लेखक- शंभु चौधरी, B.Com, MA(MC), LL.B, Advocate
रामप्रसाद जी मेरी कई कहानियों के स्थायी पात्र है। ‘‘मेरा गाँव’’ यह मेरी पहली उपन्यास है, इस उपन्यास के माध्यम से कोविड फेज-2 का एक संक्षिप्त चित्रण करने का छोटा सा प्रयास है ‘‘मेरा गाँव’’। रामप्रसाद कैसे अपने पत्रकारिता जीवन से संधर्ष करते हुए अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। साथ-साथ अपने को किस प्रकार बौद्धिक स्तर पर समय और काल के द्वंद के भंवरजाल में उलझते और गोता लगाते हैं, एक काल्पनिक कहानी को सचित्र करती और एक पत्रकार की दयनीय स्थिति का चित्रण को प्रस्तुत करती है यह उपन्यास।
कोरोना कालखंड का व उसके पश्चात किस प्रकार कोरोना महामारी के समय देश के गरीबों ने इस तबाही को देखा और झेला, किस चरम तक सरकार का दमन अपने शिखर पर था, को दर्शाने का प्रयास है यह उपन्यास ‘‘मेरा गाँव’’।
अख़्तर शीरानी की एक प्रसिद्ध नज़्म है –
‘‘ओ देस से आने वाले बता ’’ उस नज़्म की चंद लाइनें इस प्रकार है-
ओ देस से आने वाले बता , क्या अब भी वतन में वैसे ही
सरमस्त नज़ारे होते हैं, क्या अब भी सुहानी रातों को
वो चाँद सितारे होते हैं, हम खेल जो खेला करते थे
क्या अब वही सारे होते हैं, ओ देस से आने वाले बता .. ओ देस से आने वाले बता ।
कैसे-कैसे समाज के ताने-बाने से संघर्ष करना पड़ता है और कैसे अपनी मानसिकता को झकझोरता है, एक पत्रकार। एक बुद्धिजीवी प्राणी होने के नाते वह किस प्रकार खुद से लड़ने का प्रयास करता है इन सब बातों का सजीव चित्रण है। यह उपन्यास "मेरा गाँव"।
कद्दू वाले ने फिर वही उत्तर दोहरा दिया। 100 रुपये... किलो।
रामप्रसाद जी थोड़ा चौंकते हुए - कद्दू किलो! कद्दू किलो से कब से बिकने लगा? सवाल किया।
बाबू जबसे देश में ₹200/- रुपये की वैक्सीन, और सरकार द्वारा फ्री की वैक्सीन लगेगी, बोल कर, जब जनता से ₹1200-1500 रुपये वसूले जा रहे थे, तब उनसे सवाल करने में आप लोगों की फट रही थी, किसी गरीब ने कोरोना महामारी के
समय कद्दू को किलो के भाव बेचना शुरू कर दिया तो लगे हमसे हजार सवाल-जवाब करने। सारा
हिसाब सब्जीवाले से ही ले लो। बड़बड़ाता हुआ आगे बढ़ गया।
[हम अक्सरा, घर में काम करने वाली मॉसी से, यात्रा करते समय स्टेशन पर कुली से, रिक्सा वाले से, टूटी जूता-चप्पल सलाई कराते समय मोची से, फल व सब्जी वाले से, कैसे उनसे पैसे बचाये जाए, इस फिराक में जीवन निकाल देते हैं, वहीं एक ही झटके में सरकार सार बजट बिगाड़ देती है तो चुपचाप सह लेते हैं। ट्रैन किराया, गैस के दाम हो या बच्चों की पढ़ाई पर टैक्स, कहीं तो नहीं बोलते हम। यह सब राष्ट्र की सेवा है और गरीबों का जीवन स्तर आपके चुप्पी से/पैसे से सुधर जाए?
किसी मॉल में जब 500 की टी-शर्ट 3000 में खरीदते हैं तो हमें जरा भी दर्द नहीं होता, वहीं साल में एक शर्ट अपने स्टाफ को देने में कितना दर्द अनुभव करते होगें हम। यात्रा में लाख रुपये का बजट भारी नहीं पड़ता हमें, वहीं स्टेशन पर कुली से बहस करते हैं कि पिछले माह तो 50/- रुपया ही भाड़ा था, तुरंत झूठ बोल देते हैं पैसे बचाने के लिए। पूरे
सफर में हमारे पास 1000/- का बजट नहीं होता हमारे पास, वहीं एक लाख का बजट बना कर चलते
हैं। इस एक लाख के बजट में 1000/ नहीं समा पाता।]