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सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

हिन्दी - कब तक उपेक्षित रहेगी

हिन्दी - कब तक उपेक्षित रहेगी
(लेखक - विजय गुजरवासिया)

हमारा महान भारत विश्व में एक ऐसा सार्वभोम राष्ट्र है जिसने अभी तक अपनी राष्ट्र भाषा की घोषणा नहीं की है। सन् 1950 में देवनागरी लिपी में हिन्दी को सरकारी भाषा के रुप में मान्यता दी गई। 15 वर्ष तक सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का भी उपयोग होता रहेगा। इसके अनुसार 26/1/1965 तक ही सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग होना चाहिए था किन्तु राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में संसद में यह पास कर दिया गया कि 1965 के बाद भी सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहेगा। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी फलती फूलती रही और हिन्दी के साथ सौतेला व्यवहार होता रहा। 
आज स्थिति यह है कि विद्यालयों, कालेजों एवं सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में अंग्रेजी को प्राथमिकता मिलती है, हिन्दी को गौण स्थान प्राप्त होता है। गिरावट यहां तक आ गई है कि अंग्रेजी बोलनेवालों में उच्च मानसिकता (Superiority Complex)  परिलक्षित होने लगी है। भारत की अधिकांश भाषाओं की जननी ‘संस्कृत’ तो लुप्तप्राय हो रही है किन्तु बोधगम्य हिन्दी के प्रति हीन भावना  (Inferiority Complex)  लज्जाजनक है। अन्तराष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अन्तर्देशीय मंचो पर भी हमारे देश के प्रवक्ता विदेशी अंग्रेजी भाषा में वक्तव्य देने में अपनी शान समझते हैं। 

भारत पर आधिपत्य कायम रखने के लिए ब्रिटिश-साम्राज्य को अंग्रेजी पढ़े लिखे किरानियों की आवश्यकता थी इसलिए लोर्ड मेक्यले ने भारत में अंग्रेजी का प्रचार प्रसार किया। किन्तु स्वाधीनता के पश्चात् अंग्रेजी का प्रचलन जिस अबाध गति से बढ़ा है उसी का परिणाम है कि हमारी युवापीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का अन्धानुकरण कर रही है और हमारे देश की नैतिक परम्पराएं, मौलिक मान्यताएं तथासरल जीवन शैली धराशायी हो रही है। 

देश की प्रायः 79% जनता हिन्दी समझती है भले ही उनकी आंचलिक और मातृबोली हिन्दी से अलग हो। 
जब देश पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तब स्वदेशी आन्दोलन चला। विदेशी कपड़ो की होली जलाई गई स्वदेशी पर जोर दिया गया। विद्यालय प्रायः हिन्दी माध्यम अथवा प्रान्तीय भाषाओं के माध्यम से चलते थे। हिन्दी माध्यम से पढ़े हुए मनीषियों ने भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में अपने ज्ञान और विद्वता का झण्डा फहराया। सिर्फ महाजनी जाननेवालों ने बड़े बड़े व्यवसाय और उद्योग-धन्धे स्थापित किए। आज हर क्षेत्र में हिन्दी पिछड़ रही है। घरों में, मित्रमण्डली में, गोष्ठियों और सभाओं में भी लोग हिन्दी की अपेक्षा अधकचरी अंग्रेजी का उपयोग करने में अपनी शान समझते हैं। यहां तक कि विवाह शादी जैसे मांगलिक अवसरों, धार्मिक आयोजनों आदि के निमन्त्रण-पत्र भी हिन्दी की जगह अंग्रेजी में छपने लगे हैं। स्वतन्त्र भारत में विदेशी भाषा का बढ़ता हुआ यह वर्चस्व समाज को कहां ले जायगा यह चिन्तनीय विषय है।   

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हिन्दी को पुष्ट, प्रांजल और बोधगम्य शब्दों से भरपूर बनाने का सघन प्रयास नहीं हुआ। अन्तर्राष्ट्रीय मानक की विज्ञान संबन्धी और तकनीक संबन्धी शब्दावली का पूर्ण विकास स्वतन्त्रता के 65 वर्षो में भी नहीं हो सका इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा ? अंग्रेजियत मानस के दलदल में फंसे राजनेताओं को इस ओर ध्यान देने तथा सत्साहित्यकारों को प्रोस्ताहित करने की फुर्सत ही नहीं है। अंग्रेजी अथवा आंचलिक भाषाओं का विरोध नहीं है किन्तु एक भाषा जो बहुभाषी भारत राष्ट्र को एक सूत्र में बांध सकती है, जो देशज और विदेशी शब्दों को सहजता से अन्तर्भुक्त कर सकती है, जिसका समृद्ध साहित्य देश की सामाजिक रीति नीति का दर्पण है, जिसकी देवनागरी लिपी पूर्ण वैज्ञानिक है, जो राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन होने की नैसर्गिक दावेदार है वह सिर्फ हिन्दी है। इसलिए हिन्दी को अब अवश्य ही यथोचित प्रोत्साहन और उच्चतम स्थान मिलना चाहिए। 
आज भारत के सभी हिन्दी समाचार पत्रों एवं उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों को चेष्टा करनी चाहिये कि अधिक से अधिक हिन्दी में भाषण हों एवं लोगों को बताना चाहिये कि केवल अंग्रेजी बोलने वालों की पूछ नही होनी चाहिये। हिन्दी में पत्राचार करते या बोलते हैं उनकी भी इज्जत अंग्रेजी बोलने वालों से ज्यादा होगी तभी हिन्दी को असली दर्जा मिल सकेगा। प्रतिवर्ष चैदह सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाने से ही काम नहीं चलेगा बल्कि हरपल, हरदिन, हर अवसर पर हिन्दी की आराधना होनी चाहिए क्योंकि कवि के शब्दों में -
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को सूल।

(लेखक - पश्चिम बंग प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन के मानद अध्यक्ष हैं) 




रविवार, 9 फ़रवरी 2014

संविधान के पहरेदार?


 ‘‘बैईमानों की पूरी व्यवस्था सिस्टम से चलती है।’’


अपने देश का यह दुर्भाग्य रहा है कि संविधान के पहरेदार संविधान की आड़ लेकर देश को लूटने में लगे हैं। मुझे वह दिन याद है जब पिछले दो साल पहले जन लोकपाल बिल को लेकर अण्णाजी का आंदोलन उबाल पर था। उस समय सारे नेताओं की बोलती बंद हो गई थी। अचानक से सभी नियमों को ताक पर रखकर संविधान के ये चौकीदार एक साथ संसद में खड़े होकर देश की जनता को इस बात का आश्वासन दिये थे कि वे जल्द ही एक सशक्त लोकपाल कानून को मूर्तरूप दे देगें। दो साल पश्चात परिणाम हमारे सामने हैं। किस प्रकार इन नेताओं में अब उसके सदस्यों के चयन को लेकर रस्साकशी चल रही है। 

 दरअसल ये संविधान के रक्षक नहीं भक्षक हैं। जो लोग उच्चतम न्यायालय के निर्णय को बदलने के लिये ‘‘आरटीआई कानून में संशोधन’’ और ‘‘दागी सांसदों व विधायकों को बचाने का बिल’’  रातों रात संसद और राज्यसभा से पारित कर राष्ट्रपति के अनुमोदन हेतु भेज सकतें हैं। मानो इन बैईमानों की सुरक्षा के लिये ही संविधान में तमाम संवैधानिक व्यवस्था पहले से ही बनाई हुई हो। खुद को कितने सुरक्षित महसुस करते हैं ये बैईमान जब संसद या विधानसभा में चुनकर चले जातें हैं। अंदाजा लगा लिजिये।

वास्तविकता यह है कि पिछले 60-65 सालों में इन राजनैतिक घरानों ने अपनी सुविधानुसार देश के संविधान को गढ़ा और देश को लूटने के नियम बनाते रहे। उद्योगिक घरानों की मिली भगत से देश के खनीज संपदा को लूटने वाले ये संविधान के पहरेदार देश के चंद उद्योगिक घरानों के लाभ के लिये देश की मुद्रा को डालर के अनुपात में कमजोर कर उन्हें लाभ पंहुचाने में कोई कसर बाकी नहीं रखते । भले ही इस मुद्रा विनिमय की कितनी भी कीमत देश की जनता को चुकानी पड़े, इन्हें इस बात की तनिक भी परवाह नहीं।

आज पुनः दिल्ली में इनको संविधान और संवैधानिक व्यवस्था की याद आने लगी।  इनकी संवैधानिक व्यवस्था देश के लूटरों को बचाने के लिये बनी हुई है। किस प्रकार पूरी की पूरी व्यवस्था संविधान की दुहाई देने के लिये एक नजर आती है। मानों बैईमानों को हर हाल में बचाना इनके संविधान में लिखा है।

 इनको ईमानदार व्यवस्था लागू करने से कोई दिलचस्पी नहीं। बैईमानों को बचाने वालों को बईमान कहा जाए तो इनके सम्मान को ठेस पंहुचती है।  जबकि देश की पवित्र संसद में बैठकर देश की मर्यादा को तार-तार कर देने में और दागियों के समर्थन से सरकार चलाने में इनके सम्मान को कोई ठेस नहीं पंहुचती।  इनका खुद का सम्मान देश के सम्मान से कहीं ऊँचा है।  ये अब संविधान के पहरेदार बन चुकें हैं। इनसे ऊपर/ इनके ऊपर अब कोई नहीं। इनकी पूरी व्यवस्था संवैधानिक सिस्टम से चलती है। अब हमें इनके बनाये पूरे सिस्टम को तौड़ना देना होगा। तभी इनको उस जेल भेजा जाना संभव होगा। जयहिन्द! 
- शम्भु चौधरी 09.02.2014
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शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

व्यंग्य: कानून के पहरेदार?


हमारे मोहल्ले में एक व्यापारी चोरी का माल खरीदने और बेचने का कारोबार करता था। जब भी उसके यहाँ पुलिस की कोई रेड पड़ती वह आदमी अपनी पंहुच की बात उस पुलिस ऑफिसर को बता के उल्टे उस अधिकारी को ही धमका देता। बेचारा पुलिस ऑफिसर उसकी धौंस से कांपने लगता और भाग जाता।
इस बात की चर्चा शहर में हर तरफ होने लगी। व्यापारी भी अपने धोंस के किस्से बाजार में फैलाता रहता था ताकि सब कोई उससे डरते रहे। एक बार एक नया ऑफिसर आया उसने भी उस कारोबारी की चर्चा सुनी तो उसने ठान लिया कि जैसे ही कोई चोर पकड़ा जायेगा उसे लेकर वह चोरी का बरामद करने खुद जायेगा। लगे हाथ उसे एक चोर मिल भी गया। उसने हवालात से उस चोर को बुलाया उसके बयान को डायरी में नोट किया और उस व्यापारी के यहाँ माल बरामद करने के लिये रेड डाल दी। संयोग से वह व्यापारी भी मिल गया।
व्यापारी ने अपनी आदतन धौंस जमाते हुए कहा कि जानते नहीं ‘‘मैं कौन हूँ?’’
ऑफिसर - ‘‘जी नहीं!’’
व्यापारी - ‘‘मेरी पंहुच ......तक है’’ तुमको पता नहीं होगा शायद? ‘‘आवाज पर जोर देते हुए कड़क से’’
ऑफिसर - ‘‘जी नहीं! आप चुप रहेंगे की आपको भी हथकड़ी डाल दूँ?’’
व्यापारी - ‘‘तुम्हारा ट्रांसफर करावा दूंगा समझते हो न चुपचाप यहाँ से चले जाओ, लिख देना कि कुछ नहीं मिला इसी में भलाई है, व्यापारी ने पुनः रौब दिखाते हुए और अपने आदमी की तरफ आँख से इशारा करते हुए कहा - ‘‘अरे कल्लू सा’ब को भीतर ले जाकर माल दिखा दो। सब समझ जायेगा।’’ व्यंग्य कसते हुए ‘‘शायद नया आया है इस इलाके में? नई बिल्ली म्यांऊ..म्यांऊ..’’
ऑफिसर - ‘‘जी नहीं!’’ आप बहार आईये हम खुद देख लेंगे भीतर क्या-क्या रखा है।   ऑफिसर ने चोर से पूछा ‘‘बोले क्या चोरी का माल इसी के यहाँ बेचा था? चोर - ‘‘जी सरकार’’
अबतक ऑफिसर की बात में अकड़ आ गई थी। उसने वे सारे माल भी बरामद कर लिये थे। तभी व्यापारी ने कहा हजूर! आपका फोन आया हुआ है। मंत्री जी लाइन पर आपका इंतजार कर रहें हैं।
ऑफिसर समझ गया कि बात जरूर ऊपर से शुरू होती है। फोन पर उसने बात की ‘‘ जी सर..ररर  ‘‘जी ठीक है।’’
ऑफिसर- चोर को मारते हुए साला झूठ बोलता हैं सच..सच बता माल किसके यहाँ बेचा है?
चोर चिल्लाता रहा.... माँ कसम... आप बोलें तो अपने बच्चे की कसम खा लेता हूँ!! मैंने इसी व्यापारी के यहाँ सारा माल बेचा है। देखिये व फंखा, व टीवी हाँ... वे जेवरात...
ऑफिसर- हरामी.. चोर को गाली देते हुए.. चल साले थाने तेरी आज वह धुलाई करूँगा कि सारा सच अपने आप बहार आ जायेगा।
चोर अब तक समझ गया था। सॉरी सर गलती हो गई अब किसी को कुछ नहीं बोलूँगा।
(नोट: इस व्यंग्य में सभी पात्र नकली हैं।)
- शम्भु चौधरी 08.02.2014
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शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

एक ईमानदार पहल में आहुति दें देशवासी....



सरकार चलाने का तर्जूबा सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के पास ही। देश की सत्ता में काबिज हो देश के खजानों को लूटना, देश की खनिज संपदा का बंदरवाट करना इनके सरकार चलाने का अर्थ होता है। देश को लूटो और राज करो। केजरीवाल को सरकार चलानी इसलिये नहीं आती क्योंकि केजरीवाल व इसके साथी इस बंद पिंजडे का पंछी नहीं हैं । हमें अवसर मिला है इसमें अपनी आहुति देने का। संविधान की मर्यादा का पालन करनेवालों को भी खुलकर केजरीवाल का साथ देना होगा नहीं तो ये लूटरें संविधान के हथियार से केजरीवाल को घायल कर देगें ।

जबसे केजरीवाल की आम आदमी सरकार दिल्ली में आई है। सियासतदानों के तरकश में नये-नये शब्द पैदा होने लगे। राजनीति को रंडीखाना बना देने वाले इन नेताओं के मुंह से कभी पागल शब्द निकलता है तो कभी ‘‘शहरी नकस्लवाद’’। एक महाशय ने एक बेनेर अपने फेसबुक पर चिपकाया है उसमें लिखा है - ‘‘आम आदमी पार्टी माओवादी संगठन जैसा है।’’ मेरी एक कविता के बोल कुछ इस प्रकार है।- एक परिंदा...

एक परिंदा घर पर आया, वह फर्राया- फिर चहकाया..
मैं आजाद.., मैं आजाद.., मैं आजाद..,
मैं सोचा यह क्या कहता है? / हँसता है या रोता है।
मुझको गाली देता है या अपना दुःख यह कहता है।
एक परिंदा घर पर आया, फर्राया-चहकाया..
मैं आजाद.., मैं आजाद.., मैं आजाद..,

मुझे हैरत इस बात से नहीं कि भाजपा और कांग्रेस राजनीति तरीके से आम आदमी पार्टी को घेरने में लगी है। लोकतंत्र में इसका स्वागत है।  हैरनी इस बात से है कि 50 से 500 कमरों के आलिशान झूग्गी-झोपडियों में रहने वाले गरीब देश के इन महान सपुतों को राजनीति करने के लिये केजरीवाल का कभी 5 कमरे का घर मिलता, तो कभी सरकारी गाड़ी का नम्बर प्लेट। कभी ये रंडियों का बचाव करने का मौका तलाशतें हैं, परन्तु नादान लडकियों को इस गौरखघंघे की आग में झौंकने वाले दरिंदों के खिलाफ चुप रहतें हैं। दिल्ली पुलिस के काली करतुतों उनकी काली कमाई के खिलाफ चुप हैं परन्तु उनके द्वारा अपराधियों को बचाये जाने को लेकर की गई गलत कार्रवाही के पक्ष में हंगामा बरापा रहें हैं।  जिन बिजली कंपनियों के पुश्तैनी कारोबारी को कभी धन का संकट नहीं था आज अचानक से उनके पास धन की कमी हो गई। जिस सरकारी कंपनी ने कभी यह नहीं कहा कि वह बिजली नहीं दे सकते, उसने अचानक से नोटिस चिपका दी कि पहले पैसा दो फिर बिजली लो। मानो दिल्ली में ‘आप’ की सरकार क्या बनी, रातों-रात सारे के सारे ईमानदार हो गये। जो भाजपा पिछले 15 साल से सोई हुई थी। रजाई से बहार निकालकर खुद को तरोताजा महसूस करने लगी। जैसे दिल्ली से ही मोदी के भाग्य का फैसला होने वाला है।
दिल्ली की सरकार चुन कर आई है। परन्तु दिल्ली की सारी व्यवस्था दिल्ली के उप-राज्यपाल के माध्यम से केन्द्रीय सरकार चलायेगी। प्रत्येक बात पर दिल्ली के मुख्यमंत्री को उप-राज्यपाल की स्वीकृति लेनी आवश्यक होगी। मानो दिल्ली की जनता ने दिल्ली में अपनी सरकार बनाकर कोई पाप कर दिया है। अबतक दोनों (कांग्रेस व भाजपा) पार्टियों का धंधा दिल्ली में फलफूल रहा था। दिल्ली को तुम मिलकर लूटो, देश को हम मिलकर लूटतें हैं कोई किसी के काम में दखल नहीं देगा। इस बात की शपथ लेते थे कि दोनों पक्ष कभी भी इस लूट की व्यवस्था को जनता के सामने उजागर नहीं करेगें। यह है इनके संविधान की व्याख्या। दरअसल ये लोग संविधान की शपथ लेकर देश की जनता को लूटने का धंधा चलाते थे, जिसे केजरीवाल ने जगजाहिर करने का प्रयासभर किया है।
दिल्ली की जनता को लूटने के लिये इनके पास सारे नियम कानून और सिस्टम उपलब्ध है परन्तु जनता के धनको लूटने वालों पर अंकुश की बात करते ही इनको संविधान की याद आने लगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री के हाथ-पांव को कानून से बांधने के सभी कानून उपलब्ध है। देश के इन लूटरों के खिलाफ बोलने व दिल्ली जनलोकपाल कानून बनाने की बात करते ही इनको पद व गोपनियता की याद सताने लगी। कहते हैं वे संविधान से बंधे हुए हैं। जैसे चोर चिल्लाता है कि मुझे मारो मत मैं भी इंसान हूँ।
सरकार चलाने का तर्जूबा सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के पास ही। देश की सत्ता में काबिज हो देश के खजानों को लूटना, देश की खनिज संपदा का बंदरवाट करना इनके सरकार चलाने का अर्थ होता है। देश को लूटो और राज करो। केजरीवाल को सरकार चलानी इसलिये नहीं आती क्योंकि केजरीवाल व इसके साथी इस बंद पिंजडे का पंछी नहीं हैं । हमें अवसर मिला है इसमें अपनी आहुति देने का। संविधान की मर्यादा का पालन करनेवालों को भी खुलकर केजरीवाल का साथ देना होगा नहीं तो ये लूटरें संविधान के हथियार से केजरीवाल को घायल कर देगें ।  जयहिन्द! - शम्भु चौधरी 07.02.2014
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बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

मोदीः राजधर्म नहीं चुरा पा रहे?

भाजपा (मोदी) खेमा आगामी लोकसभा चुनाव में 272 सीटें लाने का दावा ठोक रही है। जबकी भाजपा (अडवाणी) खेमा चुपचाप मजे लेने में। इस दावे की पोल खोलने के लिये अडवाणी खेमा कोई कोर कसर बाकी नहीं रखेगा। बिहार में जदयू, बंगाल से ममता, महाराष्ट्र से शिवसेना और जम्मू कश्मीर के फारूक अब्दुल्ला कुछ ऐसे राज्य हैं जहां से कुल 50-60 सीटें ऐसी है जिसका झूकाव अडवाणी खेमे की तरफ है। 272 के आंकड़ें को पार करने के लिये इन सीटों की जरूरत पडेगी। 
आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारी सरचढ़ कर बोलने लगी। जहाँ कांग्रेस पार्टी बिल पर बिल लाकर देश को चुनाव की तैयारी में जूटी है। अभी से बकवास विज्ञापनों के माध्यम से मीडिया व समाचार पत्रों का मुंह बंद कर, राहुल बाबा के चेहरे पर करोंड़ों का पाउडर पोतने में लगी है। वहीं ‘आप’ के देशभर में बढ़ते प्रभाव के कारण भाजपा की बैचेनी भी साफ झलकने लगी है। दिल्ली को राजनीति का दंगल बना देने वाली भाजपा पिछले 15 साल खुद दिल्ली को लूटती रही, फिर शीला दीक्षित की सरकार के साथ मिलकर 15 साल दिल्ली की जनता को जमकर लूटा। अब दोनों पार्टियाँ मिलकर ‘आप’ की सरकार गिराने में लगी है। मामला देश उन उद्योगिक घरानों से जूड़ा है जिनके बलबुते पर इनकी पार्टी का खर्चा चलता है।
वैसे तो देश में राजनीति पार्टीयों की भरमार है। सभी अपने-अपने क्षेत्र में कोई 20 सीट लाने का दावा ठोक रही है तो कोई 30 सीट, कोई 40 सीट। सबसे मजे की बात है की कांग्रेस पार्टी को ‘‘लोहे की टक्कर’’ देने वाली भाजपा (मोदी) खेमा आगामी लोकसभा चुनाव में 272 सीटें लाने का दावा ठोक रही है। जबकी भाजपा (अडवाणी) खेमा चुपचाप मजे लेने में। इस दावे की पोल खोलने के लिये अडवाणी खेमा कोई कोर कसर बाकी नहीं रखेगा। बिहार में जदयू, बंगाल से ममता, महाराष्ट्र से शिवसेना और जम्मू कश्मीर के फारूक अब्दुल्ला कुछ ऐसे राज्य हैं जहां से कुल 50-60 सीटें ऐसी है जिसका झूकाव अडवाणी खेमे की तरफ है। 272 के आंकड़ें को पार करने के लिये इन सीटों की जरूरत पडेगी। 
दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी की तरफ से अभी तक कोई दावा प्रस्तुत नहीं किया गया कि कांग्रेस को आगामी आम चुनाव में कितनी सीटें मिलेंगी? कांग्रेस अभी तक इस उलझन में है कि वह किसे प्रधानमंत्री पद का उम्मिदवार बनायें। जबकि कांग्रेसी चम्मचे राहुल गांधी को अभी से ही अपना प्रधानमंत्री मान रहें हैं। इन चम्मच छाप नेताओं ने देश में अपनी इतनी अच्छी छवि बना रखी है कि इनको गांधी परिवार के बहार देखना भी बेईमानी होगी। 
उघर सीपीएम एवं सीपीआई हर तरफ हाथ-पांव मारने में लगी है कि किसी प्रकार उसे 20-30 सीटें मिल जाये। अपने खुद के जो राज्य थे पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा एवं केरल इन तीनों राज्यों में इनका जनाधार काफी नीचे खिसक चुका है। प्रकाश करात के अहंकार ने सीपीएम को पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा से सत्ता बेदखल ही नहीं किया संगठन को भीतर से कमजोर भी कर दिया है।
 ‘इंडिया फस्ट’ का नारा देने वाले भाजपा के इकलोते नेता नरेन्द्र मोदी जी कल ही चुनावी सभा करने बंगाल आये। बंगाल की 42 लोकसभा सीटों पर अपना मजबूत उम्मिदवार भी ठीक से खड़ा कर पाने में असमर्थ,  बंगाल की भाजपा कोलकाता के बिग्रेड परेड मैदान के आधे हिस्से को बड़ी मसक्कत करने के बाद भी ठंग से नहीं भर पाई,  मोदी जी ने बंगाल की जनता को आह्वान किया कि वे सभी 42 सीट उनको झौली में भर दें। 
सवाल उठता है कि चुनाव मोदी जी लड़ रहे है कि भाजपा लड़ रही है? मैं और मेरा गुजरात से मोदी आज तक ऊपर नहीं उठ पाये हैं। बिहार जातें हैं तो खुद को गोबंशी कह कर वोट मांगते हैं। बंगाल आये तो ममता दीदी का परिवर्तन का नारा चुरा लिया। मोदीजी ने कहा कि ‘‘अबकि दिल्ली में परिवर्तन की बारी’’। यूपी में गये तो अजित सिंह का गन्ना चुरा लाये। कहीं से ईमान चुराया तो कहीं से गरीबों का सम्मान चुराया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि मोदी जी कांग्रेस के सरदार पटेल तक को चुरा कर भरे बाजार में बेच दिया, कांग्रेसियों की हिम्मत तक नहीं हुई की मोदी को जबाब तक दे सके। 
भले ही मोदी जी ने अपनी पार्टी से सभी कद्दवार नेताओं को क्रमवद्ध अपने रास्ते से हटा दिया हो। भले ही भाजपा, मोदी के पीछे भागती भीड़ को देख के ललायित हो रही हो कि अबकि नैया ‘रामजी’ के भरोसे नहीं ‘मोदीजी’ के भरोसे पार लगेगी, भले ही राजनाथ सिंह को आगे-पीछे मोदी ही मोदी दिखाई देतें हों। पर इतना तो सच है कि मोदी जी अभी तक अटल जी के एक छोटे से अटल वाक्य ‘‘ राज धर्म का पालन हो’’ को नहीं चुरा पाये। जो आगामी चुनाव का गणित है। जयहिन्द!
- शम्भु चौधरी 06.02.2014
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