-शंभु चौधरी-
पिता, पिता ही रहे ,
माँ न बन वो सके,
कठोर बन, दीखते रहे
चिकनी माटी की तरह।
चाँद को वो खिलौना बना
खिलाते थे हमें,
हम खेलते ही रहे,
बच्चों की तरह।
देख हमारा ये दर्द
खुद झटपटाते रहे,
आँखों से आंसू
टपक न जाय कभी,
सारा गम
खुद ही पीते ही रहे।
जब बड़े हम हुए,
भूल ही हम गए,
माँ-बाप भी हैं हमारे
घर में, एकेले पड़े,
जो देते थे लाकर,
खुशियाँ हमें,
अब पराये हो गए
पतझड़ की तरह।
नौकरी ने हमें
इस कदर जकड़ दिया
घर जाने के लिए,
वक्त भी कम पड़ा
घिरनी की तरह।
जिस चाँदा मामा से
करते थे बातें दिन-रात,
आज हमको वो देखने भी,
तरस वो गए।
टीमटीमती थी 'लौ'
रौशनी की तरह,
बाढ़ के बीच
लिए एक आस,
जिंदगी की तरह।
हम भी जिन्दा हैं अभी
इस बाढ़ के बीच,
बचा लो 'कोई'
सब बह गया यहाँ,
आंधी की तरह।
देखते-देखते
आ गया बुढ़ापा यहाँ
हाथ की लाठी बन
सहारा की तरह।
पिता, पिता ही रहे ,
माँ न बन वो सके,
कठोर बन, दीखते रहे
चिकनी माटी की तरह।
शंभु चौधरी
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