जन्म मुझे दो एक बार माँ, ऎसा गौरव पाऊँ,
इस मिट्टी का तिलक लगा, मैं भी धन्य हो जाऊँ।
जिस धरती का सुहाग, अमर अमिट हो लहराता हो,
कच्चे धागे का बंधन भी, तोड़ न कोई पाता हो,
माँ की ममता, दूध पिलाने को, हो जाती आतुर;
गौरव से सर ऊँचा कर जब गाँव-गाँव मुसकाता हो,
ऎसी धरा पर जन्म लेने को, मन मेरा अकुलाता है।
जन्म मुझे दो एक बार माँ, ऎसा गौरव पाऊँ,
इस मिट्टी का तिलक लगा, मैं भी धन्य हो जाऊँ।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी़-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106
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