गुरुवार, 29 दिसंबर 2011
संसद में लोकपाल पर बहस का प्रतिफल
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 9:17 am 0 विचार मंच
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मंगलवार, 29 नवंबर 2011
दरवान प्रधानमंत्री को हटाना जरूरी
राजनीति में सांप्रदायिका की कोई परिभाषा निश्चित करना कभी संभव नहीं हो सकता। यदि ऐसा संभव होता तो पाकीस्तान के दो हिस्से कदापी नहीं होते। हिन्दुस्तान आजादी के बाद नहीं टूटता। संभव है कि राजनेताओं का स्वार्थ पूरा ना हुआ हो, परन्तु देश को तौड़कर भी तो वे उसे आजतक नहीं प्राप्त कर पाये। राजनैतिक दलों को अपने सिद्धांत की कभी कोई परवाह रही ही नही। जब सत्ता आती नजर आती है सभी सिद्धांतों का ताक पर रख दिया जातें रहें हैं। अभी हाल ही नेपाल भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
आज देश में हर तरफ से अफरा-तफरी मची हुई है एक तरफ सरकारी पक्ष अदालतों में अपना कमजोर पक्ष रखकर अपराधियों को बचाने में जूटी है तो दूसरी तरफ गढ़े मुर्दे उखाड़ कर अन्ना टीम के सदस्यों व बाबा रामदेव को अपराधी बनाने का शर्मनाक खेल खेलती जा रही है। गाहे-बगाहे हिन्दू-मुस्लमानों को बंटने के प्रयास को भी बल देती रही है। अन्ना के आंदोलन में मुस्लमानों की तरफ से फतवा तक जारी करवा कर देश के इस सदी के सबसे बड़े आंदोन के इतिहास से एक बार मुस्लमानों के माथे कलंक का टीका लगा डाला कि वे देश के विकास से कोई ताल्लूक नहीं रखना चाहते।
आज देश में राजनैतिक दलों को भी इसी आधार पर कांग्रेस ने बांट रखा है। एक समय कांग्रेस पार्टी ताश के पत्ते की तरह लड़खड़ाने लगी थी जब देश में गांधी परिवार के विरूध आंदोलन चलाकर स्व॰ जयप्रकाश नारायणजी ने देश को एक सूत्र में पिरो दिया था। परन्तु जिस एकता में बामदल, समाजवादी, दक्षिणपंथी व गांधीवादी विचारधारा एक साथ आये वह ज्यादा समय तक नहीं चल सका। कारण सबके अपने-अपने स्वार्थ निहित थे। विचारधारा राजनीति में तबतक नहीं देखी जाती जबतक इन दलों के नेताओं का स्वार्थ सिद्धी होता रहता है। जैसे ही सत्ता के स्वाद व स्वार्थ का सवाल आता है विचारधारा की गली कमरे में बंद कर यही लोग अपने सिद्धान्तों की बातों सामने ला खड़ा करते हैं। पता नहीं कब कौन सी बात पर इनका कौन सा सिद्धांत लागू होगा यह इनको भी नहीं पता रहता। अचानक से कमरे के भीतर से वेसूरी बांसूरी बजने लगती है और सब के सब इनके सिद्धांत व विचारधाराएं नकारखाने की तूती बनकर रह जाती है।
कालाधन का मुद्दा रहा हो या भ्रष्टाचार का, मंहगाई चरम सीमा पर पहुंचती जा रही है। कमरतौड़ मंहगाई ने देश की जनता का जीना हराम कर रखा है परन्तु देश को लूटने का दौर बदसूरत जारी रहना चाहिए। जब-जब सरकार के खिलाफ आवाजें उठी, दबकर रह गई। हर जगह राजनैतिक दलों को लगता है कि देश में सांप्रदायिक ताकतों को जगह मिल जाऐगी।
पिछले दिनों माकपा व भाकपा ने कांग्रेस पार्टी से मंहगाई के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई पर जब इनका स्वार्थ टकराने लगा तो अचानक से एक ऐसे मुद्दे पर अपने सिद्धान्त की बात करने लगे जिसमें देश का हित था। कारण साफ था लोकसभा के चुनाव सामने आ गए थे तब। जिसमें उनको अपने चरित्र व सिद्धान्तों की बात जनता के सामने रखनी थी। परिणाम क्या मिला हम सब जानते हैं। चन्द सीटों पर सिमट कर रह गया इनका सिद्धांत।
आज पुनः कांग्रेसियों ने देश को भ्रमित करने व भ्रष्टाचार के मुद्दे से हटाकर देश में सोची समझी राजनीति की तहत "खूदरा व्यापार में विदेशी भागीदारी" के विवाद को सामने लाकर संसद के अन्दर और बहार अच्छी बहस छेड़ दी। परिणाम वही ढाक के तीन पात होने हैं चुंकि ना तो भाजपा के पास विपक्ष की भूमिका निभाने की क्षमता है न ही अन्य राजनैतिक दल सरकार को गिराना चाहेगें। कारण वही रोना होगा कि देश में सांप्रदायिक ताकतों का मजबूत करने में ये दल वाले। भला ऐसे में सिद्धांत का क्या काम? माकपा जब अपने सिद्धांतों की बात करती है तो वह किसी धर्म विशेष को नहीं मानती परन्तु जब राजनीति करनी है तो खुद ही अपने वोट बैंक पर कुलाड़ी कैसे चलायेगी।
कम व बेस प्रायः सभी राजनैतिक चरित्र इस बीमारी के शिकार हो चुके हैं। भाकपा, माकपा, समाजवादी बिचारधारा और गांधीवादी विचारधारा को बाद कर दिया जाए तो देश में बची बाकी सभी ताकतें सांप्रदायिक ताकते मानी जाऐगी। परन्तु भाकपा, माकपा, समाजवादी बिचारधारा और गांधीवादी विचारधारा सभी मुस्लमानों के वोट बैंक की बातें करतें या ईमामों द्वारा फतवा जारी करवातें रहें हैं। यह किस श्रेणी में आता है वह तो इनका सिद्धान्त ही बाता पायेगा।
राजनीति में सांप्रदायिका की कोई परिभाषा निश्चित करना कभी संभव नहीं हो सकता। यदि ऐसा संभव होता तो पाकीस्तान के दो हिस्से कदापी नहीं होते। हिन्दुस्तान आजादी के बाद नहीं टूटता। संभव है कि राजनेताओं का स्वार्थ पूरा ना हुआ हो, परन्तु देश को तौड़कर भी तो वे उसे आजतक नहीं प्राप्त कर पाये। राजनैतिक दलों को अपने सिद्धांत की कभी कोई परवाह रही ही नही। जब सत्ता आती नजर आती है सभी सिद्धांतों का ताक पर रख दिया जातें रहें हैं। अभी हाल ही नेपाल भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
आज देश के राजनेताओं को सोचना होगा कि देश हित किसमें है। राष्ट्रहित में यदि सभी दलों को एक होकर कांग्रेस की इस दरबानों व चौकीदारों की सरकार को गिराने का कोई भी अवसर मिले तो चूक नहीं करनी चाहिए। गैर कांग्रेसी दलों को मिलकर राष्ट्र के नव निर्माण में भागीदारी लेनी चाहिए न कि कांग्रेसी चाल का हिस्सा बनकर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उनका उनका साथ देवें। सांप्रदायिकाता का तमाशा बन्द करें ये सिद्धांतों के रखवाले। देश की रक्षा में आगे आएं। -शंभु चौधरी
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 8:38 pm 0 विचार मंच
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सोमवार, 7 नवंबर 2011
बंगला साहित्य में राजस्थान - प्रो. शिवकुमार
चारण कवि रंगलाल की कविता पर आधारित
बंगाला साहित्य ‘राजस्थान के इतिहास’ से पटा पड़ा है। आज हम इसी संदर्भ में बंगला साहित्य के कुछ पन्नों को पलटते है।
रानी पद्मिनी के रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर उसे प्राप्त करने के लिए सम्राट अलाउद्दीन चित्तौड़ पर आक्रमण करता है। युद्ध में असफलता होने के पश्चात वह राजा भीम सिंह के पास एक प्रस्ताव भेजता है- ‘‘कि यदि एक बार उसे रानी पद्मिनी का दर्शन हो जाय तो वह दिल्ली लौट जायेगा।’’
बंगला साहित्य में इस घटना का वर्णन देखें -
एई रूप कत दिन होइलो समर।
दिवा विभावरी रणे नाहि अवसर।।
तथापिउ यवनेर ना होइलो जय।
अभेद्य दुर्गम दुर्ग, कार साध्य लय?
एकबार देखा चाई से रूप ताहार।।
आसार आशाय फल लाभ होले बांचि।
इहार अधिक मिछे मने मने आंचि।।
नाहि चाहि रत्नभार, चित्तौरे देश।
देखिबो से मोहिनीरे, एई धार्य शेष।।
एतो भावि पत्र लिखि दूत पाठाइलो।
संधिर पताका शुभ्र, शून्ये उडाइलो।।
(संदर्भ: रंगलाल रचनावली, पद्मिनी उपाख्यान पृ.147)
सम्राट अलाउद्दीन चित्तौड़ पर जय नहीं होने के बाद जब इस तरह का अपमान जनक सन्धि प्रस्ताव पा कर राजा राणा भीम सिहं क्रूद हो उठता है परन्तु तब तक वह युद्ध के कारण काफी कमजोर हो चुका था। तब रानी पद्मिनी ने सूझाव दिया कि आप उसे दर्पण छाया देखने का प्रस्ताव दे कर कुल को नष्ट होने से वचाव करें। अगर वह सिर्फ मेरी छाया देख कर दिल्ली लौट जाता है तो इससे हमारे वीरों की प्राण रक्षा हो सकेगी।
दुर्जन दलन, सुजन पालन,
एई तो राजार नीति।
निरखि आभाय, शत्रु यदि जाय,
सब दिक रक्षा पाय।
तबे हे आमारे, देखाउ ताहारे,
निरुपाये सदुपाये।।
साक्षत् आभाय, यदि देखे राय
होबे तबे कुले कालि।
देखुक अर्पाणे, छाया दरशने
वंशेते ना रबे गालि।।
(संदर्भ: रंगलाल रचनावली, पद्मिनी उपाख्यान पृ.149)
पद्मिनी महारानी ने राजा को जनता के प्रति अपना धर्म याद दिला कर संन्धि प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने को कहा। इस बीच में बंगाला कवि देश की जनता को याद दिलाता है कि अंग्रेजों से भी हमें हार नहीं माननी चाहिए। धीरे धीरे कवि रानी के जौहर की तरफ बढ़ता चला जाता है।
अंत मे कवि हुंकार भर उठता है-
ओई शनु ! ओई शुनो !
भेरहर आवाज हे, भेरीर आवाज।
साज साज साज बोले, साज साज साज हे,
साज साज साज।।
चलो चलो चलो सबे, समर-समाज हे,
समर समाज।
राखोहो पैतृक धर्म, क्षत्रियेर काज हे,
क्षत्रियेर काज।
आमादेर मातृभूमि राजपूतानानार हे
राजपूतानार।
जौहर की कथा का गुनगान करते हुए कवि देशवसियों को हुंकार भरता है कि- कि वे भी उठो जगो और अंग्रेजों से लोहा लेने की कसम खा लो।
भारतेर भाग्य जोर, दुःख विभावरी भेर
घूम-घोर थाकिवे कि आर?
इंगराजेर कृपाबले, मानस उदयाचले
ज्ञानभनु प्रभाय प्रचार।।
(संदर्भ: रंगलाल रचनावली, पद्मिनी उपाख्यान पृ.172)
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 9:07 pm 0 विचार मंच
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रविवार, 6 नवंबर 2011
व्यंग्य: लोकतंत्र’रा स्तम्भ
बेईमान व्यक्ति के हाथ में कलम हो या तलवार उसकी बेईमानी छुपती नहीं है। इन दिनों देश में पत्रकारिता में भी बेईमानी झलकने लगी है। देश के कई पत्रों के संपादक करोड़ों में बिकने लगे। ईनाम की रकम इतनी मंहगी हो चुकि है कि एक लाख का ईनाम लेने के लिए हर शख्स अपना ईमान बेचने में लगा है। कल तक देश में नेता लोग व्यापारियों को जी भर के गालियां देते रहे। पत्रकार भी जम कर उनको लताड़ते थे। जनता उसके मजे ले-ले पेट भरती रही। आज देश में इन नेताओं की जब बारी आई तो पत्रकारों की एक जमात बगलें झांकती नजर आती है। इस संदर्भ में व्यंग्य को देखें -
एक पत्रकार दूसरे पत्रकार से
मित्र- सोहनजी थारी तलवार निचे पड़गी !
ना’रे आ तो म्हारी कलम है !
मित्र- नेता’रे गलै तो आई रोजना फिरै !
अब कठै काल ही म्हारे बॉस ने ‘वो’ खरिद लियो !
मित्र- अब तू कै लिखसी ?
आ अब उलटी चालसी
मित्र- कियां?
अब देश’री जनता को सर कलम करसी।
मित्र- पर या तो गद्दारी होसी?
मेरो पेट कुण भरसी तू कि या जनता?
मित्र- पर फैर भी आपां देश का चौथा लोकतंत्र’रा स्तम्भ हां।
जद तीनों पाया लड़खड़ायरा है तो चौथे खड़ो रह भी कै कर लेसी?
व्यंग्यकार: शंभु चौधरी, कोलकाता
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 6:13 pm 2 विचार मंच
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शनिवार, 5 नवंबर 2011
भुपेन हजारिका को हमारी श्रद्धांजलि
भुपेन हजारिका
(8 सितंबर, 1926 - ५ नवम्बर २०११)
जाने-माने गायक और संगीतकार इस सदी के महा नायक श्री भूपेन हजारिका जी का शनिवार को मूम्बई के एक अस्पताल में निधन हो गया। श्री हजारिका जी के कई अंगों ने काम करने बंद कर दिये थे। उनकी उम्र 86 वर्ष की थी। कल देर शाम लगभग साढ़े चार बजे उनका निधन हो गया। हजारिका जी का इस अस्पताल में 29 जून से इलाज चल रहा था। अक्तूबर के अंत में निमोनिया होने के बाद से उनकी सेहत और खराब हो गई। हजारिका ने अपना अंतिम गीत फिल्म गांधी टू हिटलर के लिए गाया, जिसमें उन्होंने बापू के पसंदीदा भजन वैष्णव जन गाया था। इनके दो गीतों ने ‘‘दिल हूम-हूम करे’’ और ‘‘ओ गंगा बहती हो क्यूं’’ ने देश भर के हिन्दूस्तानियों पर राज किया।
भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम से एक बहुमुखी प्रतिभा के कलाकार थे। हजारिका का जन्म असम के सादिया में हुआ था। बचपन में ही उन्होंने अपना प्रथम गीत लिखा और दस वर्ष की आयु में उसे गाया। साथ ही उन्होंने असमिया चलचित्र की दूसरी फिल्म इंद्रमालती के लिए १९३९ में बारह वर्ष की आयु मॆं काम भी किया। ई-हिन्दी साहित्य सभा की तरफ से आपको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित।
ओ गंगा बहती हो क्यूं?
© - डॉ.भूपेन हजारिका -
[मूल असमिया भाषा से हिन्दी में रूपान्तर]
विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम
ओ गंगा बहती हो क्यों ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुआ
निर्लज्य भाव से बहती हो क्यों ?
अनपढ़ जन खाध्य विहीन,
नेत्र विहीन देख मौन हो क्यों ?
इतिहास की पुकार, करें हँकार
ओ गंगा की धार, निर्वल जन को सकल संग्रामी
समग्रगामी बनाती नहीं हो क्यों ?
व्यक्ति रहे व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज व्यक्तित्व रहित
निष्प्राण समाज नहीं तोड़ती हो क्यों ?
स्त्रोतस्विनी तुम न रही, तुम निश्चय चेतना नहीं
प्राणों से प्रेरणा बनती न क्यों ?
[मूल असमिया भाषा से राजस्थानी में रूपान्तर]
लांबी है अथाग, प्रजा दोन्यू पार
करे त्राय-त्राय, अणबोली सदा ओ गंगा तू
ओ गंगा बैवे है क्यूं ?
नेकपाणो नष्ट हुयो, मिनख पणो भ्रष्ट हुयो,
निरलज्जा बण बैवे है क्यूं
अणभणिया आखरहीन, अणगिण जन रोटी स्यूं त्रीण
नैत्रहीन लख चुप है क्यूं
इतिहास की पुकार, करें हुंकार-
हे गंगा की धार निवले मानव ने जुद्ध वणी,
सब ठौरजयी वणावै नहीं है क्यूं ?
मिनक रहवै मिनखांचारी, सगळा समाज निभ्हे स्वैच्छाचारी
प्राणहीन समाज नै तोड़े नहीं हैं क्यूं ?
सुरसरी तू ना रै वै, तू निश्चय चेतना हीन
प्राणों में प्रेरणा बणै नहीं है क्यूं ?
ओ गंगा बैवे है क्यूं
Translated In Rajsthani by : Raju Khemka, Assam
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 8:45 pm 0 विचार मंच
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बुधवार, 26 अक्टूबर 2011
दीये जो बड़े हो गये
आज जब मेरी पत्नी ने मुझे से यह कहा ‘‘दीये जो बड़े हो गये वह मुझे ला दो’’ तो एक बार मैं सोचता रहा फिर थोड़ा सोचने लगा। उनकी जरूरत समझी तो समझ में आया कि उनको जो दीये बूझ गये हैं वे चाहिए। काजल निकालने के लिए सराई को उलटने के लिए बड़े हो गये दीये से सहारा देने के लिए। कितना सम्मान होता है हमारे संस्कारों में कि हम दीये को भी बूझा न कह कर, दीये को बड़े हो गये कहतें हैं। दीया जब जलने के बाद अन्त में पूरी बाती एक साथ जल उठती हैं। इसी जलती लौ के करण ऐसा लगता है कि उसकी लौ बड़ी हो गई। बस इसके बाद वह बूझने ही वाली है। इसलिए इसका नाम हो गया ‘‘दीये जो बड़े हो गये’’ दीपावली की आप सभी को शुकामनाएं।
आपका ही।
शंभु चौधरी
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 9:37 am 0 विचार मंच
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मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011
सलमान खुर्शीद जी का ताजा बयान -
आपके ताजा बयान जिसमें आपने सरकार और सिविल सोसायटी के बीच मतभेदों को बढ़ावा न देने की अपील की है हम इसका स्वागत करते हैं। हम सरकार से भी चाहते हैं कि वे सिविल सोसायटी के सदस्यों की भीतरी जांच जैसी कायरता पूर्ण कार्रवाई से बाज आये। नहीं तो देश भर के सांसदों और नेताओं की भी जांच शुरू कराने के लिए व्यापक जन आन्दोलन शुरू किया जा सकता है। हम जानते हैं कि वर्तमान सरकार में कुछ अच्छे सदस्य भी हैं जो देश से भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए ईमानदारी से प्रयास कर रहें हैं। संसदीय समिति के अध्यक्ष एवं स्व.लक्ष्मीमल सिंघवी जी के पुत्र श्री मनु सिंघवी जी पर भी हमें पूरा भरोसा है कि वे जो भी निर्णय लेगें वह देश के व्यापक हितों को ध्यान में रख कर लेगें। देश की भावना को महत्व देगें न कि भ्रष्ट नेताओं के चक्कर में पड़ कर पुनः आन्दोलन का रास्ता खोल दें जैसा कि हमारे पूर्व एक भ्रष्टाचार संरक्षक मंत्री जी ने किया जिसके चलते देश को 12 दिन का प्रसव पीड़ा से गुजरना पड़ा था।
सिविल सोसायटी के सदस्यों की जांच कर आप देश भर में एक जहर का सृजन करने का प्रयास कर रहें हैं। आपको यह ध्यान रखना चाहिये कि कोई दूध का धुला नहीं है। यदि आपकी सरकार का यही रवैया रहा तो आपकी सरकार जाने के बाद किस-किस की जांच होगी तब इसके लिए आपको भी तैयार रहना चाहिए। नेक कार्य को नेक ही रहने दें। किसी का नुकसान कर देश में एक नई परंपरा कायम की जा रही है। हाँ! इतना ज़रुर याद रखियेगा कि जिस तरह से श्रीमती किरण जी और अरविन्द केजरीवाल को परेशान किया जा रहा है इससे काँग्रेसी का भला तो कुछ नहीं होगा देश को इससे काफी क्षति होगी। जरा मन की अंतरात्मा को पूछ कर देख लिजिऐगा। इस तरह कि कार्यवाही से हमलोगों काफी आहत हुएं हैं कि किन बेईमानों को देश सौंप दिया गया है। इस तरह भ्रष्टाचार संरक्षक मंत्री हमें न तो कमजोर कर सकते हैं न ही देश लूटने लाइसेंस ही हम देगें इनको। -एक सदस्य
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 8:01 pm 0 विचार मंच
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बुधवार, 19 अक्टूबर 2011
‘राइट टू रिजेक्ट’ एवं ‘राइट टू रिकॉल’
कोलकाता: 20 अक्टूबर 2011
विश्व की निगाहें भारत के इस बहस पर लगी हुई है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में श्री अण्णा हजारे ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। ‘राइट टू रिजेक्ट’ एवं ‘राइट टू रिकॉल’ अर्थात चुनाव संबंधी प्रावधानों में जरूरी संषोधन किए जाने की। जिससे मतदान की प्रक्रिया के समय ही मतदाता सभी उम्मीदवारों को यदि अस्वीकार कर दे तो ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग पुनः नये उम्मीदवारों को सामने आने का अवसर प्रदान कर सकती है। इसी प्रकार चुने जाने के बाद जो सांसद या विधायक अपने क्षेत्र में विकास के कार्य न कर रौबदारी या भ्रष्टाचार में संलिप्त पाया जाता हो, ऐसे सदस्यों को जनता पुनः वापस बुला सके।
पिछले दिनों रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर श्री अण्णा हजारे जी का अनशन को सारी दुनिया ने देखा। विश्वभर में श्री अण्णाजी के समर्थन में लोगों ने अपनी राय रखी। दो कदम आगे-दो कदम पीछे करने वाली सियासी पार्टियों ने भी आखिरकार श्री अण्णा की बातों पर अपनी मोहर लगा दी। आखिर हमें किसी व्यक्ति पर टिप्पणी करने से पहले यह तो सोचना ही पड़ेगा कि क्या सिर्फ जब श्री अण्णा हजारे ही सोचेगें तब ही हमारे देश की संसद सक्रिय होगी अन्यथा वह उसी निरसता के साथ देश के चुने हुए सांसद अपनी धौंस जमाते रहेंगें कि वे ‘चुन कर आयें हैं।’ मानो देश चलाने या लूटने का एक प्रकार से इनको जनता ने लाइसेंस दे दिया हो अब जनता चुपचाप पांच साल अपने घरों में ताला लगा कर बैठ जाए? हमें इन सभी बिन्दुओं पर खुलकर सोचने की जरूरत है।
देश के जिम्मेदार कई संपादकों ने पिछले दिनों हिसार में हुए लोकसभा सीट के चुनाव पर श्री अण्णा हजारे टीम पर अपनी कलमें धिसने का कोई अवसर चुकने नहीं दिया। मौका भी था चुनाव में राजनीति तो करनी ही चाहिए। परन्तु लोकतंत्र का चौथा खंभा भी राजनीतिज्ञों का मोहरा बन जाए तो इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जा सकता है। एक पत्रकार मित्र ने लिखा कि यदि कांग्रेस को वोट न दें तो श्री अण्णाजी को यह भी बताना चाहिए कि किसको वोट दें? हम उनसे ही जानना चाहतें हैं कि जब बुखारी साहब जामा मस्जिद से फतुआ जारी करते हैं उस समय इनकी कलम किस पान की दुकान पर ‘मुजरा’ देखने चली जाती है? या उस समय सियासतदानों की सोच किस कसाईखाने की दुकान पर हलाल होने के लिए तैयार खड़ी दिखती है? हमारे जिन मित्रों को बोलने या लिखने का पैसा मिलता है उनकी बात तो मुझे भी समझ आती है परन्तु जिनकी कलम आजाद परिन्दें की तरह स्वतंत्र अकाश में गोता लगाती है उनकी सोच को जब लकवा मार जाए तो हमें कुछ सोचने को मजबूर तो कर ही देती है।
आज जो कुछ भी लिखा या पढ़ा जा रहा है यह भविष्य में हमें आज की घटनाओं की याद दिलाएगी। आजादी के बाद देश में इतनी बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी एवं युवा वर्ग एक साथ सामने आकर देश में सूरसा की तरह फैलती जा रही एड्स बीमारी (भ्रष्टाचार) को रोकने/कम करने के लिए कार्य कर रही है। ऐसे में हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपनी कलम की रूख को भी ईमानदारी से उसकी दिशा तय करने दें। गंगा में प्रदूषण फैलाने से हमारी आने वाली पौध को बहुत क्षति हाने वाली है, वेवजह इस जल प्रवाह में अपनी दखलदांजी न करें। हाँ! जो सच है उस पर अपनी बेबाक राय अवश्य देनी ही चाहिए।
आज देश के सामने नई पहल पर बहस होनी शुरू हो गई चुनाव आयोग से लेकर प्रायः सभी राजनैतिक दलों के अलग-अलग प्रतिनिधि ‘राइट टू रिजेक्ट’ एवं ‘राइट टू रिकॉल’ पर अपनी-अपनी प्रतिक्रियाओं व चिन्ताओं से देश को अवगत करा रहें हैं। देश के युवाओं में भी इस बहस में अच्छी रुचि देखी जा रही है। विदेशों में कई देश के युवा वर्ग अपने-अपने देश में इस व्यवस्था को लागू करवाना चाह रहें हैं ऐसे में भारत की तरफ तमाम विश्व की नजर टिकी है कि हम इस बहस का कौन सा समाधान निकालने जा रहे हैं।
जहाँ तक अभी तक के तमाम विचारों को जानने का अवसर मुझे मिला जिसमें किसी व्यक्ति विशेष का नाम लिखना उचित नहीं प्रतीत होता ‘राइट टू रिजेक्ट’ का समाधान सभी को आसान लगता है जबकि ‘राइट टू रिकॉल’ पर बहुत सारी आशंकाएँ चुनाव आयोग सहित देश के एक बुद्धिजीवी वर्ग ने जताई है।
‘राइट टू रिजेक्ट’:
जहाँ तक मैं समझता हूँ कि ‘राइट टू रिजेक्ट’ को जितना हम आसान समझ रहे हैं जबकि चुनाव आयोग के लिए यह एक पैचिदा भरा निर्णय होगा। एक तरफ तो हमारा संविधान देश के प्रत्येक नागरिकों को चुनाव लड़ने का अधिकार देती है तो दूसरी तरफ हम जनता को यह अधिकार भी दे दें कि वह उनको ‘रिजेक्ट’ कर सकती है तो क्या दोबारा इसी उम्मीदवार को किसी दूसरे चुनाव क्षेत्र से संसद या विधानसभा में नहीं भेजा जा सकता? या फिर पुनः वही उम्मीदवार उसी सीट से चुनाव लड़कर जीत गया तो इसका क्या अर्थ निकाला जाएगा?
‘राइट टू रिकॉल’:
इस विषय पर प्रायः एक सी बात सामने आ रही है कि चुनाव आयोग इसमें उलझ कर रह जाएगा। जबकि इस समस्या का सीधा समाधान है। हम ‘राइट टू रिकॉल’ को चुनाव आयोग से अलग कर दें। जिस प्रकार हम किसी सरकारी कर्मचारी को बर्खास्त या ससपेंड करते हैं अथवा महा-न्यायाधीशों पर महा-अभियोग लगाकर उनको न्यायिक प्रक्रियाओं से अलग किया जाता रहा है हमें इस समस्या को भी इन्हीं प्रक्रियाओं के तहत गुजारना होगा। वर्तमान में हम नैतिक आधार पर उनका मंत्री पद तो छिन लेते हैं परन्तु उनकी सदस्यता बनी रहती है। कई बार ऐसे सदस्यों को सरकार ब्लैकमेल कर अपने पक्ष में संसद/विधान सभाओं में मतदान कराने के मामले भी उजागर हुए हैं। अतः जब हम संसद में भ्रष्टाचार के मामले पर एक लम्बी बहस कर ही रहें हैं तो इसी में ऐसे सदस्यों पर महा-अभियोग लाने का भी प्रावधान कर दिया जाना चाहिए ताकी देश के खजाने को लूटने वाले चन्द राजनेताओं को यह अंदेशा बना रहे कि उनकी राजनीति अब समाप्त होने वाली है।
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 9:36 pm 0 विचार मंच
Labels: ‘राइट टू रिकॉल’, ‘राइट टू रिजेक्ट’, इलेक्शन, चुनाव, शंभु चौधरी, शम्भु चौधरी
मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011
हिन्दीभाषी बंगाल का गौरव - ममता बनर्जी
Kolkata: Wednesday 19.10.2011
"एक विशेष भेंटवार्ता में पश्चिमबंग की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी ने राज्य के रह रहे हिंदीभाषियों की सराहना करते हुए कहा कि उन्होंने बंगाल का गौरव बढ़ाया है और यहां निवास करने वाले हिंदीभाषी बंगाल के समाज में बहुत पहले से ही ठीक उसी तरह घुल मिल चुके हैं जैसे दूध में शक्कर घुलता है। हम उस शक्कर को दूध से अलग नहीं करना चाहते। यह बात आपने सन्मार्ग समाचार के संपादक के साथ एक एक्सक्लूसिव बातचीत करते हुए कही।"
हिन्दीभाषी बंगाल का गौरव - ममता बनर्जी, मुख्यमंत्री, पश्चिमबंग
कोलकाता में कल एक विशेष भेंटवार्ता में पश्चिमबंग की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी ने राज्य के रह रहे हिंदीभाषियों की सराहना करते हुए कहा कि उन्होंने बंगाल का गौरव बढ़ाया है और यहां निवास करने वाले हिंदीभाषी बंगाल के समाज में बहुत पहले से ही ठीक उसी तरह घुल मिल चुके हैं जैसे दूध में शक्कर घुलता है। हम उस शक्कर को दूध से अलग नहीं करना चाहते। यह बात आपने सन्मार्ग समाचार के संपादक के साथ एक एक्सक्लूसिव बातचीत करते हुए कही। आपको जानकारी होगी अभी हाल ही सुश्री ममता बनर्जी खुद के दम-बल पर गत् 34 सालों से चले आ रहे वाममोर्चा सरकार को धूल चटा कर सत्ता पर काबिज होने के पश्चात से ही एक-एक कड़े और ठोस राजनैतिक निर्णय लेती जा रही है जिसमें दार्जिलिंग की समस्या और जंगलमहल जैसे आदिवासी इलाकों का विकास, सरकारी कर्मचारियों को समय पर वेतन उपलब्ध कराना। वहीं सत्ता के मदहोश में पार्टी के सदस्यों की गुंडागर्दी पर भी लगाम लगाते हुए आपने अपने ही दल के सभी सदस्यों को साफ कर दिया कि उनकी पार्टी का कोई भी सदस्य जनता के साथ अभद्र व्यवहार या चंदा उगाही में संलग्न पाया गया तो उसकी खैर नहीं। कल शाम ही कोलकोता में सुश्री ममता बनर्जी ने राज्य के उद्योग जगत से जुड़े 300 से अधिक राजस्थानियों को दीपावली मिलन के एक मिलन समारोह एक दावत दे कर उन्हें राज्य के विकास में साथ आने का निमंत्रण दिया जिसको लेकर मारवाड़ी समाज में अच्छी प्रतिक्रिया रही साथ ही आपने हिन्दी भाषा भाषी समाज के सामाजिक संगठनों को भी आह्वान किया कि वे आगे आकर बंगाल की कला-संस्कृति में भी अपना योगदान दें। आपने आगे कहा कि हिंदी समाज बंगाल की माटी में रच बस गया है बंगाल का हिंदीभाषी समुदाय यहाँ का अभिन्न अंग बन चुका है। आपने बंगाल के अतीत को याद करते हुए हिन्दी भाषाभाषियों के योगदानों का नमन करते हुए कहा कि उन्हें पिछली सरकार की ख़ामियों को नजरअंदाज कर पुनः एक बार फिर से राज्य के विकास में अग्रणी भूमिका निभानी होगी। आपके यह विचार उस समय आयें हैं जब महाराष्ट्र में श्री बाल ठाकरे व राज ठाकरे हिन्दीभाषियों पर भाषा के नाम अत्याचार करने में तूले हुए हैं। - कोलकाता से शंभु चौधरी की रिर्पोट
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 7:39 pm 0 विचार मंच
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रविवार, 16 अक्टूबर 2011
दीपावली की शुभकामनाएँ - शम्भु चौधरी
इसमें कोई शक नहीं नक्सलवादियों ने सरकारी ताक़तों को नुकशना पहुँचाने के नाम से बेकसूर जनता को भी काफी हानी पहुँचाई है। जो किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं ठहराया जा सकता है। हम अपनी दीपावली के दीये उन आदिवासियों के साथ जलाना पसंद करेंगे जिन्हें सरकार नक्सलवादी समझती है। माना कि सरकार पर देश की सुरक्षा का भार है परन्तु नक्सलवादियों के नाम पर सरकार इनके घरों को ही उजाड़ दे, यह सुरक्षा नहीं हो सकती। आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ।
नक्सलवाद पर लिखी मेरी एक कविता से आज आपको दीपावली की शुभकामनाएँ देना चाहता हूँ।
एक परिंदा घर पर आया, फर्राया-चहकाया..
मैं आजाद .., मैं आजाद.., मैं आजाद..,
मैं सोचा यह क्या कहता है? हँसता है या रोता है।
मुझको गाली देता है या अपना दुःख यह कहता है।
सर्वप्रथम हमें आतंकवाद को व्याखित करना होगा, खुद की जमीं पर रहकर अपने हक की लड़ाई लड़ना आतंकवाद नहीं हो सकता चाहे वह कश्मीर की समस्या ही क्यों न हो, लेकिन को कुछ ईश्लामिक धार्मिक संगठनों ने धर्म को आधार मानते हुए सारी दुनिया में आतांकवाद फैला दिया, पाक प्रायोजित तालिबानियों द्वारा धर्म को जिहाद बताया उनलोगों ने न सिर्फ़ कश्मीर समस्या को उलझाया। भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश सहित विश्व के अनेक देशों के भीतर आतंकवाद को देखने का एक अलग नजरिया प्रदान कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि आज विश्व में हर तरफ यह प्रश्न उठता है कि आखिर एशिया महाद्वीप से ही आतंकवाद क्यों पैदा हो रहा, सारे विश्व के अपराधियों का सुरक्षा केन्द्र बनता जा रहा है यह महाद्वीप। संभवतः भारत विश्व में एक मात्र देश होगा जो लगातार आज़ादी के बाद से इस समस्या से झूझता आ रहा है। ९/११ की घटना यदि अमेरिका की जगह भारत में हुई होती तो शायद अमेरिका, तालिबानियों का सफ़ाया कभी नहीं करती़। कारण स्पष्ट है अमेरिका को किसी बात का दर्द तभी होता है जबतक वह खुद इस दर्द को न सह ले।
इसी प्रकार भारत में नक्सलवाद का काफी तेजी से विकास हुआ खासकर आदिवासी इलाकों में जहाँ हम अभी तक विकास, शिक्षा, चिकित्सा जैसी मूलभूत ज़रूरतों को भी नहीं पहुँचा पाये। हमने उनके घर (वन, वनिस्पत, खनिज, पर्वत, जंगल आदि) को सरकारी समझा और उनको उस जगह से वेदखलकर उन्हें जानवर का जीवन जीने को मजबूर करते रहे। जब इन लोगों को कुछ लोगों ने वगावत का पाठ पढ़ाया तो ये देश के लिये गले की फांस बन गई। आपको सबसे पहले यह समझना होगा कि आखिर समस्या क्या है, सिर्फ हथियार उठा लेने से आतंकवाद हो जाता तो भारत स्वतंत्रता आन्दोलन के हजारों शहीद को भी हमें आतंकवाद कहना होगा। इसमें कोई शक नहीं नक्सलवादियों ने सरकारी ताक़तों को नुकशना पहुँचाने के नाम से बेकसूर जनता को भी काफी हानी पहुँचाई है। जो किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं ठहराया जा सकता है। हम अपनी दीपावली के दीये उन आदिवासियों के साथ जलाना पसंद करेंगे जिन्हें सरकार नक्सलवादी समझती है। माना कि सरकार पर देश की सुरक्षा का भार है परन्तु नक्सलवादियों के नाम पर सरकार इनके घरों को ही उजाड़ दे, यह सुरक्षा नहीं हो सकती।
आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ।
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 2:48 am 0 विचार मंच
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शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011
कोलकाता में बने राजस्थान भवन –केशव भट्टड़
कोलकाता 23 अप्रेल कोलकाता राजस्थान संस्कृतिक विकास परिषद के तत्वावधान में शनिवार को राजस्थान सूचना केंद्र में “बंगाल के राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में मध्यम वर्ग की भूमिका – विशेष सन्दर्भ: मारवाड़ी समाज” विषयक संगोष्ठी का आयोजन कथाकार-संपादक दुर्गा डागा की अध्यक्षता में किया गया अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में दुर्गा डागा ने कहा कि यह बहुत ही गंभीर विषय है मारवाड़ी मध्यमवर्ग प्रतिभा और उर्जा से भरा हुआ है उसके पास सपने हैं राजनीतिक और सांस्कृतिक जागरूकता के लिए सामाजिक संस्थाएं पहल करे कार्यक्रम के लिए समाज के लोगों को लेकर परामर्शमंडल बनाये और समाज में जागरूकता लाने का कार्य करे बंगाल के संस्कृतिकर्मियों से मेलजोल और संवाद हो सरकार के काम-काज पर सजगता से ध्यान रखें और संस्थाओं के माध्यम से अपनी आवाज़ उठायें मध्यम वर्ग के लड़के-लड़कियां राजनीति में रुचि लेकर आगे आये साहित्य पढ़ने से व्यक्तित्व का विकास होता है और जड़ों को समझने में आसानी सामजिक कार्यक्रमों में धर्म का विकल्प देने का प्रयास होना चाहिए मुख्य वक्ता पत्रकार विशम्भर नेवर ने कहा कि सारा मारवाड़ी समाज धार्मिक कार्यक्रमों में लगा है-राजनीति कौन करे? राजनीति में गठबंधन बंगाल से शुरू हुआ समाज में जो सांस्कृतिक रिसाव हो रहा है उसे रोकना जरुरी है वाम-सरकार का फायदा मारवाड़ियों ने उठाया अमुक राजनीतिक पार्टी अमुक को टिकट दे या तमुक को , इसका निर्णय वो राजनीतिक पार्टी ही करेगी मारवाड़ियों में सांगठनिक शक्ति होगी, तो पार्टियां उनके पीछे आएँगी पत्रकार राजीव हर्ष ने कहा कि मध्यमवर्ग समाज के आयाम निर्धारित करता है वैल्यू की स्थापना मध्यम वर्ग करता है महंगाई और अप-संस्कृति से यही वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होता है मध्यम वर्ग अपनी नैतिकता के दायरे में बंधा रहता है मध्यम वर्ग की रोज़गार परिस्थितियां उसे अन्य गतिविधयों में शामिल होने की अनुमति नहीं देती विज्ञान, कला संकाय आदि क्षेत्रों में हम कहाँ है? मारवाड़ी को डरपोक और पैसा कमाने वाले की संज्ञा दे दी गयी जागरण, भगवत कथा, धार्मिकता पर जितना ध्यान देते है उसमे से समय निकालकर अन्य चीजों पर भी ध्यान दे- राजस्थानी साहित्य-संस्कृति-कला की प्रदर्शनिया हो कथाकार विजय शर्मा ने कहा कि विश्लेषण न कर कार्य योजना बनाये बंगाली से बात करनी है तो उनके सिनेमा, साहित्य, संस्कृति में उसके समकक्ष खड़ा होना होगा हमारे कार्यों में पारदर्शिता होनी चाहिए मारवाड़ियों की तमाम खूबियां बयां करने वाली कहानियां खत्म हो रही है और हर्षद-हरिदास की कहानियां हावी हो रही है पत्रकार सीताराम अग्रवाल ने कहा कि मध्यम वर्ग समाज के उच्च और निम्न वर्ग के बीच सेतु का कार्य करता है मारवाड़ी मध्यम वर्ग अपनी ताक़त को पहचान ही नहीं पाया संगठन का ककहरा यहाँ के लोगो को मारवाड़ियों ने सिखाया, वे प्रदर्शन और दिखावे से बचे रहे सामाजिक संगठनो में कार्यकर्ताओं को सम्मान देना होगा, तभी एक शक्ति के रूप में यह वर्ग उभरेगा क़ानूनी सलाहकार ध्रुवकुमार जालन ने कहा कि हमने अपनी ताक़त नहीं पहचानी फिजूलखर्ची रोकनी होगी और उर्जा राजनीतिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में लगानी होगी डॉ.कडेल ने कहा कि मारवाड़ी लेखक-पत्रकारों ने मारवाड़ी समाज की समस्याओं पर लिखा ही नहीं नेतृत्व देने वाले खुद सामने आते है या समाज उन्हें ढूंढ निकलता है मारवाड़ी समाज का मध्यम वर्ग आत्मसम्मान विस्मृत कर चूका है तो इसकी क्या भूमिका रह जाति है सञ्चालन करते हुए केशव भट्टड़ ने कहा कि बंगाल में बंगाली मध्यमवर्ग जागरूक और संगठित है उनका नेतृत्व मध्यमवर्ग से आता है बुद्धदेव भट्टाचार्य हो, या ममता बनर्जी, ये सभी निम्न-मध्यवित्त वर्ग से आतें है, लेकिन मारवाड़ियों में इसका अभाव है पहले और वर्तमान में यह बड़ा अंतर आया है कोलकाता-राजस्थान की पृष्ठभूमि पर सत्यजित राय की फिल्म ‘सोनार किल्ला’ को उदाहरण रूप में रखते हुए उन्होंने कहा कि फ़िल्म में राय बताते हैं कि बंगाल के बंगाली और मारवाड़ी मध्यमवर्ग के बीच संवाद नहीं है, जो होना चाहिए कोलकाता में राजस्थान भवन की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि मीरा को सामने रखकर मारवाड़ी मध्यमवर्ग बंगाली मध्यमवर्ग के साथ सांस्कृतिक संवाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान करें राजस्थानियों ने बंग प्रदेश में अपनी नागरिक पहचान नहीं बनायीं वे राजनीति में सीधे हस्तक्षेप से बचते हैं पर्यटकों के रूप में बंगाली समुदाय राजस्थान को प्राथमिकता देता है, लेकिन राजस्थानियों से उसका परिचय सांस्कृतिक रूप से नहीं हुआ यह विडम्बना है अतिथियों और श्रोताओं का पुष्पों से स्वागत संयुक्त संयोजक गोपाल दास भैया ने और आभार संयुक्त संयोजक बुलाकी दास पुरोहित ने किया
केशव भट्टड़
संयोजक, 9330919201
कोलकाता-राजस्थान संस्कृतिक विकास परिषद
10/1 सैयद सालेह लेन, कोलकाता-700073
फैक्स: 033 22707978
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 9:14 pm 0 विचार मंच
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बुधवार, 5 अक्टूबर 2011
रावण नहीं मरा इस बार- शंभु चौधरी
रावण नहीं मरा इस बार
मेरे मन का रावण था
घर-घर में अब फैल गया,
एक सर को काटा तो,
दस ने जन्म लिया
दस का सौ,
सौ का हजार,
फैल गया जग में अब रावण
रावण नहीं मरा इस बार।
रामलीला में जल जाऐगा रावण?
मनलीला में जल जाए तब
समझो रावण निकला है।
रावण कभी मरा है जग से
वह तो एक सिर्फ पुतला है।
जड़ से जब तक जल न जाए
समझो अब भी जिन्दा है।
रावण नहीं मरा इस बार।
राम नहीं बचे अब जग में,
रावण अब भी जिंदा है।
बानर सेना छुप-छुप देखे
आंगना सूना-सूना है।
रावण नहीं मरा इस बार।
विजया दशमी की शुभकामनाओं के साथ
शंभु चौधरी, कोलकाता।
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 9:29 am 4 विचार मंच
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बुधवार, 31 अगस्त 2011
इरोम शर्मिला: मशाल थामें महिलाएं
इरोम शर्मिला (Irom Chanu Sharmila) इसी आग की एक कड़ी है। सबसे पहले अपनी कलम से आपको नमन करता हूँ। जिस प्रकार श्री अण्णाजी का संघर्ष महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव रालेगांव सिद्धि से उठकर देश में जनचेतना की एक मिशाल बन गई। उसी प्रकार एक दिन मणिपुर की महिलाऐं भी देशभर की महिलाओं के अन्दर व्याप्त भय को समाप्त कर राजनीति को आत्मसात करने के लिए प्रेरित करेगीं मेरा मानना है। मणिपुरी महिलाऐं देश के लिए ‘मीरा पेबिस’ बनकर देश की महिलाओं का पथप्रदर्शक बनेगी। मणिपुर में ‘मीरा पेबिस’ का शाब्दिक अर्थ है महिलाओं के हाथों में मशाल। इसे क्रांति का सूचक माना जाता है।
हम यदि जानवरों पर भी ऐसा व्यवहार करें तो सारी दुनिया में इसके खिलाफ आवाजें उठ जाती है परन्तु भारत के कुछ हिस्सों में गोलियों से सरेआम सेनाबल इंसानों को सड़कों पर भून देती है और सरकार चूँ तक नहीं करती। जी हाँ! आज मणिपुर की इरोम शर्मिला (Irom Chanu Sharmila) की एक अपील श्री अण्णा हजारे के नाम छपी सुबह के समाचार पत्रों में पढ़ने को मिला। हांलाकि इस आंदोलन के बारे में मुझे कोई विशेष जानकारी नहीं थी इसलिए नेट का सहारा लेकर पहले संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया। पता चला की हमारे देश की सरकार दरिन्दों के शिकार करने के कानून से इंसानों का भी शिकार करती है जानकर हमें न सिर्फ ग्लानि हो रही है साथ ही मन करता है कि तत्काल हमें इरोम शर्मिला की मांग पर न सिर्फ संसद में बहस करनी चाहिए, इरोमा की रिहाई एवं इसके आंदोलन को पूरे भारत का समर्थन मिलना चाहिए।
इस लेख की पृष्ठभूमि पर जाने से पहले आपको मणिपुर की महिलाओं द्वारा किए जाने वाले सैकड़ों आंदोलनों के इतिहास में मणिपुरी महिलाओं का ही योगदान रहा है। उनके अन्दर से निकलने वाली जनचेतना की आग को मणिपुर साहित्य में काफी सम्मानित स्थान दिया जाता है।
देश में बंगाल के बाद मणिपुर ही देश का एक ऐसा राज्य है जहाँ देश की महिलाएं अपने सामाजिक और राजनैतिक अधिकारों के प्रति काफी न सिर्फ सजग है पुरुषों से एक-दो कदम नहीं काफी आगे मानी जाती रही है। यहाँ की महिलाएं अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति न सिर्फ सजग रहती हैं। अपने अधिकारों को प्राप्त करने क लिए संघर्षरत भी रही है। इरोम शर्मिला (Irom Chanu Sharmila) इसी आग की एक कड़ी है। सबसे पहले अपनी कलम से आपको नमन करता हूँ। जिस प्रकार श्री अण्णाजी का संघर्ष महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव रालेगांव सिद्धि से उठकर देश में जनचेतना की एक मिशाल बन गई। उसी प्रकार एक दिन मणिपुर की महिलाऐं भी देशभर की महिलाओं के अन्दर व्याप्त भय को समाप्त कर राजनीति को आत्मसात करने के लिए प्रेरित करेगीं मेरा मानना है।
मणिपुरी महिलाऐं देश के लिए ‘मीरा पेबिस’बनकर देश की महिलाओं का पथप्रदर्शक बनेगी। मणिपुर में ‘मीरा पेबिस’ का शाब्दिक अर्थ है महिलाओं के हाथों में मशाल। इसे क्रांति का सूचक माना जाता है।
इस देश की शर्मनाक दशा यह है कि हम पोटा जैसे देश की सुरक्षा से जुड़े कानून अथवा आंतकवादिओं को सजा देने के कानून को कमजोर करने की पूरजोड़ वकालत संसद में और संसद के बाहर करते नजर आते हैं। देश की सुरक्षा को कमजोर करने के लिए सांप्रदायिक ताकतों से यह कह कर हाथ मिला लेते हैं कि अल्पसंख्यकों को वेबजह तंग किया जाता है। माना कि कानून का दूरपयोग किया जाता रहा है। अभी हाल ही में उच्च न्यायालय ने भी जमीन अधिग्रहण कानून को लेकर भी कुछ इसी प्रकार की टिप्पणी की है जबकि उच्च न्यायालय खुद इसी कानून के पक्ष में हजारों फैसले सुना चुकी है। परन्तु सरकार की नजर में हर पक्ष को देखने का नजरिया अलग-अलग होने से देश के कुछ भागों में जनता के मन में एक असंतोष की भावना व्याप्त है।
मणिपुर में ५० वर्षों का अघोषित आपातकाल:
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मणिपुर में ११ सितम्बर २००८ को एक गैर लोकतांत्रिक कानून (आर्मड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट) आफ़्सपा को लगे हुए ५० साल पूरे हो रहे हैं। आजादी के ११ वर्ष बाद १९५८ में यह कानून कुछ क्षेत्रों में नागा बिद्रोह से निपटने के लिये लगाया गया था। धीरे-धीरे इसका विस्तार होता गया और १९८० में पूरे मणिपुर को अशांत घोषित कर दिया गया। आफ्सपा को आर्मड फोर्स स्पेसल पावर आर्डिनेंस के तौर पर बनाया गया जिसे अंग्रेजों द्वारा १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन से निपटने के लिये भारतीय आंदोलन कारियों के दमन के लिये बनाया गया था। तब से पूरे राज्य में आपातकाल की स्थिति बनी हुई है। यह गैर लोकतांत्रिक कानून राज्य के गवर्नर/या केन्द्र को यह अधिकार देता है कि वे किसी भी क्षेत्र को अशांत घोषित कर सकते हैं। किसी भी आयुक्त अधिकारी या एन.सी.ओ. तक को यह अधिकार देता है कि यदि उसे लगता है कि कोई व्यक्ति कानून व्यवस्था तोड़ सकता है व यदि कोई व्यक्ति हथियार या कोई भी चीज जिसका इश्तेमाल हथियार के रूप में किया जा सकता है के साथ पाया जाय तो शक के आधार पर वह किसी भी व्यक्ति को गोली मार सकता है या इतने बल का प्रयोग कर सकता है जिससे उसकी मौत हो जाय। इस रूप में यदि इसकी व्याख्या करें तो वह किसान भी आता है जो अपने औजार के साथ खेत जा रहा हो।कानून लागू होने के बाद दिनों-दिन अमानवीयता बढ़ती गयी और रोज बरोज सेना के बढ़ते दमन को देख मानवाधिकार संगठन ने आफ्सपा के खिलाफ ८०-८२ में याचिकायें दर्ज की जिसमे जीवन, आजादी, बराबरी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताको चुनौती दी गयी, परन्तु १५ वर्षों बाद १९९७ में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सही ठहराते हुए कुछ निर्देश दिये उन निर्देशों के तहत आर्मी को बताया गया कि वह क्या करे और क्या न करे, जिसमें यह कहा गया कि गोली चलाने के पहले व्यक्ति को चेतावनी दी जानी चाहिये, और किसी भी कार्यवाही के समय नागरिक प्रशासन को शामिल किया जाना चाहिये इन बातों का सैन्य बल द्वारा कडा़इ से पालन किया जाय। परन्तु उसके बाद भी किसी निर्देश का पालन नहीं होता अलबत्ता डी.जी.पी. का यह बयान आया कि निर्देशों की भावना का पालन होता है इसके शब्दों का नहीं। इस रूप में स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है कि आर्मी किस तरह के भावना का पालन करती होगी।सेना को यह भी निर्देश दिया गया था कि कि किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के बाद वह जल्द से जल्द व्यक्ति को नजदीकी पुलिस थाने को सौंप दे और आर्मी को पूछताछ का कोई अधिकार नही बनता इसके बावजूद आर्मी थर्ड डिग्री का इश्तेमाल कर अभियुक्तों से पूछ-ताछ करती है और अक्सर पूछ ताछ के बाद गोली मार देती है। इस रूप में सेना वहाँ नागरिक प्रसासन की मदद करने के बजाय एक स्वतंत्र इकाई के रूप में कार्य कर रही है। इस कानून को लागू होने के बाद से अब तक मणिपुर के अनगिनत लोग मारे जा चुके हैं और गायब हैं। लोगों को यह नहीं पता कि किस दिन उनके घर में आर्मी आयेगी और उनके किसी भी सदस्य को उठा ले जायेगी। दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र में ऎसी अमानवीय स्थिति बनी हुई है जहाँ पूरी तरह से सेना का शासन चल रहा है। परन्तु भारत के अधिकांश हिस्सों के लोगों को इन स्थितियों की भनक तक नहीं है। और कुछ मुद्दॊं को छोड़ कर भारतीय मीडिया ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया है। ११ जुलाई २००४ को इम्फाल के पूर्व जिला बामोन की एक ३२ वर्षीय महिला थंगजम मनोरमा को असम राइफल्स द्वारा रात को उनके घर से उठा लिया गया और तमाम तरह की यातनाओं के बाद उनकी लाश को घर से ५-६ कि.मी. की दूर स्थित राजमार्ग पर फ़ेक दिया गया था, जिसको लेकर मणिपुर में एक बढा़ विरोध प्रदर्स्गन हुआ था और महिलाओं ने निरवस्त्र होकर यह नारा दिया था कि "इडियन आर्मी रेप अस" जिसे राष्ट्रीय मीडिया ने पहली बार गम्भीरता से लिया था पर उसके बाद रोज दिनों दिन घटनायें घटती जा रही हैं पर राष्ट्रीय मीडिया में उसकी खबरें कहीं नहीं दिखती। २००२ में जब भारत के प्रधानमंत्री १५ अगस्त देश के लोकतंत्र को और मजबूत बनाने की बात करते हुए तिरंगा फ़हरा रहे थे। उसी समय मणिपुर का एक छात्र नेता पेबम चितरंजन बिसनपुर चौराहे पर खुद को यह कहते हुए जला लिया कि इस अप्रजातांत्रिक कानून में में मरने के बजाय मै मशाल की तरह जलकर मरना पंसंद करूंगा। राज्य में हर वर्ष इसी तरह से सैकड़ों लोग आर्मी की गोलियों से मारे जा रहें हैं तिस पर गृह मंत्री मणिपुर में जाकर यह बयान देते हैं कि मरनें वालों की संख्या इतनी नहीं है कि इस पर परेशान हुआ जाय। क्या किसी लोकतंत्र में मनोरमा जैसी एक भी महिला का आर्मी द्वारा बलात्कार, और महिलाओं का निरवस्त्र प्रदर्शन उन्हें कम लगता है? देश के स्वतंत्रता दिवस पर किसी व्यक्ति का देश के किसी कानून से क्षुब्ध होकर मरना कम है। जबकि वास्तविक स्थितियाँ इतनी ही नहीं है राज्य मानवाधिकार की रिपोर्ट के मुताबिक ३०-५० मानवाधिकार हनन की घटनाएं सामने आती है या दर्ज होती हैं। परन्तु इतनी घटनाएं दर्ज होने के बावजूद भी राष्ट्रीय मानवाधिकार ने इस राज्य को अनदेखा करने का प्रयास किया है और अभी तक कोई भी बैठक इस राज्य में नहीं की। राज्य मानवाधिकार को एक सीमित धन ही उपलब्ध कराया जाता है।जबकि वहीं दूसरी तरफ सेना के खर्चे में हर वर्ष बढो़त्तरी की जा रही है। इस अमानवीय कानून को लेकर अब तक न जाने कितने विरोध प्रदर्सन हो चुके हैं, मणिपुर के लोग कितनी बार सड़कों पर उतर चुके हैं। इरोम शर्मीला द्वारा २००४ से लगातार भूख हड़ताल जारी है। पर सरकार ने अभी तक चन्द जाँच कमेटियाँ बनाने के सिवा कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। मनोरमा मामले को लेकर गठित की गयी सी. उपेन्द्र आयोग की १०२ पृष्ठ की रिपोर्ट २२ दिसम्बर २००४ को आयी पर अभी तक उसको गुप्त रखा गया है उसका प्रकाशन तक नही किया गया। यद्यपि आफ्सपा को इंफाल के ७ मुनिस्पल क्षेत्रों यानि ३२ वर्ग कि.मी. से हटाया गया है परन्तु हत्या का शिलसिला यहाँ भी कम नहीं हुआ है आर्मी यहाँ से लोगों को पकड़ती है और उस क्षेत्र से बाहर ले जाकर उनको गोली मारती है। इन स्थितियों के बीच वहाँ के स्कूलों की स्थिति ये है कि ३६५ दिन में औसतन १०० दिन या उससे कम भी चल पाते हैं कारण वश वहाँ के छात्रों का लगातार पलायन जारी है और २०,००० से अधिक छात्र राज्य से बाहर जाकर पढ़ रहे हैं। स्कूली बच्चों ने राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली किताबों को राज्यपाल को वापस कर दिया है। इन स्थितियों के बीच सरकार को चाहिये कि वह कोइ उचित कदम उठाये और गैर लोकतांत्रिक कानून को वापस ले।
लेख जारी है.....थोड़ा इंतजार करें।
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 11:31 pm 0 विचार मंच
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व्यंग्य नाटकः अक्ल बड़ी की भैंस?
संसद की मर्यादा सांसदों के हाथ ही बचेगी। जब खुद ही दामन में आग लगाए तो उसे कौन बचाए। संसद में किस-किस के खिलाफ अवमानना की नोटिस जारी करेगी सरकार। आज सारे देश के समाचार पत्रों ने यह सवाल खड़ा कर दिया है।
संसद में इस बात पर बहस शुरू हो गई कि यह पता लगाया जाए कि अक्ल बड़ी की भैंस? तो सभी सांसदों ने एक स्वर में ही चिल्लाया ‘अक्ल’ परन्तु वहां कुछेक ऐसे भी सांसद बचे थे जो इस बात से सहमत नजर नहीं आ रहे थे। हांलाकि लोकतंत्र में बहुमत का राज होता है परन्तु कुछ सांसदों के मन में कई तरह के सवाल खड़े हो रहे थे, सो धीरे से उठकर एक ने अपना विरोध दर्ज ही करा ही दिया कि ‘‘नहीं भैंस बड़ी होती है।’’ बस इतना कहना था कि सब-के-सब एक साथ उस सांसद पर पील पड़े। जबाब-सवाल का दौर शुरू हो गया, किसी ने उन्हें पागल बताया तो किसी ने धमकाना शुरू कर दिया। वे भी कहाँ हार मानने वाला थे उन्होंने भी बड़ी शालीनता से अपना पक्ष रखते हुए कहा कि आप ही नापवा लो भाई! - ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या।’’
बहस का सिलसिला चल पड़ा।
सभाध्यक्ष महोदय ने सबको बारी-बारी से पक्ष और विपक्ष पर अपनी-अपनी बात रखने की व्यवस्था दी।
‘‘शान्त हो जाइये...शान्त हो जाइये... हाँ...आप भी शान्त हो जाइये... सबको समय मिलेगा..आप बैठ जाइये....कृपया शान्त हो जाइये...। अध्यक्ष जी ने सभी को शान्त करने का प्रयास किया।
एक सदस्य ने अपना विरोध दर्ज करते हुए कहा कि महाशय जब संसद में उपस्थित अधिकतम सदस्यों ने यह मान लिया कि ‘अक्ल’ ही बड़ी है तो इनको जिद छोड़ देनी चाहिये और कहावतों में भी यही मान्यता है कि अक्ल ही बड़ी होती है फिर यहाँ इस बात पर बहस कर संसद का कीमती वक्त जाया करने का कोई अधिकार नहीं बनता इनको।
दूसरे सदस्य ने इसे वे वजह का विवाद और बैतुका करार दिया।
तीसरे ने सदन की पिछली बैंच से ही उछल कर चिल्लाया इसकी जबान पर ताला लगा दिया जाए श्री मान! अक्ल न हो तो भैंस का काम ही क्या? इसलिए इस बहस को यहीं समाप्त कर देना चाहिये एवं बहुमत में प्रस्ताव को पारित समझा जाना चाहिए।
अधिकतम सांसदों के हाव-भाव से बेचारे सांसद की हालत पतली होने लगी थी सारे के सारे उनके ऊपर इस प्रकार चढ़ गये मानो किसी ने हमला कर दिया हो। फिर भी हार न मानने की कसम लेकर उन्होंने पुनः अपनी बात रखने का प्रयास किया।
अध्यक्ष जी! ‘‘जब महल में लटके बिजली के बल्ब की गर्मी से खिचड़ी पकाई जा सकती है।’’....
अभी बात पूरी हुई ही नहीं थी कि पुनः
एक ने झलांग लगाई आप हमें पहेलियाँ न बुझाएं सीधे-सीधे ये बतायें कि भैंस कैसे बड़ी है अक्ल से?
दूसरे ने-आप संसद के कीमती वक्त को बर्बाद करने में तूले हैं।
तीसरे ने-आपको तो संसद से बाहर कर दिया जाना चाहिए।
सभा में शोर-सराबा, हंगामा जैसा माहौल हो गया।
किसी की आवाज ही समझ में नहीं आ रही थी।
अध्यक्ष जी ने खड़े होकर पुनः सबसे निवेदन किया-
‘‘शान्त हो जाइये...शान्त हो जाइये... हाँ...आप भी शान्त हो जाइये... सबको समय मिलेगा..आप बैठ जाइये....कृपया शान्त हो जाइये...।
अध्यक्ष जी! माननीय सदस्यगण मुझे बोलने दें या खुद ही बोलें।
तब तक एक सदस्य ने अपने गले में लटकते माइकफोन को टेबल पर पटकते हुए कहा कि लोकतंत्र का अर्थ यह नहीं है कि जिसको जो मन में आये बाले।
अध्यक्ष जी! यही तो बताने का प्रयास मैं तबसे कर रहा हूँ कि लोकतंत्र में बहुमत का अर्थ होता है देश की 90 प्रतिशत जनता को मुर्ख बनाकर शासन करना और हम पिछले 63 सालों से यही तो करते आ रहे हैं।
पुनः एक नेता ने अपनी माइक को निशाना करते हुए उस सदस्य पर निशाना साधा। जिस बात पर बहस हो रही है आप हमें उसका ही जबाब दें न कि दूसरी-दूसरी बातों कि तरफ हमारा ध्यान बांटने का प्रयास करें।
श्रीमान् हम यही तो बताने का प्रयास कर रहे हैं कि आप सब बीच में ही उछल-कूद करने लगते हैं।
अध्यक्ष जी! जी ने पुनः सदस्यों को व्यवस्था दी आपस में कोई बात न करें।
सारे के सारे सदस्य एक साथ चिल्ला पड़े...
‘‘इनको जबान संभाल कर बोलने के लिए कहा जाए अन्यथा इनके ऊपर भी संसद की अवमानना का मुकदमा चलाया जायेगा।
अध्यक्ष जी! संसद सदस्यों को संसद के अन्दर संवैधानिक अधिकार प्राप्त है कि उनको सदन के अंदर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है। इन्हें आप समझाऐ कि ये शांत रहें।
अध्यक्ष जी ने पुनः खड़े होकर सबसे निवेदन किया-
‘‘शान्त हो जाइये...शान्त हो जाइये... हाँ...आप भी शान्त हो जाइये... सबको समय मिलेगा..आप बैठ जाइये....कृपया शान्त हो जाइये...।
शोरसराबा जारी .........
अध्यक्षजी ने पुनः सबसे निवेदन किया- कृपया शांत हो जाएं हाँ! आप बोलिए....हाँ! आप शुरू किजिए बोलना.....
तभी एक सदस्य ने जोर देकर कहा अध्यक्ष जी! जब सब कोई यह जानते है कि अक्ल ही बड़ी होती है भैंस से, इसमें बहस की कोई गुंजाईश ही कहाँ बचती है।
अध्यक्ष जी! सदस्यगण का व्यवहार ही बताता है कि संसद में भैंस ही बड़ी है अक्ल का काम ही कहाँ है यहाँ। कहावत है कि जब संसद के अन्दर आओ तो अपनी अक्ल घर की खुंटी से बांधकर आओ और पार्टी के प्रमुख जो बोले उसकी बात को मजबूती से बकते रहो। इसमें अक्ल का काम ही क्या है? जब सारे निर्देश हमें एक खुंटे से बंधकर ही मानने हैं तो अक्ल का महत्व ही कहाँ रह जाता है?
तभी कुछ सदस्य शांत हो चुप-चाप मन ही मन खुश होने लगे कि एक मर्द बहुत दिनों बाद संसद के भीतर बोलने की हिम्मत तो दिखाई है।
अध्यक्ष जी! हम जब चुनाव के समय जनता के पास जातें हैं तो जनता हमारे वादे से ज्यादा पार्टी के वादे पर विश्वास करती है। जब कोई पार्टी सदन में बहुमत से पीछे रह जाती है तो सांसदों की खरीद-फरोक्त का मामला सामने आता है। सिद्धान्तों को ताक पर रखकर संसद के बाहर और भीतर सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए सांसदों को लामबंध किया जाता है। दो विपरीत विचारधाराओं के सदस्य संसद में सरकार बनाने की पहल करते हैं इसमें कौन सी अक्ल काम करती है? अध्यक्ष जी! और यदि अक्ल काम भी करती है तो भैंस ही बनकर रहना है सदन में। पार्टी का आदेश मानते रहे तो सब ठीक-ठाक चलता रहेगा। अर्थात भैंस की तरह रहे तो ठीक अक्ल से काम लिया तो पार्टी से बाहार का रास्ता दिखा दिया जाता है। अक्ल तो सिर्फ चंद लोगों के पास ही कैद हो जाती है बाकी सबके सब भैंस ही बने रह जाते हैं। अब चुकीं बैगेर भैंस के संसद में कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं हो सकता तो कौन बड़ा और कौन छोटा इसका अंदाज आप खुद ही लगा लिजिए।
अध्यक्ष जी! आज संसद के हर सदस्य एक खुंटे से बंधे हुए हैं जिसकी कमान हाई कमान के पास रहती है। ऊपर से जो आदेश इनको मिलते हैं सिर्फ उन्हीं का पालन संसद में इनको करना पड़ता है मानो कि इनको किसी मैदान में चारा चरने के लिए छोड़ दिया गया है और जब उनको खेत जोतने की जरुरत हो जोत दिया जाता है।
अध्यक्ष जी! संसद के अन्दर सांसदों की इस दुर्गति के लिए खुद सांसद ही जिम्मेदार हैं। हमारी अक्ल तो चरने ही चली जाती है। इसलिए आज से इस कहावत का अर्थ बदल दिया जाना चाहिए।
अध्यक्ष जी! जब से इस कहावत का अर्थ अक्ल से जोड़ दिया गया तब से हम भी चारा भैंसों का ही चरने लगे हैं। इससे भैंस समाज को काफी क्षति का सामना भी करना पड़ा है। राह चलते ही जिसे मन आता है हमें गाली दे जाता है। हमारी नकल उतारने लगते हैं। रोजाना समाचार पत्रों में हमलोगों के खिलाफ कार्टून छापे जाते हैं। हमारी तो नाक ही कट जाती है जब पत्नी घर में अखबार देखती है तो सबसे पहले यही कार्टून देखती है और हंस कर कहती है आप भी इसी जमात के भाई हो। मन करता है हमें चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। मेरी माने तो किरण बेदी के साथ-साथ हमारे सभी राजनेताओं की पत्नियों पर भी अवमानना के मुकदमे चलाए जाने चाहिए। उसी प्रकार देश के तमाम समाचार पत्रों पर भी श्री ओम पुरी के साथ-साथ मुकदमा चलना चाहिए। ये समाचार वाले भी जब जो मन आता है राजनेताओं के उल्टे-सीधे कार्टून बना-बना कर छापते रहते हैं।
http://ehindisahitya.blogspot.com/
Written By Shambhu Choudhary on dated: 30.08.2011
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 8:34 pm 0 विचार मंच
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मंगलवार, 30 अगस्त 2011
शायर नन्दलाल रोशन का सम्मान
भारतीय वांग्मय पीठ ने शायर नन्दलाल रोशन का सम्मान किया
कोलकाता। भारतीय वांग्मय पीठ की ओर से कोलकाता में सुपरिचित शायर नन्दलाल सेठ रोशन को सम्मानित किया गया। भारतीय वांग्मय पीठ के संस्थापक व मंत्री प्रो.श्यामलाल उपाध्याय ने नन्दलाल रोशन के साहित्यिक अवदानों की चर्चा की। सम्मानस्वरूप श्री रौशन को सम्मानपत्र, शॉल व श्रीफल आदि प्रदान किए गए।
सभा की अध्यक्षता वरिष्ठ गीतकार योगेंद्र शुक्ल सुमन ने की। इस अवसर पर एक कवि गोष्ठी का आयोजन भी हुआ,जिसमें कुंवरवीर सिंह मार्तण्ड, प्रो,अगम शर्मा, रामेश्वरनाथ मिश्र, प्रदीप धानुक, आलोक चौधरी ने काव्य पाठ किया।
कोलकाता व आसपास के अंचलों से साहित्यानुरागी जनों ने इस कार्यक्रम में शिरकत की।
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 8:06 am 0 विचार मंच
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सोमवार, 29 अगस्त 2011
लोकतंत्र के प्रहरी?- शम्भु चौधरी
श्री रामचन्द्र गुहा सहित देश के तमाम विद्वानों को मेरी खुली चुनौती है कि वे अपने विचार इन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए दें। किसी व्यक्ति विशेष की कार्यशैली आपको हमको भले ही पसंद न आती हो, श्री अन्ना के आंदोलन से अलग-अलग मतभेद हो सकते है परन्तु संसद की मर्यादा के प्रश्न पर किसी को भी कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। जो बात संसद के अन्दर और बहार राजनैतिक तरीके से लड़ी जा सकती थी उसको संसद की मर्यादा के साथ जोड़कर आखिरकार क्यों लड़ी गई? क्या सरकार यह बताना चाहती है कि संसद सिर्फ चुने हुए चन्द सांसदों की ही धरोहर है? या सिर्फ राजनेताओं की जमींदारी है संसद? कि वे जैसा चाहे वहाँ बैठकर करते रहे जनता कुछ भी आवाज उठायेगी तो संसद की मर्यादा समाप्त हो जाऐगी तो फिर यह कैसा लोकतंत्र है?
कोलकातः 29 अगस्त 2011
संसद ने आखिरकार एक मजबूत लोकपाल बिल लाने का मार्ग प्रशस्त कर ही दिया। लगातार पाँच माह की आना-कानी के बाद सरकार सहित तमाम विपक्ष को लोकतंत्र के आगे सर झूकाना पड़ा। जिस संसद में जनता के द्वारा जनता के लिए जनता के प्रतिनिधि को देश की जनता चुन कर भेजती है उसी संसद के भीतर पंहुचकर यही सांसद, संसद को ढाल बनाकर खुद की नाकामी को छुपाने या जनता के जबाबों से बचने का प्रयास करती है तो हमें यह मान लेना चाहिए कि ये लोग देश की जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और देश के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करने में पूर्णतः असक्षम हैं। श्री कपिल सिब्बल एवं गृहमंत्री श्री पी.चिदम्बरम जी के कुतर्क ने पिछले एक माह से देश की जनता को झकझोर कर रख दिया था।
देश के इतिहास में संसद को इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में लाने के लिए पूरी संसद ही इसकी जिम्मेदार है। मजबूत लोकपाल बिल बनाने पर गत चार-पांच माह से सरकार सिविल सोसाएटी से बातें कर रही थी। एक सरकारी गजट के माध्यम से ड्राफ्टींग समिति भी बनाई गई। दो माह इस समिति में चर्चा भी की गई।
जैसे-जैसे सरकार की कलाई संसद में खुलती चली गई सरकारी लोकपाल बिल के मुद्दे पर घिरती चली गई और सड़कों पर जनता उतरने लगी। एक तरफ सरकार देश की जनता को गुमराह करने के लिए न सिर्फ कमजोर व अपंग लोकपाल बिल संसद में प्रस्तुत किया तो दूसरी तरफ श्रीमती अरुणा राय को अचानक से सामने ला खड़ा कर श्री अन्ना हजारे के एवं सिविल सोसायेटी के बिल को उलझाने का प्रयास करती दिखी। साथ ही इन दोनों स्थिति का बचाव करने के लिए सरकार ने अपने तर्क, सिद्धांत, संसद में बहस, जनता की राय को अनदेखा कर एक साथ पूरी संसद की प्रतिष्ठा को ही दाव पर लगा दिया। सरकार के इस तर्क को कि संसद की मर्यादा ही सर्वोच्चय है और संसद में ही बिल पर बहस होनी चाहिए अथवा संसद ही कानून बनाएगा आदि जैसे बयान से साफ होता दिख रहा था कि सरकार ऐन-केन-प्रकारेण का रास्ता अख्तियार कर भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने का प्रयास करती दिखाई दे रही है। जिस संसद के अन्दर आधे से अधिक सांसद पूर्णरूपेण न सिर्फ भ्रष्टाचार में संलिप्त हैं सत्ता के सौदागर बने हुए हैं। खुद प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंहजी ने भी संसद में स्वीकार किया की उनकी सरकार गठबंधन धर्म के आगे विवश है। इस संकेत से साफ जाहिर होता है कि देश की सत्ता सौदागरों के हाथों गिरवी रखी जा चुकी है। जो देश को हर कोने से नोच कर खा रहे हैं। अब चुकिं सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं बचा तो इन लोगों ने संसद को ही दाव पर लगा दिया।
मुझे तब अत्याधिक आश्चर्य होता है जब समाज का बुद्धिजीवी तबके के कुछ लोग भी जो खुद को लोकतंत्र का प्रहरी बताते नहीं थकते और सरकारी विज्ञापनों के माध्यम से सरकार का पक्ष प्रस्तुत करने में लगे हैं सरकार की इस चालाकी पर अभी तक कोई सवाल नहीं खड़े किए। मुझे समाज के उस तबके से भी बहुत निराशा हाथ लगी जो संसद की मर्यादा की बात तो करते दिखे पर लोकतंत्र को एक भीड़ की संज्ञा देने से नहीं चुके। सबसे दुखद तब लगा कि जो लोग राजनैतिक रूप से देश के संचालन का भार संभाले हुए हैं ये लोग संसद को अपनी जागिर समझ बैठे हैं। आम जनता की भावना से किसी को कुछ भी लेना देना नहीं। श्री अन्ना के विचारों से या जन लोकपाल से सबका सहमत होना या एकमत होना जरूरी नहीं। विचारों की टकराहट हो सकती है परन्तु सरकारी लोकपाल बिल पर किसी भी दृष्टि से टकराहट की भी कोई संभावना नहीं बनती इसे संसद में प्रस्तुत कर और संसद को ढाल बना भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए नये-नये तर्क देना कहाँ तक उचित है इसपर कोई कुछ नहीं कह पा रहा है।
श्री रामचन्द्र गुहा सहित देश के तमाम विद्वानों को मेरी खुली चुनौती है कि वे अपने विचार इन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए दें। किसी व्यक्ति विशेष की कार्यशैली आपको हमको भले ही पसंद न आती हो, श्री अन्ना के आंदोलन से अलग-अलग मतभेद हो सकते है परन्तु संसद की मर्यादा के प्रश्न पर किसी को भी कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। जो बात संसद के अन्दर और बहार राजनैतिक तरीके से लड़ी जा सकती थी उसको संसद की मर्यादा के साथ जोड़कर आखिरकार क्यों लड़ी गई? क्या सरकार यह बताना चाहती है कि संसद सिर्फ चुने हुए चन्द सांसदों की ही धरोहर है? या सिर्फ राजनेताओं की जमींदारी है संसद? कि वे जैसा चाहे वहाँ बैठकर करते रहे जनता कुछ भी आवाज उठायेगी तो संसद की मर्यादा समाप्त हो जाऐगी तो फिर यह कैसा लोकतंत्र है?
सरकार ने मजबूत लोकपाल बिल बहस के मुद्दे को संसद की गरिमा के साथ जोड़कर न सिर्फ अपनी अक्षमता का परिचय दिया, बल्कि देश के लोकतंत्र पर एक प्रश्न चिन्ह भी लगा दिया है। अपनी नाकामी को संसद की मर्यादा का जामा पहना कर सरकार ने एक गहरी साजिश देश की जनता के साथ की है। भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की या न कसने के इरादे को सरकार ने राजनीति तरीके से लड़ा होता तो कुछ बात समझ में आती है। परन्तु जिस प्रकार सरकार ने संसद की मर्यादा को ढाल बना कर विपक्ष सहित देश के तमाम बुद्धिजीवियों को बहकावे में लाने का प्रयास किया है यह इस सरकार के लिए ही नहीं देश की तमाम राजनैतिक दलों के लिए भी खतरनाक साबित हो सकता है।
सरकार ने मजबूत लोकपाल बिल बहस के मुद्दे को संसद की गरिमा के साथ जोड़कर न सिर्फ अपनी अक्षमता का परिचय दिया, बल्कि देश के लोकतंत्र पर एक प्रश्न चिन्ह भी लगा दिया है। अपनी नाकामी को संसद की मर्यादा का जामा पहना कर सरकार ने एक गहरी साजिश देश की जनता के साथ की है। भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की या न कसने के इरादे को सरकार ने राजनीति तरीके से लड़ा होता तो कुछ बात समझ में आती है। परन्तु जिस प्रकार सरकार ने संसद की मर्यादा को ढाल बना कर विपक्ष सहित देश के तमाम बुद्धिजीवियों को बहकावे में लाने का प्रयास किया है यह इस सरकार के लिए ही नहीं देश की तमाम राजनैतिक दलों के लिए भी खतरनाक साबित हो सकता है।
सरकार के इस दुर्भाग्य पूर्ण प्रयास को अभी तक किसी ने नहीं सोचा कि यह जिस आग से वे खेल रहे थे उनके ही हाथ जल गये इस हवन में। जिस संसद में सरकार को राजनैतिक निर्णय लेने थे सरकार संसद ही दांव पर लगा कर अपने राजनीति हितों की रक्षा करने में जूट गई थी। षुरू में ही यदि सराकर ईमानदारी से चाहती तो पिछले चार-पांच माह में जितनी बहस इस बिल को लेकर सरकार से हो चुकी थी सरकार एक सक्षम लोकपाल बिल संसद में प्रस्तुत कर सकने में आसानी से सक्षम हो सकती थी, परन्तु देश का यह दुर्भाग्य ही कह लें सरकार तर्क का सहारा लेती रही और देखते ही देखते जनता सड़कों पर उतर गई। संसद की गरिमा को ताक पर रख सरकार ने लोकपाल बिल का बचाव षुरू कर दिया। जबकि देश की जनता मंहगाई और भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए सरकार के साथ खड़ी थी परंतु सरकार ने उसे अपना दुश्मन मान कर जो व्यवहार करती दिखी। इससे न सिर्फ सरकार को, विपक्ष को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ी है। संसद को ढाल बना कर सांसदों की बयानबाजी सरकार व विपक्ष को कितना मंहगा पड़ा इसे सारी दुनिया ने देख लिया कि भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए सरकारी पक्ष ने संसद की गरिमा के साथ किस प्रकार खिलवाड़ किया। अन्ना के इस आंदोलन ने लोकतंत्र के प्रहरियों की कलाई खोलकर रख दी है।
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 8:21 pm 0 विचार मंच
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बुधवार, 24 अगस्त 2011
लोकतंत्र ने लोकतंत्र को ललकारा...
मानो संसद के अंदर एक ऐसी भीड़ जमा हो गई है जो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इस बात को पुख्ता कर रही है कि संसद के अंदर सारे सांसद देश को लूटने में लगे हैं। हमें आज इस बात को सोचने के लिए मजबूर कर रही है कि देश में लोकतंत्र को अब किस प्रकार बचाया जा सके। अब दो लोकतंत्र की लड़ाई आमने-सामने होती दिखाई देने लगी है। इस देश में अब साफ होता जा रहा है कि तमाम राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक होकर लोकतंत्र के माध्यम से ही लोकतंत्र पर कब्जा कर लोकतंत्र को ही ललकार रहे हैं।
आज श्री अन्ना जी के अनशन का 10वां दिन है। इस बात में अब कोई विवाद नहीं दिखता कि देश दो भागों में बंट चुका है। इतिहास के पन्नों में हर पल को बड़ी बैचेनी से देखा और लिखा जा रहा है। एक तरफ श्री अन्नाजी के समर्थन में जन सैलाब का उभरता आक्रोश है तो दूसरी तरफ लोकतंत्र की दुहाई देने वालों की जमात। इस देश की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि संसद में जिन सांसदों को जनता चुनकर भेजती है, संसद तक पंहुचते-पंहुचते उनके विचार किसी बंद दरवाजे में जाकर कैद हो जाते हैं। और लोकतंत्र सिर्फ चन्द सौदागरों के हाथों कठपुतली बनकर रह जाती है। मुझे अब ऐसा लगने लगा है कि जिस प्रकार इस देश में दो कानून, दो गीत, दो नाम हैं उसी प्रकार देश में दो लोकतंत्र भी है। एक संसद के भीतर का लोकतंत्र जो देश को लूटने में लगा है। जिसके अन्दर देश के सारे के सारे चोर, बेईमान और भ्रष्टाचारियों की जमात भरी हुई है जो आपस में मिलकर देश को भीतर ही भीतर खोखला किये जा रही है। दूसरी तरफ लाचार और वेबस लोकतंत्र जो अपनी बात कहने में डरती है। परन्तु आज जनता सामने आने का कदम उठा चुकी है। अब आर-पार की लड़ाई की शुरू होनी तय दिखती है।
यहाँ राजनैतिक रूप से तीन प्रमुख राजनैतिक विचारधाराओं का संक्षिप्त विश्लेशन करने का भी प्रयास करूगाँ।
कांग्रेस पार्टी: कांग्रेस पार्टी के लोकपाल बिल पर खुद के और श्रीमती सोनिया जी, प्रधानमंत्री श्री मनमोहान सिंह जी के बयान भले ही एक मजबूत लोकपाल के पक्ष में रहें हो परन्तु लगातार दो माह की जद्दो-जहद के पश्चात लोकसभा के पटल पर जो बिल प्रस्तुत किया गया उसे सिविल सोसायटी के सदस्यों ने पहले ही खारिज कर दिया था। इससे सरकार की न सिर्फ मंशा पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा हुआ साथ ही साथ सरकार ने जनता के साथ विश्वासघात भी किया है। सरकार ने पिछले अनशन के समय जिस विश्वास का पूल जनता के साथ निर्माण किया था जो एक धोखा निकाला। जिस लोकतंत्र की दुहाई देकर सरकार संसद को एक करने में जूटी वह आंसिक रूप से सरकार के साथ तो दिखी पर अपनी राजनीति भी इस बीच तलाशते दिखे। संसद के भीतर मानो एक अलग लोकतंत्र चलता है और संसद के बहार का लोकतंत्र अलग हो। शाहबानू या आपातकाल के समय कांग्रेसी सरकार ने संसद में जिस प्रकार नियम कायदे तौड़े सब भूल चुकी है। जहाँ वोट बैंक की राजनीति हो वह लोकतंत्र अलग है और जहाँ मंहगाई, भ्रष्टाचार की बात हो वहाँ सरकार को सारे नियम-कायदे और संसद की मर्यादा दिखने लगती है। इससे साफ जाहिर होता है कि लोकतंत्र को कांग्रेस पार्टी अलग-अलग चश्में से देखती है।
भाजपा पार्टी:
हिन्दूवादी विचारधारा को लेकर जन्मी भाजपा में राजनैतिक रूप से स्पष्ट विचारधारा की शून्यता साफ झलकती है। अब न तो इसके पास हिंदू विचारधारा बची ना ही राष्ट्रीय विचारधारा। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अब तक इस पार्टी के नेताओं के संसद के अन्दर और बहार जो भी बयान आयें हैं वे न सिर्फ निराशाजनक स्थिति की एक झलक दर्शाती है। लोकपाल या जन लोकपाल बिल को लेकर इस पार्टी ने कई बार इस तरह के बयान दिये जैसे इनके बोलने से भूचाल आ जाएगा परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। एक बार तो इसने यह भी कहा कि इनकी पार्टी लोकपाल पर सिर्फ संसद के अन्दर ही बोलगी। अब इसने सारी बात संसद में बोल दी है संसद में इनके बयान आते ही इस दल की न सिर्फ विश्वनियता समाप्त हो चुकी आने वाले समय में भाजपा का राजनैतिक सफाया निश्चित लगता है। जिसने राम को बेच डाला उसके मुंह से राष्ट्रीयता की बात कुछ भी समझ से परे है। इनके ‘‘प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग’’ वोट लेने के लिए कांग्रेसियों से भी दो कदम आगे निकल गए। कायदे-आजम मो. जिन्ना जी की मजार पर भी फूल चढ़ा आये। यदि ये अजमेर चले जाते तो कम से कम इनको सच में ईश्वर का आर्शीवाद प्राप्त होता।
माकपा पार्टी:
पिछले 30 सालों से बंगाल में मुझे इस दल को काफी नजदीक से देखने और समझने का अवसर मिला है। फिर भी आजतक इस दल मैं नहीं समझ सका। पिछले 35 साल बंगाल में राज की और इन 35सालों में 35 हिन्दीभासी को भी राष्ट्रीय स्तर पर नहीं जोड़ पाई। मजे की बात खुद को राष्ट्रीय पार्टी कहती है? जिन मजदूरों के हितों की बात करती है यह उनके परिवारों को ही खा जाती है। जिन किसानों के हक की बात करती रही आज उन किसानों की जमीनों को भी हड़प कर गई। जब भी देश को आतंकवाद से खतरा हुआ इसने कुछ भी नहीं कहा। जब भी देश पर विदेशी हमला हुआ इस दल ने चीन की भाषा का प्रयोग किया। मंहगाई की बात पर सड़क पर कुछ और, संसद में कुछ और बयान देती रही। जो खुद सड़कों से देश की सत्ता को चुनौती देती रही है आज देश का लोकतांतित्रक प्रक्रिया समझाने चली है।
मानो संसद के अंदर एक ऐसी भीड़ जमा हो गई है जो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इस बात को पुख्ता कर रही है कि संसद के अंदर सारे सांसद देश को लूटने में लगे हैं। हमें आज इस बात को सोचने के लिए मजबूर कर रही है कि देश में लोकतंत्र को अब किस प्रकार बचाया जा सके। अब दो लोकतंत्र की लड़ाई आमने-सामने होती दिखाई देने लगी है। इस देश में अब साफ होता जा रहा है कि तमाम राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक होकर लोकतंत्र के माध्यम से ही लोकतंत्र पर कब्जा कर लोकतंत्र को ही ललकार रहे हैं। जयहिन्द!
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 7:55 pm 1 विचार मंच
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मंगलवार, 23 अगस्त 2011
News: PM Letter to Sri Anna ji
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 7:12 am 0 विचार मंच
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जनता सड़कों पर क्यों?
फेसबुक पर दुनिया भर के युवक इस तरह के प्रश्न पूछते नजर आ रहें हैं कि क्या वैगेर किसी रक्त-पात के किसी आन्दोलन को आम जनता तक पंहुचाया जा सकता है? या फिर सरकार झूक जाएगी? जो खुद ऊपर से नीचे तक भ्रष्ट व्यवस्था की शिकार है?, या फिर यह भी पूछा जा रहा है कि विपक्ष इस मामले में दोहरा मापदण्ड क्यों अपना रही है? साथ ही राजनेताओं से जुड़े कई सवाल जो फेसबुक के माध्यम से जानने की चेष्टा कर रहे हैं।
इन सबके बीच ये लोग यह भी जानकारी करना चाह रहें हैं कि इस आंदोलन को किस तबके का समर्थन मिल रहा है। राजनैतिक पार्टीयों की भूमिका पर भी प्रश्न पूछे जा रहें हैं। यह भी प्रश्न किया जा रहा है कि सिर्फ हाथों में तिरंगा झण्डा और गांधी टोपी लगा कर आंदोलन करने से सरकार आपलोगों की बात मान जाऐगी?
जनता सड़कों पर क्यों?
अब होगा कि कल होगा,
लोकतंत्र का है देश ये यारो!
जब मन होगा क्या तब होगा।
क्या भ्रष्टाचार कम होगा?
होगा-होगा कल होगा।
क्या देश लूटना बंद होगा?
होगा-होगा कल होगा। (स्वरचित)
आज श्री अन्नाजी के अनशन का आठवां दिन होने जा रहा है उनकी सेहत में भी तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही है। भारतीय लोकतंत्र को दुनिया भर में आश्चर्य की निगाहों से देखा जा रहा है। भारत सहित विश्वभर में प्रदर्शन होने लगे। जन सैलाब उमड़ता जा रहा है। कल आघी रात के समय भी दिल्ली के रामलीला मैदान में हजारों की संख्या में समर्थक हाथों में फूल लिए ईश्वर से प्रार्थना करते देखे गये। देश भर में प्रर्दशन हो रहे हैं। सांसदों के घरों के बहार भी आंदोलनकारी जूटने लगे। अबतक देश के विभिन्न हिस्सों से 100 से भी अधिक सांसदों के घर के बहार विरोध प्रर्दशन किया जा चुका है।
कोलकात स्थित जिस जगह मेरा निवास है यहाँ भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मूर्ति के पास (सेन्ट्रल पार्क) पिछले पांच दिनों से नियमित रूप से रोजाना रात्रि 8 बजे सैकड़ों युवक एकत्रित हो मशाल जुलूस निकाल रहे हैं। गांधी टोपी पर लिखा होता है- ‘‘मैं अन्ना हूँ’’ कोलकाता शहर में चारों तरफ छोटी-छोटी टूकरियों में शांतिपूर्ण आन्दोलन-प्रर्दशन करते लोगों को देखा जा सकता है। शहर के आस-पास के ईलाकों में, जैसे रिसड़ा-हिन्दमोटर, बारासात, दमदम, हवड़ा आदि सभी जगहों पर जन लोकपाल व श्री अन्ना के समर्थन में नारे लगाए जा रहे हैं। इसके साथ ही यहाँ इस बात का भी जिक्र जरूरी है कि कोलकाता से प्रकाशित एक-दो समाचार पत्रों को अब कुछ कहने को नहीं मिला तो उसने विशाल जन समुह में होने वाली छोटी-मोटी हरकतों को ही छापना शुरू कर दिया ताकी यहाँ एक खास वर्ग को खुश रखा जा सके। वैसे भी अभी तक सरकारी कर्मचारी और राजनैतिक दलों का परोक्ष रूप से इस आंदोलन को समर्थन न के बराबर ही है। इसलिए इस आंदोलन को विशुद्ध सामाजिक आंदोलन कहा जाना मुझे ज्यादा उपयुक्त लगता है।
भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने की इस जन आन्दोलन में उमड़ता जन-सैलाब न सिर्फ लोकतंत्र को मजबूत कर रहा है दुनिया भर में इस आंदोलन पर बहस भी छिड़ चुकी है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की भ्रष्टाचार के खिलाफ इस मुहिम में हिस्सा ले रहे जन सैलाब पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही है। भारत के भ्रष्टाचार जन आंदोलन से आज दुनिया भर की युवा पीढ़ी प्रभावित दिखती है।
विश्व के कई देश भी भ्रष्टाचार की गिरफ्त में जकड़ चुके हैं। फेसबुक पर दुनिया भर के युवक इस तरह के प्रश्न पूछते नजर आ रहें हैं कि क्या वैगेर किसी रक्त-पात के किसी आन्दोलन को आम जनता तक पंहुचाया जा सकता है? या फिर सरकार झूक जाएगी? जो खुद ऊपर से नीचे तक भ्रष्ट व्यवस्था की शिकार है?, या फिर यह भी पूछा जा रहा है कि विपक्ष इस मामले में दोहरा मापदण्ड क्यों अपना रही है? साथ ही राजनेताओं से जुड़े कई सवाल जो फेसबुक के माध्यम से जानने की चेष्टा कर रहे हैं।
इन सबके बीच ये लोग यह भी जानकारी करना चाह रहें हैं कि इस आंदोलन को किस तबके का समर्थन मिल रहा है। राजनैतिक पार्टीयों की भूमिका पर भी प्रश्न पूछे जा रहें हैं। यह भी प्रश्न किया जा रहा है कि सिर्फ हाथों में तिरंगा झण्डा और गांधी टोपी लगा कर आंदोलन करने से सरकार आपलोगों की बात मान जाऐगी? जिसने एक लम्बी चर्चा के बावजूद विवादित बिल ही सदन के पटल पर प्रस्तुत कर संसद की स्थाई समिति को भेज दी हो ऐसी सरकार से आपलोग किस तरह की अपेक्षा रखते हैं। भारत सरकार की मंशा पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े किए जा रहे हैं कि इस बात की क्या गारंटी है कि स्थाई समिति पुनः समय लेकर इस आंदोलन को शांत कर दे, जैसा सरकार ने पहले भी किया था ज्वांईड ड्राफ्टींग कमेटी बना कर। जिसका परिणाम सिर्फ उनकी भ्रष्ट मानसिकता ही निकली सरकारी लोकपाल बिल के रूप में।
साथ ही यह भी जानकार ली जा रही है कि जिस संसद में भ्रष्ट लोगों का ही बहुमत है और विपक्ष भी जन लोकपाल पर पूरी तरह सहमत नहीं तो यह कैसे संभव हो पायेगा कि यही संसद जन लोकपाल को संसद में स्वीकार कर पारित कर देवें? साथ ही यह शंका भी जाहिर की जा रही है कि सरकार और विपक्ष दोनों ही मजबूत व प्रभावी लोकपाल की बात कर रही है। तब फिर देश की जनता सड़कों पर क्यों उतर गई?
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 6:17 am 0 विचार मंच
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रविवार, 21 अगस्त 2011
हम लाये हैं तूफान से...
कोलकाता: 21 अगस्त 2011 रविवार रात्रि 11 बजे।
देश के हर जिम्मेदार नागरिक का यह दायित्व बनता है कि पहले हम अपने देश को इस जन-सुनामी से बचाऐं। इस वक्त राजनीति और राजनैतिक दलों की विचारधाराओं को ताक पर रखकर सबको सामने आना चाहिए। जो दल आज के समय इसमें राजनीति करने का प्रयास करेगा वह देश को जन-सैलाब को आग में धकेलने का काम करेगा। अभी तक यह आन्दोलन श्री अन्ना हजारे व इनके सदस्यों के नियंत्रण में है। अहिंसक है। गांधी टोपी में है। यदि किसी ने भी किसी भी तरह से बचकानी हरकतें की या जैसे पूर्व में कांग्रेस की तरफ से बचकाने बयान दिए गए। एक छोटी सी भी चुक चाहे वह किसी भी राजनैतिक दल से ही क्यों न हो देश को उदेल कर रख देगी।
श्री कुंवर प्रीतम जी की एक मुक्तक से आज का लेख शुरू करता हूँ-
सितम की वादियों में गुल नया हमको खिलाना है
चमन को आज माली से खुद हमको ही बचाना है।
नुमाइंदे बने दुश्मन अपने देश के यारो,
हरेक आघात का प्रतिघात अब करके दिखाना है।। -कुंवर प्रीतम
इस लेख को अब कोई अपनी आंखें बन्दकर के भी पढ़ेगा तो ईश्वर उसको भी सम्मति देगा। कलतक जो लोग अन्ना हजारे पर अंगुलियां उठाने का साहस कर रहे थे। आज मुम्बई के आजाद मैदान और दिल्ली के रामलीला मैदान से लेकर भारत के शहर-शहर, गांव-गांव में उमड़ा जैन सैलाब एक ही नारे से सारा दिन गूंजता रहा ‘‘अन्ना तुम आगे बढ़ो - हम तुम्हारे साथ हैं।’’ रामलीला मैदान से श्री अन्ना हजारे ने फिर से यह बता दिया कि यह लड़ाई इतनी आसान नहीं है। इसके लिए उन्होंने देश की जनता को कहा - शुद्ध आचार-शुद्ध विचार, निष्कलंक जीवन और थोड़ा सा त्याग करना। साथ ही देश की जनता को आह्वान किया की अभी हमको देश के किसानों की लड़ाई भी मिलकर लड़नी होगी। हमें देश में परिवर्तन की क्रांति लानी होगी। उमड़ते जनसैलाब ने सारे देश को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। जो लोग कल तक श्री अन्ना और सिविल सोसायटी के सदस्यों को एक भीड़ की संज्ञा देकर अपने तर्क से देश के कानून की दुहाई दे रहे थे, आज ऐसे लोगों की जबानों पर माना किसी ने ताला जड़ दिया है।
लिखने वाले कलमकारों को देश की सच्चाई लिखने के लिए बाध्य होना पड़ा। कल तक जो पत्र सरकारी दलाल बने हुऐ थे उनके समाचार पत्रों को भी सारे समाचार मजबूरन छापने पड़े। सरकार सोचती रही कि देश की जनता गूंगी है उसको सिर्फ राजनैतिज्ञ ही जबान दे सकते हैं के सारे मनसुबे पर पानी फिर गया। कांग्रेस सहित तमाम राजनैतिक दलों की जमीन सरकती नजर आने लगी। देश के पिछले 100 वर्षों के इतिहास में या आजादी के पहले और आजादी के बाद न किभी किसी ने इस तरह का जन सैलाब देखा है न आगे देखने को मिलेगा। यह एक नया इतिहास भारत की धरती पर रचा जाने लगा है। जो विशुद्ध देश के राजनेताओं के वैगेर लड़ा जा रहा है। जिसमें देश की तमाम सियासी पार्टियां अभी तक खुद को इस आंदोलन से अलग-थलग पाती है। इसे इस तरह लिखा जाए तो ज्यादा उचित प्रतीत होता है कि श्री अन्ना जी ने अपने मंच का प्रयोग इन राजनैतिक नेताओं को नहीं करने दिया।
आज जब रामलीला मैदान से श्री अन्ना जी कहा कि ‘‘जन लोकपाल लाओ या फिर जाओ’’ तो सारा हिन्दुस्तान तालियों की गूंज से गूंज उठा। श्रीश्री रविशंकर जी ने यहाँ तक कह दिया ‘‘समय हाथ से निकलते जा रहा है।’’ देश में इस बात के कई मायने लगाये जाने लगे हैं। इस समय जो लोग नियम कायदे की बात कर रहे हैं वे ही लोग दिनभर उसी संसद में बैठकर सारे कायदे-कानून तौड़ते रहे हैं। जो लोग नैतिकता का पाठ जनता को सिखा रहे हैं। उनकी खुद की नैतिकता तब कहाँ चली जाती जब वे सरकारी मेहमान नबाजी का लुफ्त उठाते हैं?
दोस्तों! कुछ बातें इतिहास तय करती है कि क्या गलत हुआ और क्या सही। जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस से खुद को अलग कर ‘‘आजाद हिन्द फौज’’ का गठन कर यह नारा दिया कि ‘‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’’ तो इसी तरह उस समय भी कांग्रसियों ने उनका जमकर मजाक उड़ाया था। जब खुदीराम बोस मुज्जफ्फरपुर जाकर अंग्रेज के एक जज पर गोली चलाई तो इन लोगों ने उसे पागल करार दे दिया था। कोई भी स्व.बोस को बचाने के लिए एक शब्द तक नहीं कहा यहाँ तक की गांधी जी ने भी नहीं। लोगों को यह विश्वास था कि शायद अंग्रेज गांधी जी के कहने से खुदीराम की सजा आजीवन कारावास में बदल दें, परन्तु किसी ने जबान तक नहीं खोली।
दोस्तों! समझदारों की हद हो सकती है परन्तु पागलपने की कोई हदें नहीं हुआ करती। सोच समझकर कोई जनसैलाब न तो कभी खड़ा किया गया है न ही किया जा सकता है। देश में उमड़ता यह जन सैलाब इस बात का प्रमाण है कि एक तरफ सरकार के समझदार व पढ़े लिखे लोग हैं जिनको नियम कायदें का पालन करना है व दूसरी तरफ पागलपन। देश में उमड़ता जन सैलाब, मानो जन-सुनामी बन गया है जो भारत में किस-किसको अपने आगोश में बहा ले जायेगी किसी को पता भी नहीं चलेगा। सबके सब सोचते ही रह जाएंगें और कब इस सुनामी के भैंट चढ़ जाएंगें।
आज न सिर्फ सोचने का समय है हमें सावधान होकर लिखने का भी वक्त है। देश के हर जिम्मेदार नागरिक का यह दायित्व बनता है कि पहले हम अपने देश को इस जन-सुनामी से बचाऐं। इस वक्त राजनीति और राजनैतिक दलों की विचारधाराओं को ताक पर रखकर सबको सामने आना चाहिए। जो दल आज के समय इसमें राजनीति करने का प्रयास करेगा वह देश को जन-सैलाब को आग में धकेलने का काम करेगा। अभी तक यह आन्दोलन श्री अन्ना हजारे व इनके सदस्यों के नियंत्रण में है। अहिंसक है। गांधी टोपी में है। यदि किसी ने भी किसी भी तरह से बचकानी हरकतें की या जैसे पूर्व में कांग्रेस की तरफ से बचकाने बयान दिए गए। एक छोटी सी भी चुक चाहे वह किसी भी राजनैतिक दल से ही क्यों न हो देश को उदेल कर रख देगी। अतः बड़ी सावधानी से हमें इस अंगड़ाई लेते जन-सैलाब के सामना करना होगा। मुझे आज यह लिखना पड़ रहा है। कल तक मेरी कलम की धार बहुत तीखे और नुकेली थी परन्तु आज मैं देश के युवकों से इन पंक्तियों के साथ निवेदन करुंगा -
हम लाये हैं तूफान से किस्ती निकाल कर,
इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल कर।
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 7:19 pm 1 विचार मंच
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गुरुवार, 18 अगस्त 2011
देख लो सारा वतन!
"देश की जनता जब अपने मूंह पर पटी बांध ले तो या तो आप इसे विरोध कह दिजीए या इन्हें गूंगा इसके दोनों ही अर्थ निकाले जा सकते हैं। यह सोचने और समझने की बात है। अन्ना आज यदि देश को गुमराह कर रहे हैं तो देश का कोई एक नेता तो सामने आकर जनता को समझा सके कि अन्ना की बात पर आपलोग अपने घरों से न निकले। कल मैंने अपनी आंखों से कोलकाता शहर में देखा कि जो लोग कभी राजनीति पर बोलना नहीं चाहते वे गांधी टोपी पहने कर मरने मारने को तैयार खड़े थे। इस सरकार को अन्ना व उनकी टीम का शुक्रगुजार होना चाहिये कि आज के युवाओं के माथे पर गांधी टोपी पहनाकर केन्द्र की लापरवाही से विकाराल रूप धारण करते इस आंदोलन को अहिंसा का पाठ पढ़ा दिया। जबकि जयप्रकाश जी का आन्दोलन या श्री वी.पी.सिंह के आंदोलन में सिर्फ हिंसा के अलावा कुछ नहीं था। "
एक गांधी फिर यहाँ जन्म लेकर चल पड़ा है,
देख लो सारा वतन!
देश, फिर से उसके पीछे ही खड़ा है।
सरकार यह मानती है कि जैसे ही मां के पेट में बच्चा गर्भ धारन कर लेता है उसका सीधे आपरेशन कर दिया जाना चाहिए ताकी माँ की जान को कोई खतरा न हो। श्री अन्ना हजारे की सोच भी इसी खतरे की आशंका जाहिर कर रही थी कि कहीं श्री अन्ना हजारे गर्भ से निकलकर संसद की गरिमा के लिए खतरा न पैदा कर दें। कारण साफ था वाममोर्चा संसद इसलिए चलाना चाहती थी कि वे श्री जस्टीस सेन पर महा अभियोग ला सके। दूसरी तरफ भाजपा ने पहले ही साफ कर दिया था कि वे श्री अन्ना द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल बिल के कई बिन्दूओं से सहमत नहीं है। सत्ता पक्ष को इनके दरार का न सिर्फ लाभ ही मिल रहा है साथ ही सत्ता पक्ष श्री अन्ना को व इनके लाखों समर्थकों को भी कठघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रही है। इसी क्रम में कांग्रसी प्रवक्ता श्री मनीष तिवारी जी का श्री अन्ना के प्रति जहर उगलना व केंद्रीय मंत्री श्री सुबोध कांत सहाय ने उन्हैं तो पागल तक कह डाला। जरा आप ही सोचिए यदि मनमोहन सरकार के प्रायः सभी मंत्रीगण जिसमें प्रमुख रूप से श्री कपिल सिब्बल जी, प्रणब दा, अम्बीका सोनी जी और विद्वान वोट बैंक की चिन्ता करने वाले श्री मान् दिग्विजय सिंह जी जैसे समझदारों की जमात भरी हो तो उसकी नैया खुद ही भगवान डूबा देगा। इसके लिए किसी पागल की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
डा.मनमोहन सिंह ने लाल किले से 15 अगस्त को देश के नाम हिन्दी में एक संदेश पढ़ा। उनकी बात विपक्षी सदस्यों को समझ में नहीं आयी या उनकी बात को वे शायद समझ नहीं सके। इसीलिए पुनः अगले ही दिन फिर उनको संसद में आकर बयान देने को कहा गया। विपक्ष सोचते हैं कि वें संसद को कभी न चलने देने के नाम पर, कभी चलने देने के नाम पर, देश की जनता को जिस प्रकार मुर्ख बनाते रहें हैं। उसी प्रकार कभी संसद की व्यवस्था धारा 72, तो कभी 184, कभी गृहमंत्री जी के बयान के नाम पर देश को गुमराह कर देश में लोकतंत्र की रक्षा कर रहें हैं।
महिला बिल हो या लोकपाल बिल, कभी सहमति तो कभी असहमति, कभी दुहाई तो कभी गुमराह करते रहते हैं मानो देश की सारी जनता तो अनपढ़ और गंवार है। कुछ समझती तो है नहीं? अब तो ऐसा आभास भी होने लगा कि जो लोग चुन कर संसद में जाते हैं या जिनकी राज्यसभा में लाटरी खुल जाती है वे ही देश के भाग्य निर्माता हैं बाकी सारे लोग या तो पागल हैं या उनके विचारों का कोई मूल्य नहीं है। कारण साफ है देश में संसद की मर्यादा ही सर्वापरि है, इसके बाद देश के मंत्री-संत्री आते हैं जिसकी आवभगत में सारा हिन्दुस्तान पलकें विछाए खड़े रहता है। चुनाव मे जीत क्या दर्ज हो जाती है ये रातों-रात अपने घर की छतों से ही छलांग लगाकर अकाश में पंहुच जातें हैं फिर तो पांच साल देश को लूटने का एक प्रकार से सरकारी आदेश इनकें हाथों में चुनाव आयोग थमा देता है। कभी-कभी राज्यों में भी ऐसा ही देखने को मिला है। जिसमें कुछ वर्षों पहले बिहार और अभी कर्नाटका राज्य में हमें देखने को मिला है।
खैर ! प्रधानमंत्री जी संसद में आये एक अंग्रजी में छपा-छपाया अपने बयान की प्रति संसद में खड़े होकर वितरित करवा दिए। उसको पढे़ और चल गये। कारण साफ था न तो विपक्ष में इतनी क्षमता है कि वे प्रधानमंत्री को कह सके कि साहेब अभी जातें कहां है? जनता की बात भी सुनते जाइए न ही इनमें कोई खुद की इच्छा शक्ति ही थी की वे संसद के अन्दर बैठे सांसदों का मान रख पाते। विपक्षी भाषण की कड़ी में एक मात्र श्री शरद यादव के भाषण को छोड़ कर सबने अपनी दाल ही गलाने की चेष्टा की बस। सरकार बार-बार चिल्लाती है कि श्री अन्ना संसदीय कार्यों पर अलोकतांत्रिक तरिके से दबाब बनाने का प्रयास कर रही है। कानून बनाने का कार्य संसद का है। तो किसने कहा कि आप कानून अन्ना जी के घर जाकर बनाऐं। जब लोकतंत्र के रक्षक देश की जनता के साथ अलोकतंत्रिक व्यवहार करने लगते हैं तब-तब देश की जनता सामने हो मुखर होती रही है। सरकार को देश के विकास की चिन्ता अचानक से सताने लगी। मंहगाई सर उठाकर सीना ताने खड़ी है। भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पार कर चुका है। देश के प्रधानमंत्री जी खुद अर्थशास्त्री हैं इसलिए देश की अर्थ व्यवस्था भी इनके चिन्ता का कारण है। इन सबमें सबसे बड़ी चिन्ता इनको लोकतंत्रिय ढांचे को चुनौति की है। जब इतनी सारी चुनौतियों का सामना इनको करना ही था तो एक नई चुनौति और क्यों पैदा कर ली सरकार ने। अभी भी समय है कि संसद के बेइमानों को विश्वास में न लेकर प्रधानमंत्री जी जनता को विश्वास में लें। संसद का अर्थ होता है लोकतंत्र और लोकतंत्र में जनता सर्वोच्य होती है न कि मंत्रिमंडल। बाबा रामदेव को जिस लाठी से आपके शातिरों ने हांकने की चेष्टा की उसी रणनीति को आप अन्नाजी पर प्रयोग करने की भूल कर रहें हैं। संभवतः कहीं यह आपकी सरकार की कब्र न खोद डाले।
मेरे बहुत सारे पत्रकार संपादकों ने भी यह प्रश्न खड़ा किया कि ‘‘पांच सदस्यों की टीम की बात आखिर क्यों सुनी जाए? इस प्रकार तो हर कोई खड़ा होकर बोलने लगेगा कि अमूक कानून बनाओ।’’ भाई! या तो इनलोगों ने अपनी कलम को सरकार के पास गिरवी कर रखी है या फिर इनका दिमाग खाली हो चुका है। देश में पाँच की बात तो छोड़िये जनाब एक दो राज्य सरकारें भी मिलकर चेष्टाकर के दिखा दिजिए की वे संसद से अपने मन चाहा कानून पास करवा लेवें। महिला बिल पर पूरी संसद एक है सिर्फ 20-25 सांसदों ने धमकी क्या दी सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिए। जिस बात को लेकर ये लोग बहस चला रहें है उसमें जयप्रकाश जी के आन्दोलन से अन्ना के आन्दोलन की तूलना भी की जा रही है। शायद या तो ये लोग जानबूझ कर अनजान बने हुए हैं या सोचते है कि वे जो कहते हैं जनता सिर्फ इतना ही पढ़ती और जानती है।
स्व.जयप्रकाश नारायण जी का आन्दोलन आपातकाल की स्थिति से पैदा हुआ था, जिसमें तमाम विपक्ष को सरकार ने जेलों में बन्द कर दिया था इसलिए तमाम विपक्ष एकजूट होकर स्व.जयप्रकाश के आंदोलन को अपने स्वार्थ के लिए हवा दे रही थी। जबकि आज के आंदोलन को एक मात्र अन्ना हजारे चला रहें हैं और सारा देश एक रात में अन्ना-अन्ना हो गया। इसमें न तो किसी विपक्ष का ही सहयोग है ना ही किसी राजनैतिक पार्टी से श्री अन्ना ने सहयोग ही मांगा है। हां! लोकतंत्र में आस्था यदि नहीं होती तो वे अपना पहला अनशन समाप्त ही क्यों करते? सरकार के साथ टेबल पर बैठने का सीधा सा अर्थ था कि लोकतंत्र में आस्था व्यक्त करना। न सिर्फ अन्ना की टीम सरकार से बातें की। विपक्ष के सभी प्रमुख दलों से भी मिलकर अपनी बातों को उनके सामने रखा। इसके बावजूद सरकार ने संसद मे बिल प्रस्तावित कर दिया तो इस पर बहार बहस नहीं हो सकती यह किस कानून में लिखा है? दहेज कानून तो आज भी बन जाने के बाद बहस का मुद्दा बना हुआ है इसी प्रकार जमीन अधिग्रहण कानून अपनी मुंह के बल चारों खाने चित होकर रो रहा है। उच्चतम न्यायालय जो कभी इस कानून के पक्ष में एकतरफा फैसला दिया करता था आज उसने भी कह दिया कि यह कानून देश के साथ एक धोखा है।
देश की जनता जब अपने मूंह पर पटी बांध ले तो या तो आप इसे विरोध कह दिजीए या इन्हें गूंगा इसके दोनों ही अर्थ निकाले जा सकते हैं। यह सोचने और समझने की बात है। अन्ना आज यदि देश को गुमराह कर रहे हैं तो देश का कोई एक नेता तो सामने आकर जनता को समझा सके कि अन्ना की बात पर आपलोग अपने घरों से न निकले। कल मैंने अपनी आंखों से कोलकाता शहर में देखा कि जो लोग कभी राजनीति पर बोलना नहीं चाहते वे गांधी टोपी पहने कर मरने मारने को तैयार खड़े थे। इस सरकार को अन्ना व उनकी टीम का शुक्रगुजार होना चाहिये कि आज के युवाओं के माथे पर गांधी टोपी पहनाकर केन्द्र की लापरवाही से विकाराल रूप धारण करते इस आंदोलन को अहिंसा का पाठ पढ़ा दिया। जबकि जयप्रकाश जी का आन्दोलन या श्री वी.पी.सिंह के आंदोलन में सिर्फ हिंसा के अलावा कुछ नहीं था। हाँ! देश की संसद में बैठ कर खुद को जो लोग सुपर पावर समझ बैंठे हैं उनके पास अभी भी समय है कि वे देश के कुछ जाने-माने लोगों को विश्वास में लेकर टीम अन्ना के सदस्यों से राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए उनके सूझाए गए प्रस्तावों पर गंभीर चर्चा जल्द से जल्द प्रारंभ करें अन्यथा यह आग संसद की मर्यादा पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ी कर सकती है। आज इसे जो लोग फेसबुक का फैशन समझ रहे हैं उनकी जमीन न हिला दे यह फेसबुक। अभी हाल ही दो देशों में इसका जमकर युवाओं ने प्रयोग किया और सरकार 21 दिनों में ही सतह पर खड़ी दिखाई देने लगी। जबकि वहां लोकतंत्र था ही नहीं सारे मीडिया वाले व पत्रकार सरकार के बंधुवा मजदूर थे। भारत में तो लोकतंत्र है इस बात को मेरे मित्र जरा ध्यान में रखेगें तो अच्छा रहेगा। जय हिन्द!
-- कोलकात, दिनांकः 17 अगस्त’2011 द्वारा - शम्भु चौधरी
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 6:56 pm 0 विचार मंच
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सोमवार, 15 अगस्त 2011
संसद को भ्रष्टाचारियों का ग्रहण
‘‘जिस लोकतंत्र पर हम नाज करते हैं वह चन्द राजनेताओं की व राजनैतिक दलों की रखेल बन चुकी है। जिसका मन आया इसको नचाया मन भर गया तो दूसरे को भी मजा लेने का मौका दे दिया गया। एक गया दूसरा आया जनता सोचती ये हमारे लोग हैं जो चुन कर दिल्ली में जातें हैं पर दिल्ली पंहुचते ही ये सत्ता के दलाल बनकर देश को बेचने का सौदा इसी लोकतंत्र के मंदिर में करने लगतें हैं। तब इन बेशर्मों को संसद की मर्यादाओं का तनिक भी ख्याल नहीं आता, उस वक्त देश की कौन कितनी बड़ी बोली लगाता है इसकी जोड़-तोड़ शुरू कर देते हैं यही लोग।’’
जल जायेगी धरती जब सत्ता के गलियारों में,
भड़क उठेगी ज्वाला तब नन्हे से पहरेदारों में।(स्वरचित)
दोस्तों! यह लेख देश की दूसरी आजादी के पूर्व संध्या की लड़ाई के अवसर पर लिख रहा हूँ। आज हम आजादी की 65वीं वर्षगांठ मनाने के लिए जैसे ही छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में तिरंगा झंडा थमाऐ बच्चे जोर से चिल्ला पड़े ‘‘अन्ना हजारे हम आपके साथ हैं।’’ हम खड़े देखते ही रह गए मानो किसी ने बच्चों के दिमाग को पागल बना दिया हो। देश की इस स्थिति के लिए हम सबके सब जिम्मेदार हैं। जिस संसद की मर्यादा रखना हम सबका न सिर्फ कर्तव्य, दायित्व भी बनता है, दुनिया के लोकतंत्रिय इतिहास के सबसे बड़े मंदिर के अन्दर चोर-बेइमानों का जमावड़ा हो चुका है। हमारी चुनाव प्रणाली बेइमानों को चुनने का मात्र एक साधन बनकर रह गयी है। जिस लोकतंत्र पर हम नाज करते हैं वह चन्द राजनेताओं की व राजनैतिक दलों की रखेल बन चुकी है। जिसका मन आया इसको नचाया मन भर गया तो दूसरे को भी मजा लेने का मौका दे दिया गया। एक गया दूसरा आया जनता सोचती ये हमारे लोग हैं जो चुन कर दिल्ली में जातें हैं पर दिल्ली पंहुचते ही ये सत्ता के दलाल बनकर देश को बेचने का सौदा इसी लोकतंत्र के मंदिर में करने लगतें हैं। तब इन बेशर्मों को संसद की मर्यादाओं का तनिक भी ख्याल नहीं आता, उस वक्त देश की कौन कितनी बड़ी बोली लगाता है इसकी जोड़-तोड़ शुरू कर देते हैं यही लोग। जिसे लोकतंत्र का नाम देकर देश के लुटने का जरिया बनाकर जनता पर हुक्म चलाते हैं जब इनकी बात न सुनी जाती तो संसद को चलने नहीं देते तब इनकी सभी कुकृत्य लोकतांत्रिक है। परन्तु जब जनता कुछ कहे तो उसको चुनकर आने या अर्मायदित शब्दों का प्रयोग कर संसद की गरिमा की दुहाई देते हैं। मानो संसद इनकी बपौती हो गई हो।
उसने कहा मैं पगल, मैं सोचा कि ‘मैं’ पागल।
जब सच में हुआ मैं पागल, तो मुझको दिखा हम सब पागल।।
दोस्तों! बैगर पागलपन के कोई लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। आज हम जिस चौराहे पर खड़ें हैं इसका एक रास्ता सीधा हम सबको खाई में धकेल देगा। हम जिसे लोकतंत्र समझतें रहें हैं वही लोकतंत्र घून की तरह हमारे देश को गत 64 वर्षों से लुटने का माध्यम बना हुआ है। आज उस पर ताला जड़ने और इन तमाम बेईमानों की काली कमाई को बन्द करने की आवाज उठाने की देश के कुछ ही लोगों ने थोड़ी सी हिम्मत ही की थी, कि इनकी बौखलाहट देखिये किस प्रकार देश की सारी ताकतों को चार-पाँच लोगों की जाँच करने के लिए झौंक डाली। संसद में बैठे किसी चोर ने उफ तक न की सारे के सारे जबान पर ताला लगा कर इनकी करतुतों का समर्थन करने लगे। जब इन बेईमानों का लेखा-जोखा और पिछले 64 सालों का खाया पीया निकाला जाएगा तब इनको कौन बचायेगा? अब समय आ गया है इन बेइमानों के सारे काले कारनामें का एक लम्बा इतिहास लिखा जाए।
आज संसद से ज्यादा जरूरी है देश को इन बेइमानों से बचाना। इसके लिए संसद के इनके काली कमाई करने के कार्यों पर ताला लगा कर देश में एक नए संविधान रचने के लिए जनता को कुर्बानी देनी ही होगी। शायद दुष्यंत कुमार ने इसी दिन के लिए यह लिखा था-
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, पर अंधेरा देख तू- आकाश के तारे न देख।
ऐ दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।
दोस्तों जिस भाषा का प्रयोग कांग्रसीगणों ने समाजसेवी आदरणीय श्री अन्ना जी के लिए किया यह इनका अहम है। इनको इस बात का गुमान हो चला है कि सत्ता के सिर्फ वे ही मालिक है एवं सिर्फ इनको ही देश सेवा का अवसर मिला है। जिस संविधान ने हमें देश में सिर्फ भ्रष्टाचारों की फौज भर दी हो उसको बदल डालना जरूरी हो गया है। अब सिर्फ लोकपाल बिल से इस देश को नहीं बचाया जा सकता। चाहे जन लोकपाल हो या सरकारी लुटेरों का सरकारी लोकपाल। इस देश को इससे कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है देश के नये संविधान लिखने की और यह इस संसदीय व्यवस्था के अंर्तगत कदापी नहीं लिखा जा सकता। अतः जबतक हम किसी नए संविधान को लिखने में समर्थ न हो जाते तब तलक देश के इस मंदिर को बंद कर सामने ताला लगा दिया जाना चाहिए। मानो अब देश को एक प्रकार से संसद को भ्रष्टाचारियों का ग्रहण लग चुका है।
पुनः दुष्यंत जी कि इस पंक्ति के साथ अपनी कलम को आज विराम दूँगा-
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 5:51 pm 0 विचार मंच
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रविवार, 14 अगस्त 2011
व्यंग्यः लाल किले से प्रधानमंत्री का भाषण
15 अगस्त 2011: लाल किले से भारत के भ्रष्टतम प्रधानमंत्री श्री डा.मनमोहन सिंह जी के भाषण की मूल प्रति आज ही हम देश कि जनता के सामने जारी करने जा रहें हैं।
देश की धर्मनिरपेक्षता पर भी हमला होने वाला है। लोकतंत्र खतरे में दिखाई दे रहा है। संसद की मर्याद को भी ताख पर रखा जा रहा है। देश में संविधान को भी जलाया जा रहा है जो हमारे देश के गाण्तंत्र के लिए एक चुनौती बनती जा रही है। हमारी बेइमानी पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया जा रहा है। हमने चार मंत्रियों को जेल भेज दिया फिर भी हमपर विश्वास नहीं किया जा रहा है।
मेरे देशवसियों,
सोनिया जी! आप सभी जैसा कि जानते हैं कि इस आजादी को हमने बड़ी मुश्किल से प्राप्त की है कितनी मुश्किलों से हमारे देश में चुनाव होते हैं। चुनाव के समय सारा जमा कालाधन आपलोगों के बीच ही वितरित कर दिया जाता है। फिर इस धन को जमा करने के लिए हमें वापस भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ता है। अब सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ! देश की सेवा करना है तो सबको सोनिया जी की सेवा करनी ही चाहिये ये भारत की माता से भी बढ़कर है। अभी-अभी उसका किसी गुप्त जगह में आपरेशन हुआ है यह गठबंधन धर्म की मजबूरी है। मेरी लाचारी भी है कि मैं डाक्टर होते हुए भी उनकी बीमारी का इलाज नहीं कर सका मुझे डूब मरना चाहिये था परन्तु अभी तक मैडम ने मुझे डूब मरने के लिए नहीं कहा है। सबकी सब बीमार आजकल लाइलाज हो चुकी है। देश की कानून व्यवस्था से लेकर अर्थ व्यवस्था तक नक्सलवाद से लेकर अन्ना की ब्लैकमेलिंग तक। संसद से लेकर विधानसभओं तक। सब अपनी मनमानी करने में लगे हैं। अब सोनिया जी ने भी हमें कुछ नहीं बताया नहीं तो कम से कम हम उनको एयरपोर्ट तक तो छोड़ने जा ही सकते थे। सबकुछ मेरी जानकारी में होते हुए भी मेरी जानकारी में नहीं होता, कारण आप जानते ही हो मुझे देश से ज्यादा मेडम की चिन्ता रखनी पड़ती है।
प्यारे देशवासियों!
आज देश में देशप्रमीयों का आतंक छाया हुआ है..सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ! हमें इस आतंकवाद से लड़ने की जरूरत है। ये लोग अफजल से भी ज्यादा खतरनाक आतंकवादी है इन्हें विदेशों से भी बड़ी संख्या में सहयोग मिल रहा है। हर तरफ से लोकतंत्र की चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने की साजिश रची जा रही है। आज देश को देश की जनता से ही खतरा पैदा हो गया है। हमें इसका जमकर सामना करना पड़ेगा। संभव हुआ तो हमें विदेशों से भी जिसमें अलकायदा जैसे देश भक्तों जैसे संगठन को भी साथ में करना होगा। कसाब व अफजल जैसे देश के वफादारों को माफी देकर उनको मंत्री बनाने की भी हमारी योजना है। इस पर हम जल्द ही कोई ठोस निर्णय लेने का मन बना रहे हैं। ताकी अगले मंत्रीमंडल विस्तार के समय इनको देश का रक्षा व विदेश मंत्रणालय सौंपा जा सकेगा।
प्यारे देशवासियों!
हमें बाहरी आतंकवाद से कोई खतरा नहीं है...सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ! इसलिए हमने संसद में यह प्रस्ताव लाने पर भी विचार कर रहे हैं कि देश के अन्दर जो लोग सरकार को अस्थिर करने की साजिश में दोषी पाया जायेगा उसे दो माह में मृत्यु दण्ड देने का प्रावधान कानून में होना चाहिये जिससे हम अन्ना हजारे जैसे खुंखार आतंकवादियों से मुकाबला कर सकेगें।
प्यारे देशवासियों!
देश में भूखमरी की समस्या अब समाप्त हो चुकी है...सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ! हर तरफ बढ़ती मंहगाई ने यह प्रमाणित कर दिया है कि देश की जनता की आमदनी में काफी इजाफा हुआ है जिसके ही चलते लोगों की सामान खरीदने की शक्ति बढ़ी है यह हमारी सरकार की सात सालों की सबसे बड़ी सफलता है। हमने इन सात सालों में देश को लुटने के कई नये तरीके भी हमारे चुने हुए सांसदों को सीखायें है जिसके बल पर ही आज हमारे....सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ! चार-चार मंत्री जेल में देश की शान बढ़ा रहंे हैं। इनसे हमें बहुत कुछ सीखना होगा ताकी आने वाली हमारी युवा पीढ़ी को भी हम स्कूलों में इनका पाठ पढ़ाया जा सकेगा। ये हमारे देश के लिए सबसे गर्व की बात है कि हम भी दुनिया के चारे बेईमानों की सूची में भारत का नाम जल्द ही सबसे ऊपर ले आयेगें।...सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ!
प्यारे देशवासियों!
हमने किसानों की देखभाल के लिए भी कई याजनाऐं बनायी है जिसमें उनकी जमीनों को देश के कानून के अनुसार हड़पकर उनको उन जमीनों से बेदखल कर बहुमंजिलें इमारतें बनावा कर लाखों-करोड़ों का धन....सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ! सेठों के खजानों में जमा कर रहें हैं ताकी भविष्य में हमें जजब चुनाव लड़ना होगा तो यह धन देश के काम आ सके। इससे जो क्षति किसान भाईयों को होगी उसकी भरपाई करने के लिए हम शीध्र ही एक नये कानून लाने पर भी विचार कर रहें हैं जिससे किसानों की उपजाऊ जमीनों को देश के विकास में लगाया जा सकेगा।
मेरे देशवसियों,
हूँ...सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ! हमारी सरकार देश के बच्चों के विकास पर भी बहुत बड़ा काम करने जा रही है। जल्द की हम हमारे देश के एक युवा सासंद को प्रधानमंत्री पद सौंपने जा रहे हैं। ताकी आनेवाला समय में, देश का भविष्य हमारे युवाओं के हाथों संचालित हो सके। हमारी पार्टी के अधिकतर चापलूस दलालों की राय में यही बात उभरकर सामने आ रही है।कि इस चुनाव से हमार देश दोतरफा मुकाबला कर सकेगा। कुछ लोगों का यह भी माना है कि इससे देश के युवावर्ग को कुत्ते की तरह रोटी डालकर फुसलाया जा सकेगा। इनका नाम सुनते ही देश के सारे के सारे कुत्ते दुम हिलाते हुए हमारे साथ आ खड़े होगें।
प्यारे देशवासियों!
अन्त में आज आपसे बहुत जरूरी बात भी करना चाहता हूँ...सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ! देश को हिन्दूओं से बहुत बड़ा खतरा होने वाला है जो हमारे देश के अल्पसंख्यक भाईयों के लिए खतरे की घंटी है। देश की धर्मनिरपेक्षता पर भी हमला होने वाला है। लोकतंत्र खतरे में दिखाई दे रहा है। संसद की मर्याद को भी ताख पर रखा जा रहा है। देश में संविधान को भी जलाया जा रहा है जो हमारे देश के गाण्तंत्र के लिए एक चुनौती बनती जा रही है। हमारी बेइमानी पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया जा रहा है। हमने चार मंत्रियों को जेल भेज दिया फिर भी हमपर विश्वास नहीं किया जा रहा है। इसके लिए आपको एकजूट होकर हमारी सरकार को समर्थन देते रहना चाहिये। बाबा रामदेव व अन्ना हजारे हिन्दू धर्म के सांप्रदायिक लोग हैं इसके लिए...सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ! इसके लिए आपको सावधान होने की जरूरत है। हमने सभी जाँच ऐजेंसियों को इनके धन और काले कारनामों की जाँच के आदेश दे दिये हैं। हमने साफ कह दिया है कि देश की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जा सकेगा। ये लोग संसद पर हमला करने की साजिस रच रहें हैं हमारे मंत्रीमंडल को भी खुफिया विभाग से सूचना मिली है कि ये आतंकवादी देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकते हैं इसलिए हमने देश के सभी विभागों को इनकी जाँच में लगा दिया है। हमारी पार्टी सदैव से आपलोगों को साथ देती रही है। अतः इस भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को कूचलने के लिए हमें आप सबकी मदद चाहिये।...सोनिया जी.... सोनिया जी.. मैं क्या कह रहा था.... ऐं... सोनिया जी...... हाँ!
जय सोनिया जी! की जय हिन्द!
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 7:42 am 3 विचार मंच
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शुक्रवार, 5 अगस्त 2011
अविश्वास का दौर - शंभु चौधरी
गांधी परिवार की भी अपनी निजी जिंदगी है। इसमें दखल देने का किसी को कोई हक नहीं बनता, परन्तु सोनिया जी के स्वास्थ को लेकर एवं अस्वस्थ्य होने व उनके विदेश जाने के समाचार को जिस प्रकार देश के सामने कांग्रसियों ने प्रस्तुत किया मानो सोनिया जी ने कोई अपराध कर दिया हो जिसे देश से छुपाया जा रहा है। खैर! कांग्रेसियों के इस चरित्र से हमें क्या लेना-देना। हम श्रीमती सोनिया जी के जल्द स्वस्थ होने की मंगलकामना करते हैं।
श्रीमती सोनिया जी अस्वस्थ्यः
देश आज अविश्वास के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में अचानक से श्रीमती सोनिया जी का अस्वस्थ्य होना साथ ही कांग्रसियों ने गोलमटोल विज्ञप्ति देकर न सिर्फ सोनिया जी की छवि को खराब करने की चेष्टा की, देश को भी कांग्रसियों ने गुमराह में रखा। कांग्रसियों को जब-जब गांधी परिवार की बलि चढ़ाने की जरूरत पड़ी अपने निजी स्वार्थ के लिए सदैव ये लोग गांधी परिवार का दोहन किया। इनको पता है कि गांधी परिवार को आगे लाकर ही ये खुद की दुकानदारी सजा व चला पायेगें। इनका खुद का कोई वजूद न पहले था और न अब है। अब तो बिल्कुल भी नहीं है। हम भी चाहते हैं कि गांधी परिवार की भी अपनी निजी जिंदगी है। इसमें दखल देने का किसी को कोई हक नहीं बनता, परन्तु सोनिया जी के स्वास्थ को लेकर एवं अस्वस्थ्य होने व उनके विदेश जाने के समाचार को जिस प्रकार देश के सामने कांग्रसियों ने प्रस्तुत किया मानो सोनिया जी ने कोई अपराध कर दिया हो जिसे देश से छुपाया जा रहा है। खैर! कांग्रेसियों के इस चरित्र से हमें क्या लेना-देना। हम श्रीमती सोनिया जी के जल्द स्वस्थ होने की मंगलकामना करते हैं।
लोकपाल बिलः
लोकपाल बिल को लेकर भी कांग्रेस के चन्द बेइमानों ने मिलकर गांधी परिवार को गुमराह कर खुद के पापों पर परदा डालने के लिए एक ऐसे बिल को संसद में प्रस्तुत किया जो न सिर्फ लंगड़ा है अधुरा और बेइमानों संरक्षित को करने वाला है। प्रतिपक्ष व विपक्ष के अधिकांश बेइमान सासंद मन ही मन इस बिल पर अपनी आस्था प्रकट कर रहे हैं और वे ये भी जानते है कि इससे कांग्रस को राजनैतिक रूप से जो क्षति होन वाली है, उसका सीधा लाभ उन्हीं को मिलने वाला है। ऐसे में श्री राहुल गांधी जी से मेरा अनुरोध रहेगा कि वे अपने पिता के मार्गा का अनुसरण करते हुए इन कांग्रसी चैकरी को सत्ता से किनारे कर नये और योग्य व्यक्तियों को साथ लेकर देश के सामने आये और लोकपाल बिल को पूर्णरूपेन आम सहमति बनाने की दिशा में कार्य करने हेतु 5 सदस्यों की एक समिति बना दें। जिसमें किसी भी राजनैतिक दलों के व्यक्तियों को न लेकर कानून के जानकार समाजसेवी और ईमानदार छवि के वरिष्ठ रिटायर्ड तीन जजों को इसका भार सोंप दें व साथ ही इनके सामने यह विकल्प भी खुला रखे की ये लोग देश की आम भवना को ध्यान में रखते हुए बिल का निर्माण करें। जिसमें लोकायुक्त की नियुक्ति से लेकर देश की तमाम मूल समस्या का निदान हो सके। आपको याद दिला देता हूँ कि एक बार स्व. राजीव गांधी ने यह टिप्पणी की थी कि विकास के नाम से निकाला धन जनता के हाथों में पंहुचते-पंहुचते 10 पैसा हो जाता है। इसमें तमाम जिला अधिकारी सहित राजनेताओं की मिली भगत जगजाहिर है।
कालेधन की निकासीः
माननीय उच्च न्यायालय के तमाम फटकार के बावजूद वर्तमान सरकार इस मुद्दे में अभी तक अड़ियल रुख अख्तियार कर ना सिर्फ माननीय अदालत को गोलमटोल जबाब दे रही है। सोई हुई जनता को भी रात के अंधेरे में डंडे से पिटवा दिया। इससे से कांग्रेस की छवि को भारी नुकसान हुआ है। राहुल जी को चाहिये कि वे न सिर्फ इन मामलों मे हस्तक्षेप करें। खुलकर जनता का साथ दें ताकी कांग्रेस के अन्दर व्याप्त भ्रष्टाचार को भी न सिर्फ समाप्त किया जा सकेगा कांग्रसे को नया प्राण जीवन प्राप्त हो जायेगा। मेरी बात आप मान या न माने लिख दिया है।
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 9:41 pm 1 विचार मंच
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भूमि अधिग्रहण कानून एक धोखा-सुप्रीम कोर्ट
रिहायशी और औद्योगिक क्षेत्र के विकास के नाम पर किसानों की जमीनों के जबरन अधिग्रहण के बढ़ते मामलों पर सुप्रीम कोर्ट ने गहरी नाराजगी जताई है। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून एक धोखा है जो कुछ मानसिक रूप से बीमार लोगों के दिमाग की उपज है। इस कानून को खत्म कर दिया जाना चाहिए। अदालत ने यह टिप्पणी उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले के हापुड़ में चमड़ा उद्योग विकसित करने के नाम पर राज्य सरकार की ओर से किए गए 82 हेक्टेयर भूमि के अधिग्रहण के मामले में फैसला सुरक्षित करते हुए की।
न्यायाधीश जीएस सिंघवी और न्यायाधीश एचएल दत्तू की पीठ ने चेतावनी देते हुए कहा कि यदि सुधार के लिए जल्द कदम नहीं उठाए गए तो अगले पांच सालों में निजी जमीनों पर बाहुबली लोगों का कब्जा होगा। इसी अराजकता के चलते हर जगह जमीन के दाम भी आसमान छू रहे हैं। अब यह अधिनियम एक धोखा बन चुका है। ऐसा लगता है कि यह उन मानसिक रूप से बीमार लोगों ने तैयार किया है जिनका आम आदमी के कल्याण और हितों से कोई लेना-देना नहीं है।
प्रकाशक: Shambhu Choudhary Shambhu Choudhary द्वारा 7:58 am 0 विचार मंच
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