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बुधवार, 5 नवंबर 2008

कहीं उजड़ न जाये अरतापात बनाने वाला गांव

प्रेषक: श्री महेश कुमार वर्मा, पटना,

Web Site:http://popularindia.blogspot.com
Email: vermamahesh7@gmail.com



श्रीराम तिवारी, डोरीगंज : अरता के पात पर उगेलन सूरूज देव छठी घाटे...। रक्त वर्ण वाले उदित सूर्य की आभा का प्रतीक अरतापात के महत्व को बताने वाले इस गीत का एक दूसरा पहलू दिघवारा प्रखंड के झौवां गांव में सोमवार को दृश्यमान हो उठता है। गांव की गलियों में चलते हुए छठ के कर्णप्रिय गीतों की जगह यहां लोगों के खांसने की आवाज सुनायी पड़ती है। अरतापात की निर्माण प्रक्रिया ऐसी है कि इस काम में लगे लोगों में अधिकांश टीबी व दमा के शिकार हो जाते हैं। अरतापात बनाने वाले लालजी दास, मरछिया देवी, फकिरादास, नारायणदास, बुद्धू दास..जैसे करीब दो दर्जन ऐसे नाम हैं समय से पहले ही कालकवलित हो चुके हैं। ये ऐसे नाम हैं जिनकी मौत पिछले एक-दो वर्षो के दौरान हुई है। संरक्षण के अभाव में यह गांव उजड़ने लगा है। सूर्योपासना व लोक आस्था के पर्व छठ का चार दिवसीय अनुष्ठान अरतापात के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। अंतिम अ‌र्घ्य के बाद श्रद्धालु अरतापात को अपने घर के दरवाजे पर साटते हैं या पूजा वाले स्थान पर रखते हैं, ताकि भगवान सूर्य की कृपा बनी रहे। लाखों श्रद्धालुओं का अनुष्ठान पूर्ण हो सके इसके लिए इस गांव के बच्चा से वृद्ध तक पूरे वर्ष अरतापात निर्माण में लगे रहते हैं। इसी गांव में निर्मित अरतापात बिहार, झारखंड व उत्तर प्रदेश के बाजारों में बिकता है। बीड़ी उद्योग की तरह अरतापात को कुटीर उद्योग का दर्जा नहीं मिल सका है। अत: इसके निर्माण में लगे मजदूरों को श्रम विभाग द्वारा उपलब्ध करायी जाने वाली सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है। श्रमिक अस्पतालों में इलाज व बीमा की सुविधा से भी वंचित हैं। वहीं पूरे वर्ष काम करने के बाद भी इतना पैसा नहीं हो पाता कि ठीक से जीवन यापन कर सकें। लाल-लाल अरतापात बनाने में इस गांव के हिन्दू-मुसलमान, ब्राह्मण-क्षत्रिय के साथ अन्य जातियों के लोग पूरे वर्ष लगे रहते हैं। अकवन की रूई से अरतापात का निर्माण होता है। गांव के बच्चे व महिलाएं दियारा क्षेत्र से अकवन की रूई एकत्रित कर घर लाती हैं। इस रूई की धुनाई की जाती है। धुनाई के क्रम में निकलने वाले जहरीला कण के कारण लोग बीमार पड़ते हैं। धुनाई के बाद गिली मिट्टी पर गोलाकार छोटी रोटी की तरह पतली अरतापात बनायी जाती है। इसे अरारोट व रंग के साथ उबाल कर सूखाया जाता है। इसके बाद अरतापात तैयार हो जाता है। महिला मंच नामक स्वयं सेवी संगठन ने स्वयं सहायता समूहों का गठन कर यहां की महिलाओं को कुछ आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी है परन्तु बीमार लोगों के उपचार की व्यवस्था नहीं हो सकी है। महिला मंच की अध्यक्ष नजबून निशा कहती हैं कि अब भी यहां के लोगों के इलाज की व्यवस्था नहीं करायी गयी तो पूरा गांव ही समाप्त हो जायेगा।

साभार: दैनिक जागरण, पटना, ०४.११.२००८, पृष्ठ १४

2 विचार मंच:

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सुरेन्द्र Verma ने कहा…

Baat Bilkul sahi hai. Lekin jagrook hamsabon ko hona hai.

Kavita Vachaknavee ने कहा…

महत्वपूर्ण जानकारी।

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