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सोमवार, 29 अगस्त 2011

लोकतंत्र के प्रहरी?- शम्भु चौधरी




श्री रामचन्द्र गुहा सहित देश के तमाम विद्वानों को मेरी खुली चुनौती है कि वे अपने विचार इन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए दें। किसी व्यक्ति विशेष की कार्यशैली आपको हमको भले ही पसंद न आती हो, श्री अन्ना के आंदोलन से अलग-अलग मतभेद हो सकते है परन्तु संसद की मर्यादा के प्रश्न पर किसी को भी कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। जो बात संसद के अन्दर और बहार राजनैतिक तरीके से लड़ी जा सकती थी उसको संसद की मर्यादा के साथ जोड़कर आखिरकार क्यों लड़ी गई? क्या सरकार यह बताना चाहती है कि संसद सिर्फ चुने हुए चन्द सांसदों की ही धरोहर है? या सिर्फ राजनेताओं की जमींदारी है संसद? कि वे जैसा चाहे वहाँ बैठकर करते रहे जनता कुछ भी आवाज उठायेगी तो संसद की मर्यादा समाप्त हो जाऐगी तो फिर यह कैसा लोकतंत्र है?


कोलकातः 29 अगस्त 2011
संसद ने आखिरकार एक मजबूत लोकपाल बिल लाने का मार्ग प्रशस्त कर ही दिया। लगातार पाँच माह की आना-कानी के बाद सरकार सहित तमाम विपक्ष को लोकतंत्र के आगे सर झूकाना पड़ा। जिस संसद में जनता के द्वारा जनता के लिए जनता के प्रतिनिधि को देश की जनता चुन कर भेजती है उसी संसद के भीतर पंहुचकर यही सांसद, संसद को ढाल बनाकर खुद की नाकामी को छुपाने या जनता के जबाबों से बचने का प्रयास करती है तो हमें यह मान लेना चाहिए कि ये लोग देश की जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और देश के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करने में पूर्णतः असक्षम हैं। श्री कपिल सिब्बल एवं गृहमंत्री श्री पी.चिदम्बरम जी के कुतर्क ने पिछले एक माह से देश की जनता को झकझोर कर रख दिया था।
देश के इतिहास में संसद को इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में लाने के लिए पूरी संसद ही इसकी जिम्मेदार है। मजबूत लोकपाल बिल बनाने पर गत चार-पांच माह से सरकार सिविल सोसाएटी से बातें कर रही थी। एक सरकारी गजट के माध्यम से ड्राफ्टींग समिति भी बनाई गई। दो माह इस समिति में चर्चा भी की गई।


जैसे-जैसे सरकार की कलाई संसद में खुलती चली गई सरकारी लोकपाल बिल के मुद्दे पर घिरती चली गई और सड़कों पर जनता उतरने लगी। एक तरफ सरकार देश की जनता को गुमराह करने के लिए न सिर्फ कमजोर व अपंग लोकपाल बिल संसद में प्रस्तुत किया तो दूसरी तरफ श्रीमती अरुणा राय को अचानक से सामने ला खड़ा कर श्री अन्ना हजारे के एवं सिविल सोसायेटी के बिल को उलझाने का प्रयास करती दिखी। साथ ही इन दोनों स्थिति का बचाव करने के लिए सरकार ने अपने तर्क, सिद्धांत, संसद में बहस, जनता की राय को अनदेखा कर एक साथ पूरी संसद की प्रतिष्ठा को ही दाव पर लगा दिया। सरकार के इस तर्क को कि संसद की मर्यादा ही सर्वोच्चय है और संसद में ही बिल पर बहस होनी चाहिए अथवा संसद ही कानून बनाएगा आदि जैसे बयान से साफ होता दिख रहा था कि सरकार ऐन-केन-प्रकारेण का रास्ता अख्तियार कर भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने का प्रयास करती दिखाई दे रही है। जिस संसद के अन्दर आधे से अधिक सांसद पूर्णरूपेण न सिर्फ भ्रष्टाचार में संलिप्त हैं सत्ता के सौदागर बने हुए हैं। खुद प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंहजी ने भी संसद में स्वीकार किया की उनकी सरकार गठबंधन धर्म के आगे विवश है। इस संकेत से साफ जाहिर होता है कि देश की सत्ता सौदागरों के हाथों गिरवी रखी जा चुकी है। जो देश को हर कोने से नोच कर खा रहे हैं। अब चुकिं सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं बचा तो इन लोगों ने संसद को ही दाव पर लगा दिया।


मुझे तब अत्याधिक आश्चर्य होता है जब समाज का बुद्धिजीवी तबके के कुछ लोग भी जो खुद को लोकतंत्र का प्रहरी बताते नहीं थकते और सरकारी विज्ञापनों के माध्यम से सरकार का पक्ष प्रस्तुत करने में लगे हैं सरकार की इस चालाकी पर अभी तक कोई सवाल नहीं खड़े किए। मुझे समाज के उस तबके से भी बहुत निराशा हाथ लगी जो संसद की मर्यादा की बात तो करते दिखे पर लोकतंत्र को एक भीड़ की संज्ञा देने से नहीं चुके। सबसे दुखद तब लगा कि जो लोग राजनैतिक रूप से देश के संचालन का भार संभाले हुए हैं ये लोग संसद को अपनी जागिर समझ बैठे हैं। आम जनता की भावना से किसी को कुछ भी लेना देना नहीं। श्री अन्ना के विचारों से या जन लोकपाल से सबका सहमत होना या एकमत होना जरूरी नहीं। विचारों की टकराहट हो सकती है परन्तु सरकारी लोकपाल बिल पर किसी भी दृष्टि से टकराहट की भी कोई संभावना नहीं बनती इसे संसद में प्रस्तुत कर और संसद को ढाल बना भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए नये-नये तर्क देना कहाँ तक उचित है इसपर कोई कुछ नहीं कह पा रहा है।


श्री रामचन्द्र गुहा सहित देश के तमाम विद्वानों को मेरी खुली चुनौती है कि वे अपने विचार इन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए दें। किसी व्यक्ति विशेष की कार्यशैली आपको हमको भले ही पसंद न आती हो, श्री अन्ना के आंदोलन से अलग-अलग मतभेद हो सकते है परन्तु संसद की मर्यादा के प्रश्न पर किसी को भी कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। जो बात संसद के अन्दर और बहार राजनैतिक तरीके से लड़ी जा सकती थी उसको संसद की मर्यादा के साथ जोड़कर आखिरकार क्यों लड़ी गई? क्या सरकार यह बताना चाहती है कि संसद सिर्फ चुने हुए चन्द सांसदों की ही धरोहर है? या सिर्फ राजनेताओं की जमींदारी है संसद? कि वे जैसा चाहे वहाँ बैठकर करते रहे जनता कुछ भी आवाज उठायेगी तो संसद की मर्यादा समाप्त हो जाऐगी तो फिर यह कैसा लोकतंत्र है?


सरकार ने मजबूत लोकपाल बिल बहस के मुद्दे को संसद की गरिमा के साथ जोड़कर न सिर्फ अपनी अक्षमता का परिचय दिया, बल्कि देश के लोकतंत्र पर एक प्रश्न चिन्ह भी लगा दिया है। अपनी नाकामी को संसद की मर्यादा का जामा पहना कर सरकार ने एक गहरी साजिश देश की जनता के साथ की है। भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की या न कसने के इरादे को सरकार ने राजनीति तरीके से लड़ा होता तो कुछ बात समझ में आती है। परन्तु जिस प्रकार सरकार ने संसद की मर्यादा को ढाल बना कर विपक्ष सहित देश के तमाम बुद्धिजीवियों को बहकावे में लाने का प्रयास किया है यह इस सरकार के लिए ही नहीं देश की तमाम राजनैतिक दलों के लिए भी खतरनाक साबित हो सकता है।


सरकार ने मजबूत लोकपाल बिल बहस के मुद्दे को संसद की गरिमा के साथ जोड़कर न सिर्फ अपनी अक्षमता का परिचय दिया, बल्कि देश के लोकतंत्र पर एक प्रश्न चिन्ह भी लगा दिया है। अपनी नाकामी को संसद की मर्यादा का जामा पहना कर सरकार ने एक गहरी साजिश देश की जनता के साथ की है। भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की या न कसने के इरादे को सरकार ने राजनीति तरीके से लड़ा होता तो कुछ बात समझ में आती है। परन्तु जिस प्रकार सरकार ने संसद की मर्यादा को ढाल बना कर विपक्ष सहित देश के तमाम बुद्धिजीवियों को बहकावे में लाने का प्रयास किया है यह इस सरकार के लिए ही नहीं देश की तमाम राजनैतिक दलों के लिए भी खतरनाक साबित हो सकता है।


सरकार के इस दुर्भाग्य पूर्ण प्रयास को अभी तक किसी ने नहीं सोचा कि यह जिस आग से वे खेल रहे थे उनके ही हाथ जल गये इस हवन में। जिस संसद में सरकार को राजनैतिक निर्णय लेने थे सरकार संसद ही दांव पर लगा कर अपने राजनीति हितों की रक्षा करने में जूट गई थी। षुरू में ही यदि सराकर ईमानदारी से चाहती तो पिछले चार-पांच माह में जितनी बहस इस बिल को लेकर सरकार से हो चुकी थी सरकार एक सक्षम लोकपाल बिल संसद में प्रस्तुत कर सकने में आसानी से सक्षम हो सकती थी, परन्तु देश का यह दुर्भाग्य ही कह लें सरकार तर्क का सहारा लेती रही और देखते ही देखते जनता सड़कों पर उतर गई। संसद की गरिमा को ताक पर रख सरकार ने लोकपाल बिल का बचाव षुरू कर दिया। जबकि देश की जनता मंहगाई और भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए सरकार के साथ खड़ी थी परंतु सरकार ने उसे अपना दुश्मन मान कर जो व्यवहार करती दिखी। इससे न सिर्फ सरकार को, विपक्ष को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ी है। संसद को ढाल बना कर सांसदों की बयानबाजी सरकार व विपक्ष को कितना मंहगा पड़ा इसे सारी दुनिया ने देख लिया कि भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए सरकारी पक्ष ने संसद की गरिमा के साथ किस प्रकार खिलवाड़ किया। अन्ना के इस आंदोलन ने लोकतंत्र के प्रहरियों की कलाई खोलकर रख दी है।

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