कलकात्ता में जब एमजे अकबर साहेब 'टेलीग्राफ़' समाचार पत्र के सम्पादक हुआ करते थे, तब से आप दंगा पर शोध करने में लगे थे, अब इनका यह शोध समाप्त हो चुका है, वैगर किसी डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त किये इनका यह शोध पूरा भी हो गया, देखिये क्या लिखते हैं अकबर साहब " मैं सांप्रदायिक संघर्ष का हल ढूंढने के काफी करीब पहुंच चुंका हूँ। इसे लोभ की संज्ञा दी जा सकती है। एक लंबे अरसे तक, लगभग दो दशकों से हिंसक घटनाओं की रिपोर्टिंग करते हुए मुझे यह भ्रम रहा कि शांति मानवीय आवश्यकता की दृष्टि से एक अनिवार्य तार्किक परिणिति है। संघर्ष से अच्छा, विशिष्ट या सामान्य जैसा कोई भाव नहीं पैदा होता। सवाल है, क्या कभी अच्छी भावना मानव व्यवहार के लिए निर्धारक कारक रही है? घृणा की मूल प्रवृत्ति समाप्त करने के लिये उससे अधिक शक्तिशाली प्रतिरोध की जरूरत होती है। इस समस्या का समाधान लोभ में खोजा जा सकता है। ध्यान देने योग्य बात है कि पिछले 15 वर्षों के दौरान मात्र दो बड़े सांप्रदायिक दंगे हुऎ। एक बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद और दूसरा गुजरात में गोधरा घटना के बाद। ऎसा नहीं है कि इस दौरान छोटी घटनाएं नहीं हुई। 80 के दशक में मुरादाबाद, मेरठ,
भागलपुर
, दिल्ली आदि में मातम का माहौल देखा गया। कुछ शहरों में हुई हैवानियत न सिर्फ लोगों के मारे और जलाये जाने के गवाह बने, बल्कि चाकू घोंपने की वारदातें वहां बढ़ी। सांप्रदायिक जहर लोगों की नसों में दौड़ रहा था। ऎसे महौल में बदलाव नहीं आता।" आगे जाकर अकबर जी ने इस लेख का पूरा राजनीतिकरण कर दिया। जिस शौध की बात कर रहे थे, वो बस इन्ही चार पंक्तियों में समाप्त हो गया, तो मेंने सोचा कि क्यों न इनकी अधुरी बात को ओर आगे बढाया जाय।
मेरी चार पंक्तियों से अपनी बात शुरू करता हूँ :
'जब भी कोई दंगा होगा, कोई न कोई नंगा होगा।
हिन्दू-मुसलिम न हो भाई, ऎसा ही कोई बंदा होगा।।
अकबर साहब जरा गौर फरमाते तो यह भी पता लगाते कि दंगे की शुरूआत कब, कैसे और कहाँ से होती है। देश में दंगों का इतिहास इनके 20 साल में ही न ही शुरू हुआ और न ही इस लेख के बाद खतम और कम हो जायेगा। यदि ईमानदारी से दंगों के तह में जाने का प्रयास किया जाय तो एक नया दंगा हो जायेगा। दंगे कब और कैसे और किसने करवाये यह भी बताना जरूरी होगा। शायद यह बताने से अकबर साहब को कोई भी राजनीति दल अपनी पार्टी के कोटे से राज्यसभा का सदस्य नहीं बनायेगा। यह बात सही है कि इससे समस्त मानव जाति को क्षति उठानी पड़ती है। एम.जे.अकबर साहब को भले ही भ्रम हो सकता है, कि ' शांति मानवीय आवश्यकता की दृष्टि से एक अनिवार्य तार्किक परिणिति है। " परन्तु मुझे जरा भी झीझक नहीं कि यह प्रायोजित सांप्रदायिक दंगों के सुत्रपात सत्ता के गलियारे से शुरू हो कर वहीं दफ़न हो जाती है। भारत के पिछले दंगों के इतिहास को यदि ईमानदारी से देखा जाए, तो भारत के जिस-जिस क्षेत्र में दंगे हुए हैं, ( इंदिरा गांधी हत्या के बाद कांग्रेसी दंगे को छोड़कर ) वे हिन्दू बहुल क्षेत्र में न होकर मुस्लिम बाहुल क्षेत्र ही रहें हैं, ये दंगे ईद या बकरीद के समय नहीं होते, जब भी हुए हैं उस समय हिन्दूओं का कोई न कोई पर्व या त्योहार रहा है। गुजरात का मोदी सरकार प्रायोजित मार-काट भी गोधरा की कड़ी ही मानी जायेगी। जो लोग मानते हैं कि दंगे का फल दुःखदायी होता है, उनके मन की बात लेने के लिये सांप्रदायिकता फैलाई जाती है। अल्पसंख्यकवाद का सहारा लेकर देश में राजनीति की जाती है। दंगे का इतिहास कोई दो सौ साल पुराना नहीं, जिसपर शौध नहीं किया जा सकता। हाँ कुछ लिखने से पहले दिमाग की खिड़कियों को खोलना जरूरी है, जो शायद ही अकबर साहब कर पायेगें, उनको अपना हाल तस्लिमा जैसा तो कराना नहीं जो मुस्लमानों का कच्चा चिट्टा खोल कर रख दिया हो। सत्ताभोगिया कलम के लेखक में इतना दंम कहाँ कि वे दंगे की बात खुलकर कह सके।
-शम्भु चौधरी
भागलपुर
, दिल्ली आदि में मातम का माहौल देखा गया। कुछ शहरों में हुई हैवानियत न सिर्फ लोगों के मारे और जलाये जाने के गवाह बने, बल्कि चाकू घोंपने की वारदातें वहां बढ़ी। सांप्रदायिक जहर लोगों की नसों में दौड़ रहा था। ऎसे महौल में बदलाव नहीं आता।" आगे जाकर अकबर जी ने इस लेख का पूरा राजनीतिकरण कर दिया। जिस शौध की बात कर रहे थे, वो बस इन्ही चार पंक्तियों में समाप्त हो गया, तो मेंने सोचा कि क्यों न इनकी अधुरी बात को ओर आगे बढाया जाय।
मेरी चार पंक्तियों से अपनी बात शुरू करता हूँ :
'जब भी कोई दंगा होगा, कोई न कोई नंगा होगा।
हिन्दू-मुसलिम न हो भाई, ऎसा ही कोई बंदा होगा।।
अकबर साहब जरा गौर फरमाते तो यह भी पता लगाते कि दंगे की शुरूआत कब, कैसे और कहाँ से होती है। देश में दंगों का इतिहास इनके 20 साल में ही न ही शुरू हुआ और न ही इस लेख के बाद खतम और कम हो जायेगा। यदि ईमानदारी से दंगों के तह में जाने का प्रयास किया जाय तो एक नया दंगा हो जायेगा। दंगे कब और कैसे और किसने करवाये यह भी बताना जरूरी होगा। शायद यह बताने से अकबर साहब को कोई भी राजनीति दल अपनी पार्टी के कोटे से राज्यसभा का सदस्य नहीं बनायेगा। यह बात सही है कि इससे समस्त मानव जाति को क्षति उठानी पड़ती है। एम.जे.अकबर साहब को भले ही भ्रम हो सकता है, कि ' शांति मानवीय आवश्यकता की दृष्टि से एक अनिवार्य तार्किक परिणिति है। " परन्तु मुझे जरा भी झीझक नहीं कि यह प्रायोजित सांप्रदायिक दंगों के सुत्रपात सत्ता के गलियारे से शुरू हो कर वहीं दफ़न हो जाती है। भारत के पिछले दंगों के इतिहास को यदि ईमानदारी से देखा जाए, तो भारत के जिस-जिस क्षेत्र में दंगे हुए हैं, ( इंदिरा गांधी हत्या के बाद कांग्रेसी दंगे को छोड़कर ) वे हिन्दू बहुल क्षेत्र में न होकर मुस्लिम बाहुल क्षेत्र ही रहें हैं, ये दंगे ईद या बकरीद के समय नहीं होते, जब भी हुए हैं उस समय हिन्दूओं का कोई न कोई पर्व या त्योहार रहा है। गुजरात का मोदी सरकार प्रायोजित मार-काट भी गोधरा की कड़ी ही मानी जायेगी। जो लोग मानते हैं कि दंगे का फल दुःखदायी होता है, उनके मन की बात लेने के लिये सांप्रदायिकता फैलाई जाती है। अल्पसंख्यकवाद का सहारा लेकर देश में राजनीति की जाती है। दंगे का इतिहास कोई दो सौ साल पुराना नहीं, जिसपर शौध नहीं किया जा सकता। हाँ कुछ लिखने से पहले दिमाग की खिड़कियों को खोलना जरूरी है, जो शायद ही अकबर साहब कर पायेगें, उनको अपना हाल तस्लिमा जैसा तो कराना नहीं जो मुस्लमानों का कच्चा चिट्टा खोल कर रख दिया हो। सत्ताभोगिया कलम के लेखक में इतना दंम कहाँ कि वे दंगे की बात खुलकर कह सके।
-शम्भु चौधरी
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