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रविवार, 22 सितंबर 2013

आज का ‘संजय’

इन दिनों समाचार चैनलों के चरित्र इस कदर गिर चुका है कि इन बेलगाम घोड़ों की सवारी करना भी अपराध सा लगने लगा है। पत्रकारिता को इन लोगों ने इस तरह प्रस्तुत करने का प्रयास किया है कि घर के बच्चे भी दहशत में आ जाते हैं। बच्चों के चेहरे का भाव यह बताता है कि इस देश में आखिर यह हो क्या रहा है? हमारी कुछ भी जिम्मेदारी नहीं बनती क्या? वे अपराधी हैं तो इनकी भूमिका भी अपराधियों जैसी हो जाती है। चैनलों द्वारा इस प्रकार का बौद्धिक अपराध जो इन दिनों देखने को मिल रहा है इसे बंद किया जाना चाहिए।

कहावत कई बार खुद ही सही साबित हो जाती है। कहावत है ‘‘सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को’’ हमारे देश के नेताओं पर कितनी सटीक यानी की फीट बैठती है। एक बार ‘हरिओमजी‘ अरे वह अपने गांव का गुरु ‘शिक्षकजी’!, क्लास लेते-लेते सठिया गए और बोलने लगे कि देश के नेता सबके सब चोर हैं। भाषण देने लगे कि ‘‘यहीं नेताओं के चलते देश में महंगाई, बेरोजगारी, बलात्कार, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और तो और सीमाओं पर देश के जवानों के हत्या हो रही है। देश के युवा शिक्षा लेकर दूसरे देश की सेवा करने चले जाते हैं। देश के भीतर प्रतिभाओं को कोई प्रोत्साहन नहीं मिल रहा ।’’ हम भी सोचने लगे बात तो पते की है। कभी कोई नेता जेल जा रहा है तो कभी कोई। मानो आपस में हौड़ सी लगी है। इनके कारनामे भी बड़े विचित्र होते हैं 2जी, 3जी, कोयला, जमीन, हवा, पानी, जहाज, मकान, खेल, छोकड़ीबाजी, दंगा भड़काना । परन्तु हमें यह बात नहीं समझ में आ रही थी कि इन बातों से बच्चों का क्या लेना-देना?

जब से देश में इन नेताओं के खिलाफ जनता में जागरूकता आई है नेताओं की जमीं धंसती नजर आने लगी। इन्होंने भी कमर ठान ली। एक हींजड़े ने जैसे ही अपनी पतलून उतारी, दूसरा भी सामने आ गया । लगे सबके सब नाचने ‘मेरे अंगने में तेरा क्या काम है?’ बस क्या था इसके साथ ही आज का ‘संजय’ अरे वही जो दिन भर हमारे घर का पहरेदार बना दिन भर भौंपा की तरह भौंखने वाला मीडिया जो खुद को इस तरह प्रस्तुत करता है कि सच का सारा ठेका इन्हीं लोगों ने ले रखा है । मानो इन्होंने ही रातों रात अन्नाहजारे के पक्ष में या दामणी के दरिंदों के खिलाफ जन मानस खड़ा किया हो । रोज़ाना लाश बेचने वाले समाचार को कभी कोई मुद्दा ना मिले तो पगला जाते हैं। बहस में नकारात्मक विचारों को लेकर कई एंकर कार्य करते पाये गए। सवाल यह नहीं है कि बहस होनी चाहिए कि नहीं? सवाल यह भी नहीं हैं कि किसी ने अपराध किया या नहीं और अपराधी है भी तो सजा अदालत ही देगी। परन्तु इनका व्यवहार कुछ इस प्रकार होता है कि कोई समाचार चैनल नहीं चला रहे, देश को चला रहे हैं।

इन दिनों समाचार चैनलों के चरित्र इस कदर गिर चुका है कि इन बेलगाम घोड़ों की सवारी करना भी अपराध सा लगने लगा है। पत्रकारिता को इन लोगों ने इस तरह प्रस्तुत करने का प्रयास किया है कि घर के बच्चे भी दहशत में आ जाते हैं। बच्चों के चेहरे का भाव यह बताता है कि इस देश में आखिर यह हो क्या रहा है? हमारी कुछ भी जिम्मेदारी नहीं बनती क्या? वे अपराधी हैं तो इनकी भूमिका भी अपराधियों जैसी हो जाती है। चैनलों द्वारा इस प्रकार का बौद्धिक अपराध जो इन दिनों देखने को मिल रहा है इसे बंद किया जाना चाहिए। समाचारों को प्रस्तुत करते समय श्रोताओं या पाठकों के मनः स्थिति को भांपना भी उतना ही जरूरी है जितना उसका प्रसारण व प्रकाशन । संचार माध्यमों के माध्यम से खुद की विचारधारा को समाज पर थोपा नहीं जा सकता । समाचार माध्यम समाज का प्रहरी होता है । प्रहरी का अर्थ होता है खुद जगा रहना ना कि समाज के बीच खुद के विचारों का आतंक फैलाना।

इन दिनों चैनलों पर सीधी बहस एक रोग सा बनता जा रहा है। इस रोग में ऐंकरों की भी टिप्पणी देखी जाती है। इनकी भूमिका कई समय खुद के विचारों को थोपने जैसी भी लगती है। कई ऐसे लोग इस विचार पैनलों में हिस्सा लेते हैं जिसका समाज में कोई योगदान नहीं रहता । इस तरह की परम्परा पर ना सिर्फ अंकुश होनी ही चाहिए बहस के मुद्दे जब भी तय हो तो उसमें सिर्फ बौद्धिक विचारधाराओं के लोगों को ही जगह देनी चाहिए। राजनेताओं या धर्मगुरुओं को इस मंच पर जगह देना ही नहीं चाहिए । - शम्भु चौधरी


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