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शुक्रवार, 7 जून 2019

व्यंग्य - सत्य की जीत - शंभु चौधरी

व्यंग्य - सत्य की जीत    - शंभु चौधरी  

रामप्रसाद जी आज गदगद हुए चल रहे थे मानो देश के पहले स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे वही हो। भगत सिंह के बाद देश के लिए मर मिटनेवाले में उनका नाम भी कभी स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाऐगा। केदारनाथ की शिव नगरी में उनका स्वागत लाल कारपेट बिछा कर किया जाऐगा। काशी में उनके लिए भी दर्शन करने के लिए सैकडों पुरातत्व धरोहर घरों को दहा दिया जायेगा। तीन हजार करोड़ से कभी उनकी भी मूर्ति लगाई जायेगी   

‘रामप्रसाद’ जी कभी सपने में भी नहीं सोचे थे कि उनके साथ भी कभी पांच सितारा मेहमान जैसा व्यवहार किया जायेगा। पिछले साल एक लेख नेता जी के विरूद्ध क्या लिख दिया था कि कोई मालेगांव जैसा विस्फोट हो गया हो। एक साथ कई नेता मेरे ऊपर मानहानि का मुकदमा दाखिल कर दिये। ‘रामप्रसाद’ भी अपनी ज़िद पर उड़े रहे पर अदालत ने उनकी एक ‘न’ सुनी बोले यह नेताओं का अपमान है वे लोकतंत्र के दूसरे स्तंभ हैं आप पत्रकारों की क्या हैसियत जो लोकतंत्र के स्तंभ से सीधा टक्कर लेने की जुर्रत भी कैसे कर सकते हो। पत्रकारों को अपनी सरहदों के अंदर ही काम करना चाहिये। 

अब रामप्रसाद जी तो रहे पुराने ख्यालात के जो सच देखा वह लिख दिया और छप भी गया नहीं तो आजकल किस की मजाल जो सच को छाप दे। अखबारों को भी अपनी जान बचानी है, इनको विज्ञापन आना बंद हो गया तो क्या ‘रामप्रसाद’ की सैलरी से अखबार चलेगा? वहीं संपादक जी को भी दिन-रात इस बात की चिंता सताती रहती है कि ना जाने कब कौन सा समाचार, कार्टून, फिचर किसे बुरा लग जाए? और उनको अदालत में जाकर बार-बार ‘केजरीवाल’ की तरह उनको भी माफी मांगने की नौबत आ जाए। भाई व जमाना कुछ ओर था आज का जमाना कुछ ओर है।

कभी पत्रकारों से नेता डरा करते थे अब पत्रकारों को डर के, सहम के, घुटनों के बल रेंग कर चलना, जी‘सर’ जी‘सर’ करना यानि कि चमचागिरी करना, दलाली करना, बिकाऊ पत्रकार बन जाना, सरकारी आवास (संसद भवन) में तफ़री करने का, संसद भवन के कैंटीन में बैठकर देश की चिंता करने का जो आनंद होता है वह सच्ची पत्रकारिता करने में कहाँ है। अब देश की चिंता नेता और पत्रकार नहीं करेंगें तो कौन करेगा? भले ही कोई इनको ‘‘गोदी-गोदी’’ बोलता रहे। 

अब देखो बेचारे रामप्रसाद जी को ही ‘‘ आ बैल मुझे मार’’ वाली कहावत उनके ऊपर फिट बैठ गई। अदालत ने जैसे ही रामप्रसाद को तीन महीने की सजा सुना दी मानो ‘रामप्रसाद’ जी तो  फूले नहीं समा रहे थे, अब आप पूछो क्यों?
भाई ! कभी इतनी शोहरत रामप्रसाद ने न तो देखी थी ना सुनी थी । तीस साल से पत्रकारिता कर रहे थे शहर की छोड़ गांव का मुखिया तक उनको नहीं पहचानता था, बच्चों की बात ही करना बेईमानी होगी बच्चे तो अखबार पढ़ते ही नहीं तो जानने की बात ही कैसे लिख सकता हूँ।  तो बता रहा था कि आज जैसे ही कमर में रस्सा बांधे ‘रामप्रसाद’ जी को जेल ले जाया जा रहा था तो उनके चारों तरफ पत्रकारों की भीड़ लग गई कोई उनकी फोटो उतार रहा था तो कोई उनके बयान लेने में लगा था। 

रामप्रसाद जी आज गदगद हुए चल रहे थे मानो देश के पहले स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे वही हो। भगत सिंह के बाद देश के लिए मर मिटनेवाले में उनका नाम भी कभी स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाऐगा। केदारनाथ की शिव नगरी में उनका स्वागत लाल कारपेट बिछा कर किया जाऐगा। काशी में उनके लिए भी दर्शन करने के लिए सैकडों पुरातत्व धरोहर घरों को दहा दिया जायेगा। तीन हजार करोड़ से कभी उनकी भी मूर्ति लगाई जायेगी।
चलते-चलते एक पत्रकार ने उनसे पूछा - ‘‘ रामप्रसाद जी कैसा लग रहा है अब आपको?’’ 
रामप्रसाद ने सहजे हुए शब्दों में जबाब दिया - ‘‘सत्य की जीत हुई’’

लेखक स्वतंत्र  पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  

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