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मंगलवार, 27 जनवरी 2009

साहित्य शिल्पी: प्ररेणा उत्सव


Rajiv Ranjan Prasadसाहित्य शिल्पी ने अंतरजाल पर अपनी सशक्त दस्तक दी है। यह भी सत्य है कि कंप्यूटर के की-बोर्ड की पहुँच भले ही विश्वव्यापी हो, या कि देश के पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण में हो गयी हो किंतु बहुत से अनदेखे कोने हैं, जहाँ इस माध्यम का आलोक नहीं पहुँचता। यह आवश्यकता महसूस की गयी कि साहित्य शिल्पी को सभागारों, सडकों और गलियों तक भी पहुचना होगा। प्रेरणा उत्सव इस दिशा में पहला किंतु सशक्त कदम था।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण करने लिये साहित्य शिल्पी ने 25/01/2009 को गाजियाबाद स्थित भारती विद्या सदन स्कूल में लोक शक्ति अभियान के साथ मिल कर प्रेरणा दिवस मनाया। सुभाष चंद्र बोस एसे व्यक्तित्व थे जिनका नाम ही प्रेरणा से भर देता है। साहित्य शिल्पी के लिये भी हिन्दी और साहित्य के लिये जारी अपने आन्दोलन को एसी ही प्रेरणा की आवश्यकता है। कार्यक्रम का शुभारंभ अपने नियत समय पर, प्रात: लगभग साढ़े दस बजे प्रसिद्ध विचारक तथा साहित्यकार बी.एल.गौड के आगमन के साथ ही हुआ। मंच पर प्रसिद्ध शायर मासूम गाजियाबादी तथा सुभाष के चिंतन पर कार्य करने वाले सत्यप्रकाश आर्य भी उपस्थित थे। मंच पर साहित्य शिल्पी का प्रतिनिधित्व चंडीगढ से आये शिल्पी श्रीकांत मिश्र ‘कांत’ ने किया।
नेताजी सुभाष की तस्वीर पर पुष्पांजलि के साथ कार्यक्रम का आरंभ किया गया। तत्पश्चात लोक शक्ति अभियान के मुकेश शर्मा ने आमंत्रित अतिथियों का अभिवादन किया एवं लोक शक्ति अभियान से आमंत्रितों को परिचित कराया। नेताजी सुभाष के व्यक्तित्व पर बोलते हुए तथा विचारगोष्ठी का संचालन करते हुए योगेश समदर्शी ने युवा शक्ति का आह्वान किया कि वे अपनी दिशा सकारात्मक रख देश को नयी सुबह दे सकते हैं। काव्य गोष्ठी का संचालन श्री राजीव रंजन प्रसाद ने किया।


Masum Gajiyavadiगाजियाबाद के शायर मासूम गाजियाबादी ने अपनी ओजस्वी गज़ल से काव्य गोष्ठी का आगाज़ किया। अमर शहीदों को याद करते हुए उन्होंने कहा :-
भारत की नारी तेरे सत को प्रणाम करूँ
दुखों की नदी में भी तू नाव-खेवा हो गई
माँग का सिंदूर जब सीमा पे शहीद हुआ
तब जा के कहा लो मैं आज बेवा हो गई


पाकिस्तान और सीमापार आतंकवाद पर निशाना साधते हुए मासूम गाजियाबादी आगे कहते हैं:
मियाँ इतनी भी लम्बी दुश्मनी अच्छी नहीं होती
कि कुछ दिन बाद काँटा भी करकना छोड़ देता है
Subhash Nirawसुभाष नीरव ने अपनी कविता सुना कर श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर दिया। उन्होने कहा -
राहो ने कब कहा हमें मत रोंदों
उन्होंने तो चूमे हमारे कदम और खुसामदीद कहा
ये हमीं थे ना शुकरे कि पैरों तले रोंदते रहे
और पहुंच कर अपनी मंजिल तक
उन्हें भूलते भी रहे....


मास फॉर अवेयरनेस मूवमेंट चलाने वाले नीरज गुप्ता ने सुभाष के व्यक्तित्व पर बोलते हुए राष्ट्रीय चेतना के लिये छोटे छोटे प्रयासों की वकालत की। उन्होने अपने कार्टूनो को उस देश भक्ति का हिस्सा बताया जो लोकतंत्र को बचाने व उसे दिशा देने में आवश्यक है।
उनके वक्तव्य के बाद कार्यक्रम को कुछ देर का विराम दिया गया और उपस्थित अतिथि कार्टून प्रदर्शिनी के अवलोकन में लग गये। कार्यक्रम का पुन: आरंभ किया गया और श्रीकांत मिश्र कांत सुभाष की आज आवश्यकता पर अपना वक्तव्य दिया।
Yogesh Samdarshiयोगेश समदर्शी ने इसके पश्चात बहुत तरन्नुम में अपनी दो कवियायें सुनायीं। एक ओजस्वी कविता में वे सवाल करते हैं:-
तूफानों से जिस किश्ती को लाकर सौंपा हाथ तुम्हारे
आदर्शों की, बलिदानों की बड़ी बेल थी साथ तुम्हारे
नया नया संसार बसा था, नई-नई सब अभिलाषाएं थीं
मातृभूमि और देश-प्रेम की सब के मुख पर भाषाएं थीं
फिर ये विघटन की क्रियाएं मेरे देश में क्यों घुस आईं
आपके रहते कहो महोदय, ये विकृतियाँ कहाँ से आईं


Avinash Vachspatiअविनाश वाचस्पति ने कार्यक्रम में विविधता लाते हुए व्यंग्य पाठ किया। उन्होंने व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए कहा कि “फुटपाथों पर पैदल चलने वालों की जगह विक्रेता कब्जार जमाए बैठे हैं और पैदलों को ही अपना सामान बेच रहे हैं। तो इतनी बेहतरीन मनोरम झांकियों के बीच जरूरत भी नहीं है कि परेड में 18 झांकियां भी निकाली जातीं, इन्हेंज बंद करना ही बेहतर है। राजधानी में झांकियों की कमी नहीं है। सूचना के अधिकार के तहत मात्र दस रुपये खर्च करके आप लिखित में संपूर्ण देश में झांकने की सुविधा का भरपूर लुत्फं उठा तो रहे हैं। देश को आमदनी भी हो रही है, जनता झांक भी रही है। सब कुछ आंक भी रही है। देश में झांकने के लिए छेद मौजूद हैं इसलिए झांकियों की जरूरत नहीं है।
कार्यक्रम में स्थानीय प्रतिभागिता भी रही। गाजियाबाद से उपस्थित कवयित्री सरोज त्यागी ने वर्तमान राजनीति पर कटाक्ष करते हुए कहा :-
बहन मिली, भैया मिले, मिला सकल परिवार
लाया मौसम वोट का, रिश्तों की बौछार
चुन-चुन संसद में गये, हम पर करने राज
सत्तर प्रतिशत माफ़िया, तीस कबूतरबाज
अल्लाह के संग कौन है, कौन राम के साथ
बहती गंगा में धुले, इनके उनके हाथ


Ajay Yadavकाव्यपाठ में सुनीता चोटिया ‘शानू’, शोभा महेन्द्रू, राजीव तनेजा,अजय यादव, राजीव रंजन प्रसाद, मोहिन्दर कुमार, पवन कुमार ‘चंदन’ एवं बागी चाचा ने भी अपनी कवितायें सुनायी।
Sunita Chotiaसुनीता शानू ने अपनी कविता में कहा:-
मक्की के आटे में गूंथा विश्वास
वासंती रंगत से दमक उठे रग
धरती के बेटों के आन बान भूप सी
धरती बना आई है नवरंगी रूप सी


Pawan Kumar Chandanपवन चंदन ने शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए प्रस्तुत किया-
चाहता हूं तुझको तेरे नाम से पुकार लूं
जी करता है कि तेरी आरती उतार लूं


Shobha Mahendroशोभा महेंद्रू ने नेताजी सुभाष पर लिखी पंक्तियाँ प्रस्तुत कीं:-
२३ जनवरी का दिन एक अविष्मर्णीय दिन बन जाता है
और एक गौरवशाली व्यक्तित्त्व को हम लोगों के सामने ले आता है
एक मरण मांगता युवा आकाश से झाकता है
और पश्चिम की धुन पर नाचते युवको को राह दिखाता है


Rajiv Tanejaराजीव तनेजा ने कहा -
क्या लिखूं कैसे लिखूं लिखना मुझे आता नहीं ...
टीवी की झ्क झक मोबाईल की एसएमएस मुझे भाता नही ....
Bagi Chachaबागी चाचा ने सुनाया -
आज भी जनता शहीद हो रही है और वह डाक्टर के हाथो से शहीद हो रही थी
दीनू की किस्मत फूटनी थी सो फूट गई..


कार्यक्रम के मध्य में मोहिन्दर कुमार ने अपनी चर्चित कविता "गगन चूमने की मंशा में..." सुनायी साथ ही, साहित्य शिल्पी और उसकी गतिविधियों तथा उपलब्धियों से उपस्थित जनमानस का परिचय करवाया।
विचार गोष्ठी में सत्यप्रकाश आर्य ने सुभाष चंद्र बोस और उनके व्यक्तित्व पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने सुभाष के जीवित होने जैसी भ्रांतियों पर भी अपने विचार रखे। कार्यक्रम में स्थानीय विधायक सुनील शर्मा की भी उपस्थिति थी। सुनील जी ने समाज के अलग अलग वर्ग को भी देश सेवा के लिये आगे आने की अपील की। कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष बी.एल. गौड ने अपने विचार प्रस्तुत लिये। उन्होंने कार्य करने की महत्ता पर बल दिया और विरोधाभासों से बचने की सलाह दी।
उन्होने बदलते हुए समाज में सकारात्मक बदलावों की वकालत करते हुए रूढीवादिता को गलत बताया। अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ भी प्रस्तुत की:


ऐ पावन मातृभूमि मेरी
मैं ज़िंदा माटी में तेरी
मैं जन्म-जन्म का विद्रोही
बागी, विप्लवी सुभाष बोस
अतिवादी सपनों में भटका
आज़ाद हिंद का विजय-घोष
मैं काल-निशाओं में भटका
भटका आँधी-तूफानों में
सागर-तल सभी छान डाले
भटका घाटी मैदानों में
मेरी आज़ाद हिंद सेना
भारत तेरी गौरव-गाथा
इसकी बलिदान-कथाओं से
भारत तेरा ऊँचा माथा


कार्यक्रम में साहित्यकारों विद्वानों और स्थानीय जन की बडी उपस्थ्ति थी।
साहित्य शिल्पी ने कार्यक्रम के अंत में यह संकल्प दोहराया कि साहित्य तथा हिन्दी को अभियान की तरह प्रसारित करने के लिये इस प्रकार के आयोजन जीयमित होते रहेंगे।
कार्यक्रम का समापन "जय हिन्द" के जयघोष के साथ हुआ।

सोमवार, 26 जनवरी 2009

‘‘अभिलाषा‘‘ काव्य-संकलन



कृष्ण कुमार यादव के प्रथम काव्य-संकलन ‘‘अभिलाषा‘‘ की प्रस्तुति देखकर प्रथमदृष्ट्या कहा जा सकता है कि उनके मस्तिष्क-पिण्ड में प्रशासनिक व्यवस्था के साथ-साथ फूलों की खुशबू समान काव्य-सर्जक का गुण भी विद्यमान है। इसी गुण के कारण अभिधा शैली में नानाविध 88 छन्दमुक्त कविताओं का यह अनुपम संकलन सामने आया है। इस संकलन में प्रस्तुत कवितायें उनके चिन्तन के विविध बहुरंगी रूप हैं। ‘‘अभिलाषा‘‘ रूपी काव्य का यह गुलदस्ता निरूपित कर रहा है कि कृष्ण कुमार यादव का व्यक्तित्व कितने अच्छे गुणों और मौलिक विचारों की तिजोरी है। मेरा प्रयत्न यही है कि ‘‘अभिलाषा‘‘ काव्य-संकलन जिन बारह शीर्षकों की परिधि में आवृत्त किया गया है, उसका विवेचन हमें क्या दिशा और बोध देता है, उस छोर की बात कह सकूं।
‘माँ‘ की ममता, कृपा, सुरक्षा, बच्चों के प्रति दुलार, कर्तव्य इत्यादि भावों को बच्चे की छोटी उम्र से लेकर बड़ा होने तक शादी होने तक के विभिन्न पड़ावों को कवि ने बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। कवि के समर्पण लेकिन मातृत्व भाव को देखिए- बेटे की शादी होनें के बाद बेटे का हाथ बहू के हाथ में देते हुए वह कहती है- उसे संभालना, बड़े दुलार से पाला है। माँ के आँसू, माँ का पत्र, परी इत्यादि रचनाओं से कवि की संवेदनशीलता का भाव, पाठक-मन के मर्म को छू जाता है। यह प्रस्तुति सराहनीय है, प्रशंसनीय है। काश! निर्दयी लोगों के मन माँ के लिए ऐसे ही भावुक बन जाएं, तो धरती को स्वर्ग बनने में देरी नहीं लगेगी।
तितलियाँ जितनी नाजुक व कोमल होती हैं, ऐसा ही ‘प्रेम‘ होता है- अपनी ‘प्रेयसी‘ के लिए। ‘तुम्हारी खामोशी‘ में ‘तुम्हें जीता हूँ‘। जब कभी भी ‘बेवफा‘ हुआ हूँ, मुझे तुम्हारी ‘तलाश‘ है- ढूँढ़ता हूँ हर कहीं/ इस छोर से उस छोर तक/ उस छोर से इस छोर तक। तब ‘तुम और चाँद‘ में फर्क भूल जाता हूँ। क्या ‘तुम‘ ऐसी ही नहीं हो? प्रेम एक भावना है/ समर्पण है, त्याग है/ प्रेम एक संयोग है/ तो वियोग भी है/.... पतंगा बार-बार जलता है/ दीये के पास जाकर, आखिर क्यूं ? जीवन-संगिनी क्या चीज है, इस जिम्मेदारी को और उसके लिए पवित्र प्रेम को समझना एवं तद्नुरूप कर्तव्यबोध को अवगत कराया है- कृष्ण कुमार यादव ने।
‘ईश्वर‘ को लेकर कृष्ण कुमार जी का नजरिया बिल्कुल साफ है। ऐसी सोच और विवेक को वे आमजन-मानस में देखना चाहते हैं, यथा- मैं किसी मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे में नहीं/मैं किसी कर्मकाण्ड और चढ़ावे का भूखा नहीं/ नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा ये सब कुछ/मैं सत्य में हूँ, सौंदर्य में हूँ, कर्तव्य में हूँ। इसी प्रकार ‘नारी‘ के आत्मबल को पहचानते हुए उसे अबला की संज्ञा देना तथा उस पर होने वाले जुल्मोसितम व उत्पीड़न से आज के पुरूष समाज को चेताने का प्रयास किया है और अपेक्षा की है कि पुरूष, नारी को अपने बराबर ही समझे।
‘बचपन‘ खण्ड के अन्तर्गत निहित कविताएं बहुत अच्छा संदेश देती हैं। बचपन में मन-मस्तिष्क पर जमे संस्कार कवि-मन को कचोटते हैं। वर्तमान में एक दूसरे के प्रति दिखाई देने वाली नफरत, दूरियाँ, घृणा, बैर, विद्रूपता को वह सहन नहीं कर पाता है और अपेक्षा करता है कि - अरे! आज लड़ाई हो गई/शाम को दोनों गले मिल रहे हैं/एक दूसरे को चूम रहे हैं/.....दीवाली है, ईद है/ अपनी मंडली के साथ/मिठाइयांँ खाए जा रहा है/क्या फर्क पड़ता है/ कौन हिन्दू कौन मुसलमां।
‘एकाकीपन‘ शीर्षक में लिखी सभी रचनाओं ने जिस मनोदर्शन और अन्तद्र्वन्द्व को उकेरा है, मुझे तो ऐसा लगता है कि ‘खिड़कियाँ‘ कविता की खिड़की से प्रवेश करती धूप-रश्मियाँ ही ‘अपने लोग‘ हैं। रश्मिरूप ‘अपने लोग‘ ही आपके मन से बातें कर रहे होते हैं। न जाने कितनी अच्छी और न जाने कितनी देर तक। कभी ‘मानव जीवन‘ तो कभी ‘अकेलेपन के संघर्ष‘ और ‘अकेलापन‘ की। अन्र्तमन को रश्मियों के रूप में इतना अच्छा मीत मिल गया हो और उसके साथ हम घंटों बतियाते हुए ‘‘अभिलाषा‘‘ रूपी काव्य-संग्रह जन्मते हैं, तो कवि किसी भी हाल में अकेला नहीं होता है। हाँ, मन जब सौ पर्दों में कैद हो जाता है, दरो-दीवारों में बंद महसूस करता है, तब वह ‘वातायन‘ की अपेक्षा करता है।
‘दतर‘ का जीवन, मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन को काफी प्रभावित करता है। इसका कारण एक अपरिपक्व उम्र में नौकरी में लगना है। उस वक्त का उसका कर्तव्य बोध, अपने संस्था के लिए सेवाभाव, समर्पण, त्याग, उद्देश्य, सिद्धान्त, सपने आदि एक-एक करके दबते जाते हैं, जब कार्यालय के अन्य भ्रष्ट कर्मचारी उस पर गलत तरीके अपनाने का दबाव डालते हैं और वह भी इनके समान गलत रास्ते अपना लेता है। इन मनोभावों को कवि ने ‘फाइलें‘ निपटाने में ‘सुविधा शुल्क‘ जैसी प्रवृत्ति और तद्नुसार एक ‘युवा अधिकारी‘ के मनोभावों में होने वाले बदलाव को बड़े अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है- जिन्दगी में समझौतावादी बनो/यहांँ कोई नहीं देखता/ कि आपने क्या किया/ बस आपकी सी.आर. देखी जाती है/उसे ही ठीक-ठाक रखने का प्रयास करो/ मुझे अपने अन्दर कुछ टूटता सा नजर आता है।
‘प्रकृति‘ शीर्षक के अन्तर्गत पचमढ़ी, बादल, नया जीवन और प्रकृति के नियम कविताएं कवि के प्रकृति प्रेम को उजागर करती हैं। ‘मूल्य एवं विसंगतियाँ‘ शीर्षक के माध्यम से कवि ने सिद्ध कर दिया है कि आज नैतिकता के साथ-साथ मानवता का कितना अधःपतन हो चुका है। ये सब कविताएं मन के मर्म को छूती हैं। हमारी चेतना और संवेदना को जागृत करती हैं। काश! समाज की दशा और दिशा बिगाड़ने वाले लोगों को इन कविताओं के अर्थों का संदेश मिले, ताकि वांछित परिवर्तन हो सकें।
वास्तविक रूप से ‘महात्मा गाँधी‘ को हाशिए पर डालने वाले ये इंसान ऐसे ‘खटमल‘ हैं, जो स्वयं की ‘मौत‘ के वक्त भी अपने मुख से ‘हे राम‘ कभी नहीं कहेंगे। ये ‘मानवता के दुश्मन‘ कभी सुधर सकते हैं क्या? अतीत का इतिहास और वर्तमान के सबूत यही गवाही देते हैं। रोज पढ़ा जाने वाला ‘सुबह का अखबार‘ भी यही निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। यदि समाज सुधारकों का बस चल सके तो मजबूर गरीब, बेरोजगार, पीड़ितो का ‘गुर्दा‘ न निकालकर ऐसे बेईमानों के गुर्दे निकालकर और उन्हें बेचकर इन बेसहारा लोगों की जानी चाहिए। ‘सम्बन्ध‘ और ‘जिन्दगी का दोराहा‘ कविताएं कवि मन की संवेदनशीलता के साथ-साथ चिंता को निरूपित करती हैं। क्योंकि जिंदगी को मोड़ देने के अहम् फैसले मृगमरीचिका साबित हुए तो क्या हश्र होगा इससे भी कवि चिंतित नजर आता है।
‘समकालीन‘ शीर्षक में प्रकाशित बारह कविताएं वर्तमान और दैनन्दिन जीवन में घटित होने वाले विषयों के संबंध में आगाह करती हैं। ये कवि की जागरूकता, कार्यालयीन, सामाजिक, प्रादेशिक और देशज घटनाओं को विशेष रूप से इंगित करती हंै। ‘क्लोन‘ कविता में कवि मानव को आगाह करता है- प्रकृति को ललकारना/तो आसान है/ लेकिन/इसके दुष्परिणामों को भुगतना/उतना ही कठिन। इसी प्रकार ‘कश्मीर‘ में व्याप्त आतंकवाद और हिंसा के अंजाम से बेपरवाह कवि कहता है- अतीत की परछाईयों से क्या डरना/चाहे भारत पाक में जाए/या पाक भारत में आए/ पर हम एक तो होंगे/ फिर यह तो अवाम तय करेगी/शासकों का भविष्य क्या है। ‘हिन्दी सप्ताह‘ कविता में सरकारी रवैये का एक नमूना देखिए - सरकारी बाबू ने कुल खर्च की फाइल/धीरे-धीरे अधिकारी तक बढ़ाई/अधिकारी महोदय ने ज्यों ही/ अंग्रेजी में अनुमोदन लिखा/बाबू ने धीमे से टोका/अधिकारी महोदय ने नजरें उठायीं/और झल्लाकर बोले/तुम्हें यह भी बताना पड़ेगा/कि हिन्दी सप्ताह बीत चुका है। इसी तरह अन्य कविताओं आटा की चक्की, मेरी कहानी, ई-पार्क, जज्बात, ट्रैफिक जाम इत्यादि में आज के मनुष्य और शासन तंत्र की अमानवीय व्यवस्था और स्वार्थपरक प्रवृत्ति का अच्छा खाका तैयार किया है।
‘विविध‘ के अन्तर्गत संकलित कविताओं के तेवर और प्रवाह कवि कृष्ण कुमार यादव के मौलिक विचारों की प्रस्तुति में नयापन का आभास देते हैं, यथा-कविता है वेदना की अभिव्यक्ति/कविता है एक विचार/कविता है प्रकृति की सहचरी/कविता है क्रान्ति की नजीर/कविता है शोषितों की आवाज/कविता है रसिकों का साज/कविता है सृष्टि और प्रलय का निर्माण/कविता है मोक्ष और निर्वाण। इसी तरह मजदूर, कुर्सियां, ये बादल इत्यादि कविताओं में कवि के सरलतम शब्दों के ताने-बाने ने समर्थ मनभावन भावों को चुनकर मन के मर्म को सर्वथा एक नये लेकिन भिन्न अन्दाज से छुआ है। ऐसे ही अनेक बहुरंगी विचार कृष्ण कुमार यादव जी की अन्य रचनाओं में यत्र-तत्र-सर्वत्र मौजूद हैं। इस मायने में कवि एक समर्थ रचनाकार है। निश्चित ही आने वाले वर्षों में लेखन की परिपक्वता का यह ग्राफ और भी गहराता जाएगा।
अन्त में यह कहना चाहूँगा कि कविवर कृष्ण कुमार जी के मन-मस्तिष्क में विद्यमान सुप्त-सरस्वती जो सुख-दुःख के फूलों के बीच प्रवहमान रहती है, काव्य लेखन हेतु उनको विशेष दर्द और वेदना से अवगत कराती है। उसमें निहित चेतना और संवदेना का प्रस्फुटीकरण ही देशज, सामाजिक, मानवीय गुणों से आपूर्ति करने हेतु ‘‘अभिलाषा‘‘ काव्य-संकलन के रूप में प्रकट हुआ है। निश्चित ही श्री यादव के विचारों, चिन्तन आदि की दशा और दिशा देश, समाज और मानव कल्याण की ओर उन्मुख है।



समालोच्य कृति- अभिलाषा (काव्य संग्रह)
कवि- कृष्ण कुमार यादव, भारतीय डाक सेवा, वरिष्ठ डाक अधीक्षक, कानपुर मण्डल/
kkyadav.y@ rediffmail.com
प्रकाशक- शैवाल प्रकाशन, दाऊदपुर, गोरखपुर
पृष्ठ- 144,
मूल्य- 160 रुपये
समीक्षक- विष्णु मंगरूलकर ‘तरल‘, अध्यक्ष-हिन्दी साहित्य समिति, मुलताई, 63, नेहरू वार्ड, अमरावती मार्ग,मुलताई, बैतूल (म0प्र0)

रविवार, 25 जनवरी 2009

समझौते की बात न हो तो अच्छा है


राष्ट्रीय महानगर कोलकाता महानगर सांध्य दैनिक की तरफ से गत २३ जनवरी को कोलकाता के माहेश्वरी भवन सभागार में "अपनी धरती अपना वतन" कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसकी शुरूआत श्री प्रकाश चण्डालिया के पुत्र चिं. चमन चण्डालिया ने माँ सरस्वती वन्दना से की।
कोलकाता. सांध्य दैनिक राष्ट्रीय महानगर की और से आयोजित कवि सम्मलेन एवं अपनी धरती-अपना वतन कार्यक्रम कई मायनों में यादगार बन गया। कोलकाता में हाल के वर्षों में यह ऐसा पहला सार्वजनिक कवि सम्मलेन था जिसमे भाग लेने वाले सभी कवि इसी महानगर के थे। महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया ने अपने संबोधन में कहा भी, कि यहाँ जब भी कोई सांस्कृतिक आयोजन होता है तो लोग कलाकार का नाम जानने को उत्सुक रहते हैं, लेकिन जब कभी भी कोलकाता में कोई कवि सम्मलेन होता है तो उसका शहर जानने को उत्सुक रहते हैं। इस सोच कि पृष्ठभूमि में शायद यह बात छिपी है कि कोलकाता में शायद अच्छे कवि हैं ही नही। पर राष्ट्रीय महानगर ने इस सोच से मुकाबिल होते हुए इस कवि सम्मलेन में केवल कोलकाता में प्रवास करने वाले कवियों को ही चुना, उन्होंने कहा कि खुशी इस बात कि है कि कोलकाता के कवियों को सुनने पाँच सौ से भी अधिक लोग उपस्थित हुए। वरिष्ठ कवि श्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन', श्री नन्दलाल 'रोशन', श्री जे. चतुर्वेदी 'चिराग', श्रीमती गुलाब बैद और उदीयमान कवि सुनील निगानिया ने अपनी प्रतिनिधि रचनाएँ सुना कर भरपूर तालियाँ बटोरीं, साथ ही, डाक्टर मुश्ताक अंजुम, श्री गजेन्द्र नाहटा, श्री आलोक चौधरी को भी मंच से रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया गया। सभी कवियों ने अपनी उम्दा रचनाएँ सुनायीं। देशभक्ति, आतंकवाद और राजनेताओं की करतूतों पर लिखी इन कवियों कि रचनाएँ सुनकर श्रोता भाव विभोर हो गए और बार बार करतल ध्वनि करते रहे। कवि सम्मलेन लगभग दो घंटे चला। कवि सुमनजी और रोशनजी ने जबरदस्त वाहवाही लूटी। मुश्ताक अंजुम कि ग़ज़ल भी काफ़ी सराही गई। गजेन्द्र नाहटा ने कम शब्दों में जानदार रचनाएँ सुनाई। गुलाब बैद कि रचना भी काफ़ी सशक्त रही। कार्यक्रम के दूसरे दौर में देश विख्यात कव्वाल जनाब सलीम नेहली ने भगवन राम कि वंदना के साथ साथ ये अपना वतन..अपना वतन.. अपना वतन है, हिंदुस्तान हमारा है जैसी उमड़ा देशभक्ति रचनाएँ सुनकर श्रोताओं को बांधे रखा। संध्या साढ़े चार बजे शुरू हुआ कार्यक्रम रात दस बजे तक चलता रहा और सुधि श्रोता भाव में डूबे रहे। कार्यक्रम का सञ्चालन राष्ट्रीय महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया ने किया, जबकि कवि सम्मलेन का सञ्चालन सुशिल ओझा ने किया। प्रारम्भ में सुश्री पूजा जोशी ने गणेश वंदना की और नन्हे बालक चमन चंडालिया ने माँ सरस्वती का श्लोक सुनाया। कार्यक्रम में अतिथि के रूप में वृद्धाश्रम अपना आशियाना का निर्माण कराने वाले वयोवृद्ध श्री चिरंजीलाल अग्रवाल, वनवासियों के कल्याण के बहुयामी प्रकल्प चलाने वाले श्री सजन कुमार बंसल, गौशालाएं चलाने वाले श्री बनवारीलाल सोती और प्रधान वक्ता सामाजिक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन के पैरोकार श्री कमल गाँधी के साथ साथ कोलकाता की पूर्व उप मेयर श्रीमती मीना पुरोहित, पार्षद सुनीता झंवर उपस्थित थीं। कार्यक्रम के प्राण पुरूष राष्ट्रीय महानगर के अनन्य हितैषी श्री विमल बेंगानी थे। उन्होंने अपने स्वागत संबोधन में कहा कि यह आयोजन देशप्रेम कि भावना का जन-जन में संचार सेवा के उदेश्य से किया गया है। कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रीय महानगर के पाठकों की और से राष्ट्रीय महानगर के संस्थापक श्री लक्ष्मीपत सिंह चंडालिया और श्रीमती भीकी देवी चंडालिया का भावभीना सम्मान किया गया। शहरवासियों के लिए इस कार्यक्रम को यादगार बनाने में सर्वश्री विद्यासागर मंत्री, विजय ओझा, राकेश चंडालिया, गोपाल चक्रबर्ती, विजय सिंह दुगर, गौतम दुगर, पंकज दुधोरिया, हरीश शर्मा, राजीव शर्मा, प्रदीप सिंघी, सरीखे हितैषियों का सक्रिय सहयोग रहा। बदाबजर के महेश्वरी भवन में आयोजित इस विशिष्ट समारोह में सभी क्षेत्र के लोग उपस्थित थे। इस अवसर पर राष्ट्रीय महानगर की सहयोगी संस्था अपना मंच कि काव्य गोष्ठियों के चयनित श्रेष्ठ कवि श्री योगेन्द्र शुक्ल सुमन, श्री नन्दलाल रोशन और सुश्री नेहा शर्मा का भावभीना सम्मान किया गया। सभी विशिष्ट जनों को माँ सरस्वती की नयनाभिराम प्रतिमा देकर सम्मानित किया गया। समारोह में उपस्थित विशिष्ट जनों में सर्वश्री जुगल किशोर जैथलिया, नेमीचंद दुगर, जतनलाल रामपुरिया, शार्दुल सिंह जैन, बनवारीलाल गनेरीवाल, रमेश सरावगी, सुभाष मुरारका, सरदार निर्मल सिंह, बंगला नाट्य जगत के श्री अ.पी. बंदोपाध्याय,राजस्थान ब्रह्मण संघ के अध्यक्ष राजेंद्र खंडेलवाल, हावडा शिक्षा सदन की प्रिंसिपल दुर्गा व्यास, भारतीय विद्या भवन की वरिष्ठ शिक्षिका डाक्टर रेखा वैश्य सेवासंसार के संपादक संजय हरलालका, आलोक नेवटिया, अरुण सोनी, अरुण मल्लावत, रामदेव काकडा, सुरेश बेंगानी, कन्हैयालाल बोथरा, नवरतन मॉल बैद, रावतपुरा सरकार भक्त मंडल के प्रतिनिधि सदस्य, रावतमल पिथिसरिया, शम्भू चौधरी, प्रमोद शाह, गोपाल कलवानी, प्रदीप धनुक, प्रदीप सिंघी, महेंद्र दुधोरिया, प्रकाश सुराना, नीता दुगड़, वीणा दुगड़, हीरालाल सुराना, पारस बेंगानी, बाबला बेंगानी, अर्चना रंग, डाक्टर उषा असोपा, सत्यनारायण असोपा, गोपी किसान केडिया, सुधा केडिया, शर्मीला शर्मा, बंसीधर शर्मा, जयकुमार रुशवा, रमेश शर्मा, सुनील सिंह, महेश शर्मा, गोर्धन निगानिया, आत्माराम तोडी, घनश्याम गोयल, बुलाकीदास मिमानी, अनिल खरवार, डी पांडे, राजेश सिन्हा उपस्थित थे ।


"अपनी धरती अपना वतन"
मंच पर आसीन कवि थे सर्वश्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन', नन्दलाल 'रोशन', जे. चतुर्वेदी 'चिराग, श्रीमती गुलाब बैद, और सुनील निंगानिया। देशप्रेम की भावना से परिपूर्ण श्री नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में कोलकाता स्थित स्थानीय माहेश्वरी भवन सभागार में किया था। कार्यक्रम के प्रारम्भ में प्रधान वक्ता बतौर श्री कमल गाँधी ने देश के वीर सेनानियों को नमन करते हुए मुम्बई घटना में हुए शहीदों को अपनी भावपुर्ण श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि इन शहिदों के नाम को जितनी श्रद्धा के साथ लिया जाय उतना ही कम है, देश के वर्तमान नेताओं के नाम को लिये बिना आपने कहा कि जिस मंच पर सुभाष-गांधी को याद किया जाना है, वीर शहिदों को याद किया जाना है ऐसे मंच पर खड़े होकर उनका नाम लेकर इस मंच की मर्यादा को कम नहीं करना चाहता। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच श्री कमल गाँधी ने कहा कि हम अभी इतने भी कायर नहीं हुए कि अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते देशहित को तिलांजलि दे देगें, हमारे लिये देशहित सर्वप्रथम है। इस समारोह की अध्यक्षता शहर के जाने-माने समाज सेवी श्री चिरंजीलाल अग्रवाल ने किया। कार्यक्रम का उद्घाटन श्री एस.के पारिक ने किया। बतौर प्रदान अतिथि थे श्री सजन कुमार बंसल और बनवारी लाल सोती। कार्यक्रम के स्वागताध्यक्ष श्री बिमल बैंगानी ने सभी का स्वागत किया और धन्यवाद दिया महानगर के जाने -माने पत्रकार और 'राष्ट्रीय माहानगर' के संपादक श्री प्रकाश चण्डालिया ने कवि मंच " अपनी धरती-अपना वतन" कार्यक्रम के संचालन की शुरूआत श्री सुशील ओझा ने श्री छविनाथ मिश्र की कविता से की:


मेरे दोस्त मेरे हमदम तुम्हारी कसम
कविता जब किसी के पक्ष कें या
किसी के खिलाफ़ जब पूरी होकर खड़ी होती है;
तो वह ईश्वर से भी बड़ी होती है।
-छविनाथ मिश्र


अपनी धरती अपना वतन कार्यक्रम का शुभारम्भ करते हुए श्रीमती गुलाब बैद ने माँ सरस्वती पर अपनी पहली रचना प्रस्तुत की।
माँ सरस्वती.. माँ शारदे, हम सबको तेरा प्यार मिले...2
चरणों में अविनय नमन करें,
तेरा बाम्बार दुलार मिले। हे वीणा वादणी, हंस वाहिणी.. तू ममता की मूरत है।
श्री सुनील निंगानिया ने आतंकवाद पर अपनी कविता के पाठ कर बहुत सारी तालियां बटोरी..
शहर-शहर.... गाँव-गाँव मौसम मातम कुर्सी का
आम अवाम लाचार हो गई, देख रही छलनी होते ..
भारत माँ की जननी को .. शहर-शहर....
दिल्ली का दरबार खेल रहा है, खेल ये कैसा कुर्सी का...
यह कैसी आजादी होती, हम आजादी पर रोते हैं
सरहद से ज्यादा खतरा घर की चारदिवारी का... शहर-शहर....
आगे इन्होंने कहा..
उग्रवाद का समाधान नहीं .. राजनीति की दुकानों पे
हासिल करना होगा इसे हमें, अपने ही बलिदानों से..शहर-शहर....
श्री जे. चतुर्वेदी 'चिराग'
धरा पुनः वलिदान मांगती......हिन्द देश के वासी जागो...
जीवन नाम नहीं जीने का, जिस सम अधिकार नहीं हो,
जीवन की परिभाषा तो, अधिकार छीनकर जीना होता...
धरा पुनः वलिदान मांगती......हिन्द देश के वासी जागो...
श्रीमती गुलाब बैद ने अपनी ओजस्वी गीत से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।
1.कभी मार सकी मौत तुम्हें, हे अमर वीर बलिदानी...
भारत माँ के सच्चे सपुत हो, सच्चे हिन्दुस्तानी...
जब-जब भारतमाता को, दुश्मन ने आँख उठाकर
सीमा पर ललकारा
तब-तब भारत माँ ने तुम्हें पुकारा....
2.सैनिक जीवन है सर्वोत्तम, सर्वोत्तम सैन्य कहानी
कब मार सकी है मौत तुम्हें
हे अमर वीर बलिदानी...
3. चन्दन है भारत की माटी
महक रहा इसका कण-कण
जिसकी गौरव गाथा गाते
हरषे धरती और गगन.....
श्री नन्दलाल 'रोशन' ने ग़ज़ल और कविताओं के सामंजस्य को इस बखूबी बनाया कि सभी दर्शकगण बार-बार तालियां बजाते चले गये..
-कौन मेरे इस वतन में बीज नफ़रत के बो रहा....
-उनकी जुवां पर पत्थर पिघलने की बात है,
यह तो महज दिल को बहलाने की बात है।
-जो भी आया सामने.. सारे के सारे खा गये
हक़ हमार खा गये.. हक़ तुम्हारा खा गये..
और खाते-खाते पशुओं का चारा भी वो खा गये।
-पल में तौला.. पल में मासा, राजनीति का खेल रे बाबा..
धक-धक करती चलती दिल्ली अपनी.. रेल रे बाबा..
बहुत पुराना खेल रे बाबा...
सां-संपेरे का खेल हो गया.... पकड़ लिया तो बात बन गई,
चुक गया तो मारा गया रे बाबा.....
ताल ठोक संसद जाते, जनता के प्रतिनिधी कहलाते।
सारा ऎश करे य बहीया...
जनता बेचे तेल रे भईया...
पहले मिल बाँटकर खाते.. फिर आपस में लड़ जाते;
स्वाँगों की भी जात !.. फेल हो गई रे बाबा...
डॉ.मुस्ताक अंजूम ने अपनी ग़ज़लों से सभी को मोह लिया।
हजारों ग़म हैं, फिर भी ग़म नहीं है
और हमारा हौसला कुछ कम नहीं है।
और उसकी बात पर कायम है सबलोग
जो खुद अपनी बात पर कायम नहीं है।।
श्री गजेन्द्र नाहटा और श्री आलोक चौधरी जी ने भी अपनी कविताओं का पाठ इस मंच से किया।
गजेन्द्र जी नाहाटा-
दर्द को खुराक समझ के पीता हूँ
और टूटते हृदय को आशाओं के टांके से सीता हूँ।
आलोक चौधरी
जब सुभाष ने शोणित माँगा था.. सबसे करी दुहाई थी,
जाग उठा था देश चेतना.. पाषाणों में, जान आई थी।
कवि मंच "अपनी धरती-अपना वतन" के इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन' ने अपनी कविताओं का पाठ शुरू करने से पूर्व कहा कि सभागार में शहर के सो से भी अधिक कवियों की इस उपस्थिति ने यह बता दिया कि कि इस महानगर में भी कवि रहते हैं श्री प्रकाश चण्डालिया का आभार व्यकत करते हुए अपनी दो पंक्तियां कही..
जो दिलों को जोड़ता है, उन ख्यालों को सलाम
अव्वल तुफानों में उन मशालों को सलाम
जो खुद जलकर उजाला बांटता हो उन मशालों को सलाम।
आपने कहा कि वे अपने लोगों से गुजारिश करूँगा कि वे अपने शहर के चिरागों को सामने लायें। आपने "मातृभूमि की बलिवेदी को प्रणाम" कविता का पाठ भी किया.. आपने वर्तमान राजनीति के रंग को अपनी इस कविता के माध्यम से चित्रण किया..
जिन शलाखों के पीछे वह बरसों रहे ... वे अब शलाखों के पहरेदार हैं।
कल तलक जो लुटेरे थे, आज उनकी सरकार है।।
होना हो तो एक बार हो, ये बार-बार होना कैसा है।
और धार चले तो एक बार चले.. धार-धार चलना कैसा है।।
आपने आगे कहा...
तासकंद की रात न हो तो अच्छा है,
शिमला जैसा प्रातः न हो तो अच्छा है,
करगील जैसा घात न हो तो अच्छा है
समझौते की बात न हो तो अच्छा है।

सोमवार, 19 जनवरी 2009

साहित्य शिल्पी: एक परिचय



विडम्बना की बातें की जाती हैं कि एक अरब की जनसंख्या वाले इस राष्ट्र में हिन्दी की दुर्दशा है। जब भी आँसू बहाने की बारी आती है, हिन्दी के दिवस मनाये जाते हैं और फिर एक वर्ष का मौन व्रत। इस भाषा की तरक्की और विस्तार के लिये आखिर बुनियादी स्तर पर कार्य क्या हुआ है? सरकारी फाइलें जो भी कहती हों केवल आँकड़ों का खेल ही होगा। दशा पर बहुत चर्चाएँ हुईं, किंतु दिशा की बातें कम ही हुई हैं। जब मैं सोचता हिन्दी में हूँ, पुकारता हिन्दी में हूँ, खुश हिन्दी में होता हूँ,  मन की भड़ास हिन्दी में,  तो भाई यह अंग्रेज़ी कब तक गुप-चुप  "मम्मी-लेंगवेज" रहेगी?....। चिड़िया की कहानी याद आती है। खेत में घोसला था और रोज किसान खेत काटने की बात करता और किसी न किसी रिश्तेदार को काम सौंप कर चला जाता। चिड़िया नित्य चर्चा सुनती और निश्चिंत होकर काम पर निकल जाती। एक दिन जब किसान ने कहा कि निकम्मे हैं सारे लोग “कल खेत मैं काटूंगा”, चिड़िया बच्चों सहित खेत से उड गयी, जानती थी कि खेत ज़रूर कटेगा। और ऐसा ही हुआ। साहित्य शिल्पी को ऐसा ही प्रयास कहा जा सकता है जहाँ रचनाधर्मी उर्जा ने यह ठान लिया कि हिन्दी के लिये अब हमें ही जुटना होगा, पूरी गंभीरता और ताकत के साथ।

यह प्रश्न उठता है कि साहित्य शिल्पी द्वारा अंतरजाल को ही माध्यम क्यों चुना गया। इस प्रश्न का उत्तर तकनीक और साहित्य के प्रयोग की ओर इंगित करता है। अखबारों में इन दिनों प्रकाशित हो रही कविताओं/कहानियों आदि को देखें तो लगता है कि या तो लेखन खो गया है या वास्तविक लेखन की प्रिंट-मीडिया तक पहुँच आसान नहीं रही। जो स्थापित पत्रिकायें हैं, उन तक पैंठ नये साहित्य सर्जकों की आसान भी नहीं।...। फिर तकनीक के परिप्रेक्ष्य में अंतरजाल जैसे व्यापक माध्यम को अछूता क्यों छोड दिया जाय? अंतरजाल पर हिन्दी सामग्री अभी बहुत अधिक दृष्टिगोचर नहीं होती। कुछ वेब-पत्रिकायें, कुछ अखबारों के हिन्दी संस्करण तथा कुछ समाचार प्रधान साइटों के परे साहित्यिक हलचल से अंतर्जाल जगत अभी अछूता ही है। हाँ, हाल ही में यूनिकोड टाईपिंग द्वारा हिन्दी लिखना और उसका वेब-प्रस्तुतिकरण अवश्य आसान हुआ है। साहित्य शिल्पी ने अंतरजाल जगत की इसी नब्ज को और यूनिकोड की ताकत को पहचाना है। हिन्दी की पुनर्स्थापना का रास्ता कंप्यूटर के कीबोर्ड से हो कर भी जाता है।

साहित्य शिल्पी वस्तुत: हिन्दी तथा साहित्य की सेवा के लिये समर्पित रचनाकारों का समूह है। इस मंच पर कविता, कहानी, नाटक, संस्मरण, समसामयिक विषयों पर परिचर्चायें, कार्टून विधा, बाल साहित्य आदि तो प्रस्तुत हो ही रहे हैं, साथ ही विद्वान हिन्दी सेवियों के साक्षात्कार भी प्रस्तुत हुए हैं। गोपालदास नीरज, शहरयार, नासिरा शर्मा, लाला जगदलपुरी, मानव कौल, श्याम माथुर, ज़ाकिर अली ‘रजनीश’, पूर्णिमा वर्मन आदि के साक्षात्कार के बाद साहित्य शिल्पी प्रसिद्ध कवि कुँवर बैचैन का साक्षात्कार प्रस्तुत करने की तैयारी में है। प्रसिद्ध अभिनेता मनोज बाजपेयी नें साहित्य शिल्पी को अपने साक्षात्कार में इस अभियान की प्रशंसा करते हुए इसे साहित्य के लिये किया जा रहा सार्थक प्रयास बताया।

कविता पर रिकार्ड हुए गीत, कवि की आवाज में रिकार्ड कवितायें, कविता पर बने वीडियो आदि समय समय पर साहित्य शिल्पी द्वारा प्रस्तुत किये गये। इस श्रंखला की महत्वपूर्ण प्रस्तुतियों में महेन्द्र भटनागर के गीत उनके पुत्र आदित्य विक्रम के स्वर व संगीत में, गीता बाल निकेतन फरीदाबाद के बच्चों द्वारा तैयार किया गया एलबम - अनहद गीत, पंडित नरेन्द्र शर्मा की रचनायें लावण्याशाह की के सौजन्य से, देवेन्द्र मणि पाण्डेय की कवितायें हरीश भिमानी के स्वर में आदि प्रमुख हैं। आगामी आकर्षणों में प्रख्यात कथाकार तेजिन्दर शर्मा की कहानियों के ऑडियो भी मंच पर प्रस्तुत किये जाने हैं।

नाटक विधा को अंतर्जाल पर स्थान दिलाने के अपने अभियान में साहित्य शिल्पी नें न केवल स्थायी स्तंभ इस दिशा में आरंभ किया है अपितु पहली बार सत्यजीत भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित एक नाटक “राई-द स्टोन” का विडियो इस मंच पर प्रस्तुत किया गया। इस प्रस्तुति के दौरान साहित्य शिल्पी को प्राप्त हुई प्रतिक्रियाओं नें यह सिद्ध किया कि नाटक को आज भी दर्शकों की कमी नहीं है।

कार्टून को विधा का दर्जा दिलाना साहित्य शिल्पी का उद्देश्य है। इस कडी में एक गंभीर प्रयास करने की कोशिश व्यंग्यकार अविनाश वाचस्पति तथा प्रख्यात कार्टूनिष्ट कीर्तिश भट्ट् द्वारा की गयी। दोनों ने नैनो कार पर व्यंग्य और कार्टून की जुगलबंदी प्रस्तुत की जिसे पाठकों नें भी हाँथो-हाँथ लिया। प्रसिद्ध कार्टूनिष्ट अभिषेक तिवारी साहित्य शिल्पी पंच पर सप्ताह का कार्टून स्तंभ भी चला रहे हैं। साथ ही साथ माह में दो बार कीर्तिश भट्ट के कार्टून मंच पर प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

साहित्य शिल्पी मंच यह मानता है कि हमारे साहित्यकार हमारी निधि हैं। यदि हम अपने माननीय साहित्यकारों की यादों को सजो कर नहीं रखेंगे तो साहित्य को ही खो देंगे।साहित्य शिल्पी सभी स्थापित रचनाकारों/साहित्यकारों के जन्मदिवस अथवा पुण्यतिथि पर उनको स्मरण करते हुए उनके जीवन एवं कृतीत्व पर आलेख प्रस्तुत करता रहा है। इस कडी में रामधारी सिंह दिनकर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, मैथिली शरण गुप्त, त्रिलोचन, हरिवंशराय बच्चन, अमृता प्रीतम, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रेम चंद, पंडित मुकुटधर शर्मा आदि मनीषियों के संदर्भ में साहित्य शिल्पी संग्रहालय से सामग्री प्राप्त की जा सकती है, जो निरंतर समृद्दि की ओर है। युगप्रवर्तकों में भगत सिंह, दुर्गाभाभी, सुभाष चंद्रबोस जैसे क्रांतिकारियों का भी जीवन परिचय साहित्य शिल्पी संग्रहालय में है।

साहित्य शिल्पी पर चलाये जा रहे प्रमुख नीयमित स्तंभों में हिन्दी साहित्य का इतिहास तथा ग़ज़ल- शिल्प और संरचना प्रमुख हैं। बाल साहित्य को भी इस मंच पर प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता है। देश भर में हो रही साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को भी प्रमुखता से मंच पर स्थान दिया गया है। प्रसिद्ध समालोचक सुशील कुमार जी काव्यालोचना स्तंभ आरंभ कर मंच पर प्रकाशित कविताओं की समीक्षा कर रहे हैं।

साहित्य शिल्पी मंच पर नये रचना-प्रस्तोता साहित्यकारों को मार्गदर्शन मिल सके और इस मंच के स्तर में उत्तरोत्तर सुधार हो इसके लिये वरिष्ठ साहित्यकारों का भी मार्गदर्शन व आशीर्वाद प्राप्त होता रहा है। साहित्य शिल्पी समूह के लिये यह गर्व का विषय है कि कई स्थापित व वरिष्ठ साहित्यकार भी इस अभियान की मशाल थाम रहे हैं। साहित्य शिल्पी यह गर्व के साथ कह सकता है कि हमने हिन्दी और साहित्य की सेवा के लिये न केवल भारत अपितु विदेशों में बसे रचनाकारों को भी इस सूत्र में जोडा है। इस मंच की विचारधारा है सृजन। हमने इसे किसी पंथ/विचार या संघ से नहीं जोडा बल्कि हर प्रकार के विरोधाभासों को स्थान देने का यत्न किया है जिससे सार्थक परिचर्चायें जन्म लें और हिन्दी तथा साहित्य का विकास हो।

आलेख: साहित्य शिल्पी के लिये राजीव रंजन प्रसाद द्वारा

सोमवार, 12 जनवरी 2009

डॉ.हरिवंशराय बच्चन: मानवीय प्रेम एवं संवेदना के अमर गायक

श्रद्धांजलि (18 जनवरी पर विशेष)


- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव


युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डॉ.वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक, आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डॉ.वीरेन्द्र जी ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि.प्र.) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतिया (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन करते हैं।


एक सफल साहित्यकार काल की गति और कला को ठुकराता हुआ ऐसे साहित्य का निर्माण करता है जिसके बीज में मानव जीवन के कल्याण के लिये संस्कार भरे होते हैं। ऐसे साहित्यकार का आग्रह समाज की परिधि में व्यक्ति की पहचान खोजने के साथ-साथ मानव मन की गुफाओं, कन्दराओं और भित्तियों का शिल्पी निर्मित ढांचा देकर मनोवैज्ञानिक तरीके से अपने परिवेश का यथार्थ निरूपित करना होता है। सफल साहित्यकार की इन्हीं परिस्थितियों में उसकी रचना युग-धारा से सम्पृक्त होकर ही रूपाकर पाती है।
साहित्य वाङ्मय में नया और पुराना कुछ भी नहीं होता है। साहित्य के माध्यम से जिस नवीनता एवं प्राचीनता की बात हम करते हैं ‘‘वह मूलतः और सारतः अनुभूति से अभिव्यक्ति तक, और साथ ही सम्प्रेषण की क्षमता तक, भावना और विचार, कल्पना और यथार्थ, कला और जीवन, साहित्य और समाज की मान्यताओं को आंकने झांकने, समझने-परखने और अभिव्यक्त करने की केवल एक परम्परावादी दृष्टि भर है। यही वजह है कि हिन्दी कविता-धारा में नयी कविता का प्रस्फुटन एक ऐसी क्रांतिकारी घटना बन गई जिसकी स्वीकृति-अस्वीकृति को लेकर ढेरों प्रश्न चिन्ह खड़े होने लगे साथ ही कविता की नव्यता को अति तीव्र और दीर्घ एवं अन्तहीन विवादों के घेरे में खड़ा कर दिया।
डॉ. हरिवंशराय बच्चन छायावाद कालीन साहित्यिक परिवेश में भौतिक तथा आध्यात्मिक द्वन्द्व की समस्याओं से टकराते हुये उत्तर छायावाद युग में जब प्रवेश करते हैं तो उनका कवित्व मुख्यता गायक की मादकता में डूब जाता है। ‘‘बच्चन यों तो छायावाद से प्र्रगतिवाद और प्रयोगवाद में रूपान्तरण की अवधि के कवि दिखते हैं, जिनके भाषागत प्रयोगों को समीक्षकों ने उत्साह के साथ रेखांकित किया है और जिनकी अनुभूति की गहराई छायावादी कवियों से अधिक मानी है। इस दूसरी मान्यता से सहमत हो पाना निश्चय ही कठिन होगा। यहाँ आत्मपरकता और अनुभूति की गहराई में समीक्षकों ने कोई भेद नहीं समझा और फलतः छायावादी काव्य के प्रति अनजाने में ही एक बड़ा अन्याय कर डाला। फिर एक सिलसिला-सा बन गया।’’ वैसे बच्चन जी की इस मादकता में अनेक स्तरों पर विरोध के स्वर जरूर उठे परन्तु इस सच से इन्कार नहीं किया जा सकता है। कि बच्चन का उत्तरकालीन काव्य दिनकर की उर्वशी और नरेन्द्र अंचल के गीत शारीरिक अनुभवों और उसके उल्लास का अकुंठ भाव से अंकन करते हैं। इस संदर्भ में पूर्व बच्चन और उत्तर बच्चन की संवेदना के बीच स्पष्ट अंतर परिलक्षित होता है, जिसकी विभाजक-रेखा उनके गीत संग्रह मिलन यामिनी में देखी जा सकती है। पहले दौर में अनुभव प्रधान है, दूसरे में शरीर। यहाँ रचना-समस्या यह है कि छायावाद की सांकेतिक शैली में संयोग-चित्र, उदाहरण के लिये आँसू का प्रसंग परिरंभ कुम्भ की मदिरा/निश्वास मलय के झोंके, जहाँ कल्पना को उद्दीप्त करते हैं, वहाँ सीधी-सादी भाषा में शरीर के चित्र, शरीर को ही स्पर्श करते हैं। ‘‘उर्दू के कवि अपने सीधे भाषिक विधान में इसलिये विरह वेदना का चित्रण अधिकतर लेते हैं। शरीर की भंगिमाओं को नहीं। इस सन्दर्भ में मधुबाला से लेकर ‘एकांत संगीत’ तक बच्चन अपने श्रेष्ठतम रूप में दिखाई देते हैं। इसके बाद का काव्य प्रायः उनके निजी सुख-दुख का लेखा होकर रह जाता है। पूर्व बच्चन का कृतित्व उत्तर-छायावाद का प्रतिनिधि और महत्वपूर्ण काव्य हैं।’’ बच्चन जी तत्कालीन लोकमानस में इतने व्यापक और गहरे स्तरों पर उतर चुके थे जिसका कोई विकल्प उनके तत्कालीन समय के विरोधियों के पास उपलब्ध नहीं हो सका था। शायद इसका एक दूसरा पहलू यह भी था कि बच्चन का स्वर माधुर्य लोगों को झूमने पर विवश कर देता था। इसके साथ ही बच्चन की भाषा श्रोता के मन में उनकी अपनी भाषा जैसी लगती थी जो उनके संवेदना के स्तर पर गहराई से जुड़ जाती थी। मिट्टी का तन/मस्ती का मन/क्षण भर जीवन/मेरा परिचय, जब बच्चन ये पंक्तियां गाते ऐसे में, कुम्हार के घड़े को प्रतीक बनाकर परिचय देना पाठक को संवेदना के स्तर पर अपने से जोड़ देती है। ‘‘इसी प्रकार जब मधुशाला के पदों में बच्चन अपने स्वर माधुर्य को छलकाते हैं तो यह केवल स्वर का ही जादू नहीं, बल्कि उसमें निहित चुम्बकीयता होती है जो पाठक के मन को इतनी गहराई से बांध लेती है। मेरी जिह्वा पर हो अन्तिम वस्तु न गंगाजल, हाला/मेरे होठों पर हो अन्तिम वस्तु न तुलसी दल, प्याला। दे वे मुझ को कन्धा जिनके पग मग डग मग करते हों/और जलूँ उस ठौर जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला।’’ बच्चन जब इन पदों को गा-गाकर सुनाते थे तो उनके स्वर का सम्भार, इन पदों का शब्द-विन्यास और इनमें निहित संवेदना एक रसायन बनकर श्रोता या पाठक के मन को अपने जादू में बाँध लेती थी।’’ अपनी सम्प्रेषण क्षमता के बल पर डॉ. बच्चन ने जितना विशाल पाठक एवं श्रोता समुदाय हिन्दी जगत को उपलब्ध कराया, उसका ऐतिहासिक महत्व निर्विवाद है। आत्मकथा के माध्यम से उत्तर छायावाद के प्रमुख कवि बच्चन का लेखन इस युग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विवादास्पद रहा है। उनकी आत्म कथा के चार खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं - क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969), ‘नीड़ का निर्माण फिर (1970)’ बसेरे से दूर (1977)’, दशद्वार से सोपान तक (1985)। इस आत्मकथा में लेखक ने अपने को केन्द्र में रखा है, उपलक्ष्य नहीं माना है। फिर कुछ जीवित व्यक्तियों, विशेषतः महिलाओं के सम्बन्ध में ऐसे उल्लेख दिये हैं जो बहुत शोभन नहीं कहे जा सकते। तीसरा खण्ड प्रवास-काल से सम्बन्ध होने के कारण ऐसे कई विवादों से मुक्त हैं। इसके अन्तर्गत एक रोचक तुलनात्मक विवेचन आपसे आप उभरता है लेखक के स्वदेशी इलाहाबाद विश्वविद्यालय और विदेशी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बीच। इन दोनों परिसरों के बारे में कवि-दृष्टि के पर्यवेक्षण विशेष महत्व रखते हैं।’’ बच्चन जी के साहित्य पर विशेष प्रभाव उमर खैय्याम का पड़ा था। आपने उमर खैय्याम की रूबाइयों को उनकी गहराइयों में समझने की चेष्टा की थी और इन गहराइयों में उन्हें वेदांत और उपनिषदों के दर्शन की स्पष्ट झलक भी दिखती है। ‘खुरासान के इराल शहर में ग्यारहवीं शताब्दी में जन्में उमर खैय्याम एक दीर्घायु कवि थे और वे मूलतः गणितज्ञ और ज्योतिषी थे। उन्हें केवल मदवी, रसगश्त, रिंद या नाफ़र्मान समझना भारी भूल है। फिट जेराल्ड ने भी उन्हें फारस का ज्योतिषी कवि - यानी कवि से भी पहले ज्योतिषी माना था। बच्चन जी सम्भवतः जान पेन के इस मन्तव्य से सहमत थे कि उमर खैय्याम औपनिषिदक सिद्धान्तों के पालक ही नहीं प्रचारक भी रहे होंगे। अतः उमर खैय्याम की अनेक रूबाइयों की व्याख्या वेदांत दर्शन के आलोक में भी की जा सकती थी। इस वैचारिक पृष्ठभूमि में बच्चन की मधुशाला के अर्थोंमीलन को एक गम्भीर धरातल पर समझने की चेष्टा की जानी चाहिये।’’ इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘‘अपनी लक्षणा और व्यंजना में, डॉ. बच्चन जी की मधुशाला एक लोकप्रिय रचना बन गई है तथा वह हालावाद की भाव-भंगिमापूर्ण अमूर्त रहस्यात्मकता को व्यंजित करने के साथ ही युगातीत और युगीन समय सन्दर्भों को भी प्रतिबिम्बित करती है। ‘‘बैर कराते मस्जिद-मंदिर, मेल कराती मधुशाला जैसी पंक्तियां इसी मानी में पंथ-निरपेक्षता की ओर हमें प्रेरित करती हैं। बच्चन ने खैय्याम के हताशावादी चिन्तन से प्रभावित होकर भी जिजीविषा से सराबोर आशावादी चिन्तन का साक्षात्कार किया था, जहाँ एक ओर उमर खैय्याम जीवन की नश्वरता से हताश एवं अभिनिवेश (मृत्यु भय) से परास्त मन को क्षणवादी सुखात्मक दर्शन की मादक उत्तेजना में भुलाये रखना चाहते हैं वहीं दूसरी तरफ बच्चन की हाला चेतना की ज्वाला है जिसका पान करके कवि ‘मरण’ जीवन का महोत्सव मनाने लगता है क्योंकि बच्चन जी की हाला में निःसन्देह मानवीय आशाओं, आकांक्षाओं का भाव विह्वल उन्मेष तथा व्यथा विभोर परिस्थितियों में जीवन की जिस उद्दाम अभिलाषा का जलधि उद्वेलित होकर उसकी चेतना में क्रांति की हलचल मचा देता है, उसे अभिव्यक्ति देने के लिये तारूण्य की आरक्त, पलाश-ज्वाला से भरा हाला का प्रतीक ही सम्भव तथा सक्षम प्रतीत हो सकता था। ‘‘बच्चन के सम्पर्क में आकर उमर खैय्याम का मिट्टी का ‘प्याला’, ‘हाला’ तथा मधुशाला-सबका रूपान्तरण हो जाता है और वे अभिनव आनन्द, अभिनव जीवन चेतना तथा अभिनव युग के सौन्दर्य बोध के प्रतीकों में परिणित हो जाते हैं।’’ कुछ समीक्षकों का मानना है कि जिस हालावाद की नींव डॉ. बच्चन ने डाली थी, लगता है कि वह अब समाप्त की ओर है यह हमारी दृष्टि में उचित नहीं जान पड़ता है। क्योंकि हालावादी काव्य सृजन के पथ पर चलने वाले कवियों की आज भी एक लम्बी कतार है। ‘हालावाद गम से घबड़ाकर खुदकुशी करने की बात नहीं कहता, बल्कि वह गम को खोने की बात कहता है, गम को पीने की बात कहता है। अपने काव्य में हाला-प्याला का प्रयोग जितना डॉ. बच्चन ने किया, उतना किसी अन्य कवि ने अब तक नहीं किया। हाला दुःख दर्दों के विस्मरण का साधन है। मधुशाला पर हो रहीं प्रतिक्रियाओं के परिप्रेक्ष्य में अपने एक संस्मरण में (इन्दौर में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन) डॉ. बच्चन कहते हैं कि किसी ने गाँधी जी से शिकायत कर दी थी कि जिस सम्मेलन के आप सभापति हों उसमें मदिरा का गुणगान किया जाये, बड़े आश्चर्य की बात है। दूसरे दिन अंतरंग सभा की बैठक थी, रात के 12 बजे गाँधी ने मुझे सभा हाल के बगल वाले कमरे में मिलने को बुलाया। लोगों के मांगने पर भी गाँधी जी से मिलने का समय नहीं मिलता था, मुझे बुलवाने की खुशी थी, डर भी, अगर कह दें कि ‘मधुशाला’ न पढ़ा करूँ या नष्ट कर दूँ तो उनकी आज्ञा को टालना कैसे सम्भव होगा। गाँधी जी ने शिकायत की और मधुशाला के कुछ पद सुनने चाहे। कुछ सतर्कता मैंने भी बरती। चुन-चुनकर ऐसी रूबाइयाँ सुनाई जिसके संकेतार्थ शायद उन्हें सहज ग्राह होते, दो की मुझे याद है -


मदिरा जाने को घर से चलता है पीने वाला,
किस पथ से जाऊँ, असमंजस में है वह भोला भाला
अलग-अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतालाता हूँ,
राह पकड़ तू एक चला चल पा जाएगा मधुशाला।
मुसलमान और, हिंदू हैं दो, एक, मगर, उनका प्याला
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक मगर उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मंदिर-मस्जिद में जाते,
बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला।


‘‘इसमें तो मदिरा का गुणगान नहीं है।’ उनसे यह सुन और उनके द्वारा बख्शा जाकर मैं भागा। उनको भी समय नहीं था। शरीर से गाँधी जी के इतने निकट बैठने का मेरा पहला और अंतिम अवसर था।’’ डॉ. बच्चन ने मधुशाला के माध्यम से एक सहज, सरल और कभी-कभी गद्य की समीपी काव्य-भाषा को खड़ी बोली में जन्म दिया। यह भाषा हृदय को छूकर मर्म-स्पर्शिनी बन गयी है। मधुशाला की एक दूसरी विशेषता यह थी कि कवि ने बहुत ही सतर्क होकर अपनी कल्पनाजन्य अनुभूति में ;प्कपंजमक म्गचमतपमदबमेद्ध अपने पाठकों और श्रोताओं को रमा दिया था। वास्तव में कल्पित अनुभूति इसलिये कि डॉ. बच्चन ने कभी शराब का स्वाद तक नहीं चखा था, किसी मधुशाला, मयखाने में जाने की बात तो दूर रही। बच्चन ने शराब के साथ अपने रिश्ते को बताते हुये एक स्थान पर लिखा है कि अमोड़ा के कायस्थ कभी शराब नहीं पीते। डॉ. बच्चन के यहाँ किंवदन्ती के रूप में यह लोग मानते हैं कि यदि कोई शराब पियेगा, तो कोढी हो जायेगा। अपने कुशल काव्य नेतृत्व के जरिये पाठकों को भ्रमित रखने के लिये उत्तर भारत की लोकधारणा और चन्दरवाई के एक छप्पय की पंक्ति का सहारा लेते हुये एक ऐसी रूबाई लिख दी -


मैं कायस्थ कुलोदभव, मेरे।
पुरखों ने इतना ढाला
मेरे तन के लोहू में है
पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है
मदिरालय के आॅगन पर,
मेरे दादों-परदादों के
हाथ बिकी थी मधुशाला।


इस पर व्यंग्य का पुट हो सकता है लेकिन अपनी विदेश यात्राओं और इंग्लैण्ड-प्रवास के बावजूद बच्चन शराब के स्वाद से अपरिचित थे। इसलिये मधुशाला अपनी अभिधा में कल्पित अनुभूतियों के कारण एक अच्युत ब्रह्मचारी द्वारा लिखित कोक शास्त्र के सम्भोग प्रकरण जैसी कृति है। हालावादी कवि संसार की विषम परिस्थितियों से संघर्ष नहीं करता; वह तो अपनी पीढ़ा को मदिरा की बोतल में ढालता है। किसी वस्तु को वह तोड़ता नहीं; टूटे हुये दिलों को जोड़ता है। डॉ. बच्चन की व्यक्तिवादी कविता का प्रमुख प्रतिपाद्य यही है। यही तत्व उन्हें हालावादी कवि की श्रेणी में ला खड़ा कर देता है - पीने वालों ने/मदिरा का मूल्य/हाय! कब पहचाना, फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी मधुशाला। कितनी ही विषम परिस्थितियाँ कवि बच्चन के लिये अपने आपको संघर्ष से मस्ती की ओर उन्मुख करती हैं क्योंकि मस्ती के लिये मस्ती चाहिये, यह डॉ. बच्चन के लिये उनके अपने जीवन का मूल मंत्र रहा है -


पीकर मदिरा/मस्त हुआ तो/प्यार किया क्या मदिरा से ?
मैं तो पागल हो उठता हूँ - सुन लेता यदि मधुशाला।


महाकवि सुमित्रा नंदन पंत के अनुसार - ‘‘मधुशाला अमृत संजीवनी है, जिसका पान कर मृत्यु भी जीवित हो उठती है।’’ उर्दू फारसी शैली में जितनी इश्क मिजाजी तथा साकी और शराब के प्यालों की खुमारी बच्चन की कविताओं में मिलती है; उतनी अन्यत्र दुर्लभ है। उनकी मधुशाला इस युग की गीता है; मृदुभावों के अंगूरों की हाला है/पर कैसे ?


प्रियतम ! तू मेरी हाला है/मैं तेरा प्यासा प्याला।
अपने में मुझको भरकर/तू बनता है पीने वाला।।
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला।
प्रियतम ! अपने हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला।।


इन पंक्तियों के अमर गायक डॉ. बच्चन जी की मधुशाला में भाँति-भाँति के रसों की भरमार है। विशेषता यह है कि उनके गीतों को पीते-पीते न तो पीने वाले थकते हैं और न तो पिलाते-पिलाते पिलाने वाले ही। ऐसा लगता है कि डॉ. बच्चन की मदिरा पीने वालों की प्यास कभी मिटती नहीं।


कभी न कण भर/खाली होगा/लाख पियें दो लाख पियें
दिन को होली/रात दिवाली/रोज मनाती मधुशाला।


डॉ. बच्चन जी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कविता में बोलचाल का प्रयोग करते हैं। इस सन्दर्भ में यह लक्षित करना रोचक है कि कैसे घरेलू पुकार का साधारण नाम बच्चन आधुनिक हिन्दी कविता का क्रमशः एक महत्वपूर्ण नाम बन गया। बच्चन का ध्यान उर्दू-काव्य शैली पर भी था, जहाँ भाषा के बोले जाने वाले रूप का प्रयोग सर्वाधिक काम्य रहा है, जहाँ गजल लिखी नहीं कही जाती है। बोलचाल वे अपने नगर इलाहाबाद से सीखते हैं, तो उर्दू काव्य-शैली के प्रभाव के लिये उसके सबसे बड़े कवि मीर के प्रति आभारी हैं - ‘‘कोई न खड़ी बोली लिखना आरम्भ करे। अंदाज मीर का बे-जाने बे पहचाने। बच्चन अपने काव्य विकास के क्रम में उत्तरोत्तर उर्दू की साफ़गोई की ओर झुकते गये। पर उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि उर्दू बोलचाल का मुहावरा हिन्दी की शब्द-व्यंजना-प्रधान काव्य भाषा से मेल नहीं खाता। यहाँ वह महज इतिवृत्त कथन जैसा होकर रह जाता है।’’
परम्परा एवं आधुनिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये एक-दूसरे के पूरक हैं। परम्पराओं का अनुगामी व्यक्ति आधुनिक भी हो सकता है और आधुनिक विचार प्रधान व्यक्ति परम्पराओं का अनुगमन भी कर सकता है। जीवन के परिप्रेक्ष्य में बच्चन न तो पूर्णतः परम्परावादी थे और न उन्होंने आधुनिकता का अंधानुकरण ही किया है। सदियों से चली आ रही रूढ़ियों एवं परम्परा के अन्तर्गत आने वाले उन समस्त तथ्यों का, जो व्यक्ति विशेष की उन्नति के मार्ग को अवरूद्ध करते हैं। बच्चन ने उसका पूरी तरह से बहिष्कार किया है और जो विकास का पथ प्रशस्त करते हैं, उन्हें अंगीकृत किया है। हिन्दू समाज में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे धार्मिक कर्मकाण्डों, पुराण पंथियों द्वारा सद्गति दिलाने के उद्देश्य से मरणोपरान्त किये जाने वाले कर्मों के प्रति बच्चन ने पूर्ण रूप से अनास्था प्रकट की है। अपनी आत्मकथा में बच्चन का कहना है कि दाह तो मैं कर दूँगा, पर ‘कर्म’ नहीं, यानी दाह से सम्बद्ध रोष कर्मकाण्ड नहीं। मुझसे यह नहीं होगा। मैं एक वस्त्र ही, छरी-लौटा ले, तख्त पर चटाई डाल कर बैठूं ..... और वह सब खटराग करूँ जो नाई, ब्राह्मण मुझे कराये। इन सब बातों से मेरा विल्कुल विश्वास नहीं।’’


पितृ पक्ष में, पुत्र उठाना/अध्र्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना गंगा-सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिट्टी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जायेगी
तर्पण-अर्पण करना मुझको/पढ़-पढ़कर के मधुशाला।।


कहा जाता है कि देवकी नंदन खत्री के उपन्यासों को पढ़ने के लिये लोगों ने हिन्दी भाषा सीखी। बच्चन के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि जिन्हें कविता के प्रति कोई रूझान नहीं था उन लोगों ने बच्चन की कविताओं को सुनकर कविता पढ़ना सीखा और कविता की परिधि को विस्तृत किया।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि जीवन के दग्ध अनुभवों ने बच्चन को नई दृष्टि दी। महाकवि निराला की भाँति आंसुओं को भीतर ही भीतर पीकर, उनकी ऊर्जा और सौंदर्य में, अपनी कविता को स्वर्ण की तरह चमकवान बनाया। उमर खैय्याम की रूबाइयों का गायक जिसने साक्षात मनुष्य की आकांक्षाओं को संसार की सीमाओं के अन्दर घुटते-टूटते साथ ही व्यक्ति के सुकुमार स्वप्नों को संसार के कठोर सत्यों से टक्कर खाकर चूर-चूर होेते देखा है। इन रूबाइयों के अन्दर एक उद्विग्न और आर्त चेतना की पुकार है, एक विषण्ण और विपन्न मन का रोदन है, एक दलित और भग्न हृदय का क्रन्दन है। विष्णु प्रभाकर जी के शब्दों में अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा जो उन्होंने श्रद्धांजलि स्वरूप डॉ. बच्चन की स्मृति में कहीं थी। ‘‘बच्चन जी ज्ञानी कवि थे; उमर खैय्याम की रूबाइयों पर आधारित मधुशाला को अपनाकर हिन्दी साहित्य को इस प्रकार उन्होंने प्रस्तुत किया कि मधुशाला हिन्दी जगत की हो गई। जब वे गाकर मधुशाला सुनाते थे तो एक अद्भुत वातावरण पैदा हो जाता था।’’


सम्पर्क -वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
डी. वी. कालेज, उरई (जालौन) 285001 उ. प्र. मो. 09415924888