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रविवार, 23 अक्टूबर 2022

गुजरात चुनाव-2022 -शंभु चौधरी

 गुजरात चुनाव-2022 -शंभु चौधरी


आगामी माह  गुजरात हिमाचल प्रदेश  की विधान सभाओं के चुनाव होने जा रहें हैं। इस बार के चुनाव में इन दोनों राज्यों में चुनाव त्रिकोणीय  होने  संभावना प्रवल बनती जा रही है। मेरे इस लेख को गुजरात चुनाव तक केंद्रित कर लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।  जैसा कि आप सभी जानते हैं कि बंगाल में वामपंथी  दलों को शासन 35 साल चलां, लोगों को लगता था कि इनकी जड़ें इतनी मजबूत है कि इसे बंगाल से उखाड़ फैंकना नामुमकिन ही नहीं असंभव भी प्रतित होता है। इसके बावजूद ममता के नये संगठन ने उसे मिट्टी में मिला दिया। आज बंगाल में वामपंथियों को राजनीतिक रूप से नई जमीन तलाशनी पड़ रही है।

वामपंथियों की तरह ही गुजरात में भी पिछले 27 सालों से मोदी समूह (भाजपा) का एक छत्र राज्य कायम है। पिछले चुनाव में कांग्रस पार्टी ने पाटीदारों के वोट शेयर प्राप्त करने के बाद भी भाजपा से पिछड़ गई और कांग्रेस पार्टी के कुछ विधायक साबीआई के खौफ से डर कर भाजपा में चले गए।  आज इस बात को लिखने में जरा भी हिचक नहीं, भाजपा पार्टी लोकतांत्रिक तरीके से ना तो चुनाव लड़ रही है ना ही लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता प्राप्त कर रही है। जिसके कई उदाहरण हमारे सामने है। विधायकों को तौड़ना, उन्हें विभिन्न एजेंसियों से धमका कर खरीदना, जिस दल के साथ समझौता करती है उसे तौड़ना, उसके संगठन को कमजोर करना और अपनी सत्ता की भूख मिटाना इस राजनीति दल का उद्देश्य बन चुका है। बिहार व महाराष्ट्र इसके ताजा उदाहरण है। दिल्ली व पंजाब में भी इसकी कोशिश की गई थी तो सफल नहीं हो सकी ।

गुजरात विधानसभा की 182 सीटों का चुनाव अगले माह होने जा रहा है यदि मोदी जी के गुजरात में या गुजरात चुनाव के संदर्भ में दिये गऐ ताजा बयानों का ही जिक्र करें तो उनके अनुसार गुजरात में कोई बाहरी ताकतें रेवड़ी बांट कर राज्य की अर्थव्यवस्था को चौपट कर देगी । इस बयान को गुजरात की जनसंख्या पर नजर डाल के देखतें हैं तो मैं पाता हूँ कि गुजरात में 90 प्रतिशत आबादी जिसमें ओबीसी 48 प्रतिशत, आदिवासी समाज 14.75 प्रतिशत, पाटीदार समाज 11 प्रतिशत,  दलित समाज 7 प्रतिशत, मुस्लीम समाज 9 प्रतिशत है । शेष 10.25 प्रतिशत  में  क्षत्रिय, ब्राह्मण समाज, व बनिया वर्ग के अलाव संपन्न वर्ग के लोग आते हैं।  यदि इन मतदाताओं को आर्थिक रूप से बांट दिया जाय तो गुजरात में 70 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के अंदर गुजर-बसर करती है। वहीं 20 से 25 प्रतिशत मतदाता मध्यम श्रेणी और शेष 5 प्रतिशत उच्च वर्ग में आतें हैं। उच्च वर्ग को तेल व गैस के दाम प्रभावित नहीं करते ना ही उनके घरों में होने वाली बिजली के बिल से उन्हें कुछ भी फर्क पड़ता है। इनके बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं। इन्हें अच्छी चिकित्सा भी प्राप्त है। जबकि मध्यम वर्ग का एक तबका इससे प्रभावित होते हुऐ भी मोदी जी के हिन्दूवादी कार्ड का शिकार बन चुका है। मोदी के गुजरात मॉडल में शेष 70 प्रतिशत लोगों के लिए कोई सुविधा पिछले 27 सालों से मोदी की भाजपा सरकार ने नहीं दी, ऊपर से उनकी आमदनी कम कर दी गई, नौकरी से निकाल दिए गए या इनकी आय इतनी नहीं कि किसी भी प्रकार से परिवार का दैनिक खर्च वहन कर सके।

यह असंतोष पिछले चुनाव में साफ देखा जा रहा था। अब इन पांच सालों में स्थिति और खराब ही हुई है। इस बार के 15वीं विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी जिसका चुनाव चिन्ह झाड़ू है, ने गुजरात चुनाव में नये रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज की है। शुरूआती दौर में तो लगता था कि आम आदमी पार्टी की स्थिति सामान्य राजनीतिक दलों की तरह है जो चुनाव के समय सक्रिय दिखती है और चुनाव के बाद उस दल का कोई अता-पता नहीं होता। परन्तु आम आदमी पार्टी  ने जिस प्रकार पंजाब में जमी-जमाई राजनीतिक पार्टियों का सुपड़ा साफ कर दिया, दिल्ली में मोदी के प्रचंड बहुमत को घूल चटा दी, से लगता है गुजरात में इसबार के विधानसभा चुनाव में  कुछ नया हो सकता है। विभिन्न राजनीतिक विश्लेषकों की बात से यह तो अंदाज हो चुका कि गुजरात में एक तरफ कांग्रेस के मत प्रतिशत में तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही है वहीं आम आदमी पार्टी, भाजपा के वोट बैंक में भी सेंध लगाती सफल दिख रही है। जिस रफ्तार से आम आदमी पार्टी गुजरात की पहली पसंद होती जा रही है इससे मोदी के खेमें में हलचल तो पैदा हो ही चुकी है। 27 सालों से जिस शिक्षा की बात मोदी जी ने कभी नहीं कि इस बार उनको शिक्षा मॉडल के डेमो देना पड़ा।

चुनाव आयोग की निष्पक्षता भी प्रश्नचिन्ह अभी से साफ दिख रहे हैं। हिमाचल में चुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी गई जबकि गुजरात में अभी घोषणा की जानी है। कुल मिलाकर एक इंदिरा गांधी के आपातकाल जैसे हालात गुजरात में चारों तरफ देखा जा रहा है। लोकतंत्र के नाम पर डर ही बना हुआ है। जो एक ऑटो चालक को रातों-रात थाने में बुलाकर जिस प्रकार उसे डराया गया फिर उसे मोदी टोपी पहना कर सामने लाया गया और डेमो स्कूल के पर्दाफास हो जाने पर आम आदमी पार्टी के लोगों को घटनास्थल से उठाकर ले जाया गया।  यह सब आपातकाल की घटना को दर्शाता है।

चुनाव परिणाम जिस किसी के पक्ष में आये। यह बात तो मान लेनी होगी आम आदमी ने लोकतंत्र के पर्व में मोदी को खुली चुनौती तो ही डाली है। - जयहिन्द।

 लेखक: पेशे से अधिवक्ता और माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से मास्टर की शिक्षा प्राप्त की है एवं स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं।


 

 


 

शनिवार, 17 सितंबर 2022

‘‘मेक इंडिया नम्बर-1’’

 ‘‘मेक इंडिया नम्बर-1’’

मैं यह नहीं कह रहा कि मेरे को सब कुछ पता है, इन सब लोगों से (देश की जनता से) पूछेगें, सारे लोग आगे आयेगें, तब ही यह देश आगे बढ़ेगा, मुझे जैसी शिक्षा मिली, वैसी शिक्षा देश के हर गरीब से गरीब बच्चों को देनी होगी, जबतक हम देश की सारी सरकारी स्कूलों को ठीक नहीं करेगें, तबतक देश को ‘‘मेक इंडिया नम्बर- 1’’ नहीं बनाया जा सकता । अभी प्रधानमंत्री जी ने एक योजना लागू की, 14500 स्कूलों को पी.एम.श्री योजना के तहत ठीक करने की, सोचिये देश में 18 करोड़ बच्चे सरकारी स्कूलों में हर साल पढ़ते हैं । 10 लाख 32 हजार सरकारी स्कूलों को तब तो ठीक करने में 100 साल से भी अधिक लग जायेगें। ऐसे तो देश कभी भी नहीं विश्वगुरु बनेगा। देश में गरीबी दूर करने के लिए नियत चाहिये। ईमानदारी चाहिये। जब गरीबों के बच्चे सरकारी स्कूलों से अच्छी शिक्षा लेकर इंजिनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक बनेगें तब उनके परिवार की गरीबी दूर हो सकेगी, जिससे देश के विकास में भी उनका योगदान होगा, देश की गरीबी को हम समाप्त कर सकेगें। हमने अब तक 70 साल खो दिये हैं अब हमें बिना वक्त गमाये बच्चों की अच्छी शिक्षा, लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सेवा, अच्छी सड़क, पानी की व्यवस्था करनी होगी। किसानों को उसके फसल की सही कीमत, मजदूरों को सम्मान देना होगा।

हमें स्वास्थ्य और शिक्षा को पूरे देश में मुफ्त देना होगा, तभी हमारा देश नंबर वन बन पाएगा । मैं चाहता हूं कि भारत एक अमीर देश बने, लेकिन भारत एक अमीर देश तब ही बन पाएगा जब हर एक भारतवासी अमीर होगा।

भारत को नंबर-वन देश बनाने की क्यों जरुरत

• हमें हर बच्चे को अच्छी शिक्षा का इंतजाम करना होगा ।

• हमें इस देश में हर भारतीय के लिए अच्छे इलाज का इंतजाम करना पड़ेगा ।

• बिजली, पानी और रोजगार का इंतजाम करना पड़ेगा ।

Make India No. 1
भारत में सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली लोग हैं। दुनिया की कंपनियों के टॉप पर भारतीय हैं फिर भी हम पीछे क्यों हैं? भारत में नदियां, समुद्र, पहाड़, जड़ी-बूटी सबकुछ है। भगवान ने हमें तीन-तीन मौसम दिये। 130 करोड़ लोगों की ताकत दी । मुझे लगता है कि 1947 में हम से सबसे बड़ी गलती हुई है। आजाद भारत को सबसे अधिक ध्यान शिक्षा पर देना चाहिए था। मगर दुख की बात यह है कि आजादी के वक्त भी ध्यान नहीं दिया और 75 साल बाद भी नहीं। मगर अब भारत और इंतजार नहीं कर सकता है। अब पूरे देश में वार मोड में अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करना होगा।

भारत में सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली लोग हैं। दुनिया की कंपनियों के टॉप पर भारतीय हैं फिर भी हम पीछे क्यों हैं? भारत में नदियां, समुद्र, पहाड़, जड़ी-बूटी सबकुछ है। भगवान ने हमें तीन-तीन मौसम दिये। 130 करोड़ लोगों की ताकत दी । मुझे लगता है कि 1947 में हम से सबसे बड़ी गलती हुई है। आजाद भारत को सबसे अधिक ध्यान शिक्षा पर देना चाहिए था। मगर दुख की बात यह है कि आजादी के वक्त भी ध्यान नहीं दिया और 75 साल बाद भी नहीं। मगर अब भारत और इंतजार नहीं कर सकता है। अब पूरे देश में वार मोड में अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करना होगा।

अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली में जरूरी सुधार करने की जरूरत है। यह शिक्षा हमारे बच्चों को क्लर्क बनाने की शिक्षा देते हैं। उनको एंटरप्रेन्योरशिप (उद्यमिता) बनाने पर जोर देना होगा । नौकरी लेने की जगह नौकरी देनेवाला बनाने पर ध्यान देना होगा ।

इनका मानना है कि कई देश हमारे बाद आजाद हुए, जैसे सिंगापुर 15 साल बाद आजाद हुआ, लेकिन वह हमसे आगे कैसे निकल गया।  दूसरे विश्वयुद्ध में जापान ध्वस्त हो गया था लेकिन आज हम से आगे निकल गया। जर्मनी भी दूसरे विश्वयुद्ध के बाद खत्म हो गया था आज हम से आगे निकल गया तो हम पीछे क्यों रह गए? हमारा सिस्टम खराब है पिछले पचहतर सालों में इन नेताओं और पार्टियों ने मिलकर सिर्फ और सिर्फ गंदी राजनीति ही की है। अब और  देश को इनके भरोसे अगर छोड़ दिया तो हम अगले 75 साल ऐसे ही पीछे रह जाएंगे। अब एक ही उम्मीद है कि लोग इकट्ठे होकर साथ आएं। हम लोग कोने-कोने में जाएंगे,  हर राज्य में जाएंगे और लोगों को जोड़ने की कोशिश करेंगे। 130 करोड़ लोगों को जोड़ने का हमारा मकसद है। हर अच्छी ताकत अपने-अपने स्तर पर हमें सहयोग देगी तभी देश बदल सकता है।  -अरविंद केजरीवाल

 

केजरीवाल पर लिखना यानी तलवार की धार पर चलना होगा । मैं उनकी विचारधारा को लेकर पिछले 10 सालों से अध्ययन करने में लगा हूँ। कई साहित्यकार-पत्रकार मित्र मानते हैं कि केजरीवाल कोई विचारधारा नहीं । उनका सोचना इसलिए भी सही हो सकता कि अबतक इन साहित्यकारों ने या पत्रकारों ने जोड़-तौड़ की राजनीति को ही देश की राजनीति मानी है। भारत में कांग्रेस की विचारधारा, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टियों की कई शाखाओं की विचारधारा, समाजवादी विचारधारा और दक्षिणपंथी विचारधारा को ही देखा और पढ़ा है।  फ़्रांस की संसद में धर्मनिरपेक्षता चाहने वाले अक्सर बाई तरफ बैठते थे और पूँजीवाद से सम्बंधित विचारधाराओं फासीवाद या फ़ासिस्टवाद (फ़ासिज़्म) ताकतें जो धर्म की राजनीति में विश्वास रखते थे वे दांई तरफ बैठते थे ।

इसका मूल कारण यह था कि जनता के अंदर राजनीतिक रूप से विभाजन का दो ही मार्ग था, एक लोकतंत्र का चुनाव तो दूसरी तरफ राजतंत्र का चुनाव करना। एक तरफ मजदूर, शोषित वर्ग तो दूसरी तरफ शोषक वर्ग। एक का मानना था कि सरकार को जनता के प्रति जिम्मेदार होना चाहिये तो दूसरे पंथ का मानना था कि सरकार का अर्थ है पूंजीवादी व्यवस्था को मजबूत किया जाना । आगे चलकर लोकतंत्र ने अपना नया रास्ता बना लिया तब साम्यवाद, फासीवाद और लोकतंत्र की वैचारिक ताकतों के बीच एक त्रिकोणीय मुकाबला शुरू होने लगा ।

जब तक हम इनके (कांग्रेस, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टियों की, समाजवादी विचारधारा और दक्षिणपंथी) विचारधारा को नहीं पढ़ेंगे तक तक केजरीवाल की विचारधारा को हम नहीं समझ सकते।

जनता को भ्रमित करने का एक छलावा कुछ लोगों ने बहुत चला रखा कि “पानी से बिजली निकाल लेसी तो मानख पी सी कै?  या खेतों में काम क्या आयेगा ? पानी से बिजली पैदा होने के बाद जो लोग यह मान लेते हैं कि पानी से एनेर्जी निकाल ली गई है वैसे ही कुछ साहित्यकार यह मानते हैं कि अबतक जो विचारधारा को उन लोगों ने देखा-सुना या पढ़ा है इसके बाद कुछ बचा ही नहीं । नई विचारधारा को संचार करने की इनमें न तो क्षमता है ना ही सोच । इसीलिए इन तथाकथित साहित्यकारों व पत्रकारों को केजरीवाल की विचारधारा कोई विचारधारा ही नहीं लगती या जानबूझकर केजरीवाल को राजनीतिक रूप से महत्व नहीं देना चाहते। इसका कारण भी है देश की अर्थ-व्यवस्था को भीतर ही भीतर खोखला बनाते जाना । जो केजरीवाल की राजनीति में संभव नहीं।

केजरीवाल की विचारधारा को समझने के लिए सर्वप्रथम हमें भारतीय संविधान के प्रस्तावना व उनके कई अनुच्छेदों को हम समझने का प्रयास करेगें। साथ ही सरकार के दायित्व सरकार की जनता के प्रति जबाबदेही को भी हमें समझना होगा । भारत का संविधान हमें इन बातों पर क्या निर्देश देता है?

“भारत के संविधान की भूमिका में कुछ शब्दों का चयन किया गया है। एक नजर देखें।-

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य, बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों कोः

सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता, सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 0 (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तती, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।“

यहां पर हम देखें कि -

1. हम भारत के लोग ।

2. भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक, गणराज्य बनाने के लिए।

3. समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए।

अच्छा अब भारत की विभिन्न राजनीतिक दलों की विचारधाराओं को संविधान की कसौटी पर कसतें हैं।

 

भारतीय संविधान के प्रस्तावना की नजर से यदि देश के विभिन्न राजनैतिक दलों की विचारधाराओं को अध्ययन किया जाए तो हम पाते हैं कि कांग्रेस की विचारधारा और समाजवादी विचारधारा के कुछ अंश भारतीय संविधान मूलभूत संरचना के ढाँचे के अंदर बने हुए हैं ।

कांग्रेस की विचारधारा:

भारत की आजादी में देश के हजारों लोगों ने अपनी कुर्बानी दी। स्व.महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में यह लड़ाई लड़ी गई । अहिंसक आंदोलन की एक नई मिशाल दुनियां में कायम हुई, आगे चलकर स्व.नेल्सन मंडेला ने  भी गांधीवादी विचारधारा को अपनाते हुए साउथ अफ्रीका में गोरे लोगों के वर्चस्व और अपनी अश्वेत आबादी के लिए लगातार 1960 के दशक से  से 1990 तक लड़ाई लड़ी । सफलता भी मिली । भारत में भी इस लड़ाई की शुरूआत गांधी जी की निजी कल्पना थी। इसी दौरान कांग्रेस पार्टी का जन्म दिसंबर 1885  में हुआ । यह पार्टी राजनीति रूप से गरीबों के हितों की बात तो करती रही, परन्तु इसका उद्देश देश में कल-कारखानों का लगाना, पूंजीवादी व्यवस्था को बढ़ावा देना और नये उद्योगों की स्थापना और मिक्सड अर्थनीति को अपनाना रहा ।  धार्मिक रूप से यह दल खुद को धर्मनिरपेक्ष मानती है। नीचले और पिछड़े तबके को उचित स्थान मिले यह भी प्रयास किये गए । परन्तु इस दल में एक सबसे बड़ी खामी यह रही कि यह दल परिवार वाद के अंदर सिमटता चला गया ।  पिछले 70 सालों में कोई भी ऐसा नेता उभर कर सामने नहीं आ सका, जो कांग्रेस पार्टी को नया नेतृत्व प्रदान कर सके। आज भी इसके परिवार वाद के कारण देश की राजनीति में शून्यता मंडरा रही है।

 

समाजवादी विचारधारा:

समाजवादी विचारधारा - स्व. राम मनोहर लोहिया की देन थी जो चाहते थे कि भारत जैसे विशाल देश में सभी वर्गों को समान अवसर मिले। मजदूरों को उसका हक मिले तो उद्योगपतियों को उचित सुरक्षा। लोहिया जी विकेन्द्रीकरण की राजनीति में विश्वास रखते थे । जहाँ से मार्क्सवाद समाप्त होता है वहाँ से समाजवाद शुरू हो जाता है। जहाँ मार्क्सवाद सत्ता के नियंत्रण में विश्वास करती थी, तो लोहिया जी के समाजवाद में सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात है। हालांकि इस विचारधारा को कुछ राजनीतिज्ञ दलों ने सत्ता में दलाली का औजार बना लिया है। जो भी दल आज भारत में इस विचारधारा को लेकर कार्य कर रही है वह सत्ताभोग से ज्यादा कुछ नहीं कर पाई।

 

वामपंथी विचारधारा:

वामपंथी विचारधारा पूर्ण रूप से मार्क्सवाद- कार्ल मार्क्स की ‘साम्यवादी विचारधाराके नाम से जानी जाती है। जिसकी उत्पत्ति मजदूर वर्ग के उत्थान को लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के बाद सामने आया जिसका मूल उद्देश्य आर्थिक रूप से शोषण करने वालों (उद्योगपतियों) के खिलाफ़ आवाज उठाकर मजदूरों को उनका हक दिलाने में महत्वपूर्ण रोल अदा करना था, जिसने धर्म-जाति, ऊँच-नीच, गोरे-काले के भेद को समाप्त कर दुनिया में तेजी से मार्क्सवाद ने पांव पसारे थे कई देशों में सरकारें बनाने में भी इस विचारधारा की अहम भूमिका रही । वहीं माओवाद,  माओ-त्से-तुंग जो एक चीनी क्रान्तिकारी, राजनैतिक विचारक और साम्यवादी दल के नेता थे, जिसने जनवादी गणतन्त्र चीन की स्थापना की और मृत्यु पर्यन्त चीन का नेतृत्व किया। द्वारा विकसित साम्यवाद का एक रूप है। माओवाद में विपरित विचारधारा का कोई स्थान नहीं था, जिसके लाखों उदाहरण इतिहास के पन्नों में दर्ज है। उपरोक्त दोनों विचारधारा में अंतर यह था कि मार्क्सवाद की विचारधारा मजदूरों के हितों के लिए उनके मालिकों से लड़ती थी तो माओवाद पूर्णतय राजनीति रूप से गरीबों व शोषीत वर्ग चाहे वह किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो, सत्ता से व शोषक वर्ग के विरूद्ध हिंसक आंदोलनों को बढ़ावा देती थी । ये दोनों ही विचारधारा भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों को कभी स्वीकार नहीं करती । इन विचारधारा के लोग भारतीय संविधान के दायरे से खुद को हमेशा अलग-थलग किये रहते। हालांकि दोनों ही विचारधारा समानांतर रूप से एक दूसरे की पूरक मानी जा सकती है इसका कारण स्पष्ट है कि इसमें शोषक-शोषित वर्ग ही समाहित है।

 

दक्षिणपंथी विचारधार:

दक्षिणपंथी विचारधार सीधे तौर पर शोषक वर्ग और धर्म आधारित राजनीति की समर्थक रही है। अर्थात धार्मिक उन्मांद बनाये रखने की चेष्टा करते रहना और बड़े घराने का साथ देना । स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने इस लकीर को बदलकर नई लकीर खींचने की भरपूर चेष्टा कि और भारतीय जनता पार्टी को गांधीवादी विचारधारा से जोड़ कर इसे कुछ हद तक नया स्वरूप देने का प्रयास किया था। परन्तु 2014 के बाद इसमें झूठ, फरेब, हिंसा और स्वभक्ति का बोलबाला हो गया । अब भारतीय जनता पार्टी न तो दक्षिणपंथी रही ना ही लोकतांत्रिक संस्था रही। भले ही बोलने को यह संगठन आर.एस.एस की विचारधारा को मानने वाली हो, परन्तु पिछले कुछ वर्षों के चाल-चलन से यह साफ हो गया कि आर.एस.एस विचारधारा के मानने वाले पुराने साथियों को दरकिनार करते हुए विभिन्न विचारधाराओं के लोगों का समूह बनता जा रहा है। अर्थात यदि कम शब्दों में लिखा जाए तो अब भाजपा की कोई निजी विचारधारा नहीं बची। विचारधारा के नाम पर पैसे की ताकत और सरकारी एजेंसियों से दबाव बनाकर किसी को भी भाजपा में शामिल करना और धार्मिक उन्माद के जरिये सत्ता पर बने रहना ही एक मात्र उद्देश्य रह गया है।  शोषक वर्ग और धर्म आधारित राजनीति को प्रमुखता देते हुए एक पंथी विचारधारा को मजबूत किया जाना है।

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघः

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघः संघ से जुड़े इतिहासकारों का दावा है कि संघ के संस्थापक डाक्टर केशवराम बलिराम हेडगेवार एक स्वतंत्रता सेनानी थे । हेडगेवार पहले कांग्रेस से जुड़े हुए थे, बाद  में कांग्रेस छोड़कर उन्होंने 1925 में आरएसएस की स्थापना की। संघ से जुड़े इतिहासकारों की बात मानने लायक इसलिए भी नहीं कि ये 1925 के बाद का कोई प्रमाणित दस्तावेज प्रस्तूत करने में  ये लोग असफल रहें हैं। ये खूद मानते हैं कि संघ का पदाधिकारी रहते हुए कोई सदस्य किसी भी राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं ले सकता । कहने का अभिप्राय यह है कि स्वतंत्रता सेनानियों के इतिहास में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गिनती नगण्य के बराबर है और जो नाम ये लोग गिनाते हैं वे अप्रत्यक्ष रूप से अन्य-अन्य दलों या समूह से जूडें रहे।

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस बात को क्यों भूल जाती है कि संविधान में लिखी बात को ये लोग आज भी स्वीकार नहीं करते।  जन-गण-मन से लेकर तिरंगा फहराने तक में विवाद सामने आता रहा है। विनायक सावरकर जी की जेल यात्रा भी विवादों से घिरी रही ।  कभी कहते हैं कि 1920 में वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक के कहने पर ब्रिटिश कानून ना तोड़ने और विद्रोह ना करने की शर्त पर उनकी रिहाई हो गई, तो कहीं इसके लिए महात्मा गांधी जी के नाम का उल्लेख किया जाता है।  सावरकर के बारे में सबसे बड़ी बात यह भी कही जाती है कि जब उन्हें इंग्लैंड से गिरफ्तार करके जहाज में ले जाया जा रहा था, तो वह समुद्र में कूद गए और अगले दो दिनों तक भूखे-प्यासे तैरते रहे और अंततः फ्रांस के समुद्र तट पर पहुंच गए। इसी घटना के आधार पर उन्हें वीर की उपाधि दी जाती है। लेकिन सावरकर ने अपनी आत्मकथा ‘‘मेरा आजीवन कारावास" के पेज 457 में स्पष्ट रूप से लिखा है कि कई दिन तक समुद्र में तैरने की बात बहुत ज़्यादा बढ़ा-चढ़ाकर कही गई है। सावरकर ने लिखा-  एक सिपाही ने  उनसे पूछा- ‘‘आप कितने दिन और रात समुद्र में तैरते रहे थे।’’  इसमें हमने कहा- कैसे दिन-रात? बस 10 मिनट भी नहीं तैरा कि किनारा आ गया।

 

विचारधारा:

जब हम किसी विचारधारा को जन्म देते हैं तो उस विचारधारा के बीज बोये जाते हैं । चाहे वह आरएसएस की विचारधारा हो या मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा। महात्मा गांधीजी की अहिंसावादी विचारधारा हो या सुभाष चंद्र बोस की क्रांतिकारी विचारधारा। माओवाद की विचारधारा हो रूस में कम्युनिस्ट तानाशाहीवाद, इटली में फासिस्ट ताकतों की तानाशाही तो जर्मनी में हिटलर के तहत नाजी तानाशाही  भी एक विचार का जन्म देती है। सत्ता को हथियाना और  कोई क्रांति लाकर सत्ता पाना ठीक विपरीत स्थिति है। चाहे तालिबानी   विचारधारा हो या फिर आतंकवादी विचारधारा। सबके अपने गुण और दोष होते हैं।  ऐसा नहीं कि एक बार जो विचारधारा जन्म ले ले वह समाप्त नहीं होती। कालातंर वह समाप्त भी होती है तो समयानुसार उसमें परिवर्तन भी होता रहा है और नये विचार भी जनमते रहें हैं। भारत में  डा. लोहिया जी का समाजवाद इसका ताजा उदाहरण है। जनसंघ से जनता दल फिर भारतीय जनता पार्टी ने भी इस कालखंड में तीन अलग-अलग विचारधाराओं को अपनाया है। यह बताने के लिए कि जो साहित्यकार यह मानते हैं कि केजरीवाल की राजनीति को विचारधारा हीन पार्टी की संज्ञा देते हैं । यह लिखने या बोलने वाले लोगों के दिमाग की शून्यता इस बात को प्रतिपादित करते हैं। उनको केजरीवाल की विचारधारा तब तक समझ में नहीं आएगी जब तक उनके दिमाग में अन्य विचारधाराओं ने जगह बना रखी हो। बंद दरवाजे से हवा कैसे अंदर आयेगी?

 

मेक इन इंडिया बनाम मेक इंडिया नम्बर-1:

मेक इन इंडिया:

मेक इन इंडिया मोदी सरकार द्वारा भारत में बने उत्पादों के विकास, निर्माण और संयोजन के लिए कंपनियों को बनाने और प्रोत्साहित करने और विनिर्माण में समर्पित निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए एक पहल है।  इसका उद्देश्य ‘‘भारत को एक वैश्विक डिजाइन और विनिर्माण निर्यात केंद्र में बदलना है।“ यानि  कि ‘मेक इन इंडिय’ का उद्देश्य भारत में बने उत्पादों के विकास और पूंजीवदी व्यवस्था को बढ़ावा देना है।  मोदी सरकार का उद्देश्य स्पष्ट तौर पर इस बात को इंगित करता है कि ‘मेक इन इंडिया देश-विदेश के चंद पूंजीपतियों को सरकारी मदद देकर उसके उत्पादों को वैश्विक लाभ देना ।  आज भारत में कुछ मोदी समर्थक उद्योगपतियों का दिन-दूनी, रात चौगुनी प्रगति भी रहस्यमय बन चुका है। वहीं ‘मेक इन इंडियाके नाम से भारत सरकार ने जो अब तक लाभार्थियों की श्रेणी तय की है इनमें -

1. विदेशी कंपनीः कोई भी विदेशी निवेशक भारत में इस प्रकार कारोबार शुरू कर सकता है।

2. भारतीय कंपनीः संयुक्त उद्यम या पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी - कोई भी निवेशक कंपनी अधिनियम 2013 के अधीन प्राइवेट लिमिटेड या पब्लिक लिमिटेड कंपनी के रूप में संयुक्त उद्यम या पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी में प्रवेश कर सकता है। जिसमें एक व्यक्ति कंपनी, प्राइवेट लिमिटेड कंपनी, पब्लिक लिमिटेड कंपनी, एकमात्र स्वामित्व, साझेदारी फर्म, सीमित देयता भागीदारी, विदेशी कंपनी शामिल है।

कहने का अर्थ है कि ‘मेक इन इंडियाका दायरा सिर्फ पूंजीपतियों के आस-पास तक सीमित है। जबकि

मेक इंडिया नम्बर-1’

मेक इंडिया नम्बर-1 का दायरा पूरे देश के विकास को कैसे आगे ले जाया जा सकता है उसे दिशा देने की बात करता है। जिसमें सर्वप्रथम जो क्षेत्र चुना गया है उसमें देश के 18 करोड़ देश के गरीब बच्चों का भविष्य निमार्ण की बात झलकती है। सरकारी स्कूलों में सुधार व शिक्षा के माध्यम से देश में गरीबों के जीवन स्थर में सुधार की बात कही गई है।

जो बेसिक परिवर्तन की बात है। भारत में जो काम आजादी के तत्काल बाद शुरू कर देना था, वह आज तक किसी भी सरकार ने नहीं सोचा । स्व. नेहरू जी ने ‘नहर योजना’, स्व. अटल जी ने ‘राष्ट्रीय राज मार्ग’ का निमार्ण तो आज केजरीवाल ने जो विजन देश को दिया है, देश के 18 करोड़ बच्चों प्रतिवर्ष अच्छी शिक्षा देकर, देश के समस्थ नागरिकों को अच्छी स्वास्थ्य सेवा, किसानों को उसके फसल की सही कीमत, उनके क्षति की भरपाई कर, मजदूर वर्ग को सम्मान देना और सुरक्षा में तैनात सैनिकों, सिपाहियों की सुरक्षा का दायित्व लेना, ना तो पूंजीवादी व्यवस्था का परिचायक है ना ही किसी वामपंथी विचारधारा का द्योतक है।

केजरीवाल की विचारधारा ना तो समाजवादी व्यवस्था को इंकार करता है ना ही वामपंथी विचारधारा को। ना ही दक्षिणपंथी विचारधारा को महत्व दे रहा है ना ही कोई असंभव बात कह रहा है।

स्वामी विवेकानंद जी को एक बार देश के तथाकथित धर्म-पंडितों ने मदद देने से यह बोलकर इंकार कर दिया कि लंदन की सड़कों पर उसे मर जाने दो। आज उनके सिद्धांतों को सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया भर में मान्यता प्राप्त है । मैं यहाँ केजरीवाल की तूलना विवेकानंद जी से नहीं कर रहा, परन्तु इससे अच्छा उदाहरण मिल भी नहीं सकता ।

छद्म राष्ट्रवाद बनाम पूंजीवादी व्यवस्था:

आज देश में केंद्र की राजनीति में दो केन्द्र बिंदु है एक वे लोग है जो छद्म राष्ट्रवाद, धर्मवाद की आढ़ में पूंजीवादी व्यवस्था को देश में थोपने में लगे हैं।  जो गरीबों के थाली में अनाज देने के बहाने उनकी थाली से अनाज को लूटने में लगी है। अच्छे दिन दिखाने के सपने दिखा कर लाखों-करोड़ों की दौलत अपने मित्रों में लूटा रही है। देश की अर्थव्यवस्था की ऐसी लूट, जिसने भ्रष्टाचार की सारी सीमाओं को मात कर दिया है।  अब तो सरकारी स्कूलों को बंद करने का भी सिलसिला शुरू कर दिया इनलोगों ने ।  ऐसी खुली लूट आजादी के 75 सालों में कभी नहीं देखी होगी किसी ने। तो दूसरी तरफ धर्मनिपेक्षता के नाम पर और गरीबी हटाओ का नारा देकर गरीबों के जीवन में कोई सुधार नहीं किया । सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया गया । आज इनके सारे मंत्री-संत्री धराधर बिकने लगे। देश के लोकतंत्र को इन दोनों दलों ने मिलकर संसद व विधानसभाओं को मंडी में तब्दील कर दिया है। जरूरत के अनुसार एक-दूसरे को खरीदने और बेचने लगे। क्या इसे ही विचारधारा कहा जाता है?

भारतीय राजनीति के इन दोनों दलों को कांग्रेस धर्मनिरपेक्षवादी गरीबी हटाओ विचारधारा व भाजपा की कट्टरवादी धार्मिक व पूंजीवादी व्यवस्था को जो कि आर.एस.एस विचारधारा के अधीन कार्य करती है को ही यदि विचारधारा कहा जाता है तो इस देश का दुर्भाग्य ही है। जो दल देश की आजादी की लड़ाई के पश्चात परिवारवाद से आगे नहीं निकल पर रही। जिन लोगों ने आजादी की लर्ड़ाइ में कोई भूमिका अदा नहीं की। वे राष्ट्रवाद का चौला पहनकर बुलबुल पर उड़कर रोजाना अरबों की दौलत लुटाकर जन्मदिन मना रहें हैं। आर.एस.एस की विचारधारा अपने को देश की राजनीति से अलग मानती है परन्तु इन दिनों जिस प्रकार संघ के सर-संघचालक ने केन्द्र सरकार का बचाव किया और विभिन्न राज्यों के चुनावों में इनका प्रचार करती है, इससे उनके राजनीतिक उद्देश्यों की झलक साफ दिखाई देती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यदि सही में देश के विकास व गरीबों के उत्थान हेतु कार्य करने के प्रति सजग है तो सरकारी स्कूलों के बंद होने पर केन्द्र सरकार से सवाल कर सकती थी, लेकिन चुप है। छद्म राष्ट्रवाद की आढ़ में पूंजीवादी व्यवस्था कायम करने का दौर शुरू हो चुका है, जिसे हर हाल में रोकना ही होगा । इसके लिए सजग पत्रकारों को अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना ही होगा।

पूंजीवादी व्यवस्था और भारत की 130 करोड़ आबादी:

आज भारत में लगभग-लगभग करीब 130 करोड़ की आबादी हो चुकी है। इनमें  2 फीसदी लोग भी आयकर के दायरे में आते हैं यानि कि 98 फीसदी लोगों की आय, आयकर दायरे से बहार है यदि इसमें इजाफा भी कर दिया जाए तो यह 5 फीसदी तक ही जा पायेगा । अर्थात देश का 95 फीसदी को ऊपर उठाने की कोई कार्य योजना हमारे पास यानी की वर्तमान सरकार के पास नहीं है। हमारे पास योजना के नाम पर ‘मेक-इन-इंडिया है, जो खुद ही बोलती है कि वह 2 फीसदी लोगों के लिए ही बनी है। यानि कि जो आयकर देते हैं उनके लिए ही बनी है। जबकि ‘मेक-इन-इंडिया नम्बर.1’ देश के 98 फीसदी लोगों के जीवन स्तर में सुधार की बात करती है। अब आप ही अंदाजा लगाएं कि विचारधारा किसे कहते हैं? - लेखक शंभु चौधरी, कोलकाता । - लेखक शंभु चौधरी, कोलकाता ।