ये पत्रकार दिन-रात पूरे देश की गंदगी को पाठकों के मानस पटल पर अपनी थोपी गई विकलांग मानसिकता से एक साजिश के तहत हमें परोसनेवाली पत्रकारिता खुद को लोकतंत्र की प्रहरी मानती है परन्तु इसके कार्य तो समाज में गंदगी फैलाने के अलावा कुछ भी नहीं रह गया। विचारों की स्वतंत्रता, स्वतंत्र अभिव्यक्ति के नाम पर रोज़ाना ये पत्रकार इतने गुनाह करतें हैं कि इनके गुनाह पर बोलनेवाले वाले भी उस समय चुप हो जातें हैं जब ये पत्रकार एक साथ उस व्यक्ति पर धावा बोल उसे इतना घायल कर देते हैं कि वह खुद को समाज का अपराधी समझने लगता है। दरअसल भारत में पत्रकारिता अब विचारप्रधान ना रहकर हमला प्रधान बन गई है।
नईदिल्ली/कोलकाताः (1’अप्रेल,2015) गत् 28’ मार्च 2015 को ‘आप’ की राष्ट्रीय परिषद की बैठक बहुमत प्रस्ताव से श्री प्रशांत भूषण, श्री योगेन्द्र यादव, प्रो. आनन्द कुमार और श्री अजित झा को क्या हटाया गया जैसे पूरे हिन्दूस्तान के राजनीति दलों द्वारा पोषित पत्रकार व मीडिया समूह, व शिवसेना की थूकचाटू पत्रिका ‘सामना’ सबके सब केजरीवाल पर ऐसे पिल गये जैसे कोई बहुत बड़ा जूल्म हो गया। मानो शिवसेना में कभी विभाजन ही ना हुआ हो। भाजपा, कांग्रेस या माकपा में कभी वगावत के स्वरों को दबाया ही ना गया हो। इन राजनीति दलों में किसी व्यक्ति को पार्टी विरोधी कार्याें के लिये दंडित ही ना किया गया हो? इनकी पार्टी में तो लोकतंत्र बचा है और कल कि जन्मी पार्टी के लोकतंत्र को बचाने की चिन्ता इनको ऐसे हो गई जैसे किसी अकेले व्यक्ति ने इनके राजनीति विचारधाराओं पर हमला कर दिया हो।
ऐसे लगता है जैसे भारत के लोकतंत्र की रक्षा का लाइसेंस सिर्फ इनके पास ही हो और केजरीवाल इस लाइसेंस को भी हथिया लेना चाहता है। जो माकपा खुद को मजदूरों कर पार्टी बताती रही, देश और विश्व की आर्थिक स्थिति पर इनके पास कोई विचारधारा नहीं कि जिन मज़दूरों के अधिकार की लड़ाई वे (माकपा, भाकपा) लड़ना चाहतें हैं उन्हें रोजगार कैसे प्रदान किया जा सकेगा।
बंगाल में 35 सालों से सत्ता पे काबिज रही माकपा के शासनकाल में 60 हजार से अधिक छोटे-बड़े कल-कारखाने बंद हो गये। सैकड़ों मज़दूरों ने माकपा के लाल डंडे को ढोते-ढोते अपनी जान दे दी। उनके बच्चों ने आत्महत्या कर ली । पर इनके पोषित पत्रकारों ने ज़ुबान तक नहीं खोली की यह गलत हो रहा है। जिन राजनैतिक विचारें के सिद्धांत 320 कमरे के आलीशान महल से बनता है वे लोग मजदूरों की, किसानों के हक की बात करतें हैं। जो लेखक आजतक सोना पैदा करने वाले किसानों का मरता देखता रहा। जो पत्रकार बैंकों के ‘एनपीए’ के नाम पर बैंकों की लाखों -करोंडों की लूट को दिनदहाड़े औद्योगिक जगत द्वारा सरेआम लूटते देखते रहे वे पत्रकार केजरीवाल के ‘स्वराज’ पर ऐसे हमला कर रहें है कि जैसे इनके खूनपसिने की कमाई को केजरीवाल लूटा देगा?
सवाल उठता है केजरीवाल की तुलना आज इंदिरागांधी के एमेरजेंसी जैसी हालात से करने की नौबत इन पत्रकारों को क्यों आन पड़ी? क्या इनके पास दूसरे उदाहरण की कमी पड़ गई थी? या जानबुझ कर देश को भ्रमित करना चाहतें हैं कि केजरीवाल किसी निरंकुश शासक की तरह बन गया है। वो भी उस सत्ता की कमान पाने के बाद जिस सत्ता के पांच पति है। ये पत्रकार दिन-रात पूरे देश की गंदगी को पाठकों के मानस पटल पर अपनी थोपी गई विकलांग मानसिकता से एक साजिश के तहत हमें परोसनेवाली पत्रकारिता खुद को लोकतंत्र की प्रहरी मानती है परन्तु इसके कार्य तो समाज में गंदगी फैलाने के अलावा कुछ भी नहीं रह गया। विचारों की स्वतंत्रता, स्वतंत्र अभिव्यक्ति के नाम पर रोज़ाना ये पत्रकार इतने गुनाह करतें हैं कि इनके गुनाह पर बोलनेवाले वाले भी उस समय चुप हो जातें हैं जब ये पत्रकार एक साथ उस व्यक्ति पर धावा बोल उसे इतना घायल कर देते हैं कि वह खुद को समाज का अपराधी समझने लगता है। दरअसल भारत में पत्रकारिता अब विचारप्रधान ना रहकर हमला प्रधान बन गई है। अतः अब इस पत्रकारिता को आतंकवादी पत्रकारिता का नाम दिया जा सकता है।