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शुक्रवार, 7 जून 2019

व्यंग्य - जयश्री राम गाओ


रामप्रसाद जी सुबह से ही अपने घर के बाहर खंभा गाड़ने में लगे थे। अचानक से मुझे देखते ही कुछ छल्ला गये।
मैंने उसे एक आवाज दी - ‘‘कैसे हो रामप्रसाद ! ’’
रामप्रसाद - अरे क्या खाख ठीक हूं लोकतंत्र का चौथा खंभा गाड़ रहा हूं।
क्यों क्या हो गया इस चौथे खंबे को? 
रामप्रसाद - यह बार-बार किसी के गोदी में जाकर बैठ जाता है। आज इसे गाड़ के ही दम लूंगा।
मैंने भी रामप्रसाद को और सुलगा दिया -  तेरे एक के गाड़ने से क्या होगा रामप्रसाद! यहां तो कुएं में ही भांग पड़ी है जिसको देखो वही 'गोदी मीडिया' के गोद में जाकर ऐसे इतरा रहा है जैसे अकबर बादशाह के बाद उसी ने जन्म लिया हो। चैनल पर एंकरी नहीं सरकार को चलाने का फरमान उसी के चैनल से निकलता है । मानो अमित शाह, मोदी तो बस इनके बनाये पुतले हैं। 
रामप्रसाद - देख भाई ! फ़िजूल का मेरा दिमाग खराब मत कर कल रात से मैं उसे ही परेशान हूं।
मैं भी कहां चुप होने वाला था। 
"दिमाग तो तेरा खराब ही है। तभी जो लोकतंत्र का स्तंभ है ही नहीं तुम उसे ही गाड़ने में लगे हो।"
कभी संविधान पढ़ा भी है कि अपने मियाँ मिठ्ठू बने फिर रहे हो?
रामप्रसाद - मेरी तरफ ताकते हुए - क्या अलाय-बलाय बोल रहे हो?
अरे अलाय-बलाय मैं नहीं तुम बोल रहे हो। जो चीज अस्तित्व में ही है नहीं, उसे पत्रकार बिरादरी के लोग चाहे कितना भी जोर लगा दे वह अस्तित्व में नहीं आ सकता । आज पत्रकारिता व्यापारिक घराने की रखैल बन चुकी है। इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बताना भी अब शर्मनाक है।
खोपड़िया घर के चौखट पर लटका के पत्रकारिता करोगे तो सुख पाओगे नहीं तो तोहर हाल भी ......
दाल-रोटी कमाओ और जयश्री राम गाओ। 
लेखक स्वतंत्र  पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी  

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