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मंगलवार, 29 नवंबर 2011

दरवान प्रधानमंत्री को हटाना जरूरी



राजनीति में सांप्रदायिका की कोई परिभाषा निश्चित करना कभी संभव नहीं हो सकता। यदि ऐसा संभव होता तो पाकीस्तान के दो हिस्से कदापी नहीं होते। हिन्दुस्तान आजादी के बाद नहीं टूटता। संभव है कि राजनेताओं का स्वार्थ पूरा ना हुआ हो, परन्तु देश को तौड़कर भी तो वे उसे आजतक नहीं प्राप्त कर पाये। राजनैतिक दलों को अपने सिद्धांत की कभी कोई परवाह रही ही नही। जब सत्ता आती नजर आती है सभी सिद्धांतों का ताक पर रख दिया जातें रहें हैं। अभी हाल ही नेपाल भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।


आज देश में हर तरफ से अफरा-तफरी मची हुई है एक तरफ सरकारी पक्ष अदालतों में अपना कमजोर पक्ष रखकर अपराधियों को बचाने में जूटी है तो दूसरी तरफ गढ़े मुर्दे उखाड़ कर अन्ना टीम के सदस्यों व बाबा रामदेव को अपराधी बनाने का शर्मनाक खेल खेलती जा रही है। गाहे-बगाहे हिन्दू-मुस्लमानों को बंटने के प्रयास को भी बल देती रही है। अन्ना के आंदोलन में मुस्लमानों की तरफ से फतवा तक जारी करवा कर देश के इस सदी के सबसे बड़े आंदोन के इतिहास से एक बार मुस्लमानों के माथे कलंक का टीका लगा डाला कि वे देश के विकास से कोई ताल्लूक नहीं रखना चाहते।
आज देश में राजनैतिक दलों को भी इसी आधार पर कांग्रेस ने बांट रखा है। एक समय कांग्रेस पार्टी ताश के पत्ते की तरह लड़खड़ाने लगी थी जब देश में गांधी परिवार के विरूध आंदोलन चलाकर स्व॰ जयप्रकाश नारायणजी ने देश को एक सूत्र में पिरो दिया था। परन्तु जिस एकता में बामदल, समाजवादी, दक्षिणपंथी व गांधीवादी विचारधारा एक साथ आये वह ज्यादा समय तक नहीं चल सका। कारण सबके अपने-अपने स्वार्थ निहित थे। विचारधारा राजनीति में तबतक नहीं देखी जाती जबतक इन दलों के नेताओं का स्वार्थ सिद्धी होता रहता है। जैसे ही सत्ता के स्वाद व स्वार्थ का सवाल आता है विचारधारा की गली कमरे में बंद कर यही लोग अपने सिद्धान्तों की बातों सामने ला खड़ा करते हैं। पता नहीं कब कौन सी बात पर इनका कौन सा सिद्धांत लागू होगा यह इनको भी नहीं पता रहता। अचानक से कमरे के भीतर से वेसूरी बांसूरी बजने लगती है और सब के सब इनके सिद्धांत व विचारधाराएं नकारखाने की तूती बनकर रह जाती है।
कालाधन का मुद्दा रहा हो या भ्रष्टाचार का, मंहगाई चरम सीमा पर पहुंचती जा रही है। कमरतौड़ मंहगाई ने देश की जनता का जीना हराम कर रखा है परन्तु देश को लूटने का दौर बदसूरत जारी रहना चाहिए। जब-जब सरकार के खिलाफ आवाजें उठी, दबकर रह गई। हर जगह राजनैतिक दलों को लगता है कि देश में सांप्रदायिक ताकतों को जगह मिल जाऐगी।
पिछले दिनों माकपा व भाकपा ने कांग्रेस पार्टी से मंहगाई के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई पर जब इनका स्वार्थ टकराने लगा तो अचानक से एक ऐसे मुद्दे पर अपने सिद्धान्त की बात करने लगे जिसमें देश का हित था। कारण साफ था लोकसभा के चुनाव सामने आ गए थे तब। जिसमें उनको अपने चरित्र व सिद्धान्तों की बात जनता के सामने रखनी थी। परिणाम क्या मिला हम सब जानते हैं। चन्द सीटों पर सिमट कर रह गया इनका सिद्धांत।
आज पुनः कांग्रेसियों ने देश को भ्रमित करने व भ्रष्टाचार के मुद्दे से हटाकर देश में सोची समझी राजनीति की तहत "खूदरा व्यापार में विदेशी भागीदारी" के विवाद को सामने लाकर संसद के अन्दर और बहार अच्छी बहस छेड़ दी। परिणाम वही ढाक के तीन पात होने हैं चुंकि ना तो भाजपा के पास विपक्ष की भूमिका निभाने की क्षमता है न ही अन्य राजनैतिक दल सरकार को गिराना चाहेगें। कारण वही रोना होगा कि देश में सांप्रदायिक ताकतों का मजबूत करने में ये दल वाले। भला ऐसे में सिद्धांत का क्या काम? माकपा जब अपने सिद्धांतों की बात करती है तो वह किसी धर्म विशेष को नहीं मानती परन्तु जब राजनीति करनी है तो खुद ही अपने वोट बैंक पर कुलाड़ी कैसे चलायेगी।
कम व बेस प्रायः सभी राजनैतिक चरित्र इस बीमारी के शिकार हो चुके हैं। भाकपा, माकपा, समाजवादी बिचारधारा और गांधीवादी विचारधारा को बाद कर दिया जाए तो देश में बची बाकी सभी ताकतें सांप्रदायिक ताकते मानी जाऐगी। परन्तु भाकपा, माकपा, समाजवादी बिचारधारा और गांधीवादी विचारधारा सभी मुस्लमानों के वोट बैंक की बातें करतें या ईमामों द्वारा फतवा जारी करवातें रहें हैं। यह किस श्रेणी में आता है वह तो इनका सिद्धान्त ही बाता पायेगा।
राजनीति में सांप्रदायिका की कोई परिभाषा निश्चित करना कभी संभव नहीं हो सकता। यदि ऐसा संभव होता तो पाकीस्तान के दो हिस्से कदापी नहीं होते। हिन्दुस्तान आजादी के बाद नहीं टूटता। संभव है कि राजनेताओं का स्वार्थ पूरा ना हुआ हो, परन्तु देश को तौड़कर भी तो वे उसे आजतक नहीं प्राप्त कर पाये। राजनैतिक दलों को अपने सिद्धांत की कभी कोई परवाह रही ही नही। जब सत्ता आती नजर आती है सभी सिद्धांतों का ताक पर रख दिया जातें रहें हैं। अभी हाल ही नेपाल भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
आज देश के राजनेताओं को सोचना होगा कि देश हित किसमें है। राष्ट्रहित में यदि सभी दलों को एक होकर कांग्रेस की इस दरबानों व चौकीदारों की सरकार को गिराने का कोई भी अवसर मिले तो चूक नहीं करनी चाहिए। गैर कांग्रेसी दलों को मिलकर राष्ट्र के नव निर्माण में भागीदारी लेनी चाहिए न कि कांग्रेसी चाल का हिस्सा बनकर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उनका उनका साथ देवें। सांप्रदायिकाता का तमाशा बन्द करें ये सिद्धांतों के रखवाले। देश की रक्षा में आगे आएं। -शंभु चौधरी

सोमवार, 7 नवंबर 2011

बंगला साहित्य में राजस्थान - प्रो. शिवकुमार

चारण कवि रंगलाल की कविता पर आधारित
बंगाला साहित्य ‘राजस्थान के इतिहास’ से पटा पड़ा है। आज हम इसी संदर्भ में बंगला साहित्य के कुछ पन्नों को पलटते है।
रानी पद्मिनी के रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर उसे प्राप्त करने के लिए सम्राट अलाउद्दीन चित्तौड़ पर आक्रमण करता है। युद्ध में असफलता होने के पश्चात वह राजा भीम सिंह के पास एक प्रस्ताव भेजता है- ‘‘कि यदि एक बार उसे रानी पद्मिनी का दर्शन हो जाय तो वह दिल्ली लौट जायेगा।’’
बंगला साहित्य में इस घटना का वर्णन देखें -

एई रूप कत दिन होइलो समर।
दिवा विभावरी रणे नाहि अवसर।।
तथापिउ यवनेर ना होइलो जय।
अभेद्य दुर्गम दुर्ग, कार साध्य लय?

एकबार देखा चाई से रूप ताहार।।
आसार आशाय फल लाभ होले बांचि।
इहार अधिक मिछे मने मने आंचि।।
नाहि चाहि रत्नभार, चित्तौरे देश।

देखिबो से मोहिनीरे, एई धार्य शेष।।
एतो भावि पत्र लिखि दूत पाठाइलो।
संधिर पताका शुभ्र, शून्ये उडाइलो।।

(संदर्भ: रंगलाल रचनावली, पद्मिनी उपाख्यान पृ.147)

सम्राट अलाउद्दीन चित्तौड़ पर जय नहीं होने के बाद जब इस तरह का अपमान जनक सन्धि प्रस्ताव पा कर राजा राणा भीम सिहं क्रूद हो उठता है परन्तु तब तक वह युद्ध के कारण काफी कमजोर हो चुका था। तब रानी पद्मिनी ने सूझाव दिया कि आप उसे दर्पण छाया देखने का प्रस्ताव दे कर कुल को नष्ट होने से वचाव करें। अगर वह सिर्फ मेरी छाया देख कर दिल्ली लौट जाता है तो इससे हमारे वीरों की प्राण रक्षा हो सकेगी।

दुर्जन दलन, सुजन पालन,
एई तो राजार नीति।

निरखि आभाय, शत्रु यदि जाय,
सब दिक रक्षा पाय।
तबे हे आमारे, देखाउ ताहारे,
निरुपाये सदुपाये।।
साक्षत् आभाय, यदि देखे राय
होबे तबे कुले कालि।
देखुक अर्पाणे, छाया दरशने
वंशेते ना रबे गालि।।

(संदर्भ: रंगलाल रचनावली, पद्मिनी उपाख्यान पृ.149)
पद्मिनी महारानी ने राजा को जनता के प्रति अपना धर्म याद दिला कर संन्धि प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने को कहा। इस बीच में बंगाला कवि देश की जनता को याद दिलाता है कि अंग्रेजों से भी हमें हार नहीं माननी चाहिए। धीरे धीरे कवि रानी के जौहर की तरफ बढ़ता चला जाता है।
अंत मे कवि हुंकार भर उठता है-

ओई शनु ! ओई शुनो !
भेरहर आवाज हे, भेरीर आवाज।
साज साज साज बोले, साज साज साज हे,
साज साज साज।।
चलो चलो चलो सबे, समर-समाज हे,
समर समाज।
राखोहो पैतृक धर्म, क्षत्रियेर काज हे,
क्षत्रियेर काज।
आमादेर मातृभूमि राजपूतानानार हे
राजपूतानार।

जौहर की कथा का गुनगान करते हुए कवि देशवसियों को हुंकार भरता है कि- कि वे भी उठो जगो और अंग्रेजों से लोहा लेने की कसम खा लो।

भारतेर भाग्य जोर, दुःख विभावरी भेर
घूम-घोर थाकिवे कि आर?
इंगराजेर कृपाबले, मानस उदयाचले
ज्ञानभनु प्रभाय प्रचार।।

(संदर्भ: रंगलाल रचनावली, पद्मिनी उपाख्यान पृ.172)

रविवार, 6 नवंबर 2011

व्यंग्य: लोकतंत्र’रा स्तम्भ


बेईमान व्यक्ति के हाथ में कलम हो या तलवार उसकी बेईमानी छुपती नहीं है। इन दिनों देश में पत्रकारिता में भी बेईमानी झलकने लगी है। देश के कई पत्रों के संपादक करोड़ों में बिकने लगे। ईनाम की रकम इतनी मंहगी हो चुकि है कि एक लाख का ईनाम लेने के लिए हर शख्स अपना ईमान बेचने में लगा है। कल तक देश में नेता लोग व्यापारियों को जी भर के गालियां देते रहे। पत्रकार भी जम कर उनको लताड़ते थे। जनता उसके मजे ले-ले पेट भरती रही। आज देश में इन नेताओं की जब बारी आई तो पत्रकारों की एक जमात बगलें झांकती नजर आती है। इस संदर्भ में व्यंग्य को देखें -

एक पत्रकार दूसरे पत्रकार से
मित्र- सोहनजी थारी तलवार निचे पड़गी !
ना’रे आ तो म्हारी कलम है !
मित्र- नेता’रे गलै तो आई रोजना फिरै !
अब कठै काल ही म्हारे बॉस ने ‘वो’ खरिद लियो !
मित्र- अब तू कै लिखसी ?
आ अब उलटी चालसी
मित्र- कियां?
अब देश’री जनता को सर कलम करसी।
मित्र- पर या तो गद्दारी होसी?
मेरो पेट कुण भरसी तू कि या जनता?
मित्र- पर फैर भी आपां देश का चौथा लोकतंत्र’रा स्तम्भ हां।
जद तीनों पाया लड़खड़ायरा है तो चौथे खड़ो रह भी कै कर लेसी?


व्यंग्यकार: शंभु चौधरी, कोलकाता

शनिवार, 5 नवंबर 2011

भुपेन हजारिका को हमारी श्रद्धांजलि

भुपेन हजारिका
(8 सितंबर, 1926 - ५ नवम्बर २०११)
Bhupen Hazarika
जाने-माने गायक और संगीतकार इस सदी के महा नायक श्री भूपेन हजारिका जी का शनिवार को मूम्बई के एक अस्पताल में निधन हो गया। श्री हजारिका जी के कई अंगों ने काम करने बंद कर दिये थे। उनकी उम्र 86 वर्ष की थी। कल देर शाम लगभग साढ़े चार बजे उनका निधन हो गया। हजारिका जी का इस अस्पताल में 29 जून से इलाज चल रहा था। अक्तूबर के अंत में निमोनिया होने के बाद से उनकी सेहत और खराब हो गई। हजारिका ने अपना अंतिम गीत फिल्म गांधी टू हिटलर के लिए गाया, जिसमें उन्होंने बापू के पसंदीदा भजन वैष्णव जन गाया था। इनके दो गीतों ने ‘‘दिल हूम-हूम करे’’ और ‘‘ओ गंगा बहती हो क्यूं’’ ने देश भर के हिन्दूस्तानियों पर राज किया।
भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम से एक बहुमुखी प्रतिभा के कलाकार थे। हजारिका का जन्म असम के सादिया में हुआ था। बचपन में ही उन्होंने अपना प्रथम गीत लिखा और दस वर्ष की आयु में उसे गाया। साथ ही उन्होंने असमिया चलचित्र की दूसरी फिल्म इंद्रमालती के लिए १९३९ में बारह वर्ष की आयु मॆं काम भी किया। ई-हिन्दी साहित्य सभा की तरफ से आपको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित।


ओ गंगा बहती हो क्यूं?
© - डॉ.भूपेन हजारिका -




[मूल असमिया भाषा से हिन्दी में रूपान्तर]
विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम
ओ गंगा बहती हो क्यों ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुआ
निर्लज्य भाव से बहती हो क्यों ?
अनपढ़ जन खाध्य विहीन,
नेत्र विहीन देख मौन हो क्यों ?
इतिहास की पुकार, करें हँकार
ओ गंगा की धार, निर्वल जन को सकल संग्रामी
समग्रगामी बनाती नहीं हो क्यों ?
व्यक्ति रहे व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज व्यक्तित्व रहित
निष्प्राण समाज नहीं तोड़ती हो क्यों ?
स्त्रोतस्विनी तुम न रही, तुम निश्चय चेतना नहीं
प्राणों से प्रेरणा बनती न क्यों ?



[मूल असमिया भाषा से राजस्थानी में रूपान्तर]
लांबी है अथाग, प्रजा दोन्यू पार
करे त्राय-त्राय, अणबोली सदा ओ गंगा तू
ओ गंगा बैवे है क्यूं ?
नेकपाणो नष्ट हुयो, मिनख पणो भ्रष्ट हुयो,
निरलज्जा बण बैवे है क्यूं
अणभणिया आखरहीन, अणगिण जन रोटी स्यूं त्रीण
नैत्रहीन लख चुप है क्यूं
इतिहास की पुकार, करें हुंकार-
हे गंगा की धार निवले मानव ने जुद्ध वणी,
सब ठौरजयी वणावै नहीं है क्यूं ?
मिनक रहवै मिनखांचारी, सगळा समाज निभ्हे स्वैच्छाचारी
प्राणहीन समाज नै तोड़े नहीं हैं क्यूं ?
सुरसरी तू ना रै वै, तू निश्चय चेतना हीन
प्राणों में प्रेरणा बणै नहीं है क्यूं ?
ओ गंगा बैवे है क्यूं

Translated In Rajsthani by : Raju Khemka, Assam