राजनीति में सांप्रदायिका की कोई परिभाषा निश्चित करना कभी संभव नहीं हो सकता। यदि ऐसा संभव होता तो पाकीस्तान के दो हिस्से कदापी नहीं होते। हिन्दुस्तान आजादी के बाद नहीं टूटता। संभव है कि राजनेताओं का स्वार्थ पूरा ना हुआ हो, परन्तु देश को तौड़कर भी तो वे उसे आजतक नहीं प्राप्त कर पाये। राजनैतिक दलों को अपने सिद्धांत की कभी कोई परवाह रही ही नही। जब सत्ता आती नजर आती है सभी सिद्धांतों का ताक पर रख दिया जातें रहें हैं। अभी हाल ही नेपाल भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
आज देश में हर तरफ से अफरा-तफरी मची हुई है एक तरफ सरकारी पक्ष अदालतों में अपना कमजोर पक्ष रखकर अपराधियों को बचाने में जूटी है तो दूसरी तरफ गढ़े मुर्दे उखाड़ कर अन्ना टीम के सदस्यों व बाबा रामदेव को अपराधी बनाने का शर्मनाक खेल खेलती जा रही है। गाहे-बगाहे हिन्दू-मुस्लमानों को बंटने के प्रयास को भी बल देती रही है। अन्ना के आंदोलन में मुस्लमानों की तरफ से फतवा तक जारी करवा कर देश के इस सदी के सबसे बड़े आंदोन के इतिहास से एक बार मुस्लमानों के माथे कलंक का टीका लगा डाला कि वे देश के विकास से कोई ताल्लूक नहीं रखना चाहते।
आज देश में राजनैतिक दलों को भी इसी आधार पर कांग्रेस ने बांट रखा है। एक समय कांग्रेस पार्टी ताश के पत्ते की तरह लड़खड़ाने लगी थी जब देश में गांधी परिवार के विरूध आंदोलन चलाकर स्व॰ जयप्रकाश नारायणजी ने देश को एक सूत्र में पिरो दिया था। परन्तु जिस एकता में बामदल, समाजवादी, दक्षिणपंथी व गांधीवादी विचारधारा एक साथ आये वह ज्यादा समय तक नहीं चल सका। कारण सबके अपने-अपने स्वार्थ निहित थे। विचारधारा राजनीति में तबतक नहीं देखी जाती जबतक इन दलों के नेताओं का स्वार्थ सिद्धी होता रहता है। जैसे ही सत्ता के स्वाद व स्वार्थ का सवाल आता है विचारधारा की गली कमरे में बंद कर यही लोग अपने सिद्धान्तों की बातों सामने ला खड़ा करते हैं। पता नहीं कब कौन सी बात पर इनका कौन सा सिद्धांत लागू होगा यह इनको भी नहीं पता रहता। अचानक से कमरे के भीतर से वेसूरी बांसूरी बजने लगती है और सब के सब इनके सिद्धांत व विचारधाराएं नकारखाने की तूती बनकर रह जाती है।
कालाधन का मुद्दा रहा हो या भ्रष्टाचार का, मंहगाई चरम सीमा पर पहुंचती जा रही है। कमरतौड़ मंहगाई ने देश की जनता का जीना हराम कर रखा है परन्तु देश को लूटने का दौर बदसूरत जारी रहना चाहिए। जब-जब सरकार के खिलाफ आवाजें उठी, दबकर रह गई। हर जगह राजनैतिक दलों को लगता है कि देश में सांप्रदायिक ताकतों को जगह मिल जाऐगी।
पिछले दिनों माकपा व भाकपा ने कांग्रेस पार्टी से मंहगाई के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई पर जब इनका स्वार्थ टकराने लगा तो अचानक से एक ऐसे मुद्दे पर अपने सिद्धान्त की बात करने लगे जिसमें देश का हित था। कारण साफ था लोकसभा के चुनाव सामने आ गए थे तब। जिसमें उनको अपने चरित्र व सिद्धान्तों की बात जनता के सामने रखनी थी। परिणाम क्या मिला हम सब जानते हैं। चन्द सीटों पर सिमट कर रह गया इनका सिद्धांत।
आज पुनः कांग्रेसियों ने देश को भ्रमित करने व भ्रष्टाचार के मुद्दे से हटाकर देश में सोची समझी राजनीति की तहत "खूदरा व्यापार में विदेशी भागीदारी" के विवाद को सामने लाकर संसद के अन्दर और बहार अच्छी बहस छेड़ दी। परिणाम वही ढाक के तीन पात होने हैं चुंकि ना तो भाजपा के पास विपक्ष की भूमिका निभाने की क्षमता है न ही अन्य राजनैतिक दल सरकार को गिराना चाहेगें। कारण वही रोना होगा कि देश में सांप्रदायिक ताकतों का मजबूत करने में ये दल वाले। भला ऐसे में सिद्धांत का क्या काम? माकपा जब अपने सिद्धांतों की बात करती है तो वह किसी धर्म विशेष को नहीं मानती परन्तु जब राजनीति करनी है तो खुद ही अपने वोट बैंक पर कुलाड़ी कैसे चलायेगी।
कम व बेस प्रायः सभी राजनैतिक चरित्र इस बीमारी के शिकार हो चुके हैं। भाकपा, माकपा, समाजवादी बिचारधारा और गांधीवादी विचारधारा को बाद कर दिया जाए तो देश में बची बाकी सभी ताकतें सांप्रदायिक ताकते मानी जाऐगी। परन्तु भाकपा, माकपा, समाजवादी बिचारधारा और गांधीवादी विचारधारा सभी मुस्लमानों के वोट बैंक की बातें करतें या ईमामों द्वारा फतवा जारी करवातें रहें हैं। यह किस श्रेणी में आता है वह तो इनका सिद्धान्त ही बाता पायेगा।
राजनीति में सांप्रदायिका की कोई परिभाषा निश्चित करना कभी संभव नहीं हो सकता। यदि ऐसा संभव होता तो पाकीस्तान के दो हिस्से कदापी नहीं होते। हिन्दुस्तान आजादी के बाद नहीं टूटता। संभव है कि राजनेताओं का स्वार्थ पूरा ना हुआ हो, परन्तु देश को तौड़कर भी तो वे उसे आजतक नहीं प्राप्त कर पाये। राजनैतिक दलों को अपने सिद्धांत की कभी कोई परवाह रही ही नही। जब सत्ता आती नजर आती है सभी सिद्धांतों का ताक पर रख दिया जातें रहें हैं। अभी हाल ही नेपाल भी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
आज देश के राजनेताओं को सोचना होगा कि देश हित किसमें है। राष्ट्रहित में यदि सभी दलों को एक होकर कांग्रेस की इस दरबानों व चौकीदारों की सरकार को गिराने का कोई भी अवसर मिले तो चूक नहीं करनी चाहिए। गैर कांग्रेसी दलों को मिलकर राष्ट्र के नव निर्माण में भागीदारी लेनी चाहिए न कि कांग्रेसी चाल का हिस्सा बनकर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उनका उनका साथ देवें। सांप्रदायिकाता का तमाशा बन्द करें ये सिद्धांतों के रखवाले। देश की रक्षा में आगे आएं। -शंभु चौधरी