पुनः 2014 में लोकसभा के चुनाव आने हैं। बंगाल के एक वरिष्ठ नेता श्री गौतम देव का बयान ने सबको चौंका दिया है आपकी बात मानी जाए तो माकपा चाहती है कि भाजपा से लड़ने के लिए माकपा कांग्रेस पार्टी से गठबंधन होना जरूरी है।। माकपा इसके लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहरा रही है कहती है कि यदि भाजपा सत्ता में आ जायेगी तो देश टूट जायेगा? अब इनको कौन समझाये कि देश टूटेगा की नहीं हां! इनकी फ़ज़ीहत जरूर हो जानी है। जो पार्टी खुद के पांव पर ही नहीं खड़ी हो सकती वह जब खुद के पांव पर खुद ही कुल्हाड़ी चलाये तो कोई इनको कैसे बचायेगा?
मार्क्सवाद कम्युनिस्ट पार्टी अर्थात माकपा एक समय में बंगाल में लगातार 25 साल एक छत्र राज किया। स्व. ज्योति बसु के नेतृत्व में इस पार्टी ने कांग्रेस का बंगाल से सफाया कर दिया था। कांग्रेस पार्टी बंगाल में हमेशा से माकपा की ‘बी’ टीम कहलाती रही और माकपा पार्टी केन्द्र में कांग्रेस पार्टी की ‘बी’ बनकर केन्द्र का लुत्फ़ उठाती रही। यह सांप-छुछुंदर का खेल आपस में कई सालों तक चलता रहा। जब बंगाल का चुनाव आता तो माकपा जम कर कांग्रेस पार्टी को गाली देती और अपनी हर असफलता का ठीकरा केन्द्र पर फोड़ती नहीं थकती और जैसे ही केन्द्र में सत्तारुढ़ कांग्रेस को संसद में बहुमत की जरूरत होती यह मुंह चुरा कर समझौता कर लेती। कभी सामने के दरवाजे से तो कभी पीछे के दरवाजे से।
लेकिन जैसे ही न्यूक्लियर रियेक्टर डील पर संसद में मतदान की बात आई तो माकपा तिलमिला उठी, प्रश्न था अमेरिका को समर्थन देना का जो इनके सिद्धांतों के अनुकूल नहीं था। साथ ही इनके माकपा महासचिव प्रकाश करात जी चाहते थे कि वे कांग्रेस को ठेंगा दिखा कर खुद के बल पर बंगाल में राजनीति करने में सफल रहेंगें । माकपा के वरिष्ठ नेता और उस समय के बंगाल के मुख्यमंत्री श्री बुद्धदेव भट्टाचार्य पहली बार माकपा के मूलभूत सिद्धांतों से अलग हटकर पुंजीपतियों के साथ मिलना शुरू कर दिये थे। बंगाल में नये उद्योग लगाने के कवायद शुरू कर दी।
सिंगुर में टाटा का नैनो कारखाना लाने की भरसक प्रयास किया गया। जमीन अधिग्रहण की राजनीति ने ममता बनर्जी को जहां राजनैतिक फसल काटने का अवसर दिया वहीं पिछले 30-35 सालों से जुड़े मजदूर संगठन धीरे-धीरे इनसे किनारा लेते गए। स्वभाव से विपरीत का समझौता इन संगठनों को रास नहीं आ रहा था। पूर्व मुख्यमंत्री श्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के अच्छे प्रदर्शन के बावजूद बंगाल से माकपा का सफाया हो गया।
माकपा का देश हित किस सिद्धांत पर चलता है इनकी बातों से कोई अंदाज़ नहीं लगा सकता। मजदूरों के छोटे-छोटे संगठन बनाना और उनके बल पर सत्ता की राजनीति करना इनका प्रमुख और एक मात्र लक्ष्य रहता है। परन्तु जब मजदूरों की हितों के रक्षा की बात आती है तो ये लोग अपनी रोटी सेंकने में लग जाते हैं, परिणाम स्वरूप हजारों मजदूरों का परिवार सड़कों पर भीख मांगने के कगार पर खड़ा हो जाता है। इसके कई उदाहरण आपको बंगाल में देखने को मिल जायेंगे।
लगातार 25 साल से इस दल ने कांग्रेस के साथ मिलकर जनता के साथ आँख मिचौली खेलते रहे। इनका पिछले लोकसभा चुनाव से पूर्व आपस में तलाक हो गया तो दुश्मनी भी बराबरी की करनी थी, सो कांग्रेस पार्टी ने माकपा पार्टी की कट्टर विरोधी तृणमूल नेत्री सूश्री ममता बनर्जी का दामन थाम लिया। माकपा का बंगाल से सिर्फ लोकसभा की सीटों से ही नहीं, विधानसभा की सीटों से भी सफाया हो गया। माकपा का गढ़ देखते ही देखते बालू के टीले की तरह ढह गया । इन सबके बीच कांग्रेस पार्टी को बड़ी राहत मिली। लोकसभा के चुनाव में उसने भी ममता के सहयोग से कुछ सीट बंगाल में लेने में सफलता प्राप्त कर ली ।
इस बीच तृणमूल पार्टी के द्वारा कांग्रेस से मोह भंग होते ही माकपा को पुनः बंगाल में मौका तलाशने में लग गई। बंगाल में खोई जमीन को पुनः पाने के प्रयास में माकपा चाहती है कि कांग्रेस पार्टी का दामन किसी बहाने ही सही पुनः थाम लिया जाए । अब जब कांग्रेस पार्टी की नैया देश में डूबने के कगार पर खड़ी है तो डूबती नैया पर माकपा खुद को सवार कर बची-खुची भी इज़्ज़त भी समाप्त कर लेना चाहती है।
पुनः 2014 में लोकसभा के चुनाव आने हैं। बंगाल के एक वरिष्ठ नेता श्री गौतम देव का बयान ने सबको चौंका दिया है आपकी बात मानी जाए तो माकपा चाहती है कि भाजपा से लड़ने के लिए माकपा कांग्रेस पार्टी से गठबंधन होना जरूरी है।। माकपा इसके लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहरा रही है कहती है कि यदि भाजपा सत्ता में आ जायेगी तो देश टूट जायेगा? अब इनको कौन समझाये कि देश टूटेगा की नहीं हां! इनकी फ़ज़ीहत जरूर हो जानी है। जो पार्टी खुद के पांव पर ही नहीं खड़ी हो सकती वह जब खुद के पांव पर खुद ही कुल्हाड़ी चलाये तो कोई इनको कैसे बचायेगा?
1 विचार मंच:
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माँ क पा अब केवल चूके हुए राजनीती में असफल रहे, व भावावेश में इसका झंडा उठाये लोगों का संगठन रह गया है. अब न तो इसका कोई आधार रहा है न दमदार नेतृत्व.केवल उसके ताबूत को धो रहे ये लोग आज भी दिशा हीन हैं,जब विश्व से ही मार्क्स कि विचारधारा समाप्त होती जा रही हैं तो ये यहाँ केवल पंगु पैरों से अस्तित्व कि लड़ाई लड़ रहें हैं.रही सही कसर ममता ने पूरी कर दी है.बिना कुछ किये या दलाली कि राजनीती aur केवल सत्ता के ख्वाब देखना इनका मकसद रह गया है.