रामप्रसाद जी को ना जाने आज क्या भूत सवार हो गया था। बार-बार डाक्टरों की हड़ताल को लेकर विचलित हुए जा रहे थे। राज्य के मुख्यमंत्री ने डाक्टरों की सभी तरह की मांगों को स्वीकार कर लिया था पर डाक्टर अपने जिद पर अब भी अड़े हुऐ थे कह रहे थे नहीं-नहीं ऐसे नहीं हमें तो मरीजों की सेवा करनी है सो हमारे केम्पस में ही आकर मुख्यमंत्री जी को बात करनी होगी।
रामप्रसाद जी बता रहे थे कि किस प्रकार दिल्ली से मछलियों को पकड़ने की तैयारी हो रही थी, पिछले दिनों ही बंगाल में वकीलों ने हड़ताल कर दी थी वह हड़ताल भाजपा समर्थित वकीलों के द्वारा सोची समझी साजिश का ही एक हिस्सा था। नहीं तो जो हड़ताल 30 दिनों से चल रही थी चुनाव समाप्त होते ही क्यों खतम हो गई? और 4-5 माह चलनी चाहिये थी।
कल और आज में फर्क ही क्या पड़ गया था?
बंगाल में जिस प्रकार भाजपा एक सरकार को अस्तव्यस्त करने के लिये करोड़ों का धन झौंक दिया इससे तो यही लगता है अब लोकतंत्र धन के बल पर न सिर्फ खरीदा जा सकता है लोकतंत्र को बेचा भी जा सकता है।
रामप्रसाद जी ने एक समाचार लिखने की जगह एक कविता लिख डाली-
डाक्टरों की हड़ताल ? -शंभु
आज डाक्टर, अपने जिद्द पर अड़े थे
मरीज जिन्दगी और मौत के बीच सड़कों पर पड़े थे।
मांग रहे थे दया की भीख, खुन की बोतल लिये खड़े थे।
डाक्टर’स कोल्डड्रिंग्स पीते हुए, अपनी सुरक्षा की बात कर रहे थे।
दोनों तरफ से तनाव था,
मां के गोद में पांच साल का एक बच्चा तड़फ रहा था,
बुढ़े बाप को सहारा देती उसकी बेटी खड़ी थी।
एक मरीज स्टेचर पर पड़ा था,
दूसरा जमीन पर सड़ रहा था।
दिल्ली से मछलियों को चारा मिल रहा था,
राज्यपाल अपनी रिपोर्ट भेज रहे थे-
"बंगाल में लोकतंत्र भेंटिलेटरी पर है।"
दिल्ली से उसका ईलाज चल रहा था।
करोड़ों का धन पानी में बहाया जा रहा था।
तालाब का जल बदला जा रहा था।
जो भी हो, अच्छा हो रहा था
सबकी अपनी-अपनी
चांदी कट रही थी।
मरीज (लोकतंत्र) फांसी पर लटका खड़ा था।
मैंने रामप्रसाद जी से पूछ ही लिया-
रामप्रसाद जी ! कहां खोये हुए हो समाचार तैयार हो गया क्या? पेपर छोड़ने का समय हो गया।
बोले - ‘‘नहीं यार’’ आज समाचार नहीं जायेगा।
मैंने फिर उनसे पूछा - क्यों क्या हो गया आज?
अपना तो काम ही है कोई मरे, कोई जिये,
समाचार छापने का मजा तो तभी आता है जब एक साथ हजार मरे। "जितने मरेगें उतने बिकेगें।"
रामप्रसाद जी ने अपनी कलम एक तरफ रख दी बोले आज समाचार नहीं छपेगा, क्यों कि छपा तो दिल्ली नाराज हो जायेगा, विज्ञापन बंद हो जायेगा। किसी की नौकरी चली जायेगी या फिर सीबीआई पीछे लग जायेगी।
क्यों कि छपा तो डाक्टर नाराज हो जायेंगे, कल ना ईलाज के नाम पर उनकी जान ले लेगें तो? कौन बचाने आयेगा मुझे। भाई !
किसी से पंगा नहीं लेने का । साल में 2-3 दिन अखबार ना निकले तो कोई बात नहीं पर किसी को नाराज कर दिया तो मानहानि हो जायेगी।
आपको पता नहीं कल ही हवालात में दो रात बिताकर आया हूँ। जज साहेब कि बात नहीं सुनी थी क्या? यदि सच लिखने से किसी की मानहानि होती हो तो ’सच’ लिखते ही क्यों हो?
आप ही सोचो उच्चतम अदालत के मुख्य न्यायाधीश को नहीं बख्शा गया, उनको भी फंसा दिया। हमारी तो औकात ही क्या है।
मैंने फिर उनसे पूछा - तो हम खायेंगे क्या? चाय-पकौड़ की दुकान तो चला नहीं सकते? कलम चला नहीं सकते?
तब...
रामप्रसाद जी ने बड़े सहजे शब्द में जबाब दिया - दलाल बन जाओ, माल भी मिलेगा और दाम भी।
रामप्रसाद जी बता रहे थे कि किस प्रकार दिल्ली से मछलियों को पकड़ने की तैयारी हो रही थी, पिछले दिनों ही बंगाल में वकीलों ने हड़ताल कर दी थी वह हड़ताल भाजपा समर्थित वकीलों के द्वारा सोची समझी साजिश का ही एक हिस्सा था। नहीं तो जो हड़ताल 30 दिनों से चल रही थी चुनाव समाप्त होते ही क्यों खतम हो गई? और 4-5 माह चलनी चाहिये थी।
कल और आज में फर्क ही क्या पड़ गया था?
बंगाल में जिस प्रकार भाजपा एक सरकार को अस्तव्यस्त करने के लिये करोड़ों का धन झौंक दिया इससे तो यही लगता है अब लोकतंत्र धन के बल पर न सिर्फ खरीदा जा सकता है लोकतंत्र को बेचा भी जा सकता है।
रामप्रसाद जी ने एक समाचार लिखने की जगह एक कविता लिख डाली-
डाक्टरों की हड़ताल ? -शंभु
आज डाक्टर, अपने जिद्द पर अड़े थे
मरीज जिन्दगी और मौत के बीच सड़कों पर पड़े थे।
मांग रहे थे दया की भीख, खुन की बोतल लिये खड़े थे।
डाक्टर’स कोल्डड्रिंग्स पीते हुए, अपनी सुरक्षा की बात कर रहे थे।
दोनों तरफ से तनाव था,
मां के गोद में पांच साल का एक बच्चा तड़फ रहा था,
बुढ़े बाप को सहारा देती उसकी बेटी खड़ी थी।
एक मरीज स्टेचर पर पड़ा था,
दूसरा जमीन पर सड़ रहा था।
दिल्ली से मछलियों को चारा मिल रहा था,
राज्यपाल अपनी रिपोर्ट भेज रहे थे-
"बंगाल में लोकतंत्र भेंटिलेटरी पर है।"
दिल्ली से उसका ईलाज चल रहा था।
करोड़ों का धन पानी में बहाया जा रहा था।
तालाब का जल बदला जा रहा था।
जो भी हो, अच्छा हो रहा था
सबकी अपनी-अपनी
चांदी कट रही थी।
मरीज (लोकतंत्र) फांसी पर लटका खड़ा था।
मैंने रामप्रसाद जी से पूछ ही लिया-
रामप्रसाद जी ! कहां खोये हुए हो समाचार तैयार हो गया क्या? पेपर छोड़ने का समय हो गया।
बोले - ‘‘नहीं यार’’ आज समाचार नहीं जायेगा।
मैंने फिर उनसे पूछा - क्यों क्या हो गया आज?
अपना तो काम ही है कोई मरे, कोई जिये,
समाचार छापने का मजा तो तभी आता है जब एक साथ हजार मरे। "जितने मरेगें उतने बिकेगें।"
रामप्रसाद जी ने अपनी कलम एक तरफ रख दी बोले आज समाचार नहीं छपेगा, क्यों कि छपा तो दिल्ली नाराज हो जायेगा, विज्ञापन बंद हो जायेगा। किसी की नौकरी चली जायेगी या फिर सीबीआई पीछे लग जायेगी।
क्यों कि छपा तो डाक्टर नाराज हो जायेंगे, कल ना ईलाज के नाम पर उनकी जान ले लेगें तो? कौन बचाने आयेगा मुझे। भाई !
किसी से पंगा नहीं लेने का । साल में 2-3 दिन अखबार ना निकले तो कोई बात नहीं पर किसी को नाराज कर दिया तो मानहानि हो जायेगी।
आपको पता नहीं कल ही हवालात में दो रात बिताकर आया हूँ। जज साहेब कि बात नहीं सुनी थी क्या? यदि सच लिखने से किसी की मानहानि होती हो तो ’सच’ लिखते ही क्यों हो?
आप ही सोचो उच्चतम अदालत के मुख्य न्यायाधीश को नहीं बख्शा गया, उनको भी फंसा दिया। हमारी तो औकात ही क्या है।
मैंने फिर उनसे पूछा - तो हम खायेंगे क्या? चाय-पकौड़ की दुकान तो चला नहीं सकते? कलम चला नहीं सकते?
तब...
रामप्रसाद जी ने बड़े सहजे शब्द में जबाब दिया - दलाल बन जाओ, माल भी मिलेगा और दाम भी।
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