हिन्दी - कब तक उपेक्षित रहेगी
(लेखक - विजय गुजरवासिया)
हमारा महान भारत विश्व में एक ऐसा सार्वभोम राष्ट्र है जिसने अभी तक अपनी राष्ट्र भाषा की घोषणा नहीं की है। सन् 1950 में देवनागरी लिपी में हिन्दी को सरकारी भाषा के रुप में मान्यता दी गई। 15 वर्ष तक सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का भी उपयोग होता रहेगा। इसके अनुसार 26/1/1965 तक ही सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग होना चाहिए था किन्तु राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में संसद में यह पास कर दिया गया कि 1965 के बाद भी सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहेगा। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी फलती फूलती रही और हिन्दी के साथ सौतेला व्यवहार होता रहा।
आज स्थिति यह है कि विद्यालयों, कालेजों एवं सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में अंग्रेजी को प्राथमिकता मिलती है, हिन्दी को गौण स्थान प्राप्त होता है। गिरावट यहां तक आ गई है कि अंग्रेजी बोलनेवालों में उच्च मानसिकता (Superiority
Complex) परिलक्षित होने लगी है। भारत की अधिकांश भाषाओं की जननी ‘संस्कृत’ तो लुप्तप्राय हो रही है किन्तु बोधगम्य हिन्दी के प्रति हीन भावना (Inferiority
Complex) लज्जाजनक है। अन्तराष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अन्तर्देशीय मंचो पर भी हमारे देश के प्रवक्ता विदेशी अंग्रेजी भाषा में वक्तव्य देने में अपनी शान समझते हैं।
भारत पर आधिपत्य कायम रखने के लिए ब्रिटिश-साम्राज्य को अंग्रेजी पढ़े लिखे किरानियों की आवश्यकता थी इसलिए लोर्ड मेक्यले ने भारत में अंग्रेजी का प्रचार प्रसार किया। किन्तु स्वाधीनता के पश्चात् अंग्रेजी का प्रचलन जिस अबाध गति से बढ़ा है उसी का परिणाम है कि हमारी युवापीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का अन्धानुकरण कर रही है और हमारे देश की नैतिक परम्पराएं, मौलिक मान्यताएं तथासरल जीवन शैली धराशायी हो रही है।
देश की प्रायः 79% जनता हिन्दी समझती है भले ही उनकी आंचलिक और मातृबोली हिन्दी से अलग हो।
जब देश पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तब स्वदेशी आन्दोलन चला। विदेशी कपड़ो की होली जलाई गई स्वदेशी पर जोर दिया गया। विद्यालय प्रायः हिन्दी माध्यम अथवा प्रान्तीय भाषाओं के माध्यम से चलते थे। हिन्दी माध्यम से पढ़े हुए मनीषियों ने भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में अपने ज्ञान और विद्वता का झण्डा फहराया। सिर्फ महाजनी जाननेवालों ने बड़े बड़े व्यवसाय और उद्योग-धन्धे स्थापित किए। आज हर क्षेत्र में हिन्दी पिछड़ रही है। घरों में, मित्रमण्डली में, गोष्ठियों और सभाओं में भी लोग हिन्दी की अपेक्षा अधकचरी अंग्रेजी का उपयोग करने में अपनी शान समझते हैं। यहां तक कि विवाह शादी जैसे मांगलिक अवसरों, धार्मिक आयोजनों आदि के निमन्त्रण-पत्र भी हिन्दी की जगह अंग्रेजी में छपने लगे हैं। स्वतन्त्र भारत में विदेशी भाषा का बढ़ता हुआ यह वर्चस्व समाज को कहां ले जायगा यह चिन्तनीय विषय है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हिन्दी को पुष्ट, प्रांजल और बोधगम्य शब्दों से भरपूर बनाने का सघन प्रयास नहीं हुआ। अन्तर्राष्ट्रीय मानक की विज्ञान संबन्धी और तकनीक संबन्धी शब्दावली का पूर्ण विकास स्वतन्त्रता के 65 वर्षो में भी नहीं हो सका इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा ? अंग्रेजियत मानस के दलदल में फंसे राजनेताओं को इस ओर ध्यान देने तथा सत्साहित्यकारों को प्रोस्ताहित करने की फुर्सत ही नहीं है। अंग्रेजी अथवा आंचलिक भाषाओं का विरोध नहीं है किन्तु एक भाषा जो बहुभाषी भारत राष्ट्र को एक सूत्र में बांध सकती है, जो देशज और विदेशी शब्दों को सहजता से अन्तर्भुक्त कर सकती है, जिसका समृद्ध साहित्य देश की सामाजिक रीति नीति का दर्पण है, जिसकी देवनागरी लिपी पूर्ण वैज्ञानिक है, जो राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन होने की नैसर्गिक दावेदार है वह सिर्फ हिन्दी है। इसलिए हिन्दी को अब अवश्य ही यथोचित प्रोत्साहन और उच्चतम स्थान मिलना चाहिए।
आज भारत के सभी हिन्दी समाचार पत्रों एवं उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों को चेष्टा करनी चाहिये कि अधिक से अधिक हिन्दी में भाषण हों एवं लोगों को बताना चाहिये कि केवल अंग्रेजी बोलने वालों की पूछ नही होनी चाहिये। हिन्दी में पत्राचार करते या बोलते हैं उनकी भी इज्जत अंग्रेजी बोलने वालों से ज्यादा होगी तभी हिन्दी को असली दर्जा मिल सकेगा। प्रतिवर्ष चैदह सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाने से ही काम नहीं चलेगा बल्कि हरपल, हरदिन, हर अवसर पर हिन्दी की आराधना होनी चाहिए क्योंकि कवि के शब्दों में -
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को सूल।
(लेखक - पश्चिम बंग प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन के मानद अध्यक्ष हैं)
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