उच्चतम अदालत को अपनी उसी परिभाषा को नये सिरे से लिखना होगा जिसमें 1993 में कहा था कि & “Separate but equal” यानि कि 50% - 50% अर्थात अदालत को अब 2019 में 50% = 10% + 40% लिखना होगा यानि कि & “Separate but ‘Not’ equal” ।
लेखक: शंभु चौधरी, कोलकाता 10 जनवरी 2019
भाजपा ने 2014 में अपने चुनावी घोषणा पत्र में कई वायदे जनता से किये थे, जिनमें प्रमुख रूप से ‘‘अच्छे दिन आयेंगे’’, 15 लाख सबके खाते में आयेंगे, प्रति वर्ष 2 करोड़ युवकों को नौकरी देगें, मंहगाई पर लगाम लगायेगी, राष्ट्रीय स्तर पर कृषि बाजार निर्मित करना, पीपीपीपी यानि "पीपल पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप माॅडल" निश्चित करना, फास्ट ट्रेक कोर्ट स्थापना करना, वैकल्पिक न्याय व्यवस्था को मजबूत बनाना, अमीर-गरीब के मध्य अंतर को कम करना, शिक्षा के स्तर का विकास, कौशल विकास, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना, राम मंदिर निर्माण भी कार्य करेगी के साथ ही मोदी ने ‘‘सबका साथ-सबका विकास’’ का नारा भी दिया था ।
आज पौने पांच साल गुजर जाने के बाद भी ये सभी वादे मुंह बाये जस की तस खड़े हैं । मंहगाई ने अपनी चरम सीमा को पार कर दी है। रोज़ाना घरों में काम आने वाले गैस का मूल्य 400 से एक हजार रुपये प्रति सिलेंडर को छू गया, तेल में सरकारी लूट का आलम यह था कि 20 रुपये का तेल 90 रुपये की सीमा को छूने लगा था। चुनाव सर पर आते ही मोदी सरकार को फिर वे बातें याद आने लगी जो पांच साल पहले जनता से की थी । यानी युवाओं को नौकरी देना, राम मंदिर बनाना , तेल के दामों में गिरावट दर्ज करना । तो दूसरी तरफ अपने पांच साल के कार्यकाल में 100 अधिक देशों के विदेशी भ्रमण 2000 करोड़ का मौज़, राफेल के सौदे में हुई खुली डकैती जो उच्चतम अदालत को भी विवाद के घेरे में ला खड़ा की । तोते की लड़ाई किसी से छुपी नहीं है। आर्थिक रूप से नोटबंदी और जीएसटी की असफलता, व तमाम संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने, मोब लांचिंग व गौ रक्षा के नाम पर तालिबानी आतंक का सृजन करना । बैंकों के लुटेरों के साथ पार्टी मनाना और भारतीय की रक्षा के साथ खिलवाड़ करते हुए पाकिस्थानियों को' उरी' घटना जांच में का निमंत्रण देना, भारतीय सेनाओं की सेना के मनोबल को कमजोर करते हुए मुफ्ती की सरकार बनवाना आदि कई ऐसे एकतरफ़ा फैसले मोदी ने लिये जो लोकतंत्र के लिये कभी भी घातक साबित हो सकता है।
अब चूंकि सत्तरवीं लोकसभा का चुनाव सर पर आ चुका है। इधर पिछले माह तीन हिन्दी भाषी राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार, मोदी लहर का ना होना, साथ ही विभिन्न राजनीति पार्टियों का राजनीति समीकरण जिसमें प्रमुख रूप से महाराष्ट्र में शिवसेना का आँख तरेरना और असम में अगप का एनडीए से अलग होना, बिहार और गुजरात में कड़ी टक्कर व उत्तरप्रदेश में मायावती व अखिलेश का मिलकर चुनाव लड़ना मोदी सरकार के लिये भारी पड़ने वाला है । यदि इसे सीटों के अनुसार जिनमें पिछले कई विधान सभाओं के चुनाव परिणामों और राजनैतिक समीकरण का कुल जोड़ जहां आज भाजपा को 200 सीटों का आंकड़ा 100 सीटों पर आकर थम जाती है। यानि की भाजपा को चंद राज्यों में जैसे त्रिपुरा, केरल, और पश्चिम बंगाल में एक-दो सीटों का फायदा भी भाजपा को 271 के जादुई आंकड़े को पार नहीं कर पायेगी । यदि इनको परिणाम में बदल दिया जाय तो भाजपा की वर्तमान मोदी सरकार 150 से 180 सीटों के बीच सिमट जायेगी ।
तो मोदी जी को अब याद आया कि ‘‘सबका साथ और सबका विकास’’ भी कुछ कर ही दिया जाए नही तो किस मुंह से जनता के बीच जायेगें। राम मंदिर के 25 सालों की चुप्पी के बाद आरएसएस का अलाप, अध्यादेश लाने के मामले में बिखरती एनडीए को रोकने के लिये मादीजी को स्पष्ट करना पड़ा कि वे अदालत के फैसले का इंतजार करेगें और शीतकालीन सत्र के अंतिम पल में आरक्षण को नया हथियार बना लिया ।
1896 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने एक सिद्धांत बनाया था - “Separate but equal” जिसमें यह कहा गया कि हर इंसान की अलग व्यवस्था तो संभव पर समान होनी चाहिये। अदालत ने स्वीकार किया था कि समानता के विभिन्न रंग जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों संभव है। जनसंख्या के विभिन्न वर्गों के बीच असमानताओं को कम करने और न्यायोचित और सामाजिक व्यवस्था को बढ़ावा देने की राज्य की जिम्मेदारी है। जिसमें सभी वर्गों को समान लाभ मिल सके। जिसें सामाजिक सुरक्षा, न्याय, समानता, रोज़गार के समान अवसर, शिक्षा व स्वस्थ्य जैसे महत्व को इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य माना गया ।
डाॅ. अंबेडकर ने भी उपरोक्त सिद्धांत सही मानते हुए भी अल्पसंख्यकों के आरक्षण को उचित ठहराया था । 1993 में भी उच्चतम अदालत आठ जजों की संविधान पीठ ने ‘‘ इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत सरकार में इस सिद्धान्त को पुनः 100 साल के बाद प्रतिपादित करते हुए 50 प्रतिशत के आरक्षण को स्वीकारते हुए निम्न बातें प्रमुखता से कही -
(i) अनुच्छेद 16 (4) के तहत आरक्षण 50% से अधिक नहीं होना चाहिए।
(ii)) अनुच्छेद 16 (1) या 16 (4) के तहत पिछड़े वर्ग के अलावा किसी भी वर्ग के लिए कोई आरक्षण नहीं किया जा सकता है।
(iii) किसी समुदाय को सहयोग प्रदान करना जो अनुच्छेद 16 (1) में शामिल हैं, लेकिन यह भी बहुत सीमित है।
सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को शिक्षा एवं रोजगार में 10 प्रतिशत आरक्षण देने के प्रावधान वाले संविधान संशोधन बिल को मंगलवार को निचली सदन (लोकसभा) में और बुधवार को ऊपरी सदन (राज्यसभा) से मंजूरी मिल गयी। सवर्ण आरक्षण बिल को लोकसभा के अंतिम दिन सदन में रखते हुए केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत ने कहा कि- ‘‘हम गरीबी हटाने के सिर्फ वादे नहीं इरादे लेकर आए हैं’’ और अंत में मोदी के नारे ‘‘सबका साथ - सबका विकास’’ की बात को दोहराते हुए भाजपा की मंशा को साफ कर दिया कि मोदी सरकार इस आरक्षण के सहारे चुनावी समर में अपने प्रतिपक्षों की एकता को तौड़ने के काट खोज रही है। साथ ही गहलोत ने उच्चतम अदालत के उक्त फैसले का जिक्र करते हुए भी कहा कि हम इसी लिए संविधान में संशोधन ला रहे है कि इसे अदालत में चुनौती ना दी जा सके जैसा की 1993 में हुआ था । सवाल वहीं आज भी खड़ा है जहां हम 1993 में थे । संविधान की धारा अनुच्छेद 15 में नया उपबंध (6) a & b - जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को शिक्षा एवं रोजगार में 10 प्रतिशत आरक्षण देने के प्रावधान और अनुच्छेद 16 में नया उपबंध (6) जिसमें कहा गया यह संशोधन अनुच्छेद 16(4) में दिये प्रावधानों के अतिरिक्त होगा।
सवाल उठता है क्या यह भी ‘‘मोदी का जमुला’’ बन कर रह जायेगा । चुंकि बिल को प्रस्तुत करते समय इस बात को गौन रखा गया कि 10% किसका होगा? बचे शेष भाग 50% का 10% होगा कि 100% का, किसका होगा? यदि हम इसे 100% का ही मान लें यह आरक्षण, समानता का कौन सा पैमाना माना जायेगा? उच्चतम अदालत को अपनी उसी परिभाषा को नये सिरे से लिखना होगा जिसमें 1993 में कहा था कि & “Separate but equal” यानि कि 50% - 50% अर्थात अदालत को अब 2019 में 50% = 10%+40% लिखना होगा यानि कि & “Separate but ‘Not’ equal” । जयहिन्द !
शंभु चौधरी, लेखक एक स्वतंत्र प त्रकार हैं व विधि विशेषज्ञ भी है।