सहित्य मंच पर विशेष स्थान देने जा रहें हैं। - ई हिन्दी साहित्य सभा



मैं मुरलीगंज का रहने वाला हूं। मेरी बूढ़ी मां, मेरी बहन जिसकी गोंद में नवजात शिशु है, दो दिन से बिना कुछ खाए मेरे घर के छत पर पड़े हैं। नाववाले गांव के पास आकर भी उन्हें वहां से निकालने को राजी नहीं हुए। मैं यहां दूसरी नाव की तलाश में आया हूं ताकि अपने परिवार को बचा सकूं।....... इतना कहते-कहते एक नौजवान फफक कर रो पड़ता है। तभी माइक थमा दी जाती है एक महिला को जो अपने तीन छोटे-छोटे बच्चों को लेकर यत्र-तत्र भटक रही है। जिस जगह पर ये सभी लोग जुटे हैं वह एक उंची जगह है और सुदूर इलाके से यहां पहुंचकर लोग बेचैन हैं कि उनके परिजन कैसे होंगे। इन्हीं में एक शख्स पतरहा के थे। इन्होंने बताया कि उनके गांव में एक छत पर चार सौ के करीब लोग हैं। वहां चार लोगों की मौत हो चुकी है और उनके शव वहीं पड़े हुए हैं। अब उनसे कोई संपर्क नहीं हो पा रहा है। किसी हाजी की छत पर जमा इन लोगों को भी बचाने की गुहार माइक थामकर इस मौलाना ने भी लगाई।..........



ये सभी हिंदी समाचार चैनल स्टार न्यूज के संवाददाता के इर्दगिर्द जमा हैं। संवाददाता इनकी बात सीधे रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव और बिहार के आपदा प्रबंधन मंत्री नीतिश मिश्र से करवा रहा है। लोग यह सोचकर कि, सीधे मंत्री से गुहार लगाने पर शायद मौत के मुंह में खड़े उनके परिजनों को जीवन मिल जाए, वहां जमा हैं। एक बूढ़ा शख्स लपक कर संवाददाता के पैर पकड़ लेता है और अपने उन परिजनों को बचाने की मिन्नतें करता है जिन्होंने फोन करके इस शख्स से कहा कि ये आखिरी बातचीत है। अब हम लोगों की बिदाई होने वाली है। यानी अगर उन्हें बचाया नहीं गया तो किसी भी क्षण मौत के मुंह में जा सकते हैं। इन सबकी गुहार के बाद जब संवाददाता बोलने को मुखातिब हुआ तो वह भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं रहा। शायद आप भी यह देख रहे होते तो आपकी भी जुबां पर दर्द के ताले लग जाते। यह कोशी के प्रलय का छोटा सा दृश्य था। पूरी तस्वार कितनी भयावह है इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं।


यहां पूछा गया कि आपको खाने के पैकेट तो मिल पा रहे हैं तो लगभग गुस्से में तमतमाते हुए एक नौजवान ने कहा कि हम दस दिन बिना खाए रह सकते हैं मगर हमें अभी ज्यादा से ज्यादा नावें चाहिए जिससे पानी में फंसे लोगों को निकाला जा सके। दरअसल इन कई लोगों ने शिकायत की कि नाववाले उनसे तीन हजार से लेकर पांच हजार रुपये तक मांग रहे है जबकि उनके पास कुछ नहीं बचा। वे सिर्फ जान बचाना चाहते हैं। आपदा प्रबंधन मंत्री ने भी माना कि नाववालों की बदमाशी की शिकायतें उन तक भी पहुंच रही हैं। ये नावें प्राइवेट नावें हैं।


इनकी त्रासदी यह भी है कि मौत सामने मुंह बाए खड़ी है फिर भी घर छोड़कर नहीं जा पा रहे हैं क्यों कि एक तो नावें उपलब्ध नहीं हैं और दूसरे लोग लूटपाट भी कर रहे हैं। खाली घरों के सामान व सामान के साथ जा रहे लोगों के सामान वगैरह लूट ले रहे हैं। यह शिकायत यहां पहुंचे कई लोगों ने की। इनकी मुसीबत तो देखिए कि कोशी इनसे जीने का अधिकार छीन रही है और जान बचाकर किसी तरह भागे भी तो बदमाशों व उचक्कों से भी नहीं बच पा रहे हैं। फिलहाल तो कोशी का यही प्रलय झेल रहा है बिहार। खौफ में गुजर रही हैं रातें और दिन भर अपने परिजनें को तलाशने के लिए दर -दर भटक रहे हैं उत्तर बिहार के २५ लाख लोग। कहा जा रहा है कि बाढ़ घट भी जाए तो इन लोगों को कम से कम दो साल तक कैंप में ही गुजारने होंगे। क्यों कि इस तबाही के बाद पुनर्वास में इतने समय तो लग ही जाएंगे।

साठ साल से चली आ रही है तबाही :


बाढ की यह तबाही तो बिहार साठ साल से झेल रहा है मगर तीस वर्षो के दौरान 1978, 1987, 1998, 2004 और 2007 नदियों से होने वाली व्यापक विनाशलीला वाले साल रहे। पिछले दस साल के आंकड़े बताते हैं कि 2005-06 को छोड़ दिया जाए तो लगभग हर साल इन इलाकों ने बाढ़ की तबाही झेली है और बर्बादी को जीया है। 1998 में बाढ़ की तबाही जुलाई के पहले हफ्ते ही शुरू हो गई थी। भारी बारिश से उत्तर बिहार से होकर गुजरने वाली लगभग सभी नदियों बूढ़ी गंडक, बागमती, अधवारा व कोसी ने जगह-जगह बांधों को तोड़ दिया था और भारी तबाही मचाई थी। इस प्रलय में 318 लोग काल-कवलित हो गए। नदियों का कहर अगले साल 1999 में भी जारी रहा।इस वर्ष अक्टूबर में अप्रत्याशित तौर पर भारी बारिश ने नदियों का मिजाज कुछ ऐसा बिगाड़ा कि उनके जलस्तर ने 1987 के रिकार्ड को भी तोड़ दिया। कमला बलान तो झंझारपुर [मधुबनी] रेलवे ब्रिज को पार कर गई थी। वर्ष 2000 के जुलाई में दो दफे भारी बारिश के बाद कमला बलान और भुतही बलान बौखलाई तो अगस्त में कोसी ने तबाही मचाई। इस बाढ़ में करीब 13 हजार गांव डूबे। साल 2001 में नेपाल जलग्रहण क्षेत्र में भारी बारिश के बाद कोसी ने जहां अपना पश्चिमी तटबंध तोड़ दिया, वहीं भुतही बलान ने दायां तटबंध तोड़ा। बागमती और बूढ़ी गंडक के बाएं तटबंध में कई जगह दरारें पड़ गई। 2002 भी बाढ़ की भीषण तबाही का ही गवाह बना। इस साल कमला बलान का बायां तथा खिरोई का दायां तटबंध टूटने से करीब 500 लोग मारे गए। 2003 में भागलपुर में 1978 की बाढ़ का रिकार्ड टूटा। इसी साल पटना के गांधीघाट के पास गंगा ने 1994 का रिकार्ड तोड़ा। 2004 की जुलाई में उत्तर बिहार में हुई भारी बारिश ने न केवल पिछले तीन साल का रिकार्ड तोड़ा, बल्कि इससे उफनाई नदियों की बाढ़ 1987 की तबाही से भी आगे निकल गई। 2005 और 2006 में स्थिति सामान्य रही। पर, 2007 में उत्तर बिहार में लगभग सभी नदियां लाल निशान को पार कर गई। विभिन्य स्थानों पर 28 तटबंध टूटे। बूढ़ी गंडक और बागमती के जल ग्रहण क्षेत्र में जुलाई और अगस्त महीने के दौरान लगातार बारिश होती रही। इससे लगातार जलस्तर बढ़ता रहा। पूरा उत्तर बिहार बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुआ। करीब 800 लोग मारे गए, जिनमें सर्वाधिक 140 लोग दरभंगा में मरे। साठ साल से चली आ रही तबाही का यह खेल इस साल भी कुछ ऐसी ही दास्तां छोड़ जाएगा।

बिहार का शोक कोसी और नेपाल :


नेपाल से निकलकर उत्तर बिहार होते हुए गंगा में मिलकर बंगाल की खाड़ी में समाने वाली कोसी को बिहार का शोक यूं ही नहीं कहा जाता। जानकारों की मानें तो कोसी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र [हिमालय] में प्राकृतिक और अन्य कारणों के चलते जमीन की ऊपरी परत अपनी जगह से हटती है और भूस्खलन के कारण मैदानी इलाके को हर साल बाढ़ से रूबरू होना पड़ता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि हिमालय की ऊपरी पहाड़ी इलाके से निकलने के कारण बारिश के मौसम में इस नदी का बहाव सामान्य से अठारह गुना तेज हो जाता है। ऐसे में यह सामान्य है कि नदी अपने साथ मिंट्टी की ऊपरी परत गाद के रूप में लेकर आए। मैदानी इलाके में बहाव की गति कम होने पर यह नदी की सतह पर जमा होने लगती है और उथला होने के कारण नदी का जलस्तर स्वाभाविक रूप से बढ़ने लगता है। नदी के मार्ग बदलने का बड़ा कारण यह गाद ही है। पिछले सौ साल में ही नदी 200 किलोमीटर की लंबाई में अपना रास्ता बदल चुकी है।


नेपाल के सहयोग के बिना कोसी के कहर को कम करना संभव नहीं, इसलिए दोनों देशों के बीच 25 अप्रैल 1954 को एक समझौता हुआ, जिसके तहत दोनों देशों ने नेपाली क्षेत्र में हनुमाननगर के पास नदी पर बांध बनाने की योजना बनाई थी। इस समझौते पर भारत की ओर से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और नेपाल की ओर से तत्कालीन नरेश के प्रतिनिधि मात्रिका प्रसाद कोइराला [गिरिजा प्रसाद कोइराला के बड़े भाई] ने हस्ताक्षर किए थे। समझौते का उद्देश्य प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ को रोकना, जगह-जगह छोटे-छोटे बांधों का निर्माण करना और पनबिजली उत्पादित करने के साथ-साथ इलाके में कृषि को बढ़ावा देना था। इस समझौते के तहत कोसी बैराज बना। इसके बाद भी दोनों देशों ने संयुक्त प्रयास से कई बांधों का निर्माण किया। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि इन बांधों के निर्माण से भी बाढ़ से होने वाली तबाही नहीं रुकी।


नेपाल में बाढ़ के लिए वहां अब भारत को जिम्मेदार ठहराया जाता है तो इस इलाके में बाढ़ के लिए दोषारोपण नेपाल पर होता है। नेपाल का कहना है कि भारत ने नेपाल सीमा पर जिन ग्यारह बांधों का निर्माण कराया है उसमें आठ में नेपाल की सलाह नहीं ली गई। साथ ही अंतरराष्ट्रीय मानकों का भी ख्याल नहीं रखा गया। दूसरी ओर भारत का कहना है कि नेपाल हमेशा समझौैते का उल्लंघन कर बैराज के जरिए अतिरिक्त पानी छोड़ देता है जिससे यहां तबाही बढ़ जाती है। इन सबके इतर दोनों देशों में बांधों का विरोध पर्यावरणविद से लेकर आम लोग तक करते हैं। उनके मुताबिक उत्तरी बिहार और नेपाल का दक्षिणी हिस्सा भूकंप जोन में हैं। बाढ़ रोकने के लिए अगर यहां बांध बनाए गए तो भूकंप आने की स्थिति में बांधों को संभाले रखना असंभव है और तब जो तबाही होगी उसका आकलन सामान्य परिस्थितियों में नहीं किया जा सकता। भूकंप की स्थिति में संपूर्ण उत्तरी बिहार और खासतौर पर मधुबनी, दरभंगा, पूर्णिया और सहरसा जिले जलमग्न हो सकते हैं। बांधों के खिलाफ एक तर्क और है कि चाहे ये जितने मजबूत बनाए जाएं, इनका टूटना या क्षतिग्रस्त होना तयशुदा है। पर्यावरणविद बांधों का इसी आधार पर विरोध करते हैं, लेकिन राजनीतिक दल अपने हित में विशेषज्ञों की अनदेखी कर मनमर्जी वाले स्थान पर बांधों का निर्माण करा देते हैं और जिससे इनकी सुरक्षा को लेकर हरदम संशय बना रहता है। इस बार कहा जा रहा है कि नेपाल में माओवादियों ने तटबंध की मरम्मत में अड़ंगा लगाया अन्यथा बांध को बचाया जा सकता था।

राष्ट्रीय आपदा घोषित:

कोसी नदी के तटबंध टूटने से इस बाढ़ से कोई 25 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। बाढ़ से कुल 15 ज़िले प्रभावित हुए हैं। 900 गांवों में बाढ़ का कहर है। नेपाल में तेज बारिश ने कोसी में उफान ला दी है, जिस वजह से उत्तरी बिहार के मधेपुरा, सुपौल, अररिया और पूर्णिया के नए इलाकों में पानी भर गया है। कोसी में नेपाल से एक लाख क्यूसेक पानी छोड़ा गया है और बिहार सरकार को आशंका है कि आने वाले दिनों में नौ लाख क्यूसेक पानी छोड़ा जा सकता है। नेपाल में तटबंध टूटने के बाद कोसी नदी ने 1922 की धारा पर दोबारा बहना शुरू कर दिया है, जिस वजह से इतने बड़े स्तर पर नुकसान हो रहा है। राहत और बचाव कार्य के लिए सेना को बुला लिया गया है।

बिहार में आई बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा करार देते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने २८ अगस्त को बचाव और राहत कार्य के लिए 1,000 करोड़ रुपये और मौजूदा स्थितियों से निपटने के लिए 1.25 लाख टन अनाज की फौरी सहायता देने की घोषणा की। संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ राज्य के सबसे अधिक प्रभावित चार जिलों (सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा ) के हवाई सर्वेक्षण के बाद प्रधानमंत्री ने बिहार को इस स्थिति से निपटने के लिए हरसंभव मदद करने का आश्वासन दिया। मनमोहन सिंह और सोनिया के साथ गृहमंत्री शिवराज पाटिल और लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मौजूद थे।

2 विचार मंच:

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seema gupta ने कहा…

"kitna dard hai is sacchaee mey, iss dardnaak manjar ko dekh kr pdh kr hee ankh nam ho ayen hain, kya hum iske liye kuch nahee kr sektey????????

REgards

L.Goswami ने कहा…

bahut hi dukh ki baat hai ,hamara prasasan jene kahan soya padha hai



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एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.

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