ज़नसत्ता कोलकाता संस्करण दिनांक 11.11.2007 के अंक में अलका सरावगी का लेख "चाहे जो कहिए" पढा़। इस बात से कोई दो मत नहीं कि प्रेम की राह में एक अच्छे इंसान की मौत हो गई। परन्तु यह भी हमें मानना पडे़गा कि इसमें न्याय दिलाने की आढ़ में शहर की प्रायः सभी राजनैतिक दलों ने वोटबेंक का ज्यादा से ज्यादा ख्याल रखा। देश में प्राय: रोजाना इस तरह के हादसे हो रहे हैं, प्रेम की आढ़ में सामाजिक संरचना चरमरा रही है, हम सभी घटनाओं को एक दृष्टि से देखने का प्रयास कर समाज के सामने नया संकट पैदा कर रहें है। जहाँ तक अलका जी के विचार 'प्रेम के उत्सव' से मेल खाते है वहीं इस घटना को मेरे दृष्टिकोण से देखता हूँ तो पाता हूँ कि रिजवानुर समाज की नजर में एक अपराधी करार दिया जाना चाहिये। रिजवानुर-प्रियंका का मामला हो या पटना कालेज के प्रोफेसर मटुक नाथ यह और भी इससे मिलते-जुलते कई मामले जैसे ; मालिक-नौकरानी का प्रेम नौकर- मालिक की लड़की का प्रेम, कर्मचारी के साथ मालिक के लड़के- लड़की का प्रेम शिक्षक का छात्राओं को पढ़ाने के नाम पर प्रेम और इसे प्रेम को उम्र की आढ़ में अदालती संरक्षण देना कितना उचित होगा, इस पहलु पर हमें नये शिरे से सोचना चाहिये। मैं मानता हूँ भारतीय समाज को प्रेम की भाषा समक्षने में अभी थोड़ा ओर वक्त लगेगा, मीडिया, समाचार पत्र और भारत का तथाकथित बुद्धिजीव वर्ग प्रेम को ज्यादा अच्छी तरह से परिभाषित कर सकते हैं, चुंकि उन्हें समाज की ज्यादा चिन्ता है। इस तरह के अप्रिय प्रेम जिसमें पारिश्रमिकता का संबंध बना रहता है, पहले हमें क्रमवार इसके अन्य पहलुओं को देखना भी जरूरी हो गया है, कि क्या हमारा समाज ऎसे प्रेम को प्रेम की मान्यता भी देगा या नहीं। बार-बार हमें सामाजिक ढाँचे पर चोट करने से पहले हमारे चिन्तन पर भी दस्तक देनी होगी, सड़क छाप साहित्यकार न बनकर समाज को अपने चिन्तन से नये विचार देने होगें। अलका जी एक बहुत अच्छी लेखिका हैं इनके कई लेख मैंने पढे़ थे, परन्तु इस लेख ने मुझे काफी हतोत्साहित किया। रिजवानुर एक शिक्षक था, पहले हमारे शास्त्र में शिक्षक को क्या स्थान दिया गया है इस पर एक साहित्यकार के नाते उन्हें ध्यान देने की भी जरूरत थी, संस्कृत का वह श्लोक तो हम सभी जानते ही होगें:
गुरूर्बह्मा गुरूर्विषणुः, गुरूर्देवो महेश्वरः ।
गुरूः साक्षात्परं ब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने गुरू को माता पिता से भी उँचा दर्जा दिया है, इस लिये नहीं कि वे बच्चों को पढा़ने के नाम पर शिक्षा देते-देते बच्चे को बहला-फुसलाकर अपने प्रेमजाल में फंसाकर कानून और सड़क छाप पत्रकारिता के बलपर समाज को प्रेम की परिभाषा समझाने लगे। शायद ही दुनियां का कोई धर्म इस तरह की हरकतों को प्रेम की आढ़ देता होगा, यदि ऎसा हो जायेगा तो एक बाप - बेटी, माँ -बेटा, भाई-बहन के रिश्ते को भी उम्र और कानून की दहलीज पार करते ही प्रेम करने की राह से कोई नहीं रोक सकता। शायद प्रेम शब्द के इतने गलत प्रयोग के लिये हम जैसे साहित्यकार ही दोषी माने जायेंगे। आज हमारे शिक्षण संस्थानों को आगे बढ़कर इन प्रश्नों का समाधान खोजना होगा, कि उनके यहाँ कार्यरत शिक्षक इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल पाया जाय तो तत्काल ऎसे शिक्षक को समाज के सामने नंगाकर कानून के हवाले कर दिया जाना चाहिये।
हम यदि इस तरह के प्रेम को प्रेम की भाषा में तौलने का प्रयास करते रहे तो, घर-घर में कोई शिक्षक के नाम से, कोई नौकर बनकर, हमारी सामाजिक व्यवस्था को क्षिन्न-भिन्न कर देगें, सामाजिक व्यवस्था कानून से नहीं विश्वास से चलती है, इस विश्वास को कानून का जामा पहनाकर अपहरण करने वाले तत्वों को कानूनी संरक्षण देना कितना उचित होगा, इस पहलु पर भी हमें गम्भीरता से सोचने की जरूरत है। हमारा दायित्व बनता है कि प्रेम के बढ़ते इस तरह के अपराधिकरण को रोकने के लिये कानून में इसकी विस्तार से चर्चा हो, कि क्यों न इस तरह के अपराध को कानून के दायरे में लाया जाय ताकि कोई माँ-बाप अपने बच्चे को शिक्षा के लिये भेजे तो कोई शिक्षक उसको बहला-फुसलाने की जगह शिक्षा पर ही ध्यान दे, और कोई ऎसा नहीं कर प्यार का नाटक करता हो तो उसे, कानूनी समर्थन की जगह उस शिक्षक को समाज का सबसे बड़ा अपराधी करार दिया जाना चाहिये।
प्रेम के बीच कोई समाज बाधक नहीं बन सकता, परन्तु सामाजिक व्यवस्था भी कोई चीज होती है, ओर सामाजिक व्यवस्था से ही हमारा समाज चलता है, कानून मात्र सहायक होता है, कानून से समाज की सभी व्यवस्थाऎं नहीं चलाई जा सकती, समाज का काम होता है कानून का निर्माण करना, कानून से समाज नहीं बनता। इस तरह के प्रेम को कानूनी मान्यता मिलनी चाहिये कि नहीं इस बात को हमें नये सिरे से सोचने की जरूरत है। आपकी राय क्या है जरुर दें, प्रश्न समाज की व्यवस्था का है न कि प्यार का? - शम्भु चौधरी
गुरूर्बह्मा गुरूर्विषणुः, गुरूर्देवो महेश्वरः ।
गुरूः साक्षात्परं ब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने गुरू को माता पिता से भी उँचा दर्जा दिया है, इस लिये नहीं कि वे बच्चों को पढा़ने के नाम पर शिक्षा देते-देते बच्चे को बहला-फुसलाकर अपने प्रेमजाल में फंसाकर कानून और सड़क छाप पत्रकारिता के बलपर समाज को प्रेम की परिभाषा समझाने लगे। शायद ही दुनियां का कोई धर्म इस तरह की हरकतों को प्रेम की आढ़ देता होगा, यदि ऎसा हो जायेगा तो एक बाप - बेटी, माँ -बेटा, भाई-बहन के रिश्ते को भी उम्र और कानून की दहलीज पार करते ही प्रेम करने की राह से कोई नहीं रोक सकता। शायद प्रेम शब्द के इतने गलत प्रयोग के लिये हम जैसे साहित्यकार ही दोषी माने जायेंगे। आज हमारे शिक्षण संस्थानों को आगे बढ़कर इन प्रश्नों का समाधान खोजना होगा, कि उनके यहाँ कार्यरत शिक्षक इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल पाया जाय तो तत्काल ऎसे शिक्षक को समाज के सामने नंगाकर कानून के हवाले कर दिया जाना चाहिये।
हम यदि इस तरह के प्रेम को प्रेम की भाषा में तौलने का प्रयास करते रहे तो, घर-घर में कोई शिक्षक के नाम से, कोई नौकर बनकर, हमारी सामाजिक व्यवस्था को क्षिन्न-भिन्न कर देगें, सामाजिक व्यवस्था कानून से नहीं विश्वास से चलती है, इस विश्वास को कानून का जामा पहनाकर अपहरण करने वाले तत्वों को कानूनी संरक्षण देना कितना उचित होगा, इस पहलु पर भी हमें गम्भीरता से सोचने की जरूरत है। हमारा दायित्व बनता है कि प्रेम के बढ़ते इस तरह के अपराधिकरण को रोकने के लिये कानून में इसकी विस्तार से चर्चा हो, कि क्यों न इस तरह के अपराध को कानून के दायरे में लाया जाय ताकि कोई माँ-बाप अपने बच्चे को शिक्षा के लिये भेजे तो कोई शिक्षक उसको बहला-फुसलाने की जगह शिक्षा पर ही ध्यान दे, और कोई ऎसा नहीं कर प्यार का नाटक करता हो तो उसे, कानूनी समर्थन की जगह उस शिक्षक को समाज का सबसे बड़ा अपराधी करार दिया जाना चाहिये।
प्रेम के बीच कोई समाज बाधक नहीं बन सकता, परन्तु सामाजिक व्यवस्था भी कोई चीज होती है, ओर सामाजिक व्यवस्था से ही हमारा समाज चलता है, कानून मात्र सहायक होता है, कानून से समाज की सभी व्यवस्थाऎं नहीं चलाई जा सकती, समाज का काम होता है कानून का निर्माण करना, कानून से समाज नहीं बनता। इस तरह के प्रेम को कानूनी मान्यता मिलनी चाहिये कि नहीं इस बात को हमें नये सिरे से सोचने की जरूरत है। आपकी राय क्या है जरुर दें, प्रश्न समाज की व्यवस्था का है न कि प्यार का? - शम्भु चौधरी
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