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शनिवार, 8 मार्च 2008

होली के रंग अनेक होली तो हो ली भाई! - शम्भु चौधरी

होली की बात हो और ब्रज का नाम ना आए, ऐसा तो हो ही नही सकता। होली शुरु होते ही सबसे पहले तो ब्रज रंगों मे डूब जाता है। सबसे ज्यादा मशहूर है बरसाना की लट्ठमार होली। बरसाना, भगवान श्रीकृष्ण की प्रिय राधा का जन्मस्थान। उत्तरप्रदेश में मथुरा के पास बरसाना मे होली की धूम, होली के कुछ दिनो पहले ही शुरु हो जाती है और हो भी क्यों ना, यहाँ राधा रानी जो पली बढी थी। दो सप्ताह तक चलने वाली इस होली का माहौल बहुत मस्ती भरा होता है। एक बात और यहाँ पर रंग और गुलाल जो प्रयोग किया जाता है वो प्राकृतिक होतें है। आजकल कुछ लोभी व्यापारी के चलते इसमें मिलावट भई देखने को मिलती है। इस होली को देखने के लिये देश विदेश से हजारो सैलानी बरसाना पहुँचते है।


नैनीताल की संस्कृति: बरसाने की होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है। नैनीताल में परम्परागत कुमाँऊनी संस्कृति बनी हुई है। क्योंकि नन्दा देवी मन्दिर की उपस्थिति से इसका धार्मिक महत्व है। यहाँ पर होली के गीत होली त्यौहार के अवसर पर गाये जाते हैं। होली के गीतों को मुख्य रुप से तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- खड़ी होली, बैठकी होली तथा महिला होली। फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम देखने लायक होता है। शाम ढलते ही कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है। बैठक होली घर की बैठक में राग रागनियों के इर्द गिर्द हारमोनियम तबले पर गाई जाती है।


".....रंग डारी दियो हो अलबेलिन में.........गए रामाचंद्रन रंग लेने को गए..........गए लछमन रंग लेने को गए............रंग डारी दियो हो सीतादेहिमें..........रंग डारी दियो हो बहुरानिन में...."
यहां की बैठ होली में नजीर जैसे मशहूर उर्दू शायरों का कलाम भी प्रमुखता से देखने को मिलता है।


"....जब फागुन रंग झमकते हों.........तब देख बहारें होली की..........घुंघरू के तार खनकते हों.........तब देख बहारें होली की......"


बैठकी होली में जब रंग छाने लगता है तो बारी बारी से हर कोई छोड़ी गई तान उठाता है और अगर साथ में भांग का रस भी छाया तो ये सिलसिला कभी कभी आधी रात तक तो कभी सुबह की पहली किरण फूटने तक चलता रहता है। होली की ये रिवायत महज़ महफिल नहीं है बल्कि एक संस्कार भी है। बैठ होली की पुरूष महफिलों में जहां ठुमरी और खमाज गाये जाते हैं वहीं अलग से महिलाओं की महफिलें भी जमती हैं। इनमें उनका नृत्य संगीत तो होता ही है, वे स्वांग भी रचती हैं और हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाकों और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं। इनके ज्यादातर गीत देवर भाभी के हंसी मज़ाक से जुड़े रहते हैं जैसे... फागुन में बुढवा देवर लागे.......
बनारस में तो रंग और अबीर की दर्जनों दुकानों को देखकर लोग यह गीत भी गाते हैं

भाई का पे डालूँ अबीर!:

"संउसे सहरिया रंग से भरी,

केकरा माथे ढ़ारूँ अबीर,

हो केकरा माथे ढ़ारूँ अबीर?"


कई प्रदेशों में होली को फगुआ भी कहा जाता है. फगुआ मतलब फागुन, होली। इस वेला में आम के पेड़ों में मंजर निकल आतें है। खेतों में गेहूँ की बालियाँ हवाओं के साथ अठखेलियाँ करने लगती है। सरसों के फूलों से लदे खेतों की छंटा ही कुछ निराली हो उठती है, आलू खेतों से निकल कर बाजारों में जाने लगते हैं। जिस तरह हम दिवाली के समय अपने घरों की साफ-सफाई करते हैं, यह वक्त किसानों के घरों में खुशियाली के साथ- साथ साफ- सफाई का समय भी होता है।
इस अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीतों में देवी-देवताओं का जितना महत्व तो होता ही है, प्रकृति का भी काफी महत्वपूर्ण स्थान रहता है।
एक लोकगीत को देखें:


राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए॥ राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए॥ इन्द्रलोक से इन्द्र जी आए, घटा उठे घनघोर, बूँद बरसत आए... राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. ब्रह्मलोक से ब्रह्मा आए,पोथियां लिए हाथ, वेद बांचत आए... राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. शिवलोक से शिवजी आए , गौरा लिए साथ, भांग घोटत आए.. राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. वृन्दावन से कान्हा आए राधा लिए साथ। राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए.. राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..


असम में इस समय ढोल की थाप और बांस की बांसुरी की आवाज से सारा का सारा असम गुंजायमान हो जाता है। जगह-जगह ढोल और बांसुरी की थाप व तान पर लोगों को डांस करते देखें जा सकतें हँ। असमी नववर्ष यानी बोहाग बिहू नामक इस त्यौहार का लोग हर साल बेसब्री से इंतजार करते हैं। हांलाकि बिहू असम का जातीय त्योहार है।
फिर भी इसकी तुलना बसन्तोत्सव से की जा सकती है। बिहू के लोकगीतों में प्रेम, ऋगांर, प्रकृति, सम्मान एवं आध्यात्मिक भावों से परिपूर्ण गीत-श्लोकों से असम की धरती मानों प्रकृति प्रदत भाव गीतों के रूप में स्वयं प्रस्फुटित हो गई हो।


मारवाड़ी:
होली मनाने का अंदाज भी कुछ निराला सा


एक बने रंग ऎसा,

जो लाल, गुलाबी, पीला, नीला,

हरा नहीं हो यार।

इसका रंग कुछ ऎसा हो,

जो तन को नहीं - मन को छू सके। -शम्भु चौधरी



इस अवसर पर हिन्दू धार्मिक परम्परा के अनुसार होलिका दहन की परंपरा रही है, राजस्थानी और प्रवासी राजस्थानी ( मारवाड़ी) के घरों में दस दिनों पहले से ही इस होलिका दहन की तैयारी शुरू हो जाती है, घर-घर में बड्डकुल्ला ( गोबर के होला-होली,चान्द-सितारा, चकला-बेलन, पान-सुपारी, ढाल-तलवार आदि) बनाये जाते हैं, सुख जाने के बाद इनकी रोली, अबीर, गुलाल आदि रंगों से सजाया जाता है, होलिका दहन के दिन ठीक समय में सभी घरों में प्रायः एक ही वक्त पर पूरे परिवार के साथ पूजा की जाती है, बच्चे अपने माता-पिता, दादा-दादी , बड़ों से चरण छूकर आशिर्वाद ग्रहण करते हैं। घर के सभी लोग खाशकर नवनवेली दुल्हन एक सार्वजनिक स्थान पर जहाँ समाज की तरफ से होलिका दहन का स्थान तय किया जाता है, उस स्थान में जाकर इन पूजे गये बड़कुल्लें को जो कि कई मालाओं में पिरोये रहते हैं को प्रज्वलित होलिका स्तल में अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। इस दिन हर राजस्थानी परिवारों में होली के पकवान भी बनाये जाते हैं, जो दूसरे दिन छारंडी तक चलते हैं। होली की बात हो तो बिहार- यू.पी. की कादो- कीचड़ और कपड़ा फाड़ होली की बात न हो तो होली की बात ही नहीं पूरी होती। परन्तु सबसे डर इस बात से लगता है जब भी होली आने का समय होता है तो ट्रेन से गुजरने वाले यात्रियों की तो शामत ही आ जाती है। बच्चे खेत और खलियानों से कादो के मोटे-मोटे ढेले बना-बना कर सामने से गुजरती ट्रेनों पर फेंकने लगते हैं हालांकि बच्चे इसे मनोरजन का माध्यम समझते हैं परन्तु कई बार इससे चोट भी लग जाती है। इसे हम होली कह लें या होली के नाम पर कुछ शरारत जो भी कह लें हमें इस समय सावधान होकर ही सफर करना पड़ता है। अरे भाई सिर्फ गांव के लोग ही इसके लिये दोषी नहीं अब देखिये कोलकाता शहर की ही बात लें यहाँ तो सभी पढ़े-लिखे लोग रहतें हैं। कोलकाता शहर के बड़ाबाजार का हाल कुछ इससे भी बुरा होता है। बड़े-बड़े भवन की छतों से पता नहीं कब आपके सर पर रंग भरा पानी का गुब्बारा आ टपकेगा , किसी को पता नहीं। भाई ये तो रंग खेलने का अलग- अलग अंदाज है। बस मजा आपको लेना है। मारवाड़ी समाज में होली खेलने का अंदाज भी बड़ा निराला है, बिहार के एक शहर कटिहार की ही बात लें , तो वहाँ दस - पंद्रह रोज पहले से ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती है, होलिका दहन के दिन अलग टोली स्वांग भर कर एक जुलूस के रूप में महात्मा गांधी रोड से निकल कर बड़ाबाजार तक जाती है। इस जुलूस को देखने के लिये भीड़ उमड़ पड़ती है, वहीं मुजफ्फरपुर में छारण्डी के बाद समाज के सभी लोग नया कुर्ता-पेजामा पहन कर अबीर की थैली हाथ में लिये चतुर्भुज स्थान में स्थित शिव मंदिर जाते हैं। आपको जानकर यह सुखद आश्चर्य भी हो सकता है कि यह स्थान शहर का लालबत्ती ईलाका माना जाता है, परन्तु इस दिन इस इलाके की सभी महिलायें समाजिक वातावरण के रूप में देखी जा सकती है। शायद यही कारण है कि इस दिन सपरिवार सभी लोग सज-धज के जा पाते हैं। बिहार की होली देखने के लिये, यहाँ ‘कपड़ा फाड़ मस्ती’ देखने वालों की भीड़ जुटती है और तब शरमाती हुई पत्नी को अपने पति के जो रूप का दर्शन होता है उसका एक अलग ही अंदाज होता है, जब किसी कोने में छुपकर वो यह देखती होगी।


जयपुर में होली के अवसर पर पारंपरिक तमाशा अब भी होता है लेकिन ढाई सौ साल पुरानी इस विधा को देखने के लिए अब उतने दर्शक नहीं आते जितने पहले आते थे। होली के समय पास आते ही तमाशे की श्क्ल में किसी नुक्कड़ नाटक की शैली में मंच सज्जा के साथ कलाकार आते हैं और अपने पारंपरिक हुनर का प्रदर्शन करते हैं। तमाशा की विषय वस्तु पौराणिक कहानियों और चरित्रों के इर्दगिर्द तो घूमती ही है लेकिन इन चरित्रों के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर भी चुटकी ली जाती है। तमाशा शैली के वयोवृद्ध कलाकार गोपी जी मल तो इस बात से ही ख़ुश हैं कि उनकी यह विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी अभी चली आ रही है। तमाशा एक ऐसी विधा है जिसमें शास्त्रीय संगीत, अभिनय और नृत्य सभी कुछ होता है। तमाशा सम-सामयिक राजनीति पर टिप्पणी करता है। आमतौर पर तमाशा हीर-राँझा और पौराणिक पात्रों के ज़रिए अपना बात कहता है। इसमें राग जौनपुरी और दरबारी जैसे शास्त्रीय गायन शैलियों को भी शामिल किया जाता है।


बंगाल : कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, वो बाक़ी देश कल सोचता है. कम से कम एक त्यौहार होली के मामले में भी यही कहावत चरितार्थ होती है.
यहाँ देश के बाक़ी हिस्सों के मुक़ाबले, एक दिन पहले ही होली मना ली जाती है। राज्य में इस त्यौहार को “दोल उत्सव” के नाम से जाना जाता है। इस दिन महिलाएँ लाल किनारी वाली सफ़ेद साड़ी पहन कर शंख बजाते हुए राधा-कृष्ण की पूजा करती हैं और प्रभात-फेरी (सुबह निकलने वाला जुलूस) का आयोजन करती हैं। इसमें गाजे-बाजे के साथ, कीर्तन और गीत गाए जाते हैं। दोल शब्द का मतलब झूला होता है. झूले पर राधा-कृष्ण की मूर्ति रख कर महिलाएँ भक्ति गीत गाती हैं और उनकी पूजा करती हैं। इस दिन अबीर और रंगों से होली खेली जाती है, हालांकि समय के साथ यहाँ होली मनाने का तरीक़ा भी बदला है। शांतिनिकेतन की होली का ज़िक्र किये बिना दोल उत्सव अधूरा ही रह जाएगा। काविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वर्षों पहले वहाँ बसंत उत्सव की जो परंपरा शुरू की थी, विश्वभारती विश्वविद्यालय परिसर में छात्र और छात्राएँ आज भी पारंपरिक तरीक़े से होली मनाती हैं। लड़कियाँ लाल किनारी वाली पीली साड़ी में होती हैं. और लड़के धोती और अंगवस्त्र जैसा कुर्ता पहनते हैं। वहाँ इस आयोजन को देखने के लिए बंगाल ही नहीं, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों और विदेशों तक से भी भारी भीड़ उमड़ती है।
होली का नाम आते ही वह बचपन के दिन आँखों के सामने आ खड़े होते हैं। क्या दिन थे, क्या ज़माना था और क्या उत्साह था होली खेलने का। सुबह-सवेरे ही घर से निकल कर, हम बच्चों की टोलियाँ घर-घर जातीं और दोपहर तक रंगों में सराबोर हो कर अपने घरों की राह लेतीं। चेहरे इतने पुते हुए होते कि कई बार तो माएँ मुँह धुलाने के बाद ही जान पातीं कि यह किसी और का बच्चा है। होली के दिन रंगो में रंग जाना और हंगामा मचा देना, ये ख़ूबसूरत यादें हैं। "जी चाहता है एक बार फिर सब इक्ठ्ठा हों। अब भी वही मोहब्बत है, वही प्यार है। वही समां फिर से बना लें तो क्या रंग जमेगा सचमुच."
‘जो जीए सो खेले फाग’ यानी होली को ज़िंदादिली का त्योहार कहा जाता है। जब मैं ढोल, मृदंग, मजीरा बजाते लोगों को मस्ती में नाचते गाते और ‘बुरा न मानो होली है’ के नुस्ख़े से तनाव मुक्त होते देख, मानो ऎसा लगता है कि भारत के ये अलग-अलग रंग जब एक साथ मिल-जुल कर गाते -नाचते हैं तो दुनिया यह देख कर ही दंग हो जाती होगी कि आखिर ऎसी भी क्या खास बात है इस धरती में कि सारा का सारा देश एक ही दिन में बदल जाता है हर तरफ रंगों की बरसात है।
होली में भांग की बात न हो तो होली का कोई महत्व ही नहीं रह जाता, कहा जाता है होली और भांग का चौली-दामन का साथ है। होली कए समय तो की बार ऎसा लगत है कि कुएँ में ही भांग पड़ गई हो , जिधर देखो उधर ही कुछ न कुछ उलट-पुलट है, जिसे कल तक आपने नाचते नहीं देखा हो उसे यदि नाचते -कपड़ा फाड़ते देख लें तो अपको ऎसा लगेगा कि क्या यह वही लोग है ? हाँ कुछ ऎसा ही हो जाता है, य़दि इस कभी आपके सामने भी या आपके साथ भी हो तो यह मौका हाथ से जाने नहीं दिजीयेगा, पता नहीं यह जीवन फिर कब मिले।


होली की बात हो और अमीर ख़ुसरो न हो तो होली का कोई अर्थ ही नही रह जाता। अमीर खुसरो को कैसे भुला जा सकता है। फाग पर जितने गीत और चौपाईयाँ इनके द्वारा लिखे गये हैं वे आज भी होली के अवसर पर गाये- बजाये जाते हैं, एक प्रकार से इनके गीत लोकगीत बन चुके हैं।


दैया री मोहे भिजोया री

शाह निजाम के रंग में

कपडे रंग के कुछ न होत है,

या रंग मैंने मन को डुबोया री

दैया री मोहे भिजोया री



विभीन्न स्त्रोतों से संकलित लेख - शम्भु चौधरी

जी! राज ठाकरे जी! ये है बिहार

आज का समाचार पढ़कर मन गदगद हो गया। मन किया नीतीश जी को जाकर चुम लूँ।

समाचार में लिखा था " बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोगों से एक-दूसरे पर हावी होने की बजाए उनकी भावनाओं की कद्र करने का आह्वान किया है। कहा कि महाराष्ट्र समेत देश के कई राज्यों में बिहारियों के साथ दुर्व्यवहार किये जाने को लेकर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने कहा कि इससे लोगों को घबराने की जरूरत नहीं है। इसे चुनौती के रूप में स्वीकार कर अवसर इस चुनौती को एक अवसर के रूप में बदलने को कहा। उन्होंने कहा कि हमें बिहार को एक ऎसा राज्य बनाना है कि जिसमें अन्य राज्यों के लोग रोजगार के लिये यहां आयें। साथ ही उन्होंने उन लोगों को अपने शैली से करारा चांटा भी मारा जो बिहार के मजदूर को काम करने की मशीन भर समाझते हैं। यह बात सही है कि बिहार के लोग गरीबी और अभाव के शिकार हैं लेकिन ये समाज न तो बेईमान है और न ही किसी के रहमो करम पर रहते हैं। यह समाज अपने महेनत और परिश्रम के बल पर देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी अलग पहचान कायम की है। बिहार की ताकत उसका मानव संसाधन है और अस्के बलबूते ही बिहार के निर्माण की कल्पना की जा सकती है।" - शम्भु चौधरी

बुधवार, 5 मार्च 2008

लघु कथा: नहीं.............................

सूरज को आज न जाने क्या हो गया, सुबह से ही कुछ परेशान सा दिख रहा था।
कल रात की कलह को लेकर मस्तिष्क में तूफ़ान सा मचा हुआ था।
छोटी-मोटी बातें तो रोज ही होती रहती थी।
आज ऎसी क्या बात थी जो सूरज को सोचने के लिये मजबूर कर रही थी।
सूरज की शादी हुये चार साल हो गये थे, सीमा एक माह बाद ही मायके से लोटी थी।
सूरज को दो बच्चे सोनू तीन साल का हो गया था। छोटी लड़की अभी गोद में ही थी।
तीन माह ही तो हुये थे उसको, सीमा का पहला जापा ( प्रसूति) घर में ही हुआ था।
इस बार सीमा चाहती थी कि उसका दूसरा बच्चा पीहर में ही हो,
जहाँ घर के पास ही एक मारवाड़ी अस्पताल है,
जहाँ आसानी से अपने होने वाले बच्चे को जन्म भी दे सकेगी।
बस इतनी सी ही बात थी जो कल के कलह का मूल कारण था।
माँ को यह बात नागवार गुजरा।
जैसे ही सीमा ने घर में कदम क्या रखा, माँ ने तो मानो स्वांग ही भर लिया हो।
"मांगने से भीख भी नहीं मिलती"
बड़ा आया है - "भीख माँग लूँगा - भीख माँग लूगा!
पढ़ा-लिखा के इसलिए तुझे बड़ा किया था?
""काम-धाम तो रहा नहीं।"
दो-दो बच्चे पैदा कर लिये।
पाल नहीं सकते तो, किसने कहा था बच्चे पैदा करने के लिये।
न घर की इज्जत, ना गाँव का ख्याल,
मान- मर्यादा को ताख पर रख दिया।
थोड़ा तो अपने खानदान की इज्जत रख ली होती।
बस बहु क्या आ गयी, ससुराल का हो गया।
मैं तो जलती लकड़ी हूँ!
कब बुझ जाऊँगी, पता नहीं!
सीमा के घर में प्रवेश करते ही मानो,
तीन महिने का गुस्सा फूट परा हो।
कल तो माँ ने तूफान ही मचा दिया था।
सूरज को लगा कि अब इस घर में ओर बर्दास्त नहीं हो सकेगा।
बहुत हो गया.... यह सब।
बस काम मिलते ही घर छोड़कर चला जायेगा।
रात को सीमा ने भी कसम ही खा ली थी, कि
अब या तो तुम भी साथ चलो, नहीं तो वह इस घर में नहीं रहेगी।
बहुत दिन हो गये माँ की सुनते-सुनते।
सीमा रात भर रो-रोकर कभी मुझे, तो कभी माँ को कोसती रही।
बहुत समझाने की चेष्टा कर ली।
परन्तु सीमा ने तय कर लिया था कि
कल फैसला कर ही लेना है।
दोनों तरफ से समझौते की संभावना नहीं नज़र आ रही थी।
यह द्वंद्व मुझे पशोपेश में डाल दिया था।
घर में माँ एकेली कैसे रहेगी?
सीमा अब घर में किसी भी हालात मै रहने को तैयार नहीं थी।
यह सब सोचते-सोचते घर से बाहर निकल..... रेल की पटरियों के बीच चलने लगा
दिमाग पूरी तरह से खोखला हो चुका था।
काम कि तलाश, घर की इज्जत, माँ की देखभाल,
बच्चे का ख्याल, सीमा की बात, माँ के ताने,
गाँव की मर्यादा, सबकुछ एक साथ अपना हक माँगने के लिये खड़े थे।
एक की बात सुनूँ तो दूसरे का अपमान,
किसकी मानूँ,
रेल की पट्रियों से आती आवाज ने रफ्फ्तार ले ली थी,
सूरज को पता था कि अब कुछ ही पलकों में इन पटरियों के ऊपर से ट्रेन गुजरने वाली है।
सूरज को यह भी पता था कि उसे इन पटरियों से नीचे दूर हटना ही होगा।
सूरज चाहता भी नहीं था कि उसे कमजोर होकर लड़ना है।
आत्महत्या का जरा भी विचार मन में नहीं था।
वह यह भी जानता था कि यह कार्य कमजोर मानसिकता का जन्म है,
या फिर मानसिक अस्वस्थता के लक्षण।
वह जीवन से हताश नहीं था,
परेशान जरूर हो चुका था, लेकिन इतना भी नहीं कि उसे जीवन के इतने करीब ला खड़ा कर दे।
ट्रेन की रफ्तार काफी नजदीक आ चुकी थी,
सूरज बस अब हटने की सोच ही चुका था।
एक तेज आवाज बस कान को सुनाई दी।
नहीं..................ट्रेन की पटरियों पर लोगों की हुजूम लग गया था।
ट्रेन रूक चुकी थी।
भीड़ से एक ने सूरज को पहचानते हुये....
चिल्ला पड़ा .... अरे ये तो सूरज है। - शम्भु चौधरी 6th March'2008

मंगलवार, 4 मार्च 2008

होली के रंग

एक बने रंग ऎसा,
जो लाल, गुलाबी, पीला, नीला,
हरा नहीं हो यार।
इसका रंग कुछ ऎसा हो,
जो तन को नहीं - मन को छू सके।
एक बने रंग ऎसा,
जो लाल, गुलाबी, पीला, नीला,
हरा नहीं हो यार।
इसका रंग कुछ ऎसा हो,
जो राज्य-राज्य की बात न कर
करे राष्ट्र की बात।
एक बने रंग ऎसा,
जो लाल, गुलाबी, पीला, नीला,
हरा नहीं हो यार।
इसका रंग कुछ ऎसा हो,
जो जात -पात का भेद भुला कर
करे प्रेम की बात।
पर देखो इस देश को लग गई
किस मनहूस की हाय।
ये मेरा महाराष्ट्र, तो ये मेरा बंगाल,
ये मेरा गुजरात, तो ये मेरा पंजाब,
ये मेरा बिहार, तो ये मेरा असम,
कोई नहीं कहता यारों
भारत! ये मेरा देश बने महान
आओ हम सब मिलकर बनायें
एक नया और रंग
जिसमें दिखे भारत का
साथ-साथ सातों रंग।
शम्भु चौधरी, कोलकाता - 700106

सोमवार, 3 मार्च 2008

क्या मेरी सोच गलत थी, ठाकरेजी?

इस लेख के लेखक श्री रामनिरंजन गोयनका असम के गुवाहाटी शहर से हैं. आपके कई लेख "समाज विकास: मासिक पत्रिका में छप चुकें है़ यह लेख इनके अबतक के सर्वोत्तम लेखों में से एक है। इस लेख के लिये श्री गोयनका जी को मेरी बधाई!- शम्भु चौधरी
http://samajvikas.in/article.html

इस महान भारत का एकमात्र बिहारी समाज ही राष्ट्र के प्रति स्वाभिमानी समाज है, जो गर्व से अपना परिचय ‘‘हिन्दुस्तानी’’ के रूप में देता है, बाकी तो हम सब राजस्थानी, असमिया, बंगाली, पंजाबी, मदरासी, गुजराती आदि आदि हैं। इस महान भारत राष्ट्र में एक मात्र प्रदेश है जिस प्रदेश के नाम के साथ ‘‘राष्ट्र’’ शब्द जुड़ा है वह भी ऐसा वैसा नहीं, वह नाम है ‘‘महाराष्ट्र’’। महान भारत राष्ट्र का एक महान अंगराज्य महाराष्ट्र, अर्थात छत्रपति शिवाजी महाराज की तपोभूमी महाराष्ट्र, जिस महान राष्ट्रसेवक ने अखण्ड भारत की कल्पना की थी और अनेक विपरीत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मुगलों से लोहा लिया था-इसका इतिहास साक्षी है। सारे राष्ट्र को शिवाजी का स्वदेश प्रेम और जीजाबाई की वीरव्रती संतान की राष्ट्र समर्पित वीरता पर गर्व है।
इस महान भारत राष्ट्र में, इसके विभिन्न प्रान्तों भाषाई प्रदेशों मे अनेक समाज सेवी संगठन, युवा संगठन तथा जातीय संगठन गठित हुये हैं-उनके नाम गोत्र तथा उद्देश्यों और कार्यों में उसकी क्षेत्रीयता की झलक हमें देखने को मिलती है जो अधिकतर एक सीमा में, एक परीधि में बंधे हुये कार्य करते हैं-परन्तु क्षेत्रवाद की संकरी गली से ऊपर उठकर प्रखर राष्ट्रवाद के निर्माण के लिये इस महान भारतराष्ट्र में महाराष्ट्र ही एक ऐसा प्रदेश है जिसके वीर सपूतों ने सन् 1925 में महाराष्ट्र के ही प्राचीन नगर नागपुर में सर्वप्रथम एक नये युवा संगठन का गठन कर राष्ट्रीयता की अलख जगाई थी और उस युवा संगठन का नाम रखा गया था ‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’’ और उस युवा संगठन के प्रणेता थे मराठा देशभक्त डॉ. केशव बलिराम हेडगवार। हेडगेवारजी ने उस संगठन का नाम जातीयवाद पर नहीं रखा जैसा कि आज यह यत्र-यत्र देख रहे हैं। हमारा मानना है कि प्रखर राष्ट्रवाद के कवच में ही जातिवाद की रक्षा हो सकती है। तो राष्ट्रवाद के माध्यम से पूरे भारत राष्ट्र को जोड़ना था। यही था महान उद्देश्य परमपूजनीय डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के सहयोगियों तथा निष्ठावान समर्पित देशभक्त मराठा प्रचारकों में परम पूजनीय माधव सदाशिव गोलवलकर जिन्हें हम गुरुजी के नाम से अधिक जानते हैं-दूसरे सरसंघचालक बने। इसके अतिरिक्त माननीय एकनाथजी रानाडे (महाराष्ट्रीय न थे) जिन्होंने भारत महासागर के बीच विवेकानन्द शिला पर प्रथम विवेकानन्द स्मारक की स्थापना की जिसके केन्द्र गुवाहाटी समेत सब सम्पूर्ण भारत में स्थापित हो गये हैं। ये एकनाथजी रानाडे ही सर्वप्रथम असम में संघ के स्थापनार्थ गुवाहाटी पधारे थे। उस समय मैं युवा था हमलोगों में स्व. केशवदेवजी बावरी, स्व. कामाख्यारामजी बरुवा, स्व. भास्करजी शर्मा, नगांव के स्व. राधिका मोहन गोस्वामी, स्व. गणपतरायजी धानुका, स्व. केदारमलजी ब्राह्मण ने उनका स्वागत किया तथा नीति के अनुसार उन्हें कामाख्यरामजी बरुवा के घर पर रहने की व्यवस्था हुयी। सबसे पहले संघ की स्थापना शाखा उजान बाजार जोरपुखुरीपार के स्व. केशवकान्त बरुवा के बंगले के अहाते में प्रथम शाखा लगी। उस समय हमें ध्वज नहीं मिलता प्रारम्भ में यू हीं पंक्तिबद्ध खेड़े होकर ‘नमस्ते सदावत्सले मातृभूमे’ प्रार्थना होती थी कुछ देरी बाद ही ध्वज मिलने का नियम था।
इस प्रकार सम्पूर्ण भारत में फैल चुके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की असम के गुवाहाटी नगर में स्थापना हुयी। उसके बाद जो प्रचारक आये अधिकांश महाराष्ट्रीयन (मराठे) ही थे। सबसे पहले प्रचारक गुवाहाटी आये थे माननीय दादाराव परमार्थ जिन्हें हम मान से दादाजी कहते थे। जैसे पूज्य मूलकरजी, पूज्य श्री कृष्ण परांजपे, पूज्य सहश्रभोजनेजी, पूज्य श्री कान्त जोशी, श्री दत्तात्रेय बन्दिष्ठेजी, ठाकुर रामसिंहजी, मधुकरजी लिमये और कृष्ण भगवन्त मतलगजी तथा अनेकों के नाम अब याद नहीं आते। उसी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आज सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया है-सम्पूर्ण भारत को राष्ट्रीय भावना-‘‘महामंगले पुण्य भूमे त्वदर्थे पतत्वे सकायो’’ का पाठ पढ़ाया एक मराठे संत के’ाव बलिराम हेडगेवार ने त्वदीयाय कार्याय वद्धा कटीग्राम, अर्थात हे भारत मां तेरे ही कार्यों के लिये हमने कमर कसली है-ऐसा उदघोष संघ की प्रार्थना में किया था। और उस संघ में तपे हुये एक से एक निष्ठावान कार्यकत्ता निकले जिनके प्रयास से कई राष्ट्रीय संगठन-विश्व हिन्दू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम, वनबन्धु परिषद, एकल विद्यालय अभियान, आदर्श विद्यालय विद्याभारती शिक्षा संस्थान अखिल भारतीय साहित्य परिषद, भारतीय इतिहास संकलन योजना आदि संस्थान राष्ट्र को जोड़ने का कार्य कर रहे हैं। मुझे सदैव गौरव होता है कि महाराष्ट्र के नागपुर के डॉ. हेडगेवार ने जो एक हृदय हो भारत जननी रूपी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बीज बोया था, वह अंकुरित, प्रस्फुटित, पल्लवित, पुषिपत होकर आज फलित हो रहा है-लोगों में राष्ट्रभाव का ‘‘पूर्वोदय’’ हुआ है-राष्ट्रीय एकता से ही भारत परम वैभव को प्राप्त हो सकता है यही विचार मैंने हमारे स्थानीय युवा संगठनों के नेताओं से समय समय पर बांटे हैं कि महाराष्ट्र के ही डॉ. हेडगेवार ने जातिवाद से ऊपर उठकर देश में राष्ट्रवाद की कल्पना की थी। हम बृहत्तर असम को राष्ट्रवाद के द्वारा ही असम की भाषिक जनगोष्ठियों को एक सूत्र में पिरो सकते हैं आदि आदि बातों के बीच में ही इन दिनों फिर जातिवाद के नाम पर ही उसी महाराष्ट्र की मुम्बई में जिसे भारत की आर्थिक तथा सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है-हम भारतवासियों को मुम्बई पर गर्व होता है। परन्तु आज वहाँ जो कुछ हो रहा है-वह हमारे पूर्वपुरूष महान देशभक्त डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, माननीय माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरूजी) के किये कराये पर कहीं पानी न फेर दे यही डर सता रहा है।
जहां एक ओर महाराष्ट्र के महान राष्ट्र सेवकों ने राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोकर अखण्ड भारत की कल्पना की थी वहां आज क्या वहीं वीर मराठे भाषा के आधार पर भारत राष्ट्र को तोड़ने का कार्य करेंगे। मैं आजकल यही सोचता रहता हूँ कि क्या मेरे मराठों के बारे में मेरी अब तक की सोच गलत थी।

शनिवार, 1 मार्च 2008

मारवाड़ी देस का न परदेस का भाग- 7 लेखक : शम्भु चौधरी


"मैं भी मारवाड़ी हूँ"
कई बार सोचता हूँ कि मारवाड़ी समाज में जन्म लेकर किसी ने कोई अपराध तो नहीं किया, तो कई बार गर्व भी होता है कि "मैं भी मारवाड़ी हूँ" स्व.भंवरमल जी सिंघी की पुस्तक "मारवाड़ी समाज: चुनौती और चिन्तन" के अन्तरावलोकन-1 को जब पढ़ता हूँ तो कुछ इस तरह कि बल्कि इससे भी बुरी स्थिति में समाज को आज भी मैं पाता हूँ। देखें स्व. सिंघीजी ने क्या कहा था। आपको यह बता देना चाहता हूँ कि मारवाड़ी समाज में सुधार की प्रक्रिया लागू कराने में स्व.सिंघी जी का नाम राजा राममोहन राय के समतुल्य तो नहीं लिखा जा सकता है। हाँ समझाने के लिये या इनके कार्य क्षेत्र को समझने के लिये राममोहन राय का उदाहरण दिया जा सकता है, जिससे पाठकों को इनके कद का अहसास हो सके। - "तीस वर्ष पूर्व जब मैं बी.ए. में पढ़ने के लिये जयपुर से बनारस आ कर हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुआ, उस समय तक मारवाड़ी कहलाने वाले राजस्थानियों के सम्बन्ध में मेरी बहुत कम जानकारी थी। पर जानकारी बहुत थोड़ी होने पर भी उनके बारे में मेरे मन में बड़ी उपेक्षा और घृणा का संस्कार था। बनारस में पहले-पहल कतिपय सहपाठी छात्र मिले जो विश्वविद्यालय में राजस्थानी छात्र संघ के सदस्य तो थे पर जिनका निवास बंगाल, बिहार, मद्यप्रदेश आदि प्रान्तों में था। इनके साथ के संपर्क ने थोड़ी सान्त्वना तो दी कि मारवाड़ियों में भी शिक्षा का संस्कार है, परन्तु छुट्टियों में घर जाते-आते रेल की मुसाफिरी में बंगाल, असम और बिहार आदि से आते- जाते हुए जो मारवाड़ी परिवार देखे, उनके रहन-सहन के तौर- तरिकों से वह घृणा का संस्कार कायम ही रहा और मैं जितने अभिमान के साथ अपने को राजस्थानी कहता था, अतनी ही घृणा के साथ के साथ मारवाड़ी की निन्दा भी करता था।" [ "मारवाड़ी समाज: चुनौती और चिन्तन" के अन्तरावलोकन-1 पृष्ठ-5 ]
राजस्थान का यह प्रवासी समाज जिसे देश के सभी भागों में हम मारवाड़ी कौम के रूप में जानते हैं, इसमें व्यापारी वर्ग की बाहुलता हमें देखने को मिलती है, ऎसा नहीं है कि इस समाज में सभी वर्ग के लोग व्यापारी ही हैं, लेकिन यह स्पष्ट है कि आमतौर पर हमारे मानस में मारवाड़ी शब्द आते ही एक व्यापारी सेठ की छवी सामने उभर कर आ जाती है। मानो एक प्रकार से व्यापारी सेठ, मारवाड़ी शब्द का प्रायःवाची बन गया हो। कई बार टी.वी. सिरीयलों में इस तरह का चित्रण भी हमें देखने व कहानी-किस्सों में पढ़ने को मिल जातें हैं। इसके कारणों को काफी खोजने का प्रयास किया कि, वास्तव में जबकि इस समाज में ऎसी बात नहीं है तो यह छाप क्यों और कैसे लग गई? इसके लिये मुझे ज्याद दूर नहीं जाना पड़ा। पिछले एक दो-तीन दशक पुराने वातवरण से ही इस बात का हल खोजने का प्रयास करता हूँ। मुझे याद आता है जब इस समाज का कोई बच्चा पढ़-लिख लेता था तो वो अपने आपको या तो मारवाड़ी कौम से अलग मानता था, या फिर अपने नाम के साथ लगी टाइटील जैसे- बजाज, चौधरी, अग्रवाल, जालान आदि लिखना बन्द कर देता था। अब बात विमल जालान की ही लें कहने को हम यह कहते हैं कि ये मारवाड़ी है, परन्तु आप उनके विचार जानेगें तो दंग रह जायेगें जबकि इनके साथ के ही श्री मनमोहन सिंह भी हैं वे अपने आपको पंजाबी कहने में गर्व महसूस करते हैं वहीं श्री विमल जी को यह बात मानने में बड़ा संकोच होता है। भले ही वे आज राज्यसभा के सांसद हैं भारत के वित्त सचिव, रिजर्वबैंक के गवर्नर भी रह चुकें हों, कुछ दिनों IMF में भी कार्य कर चुके थे। कोई इनको पुछे कि इनको यह ओहदा दिलाने में किनकी देन थी? निश्चय ही इनके दादा स्व. इस्वरदास जालान की । जिन्हें बंगाल में मारवाड़ी समाज के निर्धारित विधानसभा सीट का उत्तराधिकारी बनाया गया था। और इस बात को भी स्वीकार कर लेना चाहिये कि वे भारत सरकार के सरकारी दफ़तर में अपनी पढ़ाई के साथ-साथ किसी न किसी रूप से अपने दादा की पैरवी का माध्यम निश्चित तौर पे लिया होगा। और यदि नहीं भी लिया हो तो क्या, इनके दादा की जीवनी का एक हिस्सा जिसे इससे पहले ही जारी किया था, उसमें वे लिखते हैं कि "हमलोगों की कपड़े की दुकान थी" अर्थात इनका परिवार एक व्यापारी तो था ही, मारवाड़ी कौम का भी था।
भले ही ये बात सही है कि इनको जाति सूचक शब्दों से नफरत है, यह अच्छी बात है, परन्तु जिस कौम में इनकी पैदाइस हुई हो, उस कौम के कार्यक्रमों में जाने में इनको हिचक होती हो तो, यह इनका दोष नहीं है, यह बात केवल इतनी सी ही है कि मारवाड़ी शब्द के पीछे लगा वह बदनुमा दाग कहीं न कहीं इनको भीतर ही भीतर कचोटता जरूर होगा। अगले लेख में इस बात की ओर गहराई तक जाने का प्रयास करूँगा।
नोटः इस लेख में किसी व्यक्ति विशेष को नीचा दिखाने का प्रयास नहीं है, यह एक मानसिकता का प्रस्तुतिकरण सिर्फ है। समाज में श्री विमल जालान जी जैसे उदाहरण भरे पड़े हैं उन नामों में यह नाम चुनकर प्रस्तुत करने का उद्धेश्य मात्र पाठकों को आसानी से बात समझाई जा सके।
आपके विचार आने से मुझे लिखने की प्रेरणा मिलती है, अतः आपसभी से मेरा निवेदन है कि आप अपने विचारों से मुझे अवगत कराते रहें। - क्रमश: लेख जारी रहेगा । शम्भु चौधरी आज दिनांक: 1.03.2008, कोलकाता।