कोलकाता से शम्भु चौधरी
पिछले माह पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव व इनके परिणामों पर विभिन्न विद्वानों के विश्लेषण से इस बात के संकेत प्राप्त होते हैं कि कांग्रेस पार्टी में अब कार्यकर्ताओं की जगह नेताओं ने ले ली है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में जिस प्रकार चुनाव प्रचार किया गया। साम दाम दंड भेद का न सिर्फ प्रयोग किया गया कांग्रेस पार्टी ने चुनाव आते-आते वे सभी पत्ते खोल दिये जो इनके धर्मनिरपेक्षता पर भी एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। जातिगत राजनीति से लेकर धर्म आधारित राजनीति ने देश को यह भी सोचने को मजबूर कर दिया कि अब हर चुनाव राजनैतिज्ञ तुष्टिकरण से ही प्रारम्भ होकर धार्मिक तुष्टिकरण पर ही समाप्त होगा। धीरे-धीरे प्रायः सभी राज्यों में मुसलमानों का संगठित मतदान एक निर्णायक की भूमिका निभाने में सझम दिखाई देने लगा है। इसके साथ ही पिछले 50-60 सालों से कांग्रेस पार्टी जिसने इन वाटों पर केन्द्र की राजनीति की अब वह अपने खुद के बुने जाल में उलझती जा रही है। महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल कुछ ऐसे राज्यों की सूची में आ चुके हैं जहाँ कांग्रेस के केन्द्रीय या राज्य के चन्द चापलूस-पदलोलुप नेताओं ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को सामने रख संगठन को हमेशा से नुकसान पंहुचाते रहे हैं। महाराष्ट्र में जहाँ शरद पावर ने कांग्रेस से अलग होकर खुद को शक्तिशाली बना लिया तो बंगाल में ममता के कद को नीचा दिखाने व केन्द्र में रहने की मजबूरी ने इस पार्टी की जमीन ही बंगाल से हिला कर रख दी। तमिलनाडु में पिछले 45 सालों से, बिहार और उत्तरप्रदेश में में पिछले दो दशकों से, बंगाल में पिछले 35 सालों कांग्रेस पार्टी सत्ता से बहार हो चुकी है। पंजाब, कर्नाटक, राजस्थान, असम, हरियाणा व देश के कुछ छोटे राज्यों में कांग्रेस अपनी स्थिति को किसी प्रकार बचा पाती है इसका कारण यह नहीं कि वहां इस पार्टी कर जनाधार मजबूत है। इसका कारण है कि अभी वहाँ जनता को कोई अच्छा विकल्प नहीं मिल पाया है। जबकि केरल व त्रिपुरा में माकपा का जनाधार कुछ हद तक कांग्रेस को टक्कर देता रहा है। कांग्रेस पार्टी के जो नेतागण अपने ही राज्यों के मझले नेताओं के पर कुतरते रहे हैं वैसे ही लोग सत्ता को अपनी जागिर बनाये रखने के लिए गांधी परिवार के सामने अपने घुटने टैकने का कार्य करते रहें हैं।
आज जब उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम ने दो युवाओं की लड़ाई में अखिलेश यादव को जनता ने जो जनमत प्रदान किया वहीं गांधी परिवार की कमाई खाने वाले कांग्रेसियों को करारा झटका भी दिया है। मजे कि बात यह है कि इस पार्टी में इनके खुद के राज्य को मजबूत बनाने की जगह हवा में महल बनाने के लिए नींव बनाई जाती रही है। दिल्ली के गलियारे तक सिमटती कांग्रेस पार्टी आज धीरे-धीरे राज्यों में अपनी जमीन खोती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है कांग्रेस पार्टी जनमत पर विश्वास न कर गांधी परिवार तक सिमटती नजर आती है। इससे देश के अन्दर छोटी-छोटी ताकतें अपना सर उठाने में सफल रही है। देश का राजनैतिज्ञ परिदृश्य भी तेजी से बदलता जा रहा है। इसका विश्लेषन कांग्रेस पार्टी को अंततः करना ही होगा। कि वह किस दिशा में जा रही है? राज्य के नेताओं के पर कुतरने के बजाय यदि कांग्रेस पार्टी उनके कद को एक अनुशासन के अन्दर महत्व प्रदान करे और सत्ता प्राप्त करने की जल्दबाजी न कर अपने संगठन को महत्व दे तो संभवतः यह दल भारतीय राजनीति में अपनी पहचान बचा पाएगी अन्यथा इसका हर्ष दिल्ली तक सिमटता चला जाऐगा।
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