चुनाव आयोग बनाम नमो आयोग
देश की सर्वशक्तिमान संस्थान यानि कि ‘चुनाव आयोग’ जिसे भारत के संविधान में सिर्फ राष्ट्रपति और राज्यपाल को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को सरकारी-गैर सरकारी अधिकारियों के अधिकारों में परिवर्तित, उसके पद से उसका हस्तांतरण, उसके कार्यों में हस्तक्षेप / रोक या कुछ भी जो उसे उचित लगे कि चुनाव की प्रक्रिया में उस व्यक्ति का उपयोग कर सकती है या रोक लगा सकती है या उसे निर्देश दे सकती है चाहे वह कितने ही बड़े पद पर विराजमान क्यों न हो परन्तु इस बार 2019 के लोकसभा चुनाव में देश के प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक, मायावती से ल्रेकर आजम खान तक सबको भारत के संविधान से खेलने की पूरी आजादी चुनाव आयोग ने प्रदान कर दी है। बार-बार उच्चतम अदालत को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ रहा है । मानो चुनाव आयोग भी ‘नमो आयोग’ बन चुका हो। जिसे ना तो संविधान से मतलब है ना ही अपने पद की गरिमा से।
यह बड़े ही आश्चर्य की बात है कि देश की इन तीनों चुनाव अधिकारियों को उच्चतम अदालत के सामने यह बोलना पड़ा कि ‘‘हां ! माई लॉड हमें पता लग गया कि हमारे पास शक्ति है।’’ हमें याद करना होगा कि टी एन शेषन दसवें मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में कार्य किये थे जिनके कार्यकाल को भारत में चुनाव प्रक्रिया की सुधार की दिशा में ऐतिहासिक कदम माना जाता है । शेषन ने ना सिर्फ चुनावों में व्याप्त धांधली व भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कई साहसिक कदम उठाये, मतदाताओं को पहचान पत्र देने में भी इनकी प्रमुख भूमिका को नकारा नहीं जा सकता ।
1993 में चुनाव की किसी भी चुनावी प्रक्रिया को रोक कर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव में कहीं कोई खतरा पैदा ना खड़ा कर दिया जाए के सावधानी हेतु एक आम सहमति बनी कि चुनाव आयोग को तीन-सदस्यीय निकाय बना दिया, जहां किसी भी बड़े फ़ैसलों पर तीनों की सहमति या बहुमत का निर्णय जरूरी होगा । यह इसलिये भी जरूरी हो गया था कि तब तक चुनाव आयोग एक सर्वशक्तिमान निकाय बन चुका था । जिसे भारत की जनता ने वे तमाम अधिकार दे रखें हैं जो प्रधानमंत्री के पास भी नहीं है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत भारतीय चुनाव आयोग को वे तमाम शक्तियां प्रदान की गई है जो एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए जरूरी है। जब संसद के अधिकारों को सीमित कर दिया जाता है तो देश में निर्णय लेने के लिए दो ही वैधानिक शक्तियां बची रह जाती है - एक उच्चतम अदालत दूसरा खुद चुनाव आयोग। परन्तु आज मोदी द्वारा नियुक्त ये तीनों चुनाव आयुक्त की यह हालत हो यह चुकी है कि वह कोई भी छोटे से छोटे फ़ैसलों को लेने में इस कदर डरती है कि उन्हें हर बार निर्णय लेने में उच्चतम अदालत को आदेश देना पड़ रहा है। चाहे वह वोटों की गिनती का मामला हो या फिर नेताओं के जबान पर लगाम । यदि सबकुछ अदालत से ही चलना है तो फिर इस आयोग की जरूरत ही क्या है?
मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में श्री सुनील अरोड़ा पदोन्नति (नियुक्ति-2017), श्री अशोक लवासा, चुनाव आयुक्त की नियुक्ति जनवरी, 2018 और श्री सुशील चंद्रा ने फरवरी 2019 में चुनाव आयुक्त के रूप में पद भार ग्रहण किया यानि इनकी नियुक्तियां भी अब संदेह के घेरे में आ चुकी है। क्या इन तीनों आयुक्तों को इसलिये लाया गया कि वे चुनाव आयोग की तमाम व्यवस्था को ताक पर रखकर चुनाव कराये। प्रधानमंत्री को कुछ भी कहने व करने की आजादी मिल सके, मतपत्रों की शत-प्रतिशत गिनती में इनको किस बात का डर सता रहा है? लोकतंत्र इन्हीं संस्थाओं के हाथों संचालित होती है यदि चुनाव आयोग में जनता का विश्वास ही नहीं रहा तो तब क्या करेगा आयोग? मतपत्रों की शत-प्रतिशत गिनती लोकतंत्र को और मजबूत ही करेगी तो चुनाव आयोग इससे पीछे क्यों हट रही है? आयोग को किस बात की चिन्ता सता रही है?
क्या अबसे चुनाव आयोग वही करेगें जो तुलसी दास की एक चौपाई में लिखा है -
बस इसमें राम की जगह ‘मोदी’ लिख दीजिये आपको सारा जबाब मिल जायेगा ।
होइहि सोइ जो मोदी रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन मोदीनामा। गईं तीन आयुक्त जहँ मोदी सुखधामा॥
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लेखक स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं। - शंभु चौधरी
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