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मंगलवार, 23 जुलाई 2013

सांप्रदायिकता की आग - शम्भु चौधरी

कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री श्री मनीष तिवारी ने ‘‘देश में सांप्रदायिकता का जबाब देने की भरपूर वकालत की। उन्हों ने ‘धर्मनिरपेक्षता के एजेंडा’’ को आगे बढ़ाने की जोरदार वकालत की। यह बात सभी को पता है कि कांग्रेस पार्टी के नेताओं के पास अब इस एजेंडे के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं बचा है। कारण साफ है कि कांग्रेस पार्टी और इसके सहयोगी दलों ने मिलकर जिस प्रकार पिछले 9 सालों में देश को लूटा और देश को बर्वादी के कगार पर ला खड़ा किया हैं। देश की आर्थिक स्थिति को खास्ता हालात कर दिया हो। जिधर छूओ उधर ही लूट मची है। पुंजीपतिओं की पौ-बारह है गरीब मंहगाई की चपेट में बुरी तरह पीसता जा रहा है। जरूरी सभी खाद्य पदार्थों के दाम आकाश छूने लगे हैं। मंहगाई पर मनमोहन सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रहा, नेता और पूंजीपति उद्योगिक घराने दोनों मिलकर देश को लूटने में लगे हैं। इस नाकामी को छूपाने के लिए देश में सांप्रदायिकता का माहौल खड़ा करना कांग्रेस पार्टी के लिए ना सिर्फ लाभकारी रहेगा और वह यह भी सोचती यह कि इससे मुसलमानों के वोटों का एकतरफा लाभ भी उसी की पार्टी को मिलेगा। जिससे यू.पी-बिहार-बंगाल जैसे कई राज्यों में जहां क्षेत्रिय दलों ने जैसे सपा, बसपा, जदयू, तृणमूल ने जिस प्रकार इनके सांप्रदायिक वोट बैंक में सैंध लगाई है कांग्रेस पार्टी का जनाधार लगभग इन राज्यों से समाप्त सा हो चुका है। इनको लगने लगा है कि स्नैह-स्नैह आने वाले दिनों में क्षेत्रिय दलों द्वारा इनके नाक में दम पैदा कर देगी।

मानो सत्ता देश की सेवा के लिए नहीं लूटने व बंदरबांट के लिए बना हो। जिसप्रकार राजनैतिक सांठगांठ क्षेत्रिय दलों के द्वारा सत्ता में बने रहने के लिए किये जातें हैं, असमाजिक तत्वों से समझौता किया जाता है। उच्चतम अदालत के निर्णय को भी दरकिनार कर सी.बी.आई जैसी संस्था का दुरूपयोग किया जाता है। अदालती हस्तक्षेप के उपरान्त अपराधियों को बचाने का भरसक प्रयास हमें इस बात की तरफ संकेत करता है कि देश में कानून व्यवस्था से भी ऊपर हो चुका है राजनीति दल या यूँ लिखा जाए राजनीति दल देश की कानून व्यवस्था से ऊपर है। इनको RTI Act के अधिन आने में खतरा नजर आता है। इनको देश बचाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखती सबके सब इस बात को लेकर चिन्तित है कि किस प्रकार जेल से चुनाव लड़ा जा सके। अपराधियों के सहयोग से कैसे सत्ता पर बना रहा जा सके।
अब चुकीं देश की जनता कांग्रेस पार्टी की भ्रष्ट व्यवस्था और लोकपाल विल को लेकर देश की जनता को जिस प्रकार से गुमराह करने का काम किया। डा. मनमोहन सिंह की असफल आर्थिक व्यवस्था ने देश को अंधकार में डाल दिया। एक तरफ शिक्षा का व्यवसायिकरण तो दूसरी तरफ देश में बेरोजगारों की बढ़ती समस्या से देश ध्यान हटाने और देश में श्री नरेन्द्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता के खतरे को भांपते हुए कांग्रेस पार्टी ने सांप्रदायिकता के कार्ड को खेलने का खतरा मोल ले लिया है। इससे देश को क्या लाभ या हानि होगी यह तो वक्त ही बता पायेगा। हाँ ! इतना जरूर तय हो जायेगा देश में 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व ही सांप्रदायिकता की आग इस कदर लगेगी कि पूरा देश एकबार फिर से आजादी की घटना को याद कर सकेगा।

अर्मत्य सेन की धर्मनिरपेक्षता - शम्भु चौधरी

इस देश में ‘‘भारत माता की जय’’ बोलना सांप्रदायिकता कहलाती है, अल्पसंख्यकों को नाराज करना जैसा है। संसद के भीतर जो सांसद ‘‘बंदे मातरम्’’ बोलने में हिचकिचाते हैं। भारत के गुणगान में जो गीत तक गुनागुनाने में जिनका धर्म खुद को अपमानित समझता हो। वे लोग कैसे देश के प्रति वफ़ादार हो सकते? इन सबके उपरान्त हमारा देश धर्मनिरपेक्षता को स्वीकारता है। हम इसका सम्मान भी करते हैं, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि हम खुद को उनके हवाले कर दें? हम कुछ भी कहें तो सांप्रदायिक और वे दंगा करें, आतंकियों को पनाह दें तो धर्मनिरपेक्ष? यह धर्मनिरपेक्षता का पैमाना नहीं हो सकता। यदि समय से हम नहीं चेते तो, आने वाली पौध हमें कभी नहीं माफ करेगी।
जिस प्रकार एक मांसाहारी इंसान (चंद अपवादों को छोड़ दें तो) निरामिस नहीं बन सकता चुकीं उसको खुन खाने की लत जो लग जाती है। उसी प्रकार एक भारत में रहने वाले अल्पसंख्यक अपने को कभी भी सुरक्षित नहीं मानते, भले ही उनके चलते आप खुद को क्यों न असुरक्षित महसूस करने लग जाएं। आगामी 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर जिस प्रकार देश में एक व्यक्ति को लेकर आशंकओं का वातावरण पैदा किया जा रहा है इसमें देश के कुछ धर्मनिरपेक्षता की खाल में छिपे सांप्रदायिक चेहरे बेनकाब होते जा रहे हैं। जो यह सोचते हैं की देश में धर्मनिरपेक्षता की रक्षा सिर्फ वे ही लोग कर सकते हैं। लेकिन जब पाकीस्थान या बंगलादेश में रह रहे अल्पसंख्यकों के साथ जो सांप्रदायिक व्यवहार होता है तब इनकी धर्मनिरपेक्षता, इनकी यही सोच, इनका यही बयान, हिन्दू मां बहनों के साथ हो रहे अत्याचार के दर्द को यह वर्ग नहीं समझ पाता। पिछले दिनों नोबल पुरस्कार प्राप्त भारत के महान अर्थशास्त्री श्री अर्मत्य सेन जी जिसके सिद्धान्तों से विश्व के किसी भी देश के एक भी ग्रामीण या ग्राम का भला नहीं हो सका ने एक प्रश्न के जबाब में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि ‘‘असुरक्षित महसूस करने के लिए मुझे अल्पसंख्यक समूदाय का सदस्य होना होगा।’’ धर्मनिरपेक्षता की नई व्याख्या करने वाले श्री सेन को एक सलाह है कि कुछ दिन पड़ोस के देश में रह लेते वहां पर जो अनुभव उनको होगा उसके लिए उनको धर्म बदलने की कोई जरूरत नहीं होगी। आप स्वतः ही अल्पसंख्यक हो जाएंगे संभव हो तो अपने परिवार को भी साथ रख लिजिऐगा। भारत के 40 प्रतिशत गांवों की स्थिति पाकीस्तान जैसी बनती जा रही हैं हिन्दूओं के नाबालिक बच्चियों को यही अल्पसंख्यक समूदाय उठा-उठाकर ले जा रहा, 15-20 दिनों तक उसको किसी घर में बन्द रखता है फिर उसका धर्म परिवर्तन कर किसी मुसलमान से जबरन निकाह करा देता है। आतंक का यह वातावरण पूरे भारत में सनै-सनै तेजी से फैलता जा रहा है भारत का कानून मूकदर्शक बना देख रहा है। श्री अर्मत्य सेन को अल्पसंख्यक बनकर उनके दर्द का अहसास करने की जगह भारत के उन इलाकों के दर्दनाक दृश्य को भी देखने का प्रयास करना चाहिए जहां भारत के अंदर ही हिन्दुओं के सैकड़ों परिवार खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। मुसलमानें के काल के ग्रास बनते जा रहे हैं। श्री अर्मत्य सेन का खुद का मत किसको भारत का प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहतें हैं या किसको नहीं, यह उनकी व्यक्तिगत राय हो सकती है। परन्तु इस बात का देश की पौंगी धर्मनिरपेक्षता से कोई तालमेल नहीं बैठाया जा सकता। जिसप्रकार भारत में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा गढ़ी जा रही है उसमें भारत के उन बुद्धिजीवि वर्ग का प्रयोग किया जा रहा है जिसका विश्वव्यापि माहौल बनता या बिगड़ता ऐसे खतरनाक खेल को ना खेला जाए अन्यथा इसके परिणाम गुजरात से भी भयानक हो सकते हैं। इस देश में ‘‘भारत माता की जय’’ बोलना सांप्रदायिकता कहलाती है, अल्पसंख्यकों को नाराज करना जैसा है। संसद के भीतर जो सांसद ‘‘बंदे मातरम्’’ बोलने में हिचकिचाते हैं। भारत के गुणगान में जो गीत तक गुनागुनाने में जिनका धर्म खुद को अपमानित समझता हो। वे लोग कैसे देश के प्रति वफ़ादार हो सकते? इन सबके उपरान्त हमारा देश धर्मनिरपेक्षता को स्वीकारता है। हम इसका सम्मान भी करते हैं, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि हम खुद को उनके हवाले कर दें? हम कुछ भी कहें तो सांप्रदायिक और वे दंगा करें, आतंकियों को पनाह दें तो धर्मनिरपेक्ष? यह धर्मनिरपेक्षता का पैमाना नहीं हो सकता। यदि समय से हम नहीं चेते तो, आने वाली पौध हमें कभी नहीं माफ करेगी। Date: 23.07.2013/ amartya sen

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

सांप्रदायिक सेक्लुरिजम - शम्भु चौधरी

कोई भी धर्म बुरा नहीं होता परन्तु कोई धर्म दूसरे धर्म के प्रति भेदभावपूर्ण, वेमनुष्यता व सांप्रदायिकतापूर्ण व्यवहार करता हो तो इसको किसी भी रूप में धर्मनिरपेक्षता के पलड़े पर सही नहीं आंका जा सकता। आज भारत में धर्मनिरपेक्षता के संरक्षण में जिसप्रकार की राजनीति की जा रही है अर्थात श्री नरेन्द्र मोदी के शब्दों में ‘‘बुर्का की राजनीति’’ की जा रही है इसे ही हम सेक्लुरिजम सांप्रदायिकता भी कह सकते हैं जो भारतीय धर्मनिरपेक्षता के ताने-बाने को स्नेह..स्नेह अपने धर्म का ग्रास बनाकर निगल जाऐगी।
भारत में ज्यूँ-ज्यूँ 2014 का आम लोकसभा का चुनाव नजदीक आता जा रहा है सेक्लुरिजम की रोटी सैंकने वाले राजनैतिक दलों की एक ही भाषा होती जा रही है। हर बात में सेक्लुरिजम की दुहाई देने वाले दलों को राष्ट्रीयता की बात करने वाले व्यक्ति के हर शब्दों में सांप्रदायिकता की बू झलकती है। आईये इससे पहले कि हम भारतीय राजनीति की बात करें, भारत में चल रहे सेक्लुरिजम युद्ध की बात को समझ लेते हैं। पिछले कुछ दशकों से भारत में सेक्लुर दलों की बाढ़ सी आ गई है। इन दलों की सेक्लुरिजम की जो परिभाषा मानी जाती है वह है ऐन-केन-प्रकारेण मुस्लीम सांप्रदाय के वोटों को प्राप्त करने के लिए उन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं जिससे मुसलमानों की आत्म संतुष्टी मिलती रहे। विशेषकर कट्टरवादी ईस्लामिक विचारधारा के पोषकों को, जिनको भारतीय धर्मनिरपेक्षता से न तो कोई मतलब है ना ही धर्मनिरपेक्षता के वे कभी पक्षधर माने जा सकतें हैं। ऐसे लोगों का एक ही सिद्धान्त रहता है कि किसी न किसी प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता के विचारधारा से अपने धर्म को फैलाते हुए भारत में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हमला करते हुए भारतीय विचारधारा को समाप्त कर इस्लामिक सत्ता को स्थापित करना इनका एक मात्र उद्देश्य माना जा सकता है। दूसरी तरफ देश के भीतर इस्लामिक आंतकवाद को पोषण देना उनको संरक्षित करते हुए उनको पनाह देना व उनका राजनैतिक बचाव करते रहना, इनका लक्ष्य है। भारतीय संस्कृति के विकास व विचारधाराओं में किसी भी प्रकार का ना तो इनके योगदानों को आंका जा सकता है ना ही इस भुखण्ड की धार्मिक सभ्यता के विकास के लिए सामाजिक रूप कभी भी कोई योगदान ही दिया हो ऐसा दिखाई नहीं देता। अब हम भारतीय धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो आज देश में जिस प्रकार विभिन्न राजनैतिक दलों में हौड़ सी लगी है इनको देखकर ऐसा प्रतित होता है कि भारत जैसे बहु भाषा-भाषी, बहुजातिय परंपरा, बहु संप्रदाय के लोगों का आपसी सोहार्द के ताने-बाने को खंड-खंड करते रहना धर्मनिरपेक्षता का सहारा लेकर एक विशेष धर्म द्वारा प्रायोजित सांप्रदायिकता का पोषण मात्र इन राजनैतिक दलों का लक्ष्य रह गया है। कोई भी धर्म बुरा नहीं होता परन्तु कोई धर्म दूसरे धर्म के प्रति भेदभावपूर्ण, वेमनुष्यता व सांप्रदायिकतापूर्ण व्यवहार करता हो तो इसको किसी भी रूप में धर्मनिरपेक्षता के पलड़े पर सही नहीं आंका जा सकता। आज भारत में धर्मनिरपेक्षता के संरक्षण में जिसप्रकार की राजनीति की जा रही है अर्थात श्री नरेन्द्र मोदी के शब्दों में ‘‘बुर्का की राजनीति’’ की जा रही है इसे ही हम सेक्लुरिजम सांप्रदायिकता भी कह सकते हैं जो भारतीय धर्मनिरपेक्षता के ताने-बाने को स्नेह..स्नेह अपने धर्म का ग्रास बनाकर निगल जाऐगी।

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

धर्मनिरपेक्षता का बुर्का

श्री नरेन्द्र मोदी के इस बयान पर कि जब कभी भी कांग्रेस पार्टी को राजनैतिक संकट का सामना करना पड़ता है तो वह धर्मनिरपेक्षता का बुर्का पहन लेती है। इनके कहने का तात्पर्य स्पष्ट था कि भ्रष्टाचार में पूरी तरह डूबी कांग्रेस पार्टी न तो मंहगाई पर काबू पा रही है, ना ही देश में विकास का कोई नया मॉडल प्रस्तुत करने में सफल रही है। इनको तो बस हर किसी के बयान में सांप्रदायिकता ही नजर आती है और खुद धर्मनिरपेक्षता का चोला पहनकर सारे महत्वपूर्ण मुद्द को गायब कर सत्ता पर किसी तरह बने रहना चाहती है। इस बयान का पलटवार करते हुए कांग्रेस पार्टी के इन दो चेहरों ने स्वीकार किया कि उनको धर्मनिरपेक्षता का बुर्का (चोला) अच्छा लगता है।

रविवार, 14 जुलाई 2013

कुत्ते-बिल्ली की लड़ाई-शम्भु चौधरी

कांग्रेस पार्टी या अन्य खुद को सेक्लुरिजम मानने वाले लोग जो मुसलमानों को अपना वोट बैंक समझते हैं वे क्या यह बताने का प्रयास करेगें कि देश के विभाजन के समय इनका सेक्लुरिजम कहां चला गया था? बन जाने देते मो. अलि जिन्ना साहेब को प्रधानमंत्री! कम से कम देश के दो हिस्से और लाखों लागों की जान तो नहीं जाती? आजादी के पश्चात कांग्रेस पार्टी ने आज तक एक भी मुसलमान को ना तो पार्टी का अध्यक्ष बनने दिया ना ही किसी मुसलमान को प्रधानमंत्री बनाया। ये किस सेक्लुरिजम की दुहाई देते हैं?
गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा एक समाचार एजेन्सी को दिए गये बयान ‘‘कुत्ते के बच्चे वाली टिप्पणी’’ पर देश की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने जो हंगामा खड़ा किया इससे ऐसा प्रतित होता है कि ये राजनैतिक दल अपने स्वार्थ व वोट बैंक के लिए देश में सांप्रदायिक सदभावनाओं के साथ हमेशा सौदाबाजी करती रही है या करने का कोई अवसर नहीं चुकना चाहती। जिस बयान से श्री नरेन्द्र मोदी गोधरा के प्रतिफल में हुए गुजरात दंगों के दर्द के मानवीय पक्ष को अहसास कराने के प्रयास कर रहे थे, उसी बयान को इन धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने कुछ इस प्रकार प्रचारित कर देश के मुसलमानों को बहकाने का प्रयास शुरू कर दिया । इनकी सोच अभी भी उसी जमाने में चल रही है कि वे एक झूठ को सौ बार कहेगें तो सभी को वही सच नजर आयेगा। जबकी वे यह नहीं जानते कि अब मुसलमान समाज भी आधुनिक हो चुका है। वे भी इन्टरनेट के माध्यम से उनके बयान या टिप्पणी को पढ़ सकते हैं और उसका अर्थ निकाल सकते हैं। जिसका अर्थ तथाकथित सांप्रदायिक धर्मनिरपेक्ष दलों ने निकाल कर देश की जनता को समझाना कर प्रयास किया। जिसप्रकार इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सांप्रदायिक ताकतों ने मुसलमानों को बहकाने का प्रयास कर देश की सांप्रदायिक सदभावनाओं में जह़र घोलने का प्रयास किया है, इस बात को जगजाहिर करती है कि इनका उद्देश्य सीधे तौर पर मुसलमानों को बरगलाना है। कांग्रेस पार्टी या अन्य खुद को सेक्लुरिजम मानने वाले लोग जो मुसलमानों को अपना वोट बैंक समझते हैं वे क्या यह बताने का प्रयास करेगें कि देश के विभाजन के समय इनका सेक्लुरिजम कहां चला गया था? बन जाने देते मो. अलि जिन्ना साहेब को प्रधानमंत्री! कम से कम देश के दो हिस्से और लाखों लागों की जान तो नहीं जाती? आजादी के पश्चात कांग्रेस पार्टी ने आज तक एक भी मुसलमान को ना तो पार्टी का अध्यक्ष बनने दिया ना ही किसी मुसलमान को प्रधानमंत्री बनाया। ये किस सेक्लुरिजम की दुहाई देते हैं? दरअसल मुसलमानों का वोट बैंक नोचने-खसोटने में लगी तथाकथित राजनैतिक दल खुद ही कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ रहे हैं। हर दल यह साबित करने में लगा है कि वे ही मुसलमानों का भला कर सकते हैं। मुसलमानों के वोट बैंक को एकतरफा पाने के जिस सेक्लुरिजम की बात ये लोग करते हैं। उससे आजतक मुसलमानों का भला नहीं कर सके। खुद को धर्मनिरपेक्ष और दूसरे को सांप्रदयिक मानने वाले दलों की इस देश में बाढ़ आ गई है। अब तो हालात कुछ इस प्रकार हो चुके हैं कि एक दल दूसरे दल से आगे बढ़कर मुसलमानों का हमदर्द बनने इस कदर प्रयास करता है कि वह यह भी भूल जाता है कि उसे कब और कहाँ क्या कहना चाहिए, कहना चाहिए कि नहीं? यह भी भूल जाते हैं। मानों देश के अन्दर मुसलमानों के वोटों को पाने के लिए सेक्लुरिजम दलों की आपस में ही कुत्ते-बिल्ली की लड़ाई चल रही हो। - शम्भु चौधरी