बुधवार, 2 दिसंबर 2009

Union Carbide: Bhopal Gase

भोपाल तीन काल - शम्भु चौधरी


.

-1-
चलती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऐ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
जगो और बता दो,
इतिहास को |
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऐ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो
उस नापाक इरादों को
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो।


[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 28 दिसम्बर1987]


.


-2-


वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी ।
कुछ जमीन पर सोये सांसे गिन रही थी।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
चांडाल नृत्य करता शहर,
ऐ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहाँ बना लो।
अगर कुछ न समझ में न आये तो,
एक गैसयंत्र ओर यहाँ बना लो।
मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जायेगें।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 02 दिसम्बर1987]



.


-3-


भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...
कुछ हवाओं में, कुछ पावों तले,
कुछ दब गयी,
दीवारों के बीच।
कुछ नींद की गहराइयों में,
कुछ मौत की तन्हाइयों में खो गई।
कुछ माँ के पेट में,
कुछ कागजों में,
कुछ अदालतों में गूँगी हो गयी।
गुजारिश तुमसे है दानव,
तुम न खो देना मुझको,
जहाँ रहते हैं मानव।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 5 नवम्बर 1988]

-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

email; ehindisahitya@gmail.com

[Scrip code: Union Carbide: Bhopal Gase]


शनिवार, 21 नवंबर 2009

हिंदी के लब्ध प्रस्थित साहित्यकार प्रोफ़ेसर कल्याण मल लोढ़ा नहीं रहे..

साहित्य जगत में शोक की लहर
लेखक: प्रकाश चंडालिया
लेखक कलकत्ता से प्रकाशित दैनिक राष्ट्रीय महानगर के संपादक हैं।



Prof.Kalyanmal Lodhaहिंदी के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार व जोधपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर कल्याण मल लोढ़ा का २१ नवम्बर की रात लगभग २.३० बजे जयपुर में निधन हो गया. वे ८९ वर्ष के थे। प्रोफ़ेसर लोढ़ा पिछले कुछ वर्षों से अस्वस्थ चल रहे थे।
प्रोफ़ेसर लोढ़ा ने १९४३ में इलाहबाद विश्वविद्यालय, प्रयाग से हिंदी में एम ए किया। सन १९४५ में आप पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता आकर बस गए। कलकत्ता के जयपुरिया कॉलेज में आप हिंदी के विभाध्यक्ष नियुक्त हुए। १९४८ में कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंशकालिक प्राध्यापक के रूप में काम शुरू किया, फिर १९५३ में पूर्णकालिक प्राध्यापक नियुक्त हुए। १९६० में आप रीडर बने और १९७४ में प्रोफ़ेसर। १९६० से ८० तक आप कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे। इस लम्बे कार्यकाल में आपने हिंदी की विकास यात्रा में नए आयाम स्थापित किये। हिंदी के सुविख्यात विद्वान तथा उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल आचार्य विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर लोढ़ा के शिष्य रहे। सन १९७९ से ८० तक आप राजस्थान के जोधपुर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किये गए। एक वर्ष के पश्चात आप पुनः कलकत्ता आ गए फिर सन १९८६ में आपने कलकत्ता विश्वविद्याला से अवकाश ग्रहण किया।
प्रोफ़ेसर लोढ़ा ने ५० से अधिक शोध निबंध लिखे।
आपने दर्जनों पुस्तकों की रचना की, जिनमे प्रमुख हैं- वाग्मिता, वाग्पथ, इतस्ततः, प्रसाद- सृष्टी व दृष्टी , वागविभा, वाग्द्वार, वाक्सिद्धि, वाकतत्व आदि। इनमे वाक्द्वार वह पुस्तक है, जिसमे हिंदी के स्वनामधन्य आठ साहित्यकारों - तुलसी, सूरदास, कबीर, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्यिक अवदानों का सुचिंतित तरीके से मूल्याङ्कन किया गया है। प्रोफ़ेसर लोढ़ा ने प्रज्ञा चक्षु सूरदास , बालमुकुन्द गुप्त-पुनर्मूल्यांकन, भक्ति तत्त्व, मैथिलीशरण गुप्त अभिनन्दन ग्रन्थ का संपादन भी किया।
प्रोफ़ेसर लोढ़ा को उनके साहित्यिक अवदानों के लिए मूर्ति देवी पुरस्कार, केंद्रीय हिंदी संसथान-आगरा से राष्ट्रपति द्वारा सुब्रमण्यम सम्मान, अमेरिकन बायोग्राफिकल सोसाइटी अदि ने सम्मानित किया। आप अपनी ओजपूर्ण वाक्शैली के लिए देश भर जाने जाते थे। विविध सम्मेलनों में आपने अपना ओजश्वी वक्तव्य देकर हिंदी का मान बढाया। आप के के बिरला फाउन्डेसन, भारतीय विद्या भवन, भारतीय भाषा परिषद्, भारतीय संस्कृति संसद सरीखी देश की सुप्रसिद्ध संस्थावों से जुड़े हुए थे।
प्रोफ़ेसर लोढ़ा के निधन से साहित्य जगत में शोक की लहर है। उनका अंतिम संस्कार रविवार २२ नवम्बर को जयपुर में किया जा रहा है।

परिचय: प्रो.कल्याणमल लोढ़ा जी का


आज यहाँ हम एक ऐसे युगपुरुश के विषय में बात करेगें जिन्होंने न सिर्फ धर्मयुग तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में अनेक निबंध लिखे, बाद में वे पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी हुए। वग्मिता, इतस्ततः तथा काकपथ - ये तीन संग्रह तो प्रसिद्ध हैं। अन्य भी चर्चित हैं। जी हाँ! इनका नाम है - प्रो.कल्याणमल जी लोढ़ा। इनके निबंधों में वैविध्य है, साथ ही कलकत्ता पर लिखे गए इनके निबंध नई जानकारियों से भरे हुए हैं।लोढ़ाजी कलकत्ता और बंगभूमि के प्रेमी है। अतः जब वे उसके इतिहास या उसकी र्दुगति को दिखाते हैं नगर प्रदूषण वगैरह, तो उनमें एक कसक, एक दर्द उभरता है। जब ये कलकत्ता के गौरव का वर्णन करते हैं, महिमा बखानते हैं, हिन्दी के विकास और पत्रकारिता के अभ्युदय की चर्चा करते हैं, तो उन्हें गौरव सा अनुभव होता है। वास्तव में इनके लेखों में कोलकाता महानगर का चित्र तात्विक हो उठता हैं। बंगला साहित्य में भी कोलकाता का इतना सुन्दर वर्णन देखने को नहीं मिलता।


विद्यार्थी जीवनः अपने विद्यार्थी जीवन में प्रो. लोढ़ाजी एक प्रतिभाशाली छात्र रहे। यद्यपि उनके ज्येष्ठ और कनिष्ठ भ्राताओं ने अपने लिए वकालत व न्याय का क्षेत्र चुना और उन दोनों ने इन क्षेत्रों में अपूर्व सफलता और यश अर्जित किया, तथापि प्रो. लोढ़ा ने अपने लिये शिक्षा और साहित्य की सास्वत अराधना का जीवन चुना, कोलकाता के विश्वविद्यालय में उच्चतम पद प्राप्त किया एवं राजस्थान विश्वविद्यालय के भी कुलपति मनोनीत हुए। व्यवसाय के क्षेत्र में कोलकाता में प्रवासी राजस्थानियों का वर्चस्व तो सर्वविदित है, किन्तु शिक्षा साहित्य और शोध के क्षेत्र में प्रो. लोढ़ा ने स्वयं जो कीर्तिमान बनाया है वह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। प्रो. लोढ़ा अपने लेखों में संस्कृत, हिन्दी, प्राकृत, बंगला, अंग्रेजी सभी के विमर्शात्मक वाङ्मय से उद्वरण देकर अपने कथ्य को पुष्ट करते हैं। उनका कोई भी ग्रन्थ लें, वह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वाक् को प्रथम पद बनाकर जिनका शीर्षक दिया गया है, ऐसे उनकेग्रन्थों की लम्बी श्रृंखला हैं- वाक्पथ, वाक्तत्व, वाग्विभव, वाग्दोह, वाक्सिद्धि- उन्हें देख लें। वाक् के उल्लेख से ग्रन्थों को अभिधान देकर उन्होंने अपनी पहचान को ही सार्थकता दी हैं। यह बात सभी जानते हैं कि वे स्फीत और प्रखर वग्मिता के, वाकशक्ति के, अभिव्यक्ति कौशल के, संप्रेषण रक्षता के धनी हैं। किन्तु समाज और संस्कृति के बड़े केनवस पर हिन्दी के आचार्य, विभागाध्यक्षा और कुलपति होने के साथ-साथ बल्कि उससे भी अधिक सुर्खियों में प्रो. लोढ़ा की छवि एक सुधी समीक्षक और पहचान एक साहित्य चिन्तक, और सहृदय सास्वत साधक के रूप में है। यह बात किसी भी प्रकार से अतिशयोक्ति नहीं लगती कि प्रो. लोढ़ा विश्वविद्यालीय हिन्दी जगत के गिने-चुने हुए प्रपितामह कोटि के वयोवृद्ध और वरिष्ठ आचार्यों में अग्रगण्य हैं तथा साहित्य, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में प्रतीक पुरुष के तुल्य बन चुके हैं। बंगाल में हिन्दी के पण्डित और भाषिक महत्व का सिक्का जमाना आसान नहीं। यह भूमि विद्वानों और बड़ी-बड़ी प्रतिभाओं की भूमि रही है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि मारवाड़ी समाज ने इस भूमि पर मेहनत की, संघर्ष किया, परन्तु जो सम्मान इन्हें, बंगाल की धरती में मिलना चाहिए था वह आज तक नहीं मिला। इस शहर में समाज के जितने उद्योगपति हैं यदि उसके अनुपात में एक प्रतिशत भी इनका साहित्य के क्षेत्र में योगदान रहा होता, तो समय-समय पर इनको जो हीन भावना से ग्रसित होना पड़ता है वह शायद नहीं होता। समाज द्वारा जितना सेवाकार्य इस शहर में किया गया है उतना कार्य देश के किसी भी शहर में दिखाई नहीं पड़ता। इसी दौर में इस अंधकार भरे वातावरण के बीच एक आशा की किरण के रूप में प्रो. कल्याणमलजी लोढ़ा का पदार्पण एवं कोलकाता विश्वविद्यालय में इनकी सेवा ने आशा की एक ज्योत जला दी।
आपका जन्म 28 सितम्बर 1921 को जोधपुर में हुआ। आपके पिता श्री चन्दमलजी लोढ़ा तत्कालीन जोधपुर राज्य में उच्च अधिकारी थे। इनकी माता का नाम सूरज कंवर था जो एक मध्यवित्त परिवार की गृहिणी महिला थी। आपका परिवार जैन धर्म का अनुयायी रहा है। साथ ही हिन्दू धार्मिक पर्व जैसे नवरात्री, जन्माष्टमी, शिवरात्री का भी पालन करतें हैं।
उच्च मध्यवित्त परिवार में आपका पालन-पोषण बड़े ही सम्मानपूर्वक हुआ। नैतिक मूल्यों में आस्था थी। परिवार में प्रातःकाल उठकर सभी को प्रणाम करना पड़ता, पूजा करनी पड़ती थी।
आप जसवन्त कॉलेज के विद्यार्थी थे। आचार्य सोमनाथ गुप्त एवं अन्य अध्यापकों का उन्हें काफी स्नेह प्राप्त रहा। कॉलेज के समय से ही आपके आलेख प्रकाशित होने लगे।
22 जुलाई 1945 को आप कलकत्ता आ गए। आप तीन भाई है। इनके बड़े भाई उच्च न्यायालय मे उच्च न्यायाधीश एवं विचारपति रह चुक हैं एवं इनके अनुज भी न्यायालय में न्यायपति रह चुके हैं। इनका परिवार राजकीय सेवा में रहते हुए इनका ध्यान शिक्षा जगत की ओर ही रहा।
आप बताते हैं कि जोधपुर से मेरा बहुत लगाव हैं क्योंकि वह मेरी जन्मभूमि है। बंगाल मेरी कर्म भूमि है, प्रयाग मेरी मानसभूमि है तो जन्मभूमि, कर्मभूमि और मानस भूमि - यही इनके जीवन का त्रिकोण रहा। 1945 में आप कोलकाता स्थित सेठ आनन्दराम जयपुरिया कॉलेज में प्राध्यापक के रूप मे जुड़े, 1948 में आपको कलकत्ता विश्वविद्यालय में अल्पकालिक अध्यापक के रूप में नियुक्ति मिली। सन् 1953 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग को मान्यता मिली। एक प्रकार से धीरे-धीरे कोलकाता महानगर के प्रायः सभी कॉलेजों में हिन्दी विभाग की व्यवस्था कराने में आपका सक्रिय योगदान रहा।

कोलकाता महानगर सरस्वती का मंदिरः
आप बताते हैं कि बंगाली समाज में अपनी भाषा के प्रति जो लगाव हैं, लगन है वह या वो महाराष्ट्र में है या दक्षिण में। आपको बंगाल में बंकिमचन्द्र, रवीन्द्र एवं शरदचन्द्र की रचनावलियां मिलेंगी। यहाँ के लोग आपस में इन रचनाओं पर विचारो का आदान-प्रदान करते कहीं भी देखे जा सकते हैं।
वर्ष 2003 में आपको भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार-2003 से सम्मानित किया गया। श्री लोढ़ाजी को गुरुवर आचार्य लोढ़ा जी के नाम से सभी जानते हैं । कोलकाता महानगर में हिन्दी की जितनी सेवा आपने की वह आज एक शोध का विषय बन गया है। जिन लोगों ने आचार्य लोढ़ा के वक्तव्यों को सुना है, जिनको इनकी कक्षा में पढ़ने का सौभाग्य मिला है, वे सभी जानते हैं कि श्री लोढ़ाजी के जीवन में कविताओं का बहुत बड़ा स्थान रहा है।



पतझड़ के अभिशाप, तुम वसन्त के श्रृंगार हो ।
जीवन के सत्य और असत्य दोनों के प्रतिरूप ।
मैं तुम्हारी ही कहानी सुनना चाहता हूँ ।
पतझड़ की झकझोर आँधियों में क्या तुम्हारा हृदय निराश नहीं हुआ ।
एक के बाद एक अपनी लालसाओं को मिटते देख-क्या तुम हताश नहीं हुए ।


- शम्भु चौधरी

[script code: prof.kalyanmal Lodha]

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

विद्रोही रचनाशीलता के एक कवि श्री हरीश भादानी जी नहीं रहे़......

लेखक: शम्भु चौधरी, कोलकाता



Harish Bhadaniकोलकाता:(दिनांक 2 अक्टूबर 2009): अभी-अभी समाचार मिला है कि राजस्थान के 'बच्चन' कहे जाने वाले प्रख्यात जनकवि हरीश भादानी का आज तड़के चार बजे बीकानेर स्थित आवास पर निधन हो गया। वे 76 वर्ष के थे। हरीश भादानी अपने पीछे तीन पुत्रियां और एक पुत्र छोड़ गए हैं। वे पिछले कुछ दिनों से अस्‍वस्‍थ चल रहे थे। शुक्रवार को उनकी देह अंतिम दर्शन के लिए उनके आवास पर रखी जाएगी। शनिवार को उनकी इच्छा के अनुरूप अंतिम संस्कार के स्थान पर उनके पार्थिव शरीर को सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए सौंपा जाएगा। जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहे भादानी ने हिन्दी के साथ राजस्थानी भाषा को भी संवारने का कार्य किया। राजस्‍थान के वि‍गत चालीस सालों के प्रत्‍येक जन आंदोलन में उन्‍होंने सक्रि‍य रूप से हि‍स्‍सा लि‍या था। राजस्‍थानी और हिंदी में उनकी हजारों कवि‍ताएं हैं। ये कवि‍ताएं दो दर्जन से ज्‍यादा काव्‍य संकलनों में फैली हुई हैं। मजदूर और कि‍सानों के जीवन से लेकर प्रकृति‍ और वेदों की ऋचाओं पर आधारि‍त आधुनि‍क कवि‍ता की प्रगति‍शील धारा के नि‍र्माण में उनकी महत्‍वपूर्ण भूमि‍का थी। इसके अलावा हरीशजी ने राजस्‍थानी लोकगीतों की धुनों पर आधारि‍त उनके सैंकड़ों जनगीत लि‍खें हैं जो मजदूर आंदोलन का कंठहार बन चुके हैं।


आज जैसे ही राजस्थान से श्री सत्यनारायण सोनी जी का फोन मिला, मैं स्तब्ध रह गया। हाथों-हाथ मैंने श्री अरुण माहेश्वरी से बात की, तो उन्होंने बताया कि आज सुबह ही उनका शरीर शांत हो गया। पिछले सप्ताह ही श्री भादानी जी अपने नाती (अरुण जी के लड़के) के विवाह में शरीक होने के लिये कोलकाता आये थे। उस समय आप स्वस्थ्य से काफी कमजोर दिख रहे थे परन्तु नाती के विवाह की खुशी और सरला के प्रेम ने उसे कोलकाता खिंच लाया था। श्री अरुण जी ने बताया कि पिछले 26 सितम्बर को ही वे राजस्थान लोट गये थे।


श्री हरीश भादानी का जन्म 11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में हुआ। आपने 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादन भी किया। कोलकात्ता से प्रकाशित मार्कसवादी पत्रिका 'कलम' (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। आपकी अनौपचारिक शिक्षा पर 20-25 पुस्तिकायें प्रकाशित हो चुकि है। आपको राजस्थान साहित्य अकादमी से "मीरा" प्रियदर्शिनी अकादमी", परिवार अकादमी, महाराष्ट्र, पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से "राहुल" । के.के.बिड़ला फाउंडेशन से "बिहारी" सम्मान से सम्मानीत किया जा चुका है। इनके व्यक्तित्व ने बीकानेर नगर के होली के हुड़दंग में एक नई दिशा देने का प्रयास किया। खेड़ा की अश्लील गीतों के स्थान पर भादानीजी ने नगाड़े पर ग्रामीण वेशभूषा में सजकर समाज को बदलने वाले गीत गाने की परम्परा कायम की, उससे बीकानेर के समाज में बहुत अच्छा प्रभाव परिलक्षित हुआ था। उनका सरल और निश्चल व्यक्तित्व बीकानेर वासियों को बहुत पसन्द आता है। भादानीजी में अहंकार बिल्कुल नहीं है। इनके व्यक्तित्व में कोई छल छद्म या चतुराई नहीं है।

हरीश भादानी ने अपने परिवारिक जीवन में भी इसी प्रकार की जीवन दृष्टि रखी है और ऐसा लगता है कि उनको यह संस्कार अपने पिता श्री बेवा महाराज से प्राप्त हुए हैं। उनके गले का सुरीलापन भी उनके पिता की ही देन समझी जानी चाहिए। लेकिन उनके पिताश्री के सन्यास लेने से भादानीजी अपने बचपन से ही काफी असन्तुष्ट लगते हैं और इस आक्रोश और असंतोष के फलस्वरूप उनका कोमल हृदय गीतकार कवि बना। छबीली घाटी में उनका भी विशाल भवन था। वह सदैव भक्ति संगीत और हिंदी साहित्य के विद्वानों से अटा रहता था। हरीश भादानी प्रारंभ में रोमांटिक कवि हुआ करते थे। और उनकी कविताओं का प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर एकसा पड़ता था। भादानी के प्रारंभिक जीवन में राजनीति का भी दखल रहा है। लेकिन ज्यों-ज्यों समय बीतता गया हरीश भादानीजी एक मूर्धन्य चिंतक और प्रसिद्ध कवि के रूप में प्रकट होते गए। हरीश भादानीजी को अभी तक एक उजली नजर की सुई 1967-68 एवं सन्नाटे के शिलाखण्ड पर 1983-84 पर सुधीन्द्र काव्य पुरस्कार राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार, द्वारा सुधीन्द्र पुरस्कार एक अकेला सूरज खेले पर मीरा पुरस्कार, पितृकल्प पर बिहारी सम्मान महाराष्ट्र, मुम्बई से ही प्रियदर्शन अकादमी से पुरस्कृत, राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर से विशिष्ठ साहित्यकार के रूप में सम्मानित किए जा चुके हैं।


11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में आपका जन्म हुआ। आपकी प्रथमिक शिक्षा हिन्दी-महाजनी-संस्कृत घर में ही हुई। आपका जीवन संघर्षमय रहा । सड़क से जेल तक कि कई यात्राओं में आपको काफी उतार-चढ़ाव नजदीक से देखने को अवसर मिला । रायवादियों-समाजवादियों के बीच आपने सारा जीवन गुजार दिया। आपने कोलकाता में भी काफी समय गुजारा। आपकी पुत्री श्रीमती सरला माहेश्वरी ‘माकपा’ की तरफ से दो बार राज्यसभा की सांसद भी रह चुकी है। आपने 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादक भी रहे । कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका ‘कलम’ (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। आपकी प्रोढ़शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा पर 20-25 पुस्तिकायें राजस्थानी में। राजस्थानी भाषा को आठवीं सूची में शामिल करने के लिए आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता। ‘सयुजा सखाया’ प्रकाशित। आपको राजस्थान साहित्य अकादमी से ‘मीरा’ प्रियदर्शिनी अकादमी, परिवार अकादमी(महाराष्ट्र), पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से ‘राहुल’, । ‘एक उजली नजर की सुई(उदयपुर), ‘एक अकेला सूरज खेले’(उदयपुर), ‘विशिष्ठ साहित्यकार’(उदयपुर), ‘पितृकल्प’ के.के.बिड़ला फाउंडेशन से ‘बिहारी’ सम्मान से आपको सम्मानीत किया जा चुका है । आपके निधन के समाचार से राजस्थानी-हिन्दी साहित्य जगत को गहरा आघात शायद ही कोई इस महान व्यक्तित्व की जगह ले पाये। हम ई-हिन्दी साहित्य सभा की तरफ से अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं एवं उनकी आत्मा को शांति प्रदान हेतु ईश्वर से प्रथना करते हैं।

हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकें:




अधूरे गीत (हिन्दी-राजस्थानी) 1959 बीकानेर।
सपन की गली (हिन्दी गीत कविताएँ) 1961 कलकत्ता।
हँसिनी याद की (मुक्तक) सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर 1963।
एक उजली नजर की सुई (गीत) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966 (दूसरा संस्करण-पंचशीलप्रकाशन, जयपुर)
सुलगते पिण्ड (कविताएं) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966
नश्टो मोह (लम्बी कविता) धरती प्रकाशन बीकानेर 1981
सन्नाटे के शिलाखंड पर (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर1982।
एक अकेला सूरज खेले (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1983 (दूसरा संस्करण-कलासनप्रकाशन, बीकानेर 2005)
रोटी नाम सत है (जनगीत) कलम प्रकाशन, कलकत्ता 1982।
सड़कवासी राम (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1985।
आज की आंख का सिलसिला (कविताएं) कविता प्रकाशन,1985।
विस्मय के अंशी है (ईशोपनिषद व संस्कृत कविताओं का गीत रूपान्तर) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1988ं
साथ चलें हम (काव्यनाटक) गाड़ोदिया प्रकाशन, बीकानेर 1992।
पितृकल्प (लम्बी कविता) वैभव प्रकाशन, दिल्ली 1991 (दूसरा संस्करण-कलासन प्रकाशन, बीकानेर 2005)
सयुजा सखाया (ईशोपनिषद, असवामीय सूत्र, अथर्वद, वनदेवी खंड की कविताओं का गीत रूपान्तर मदनलाल साह एजूकेशन सोसायटी, कलकत्ता 1998।
मैं मेरा अष्टावक्र (लम्बी कविता) कलासान प्रकाशन बीकानेर 1999
क्यों करें प्रार्थना (कविताएं) कवि प्रकाशन, बीकानेर 2006
आड़ी तानें-सीधी तानें (चयनित गीत) कवि प्रकाशन बीकानेर 2006
अखिर जिज्ञासा (गद्य) भारत ग्रन्थ निकेतन, बीकानेर 2007

राजस्थानी में प्रकाशित पुस्तकें:


बाथां में भूगोळ (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1984
खण-खण उकळलया हूणिया (होरठा) जोधपुर ज.ले.स।
खोल किवाड़ा हूणिया, सिरजण हारा हूणिया (होरठा) राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति जयपुर।
तीड़ोराव (नाटक) राजस्थानी भाषा-साहित्य संस्कृति अकादमी, बीकानेर पहला संस्करण 1990 दूसरा 1998।
जिण हाथां आ रेत रचीजै (कविताएं) अंशु प्रकाशन, बीकानेर।

इनकी चार कविताऎं:-


1.
बोलैनीं हेमाणी.....
जिण हाथां सूं
थें आ रेत रची है,
वां हाथां ई
म्हारै ऐड़ै उळझ्योड़ै उजाड़ में
कीं तो बीज देंवती!
थकी न थाकै
मांडै आखर,
ढाय-ढायती ई उगटावै
नूंवा अबोट,
कद सूं म्हारो
साव उघाड़ो औ तन
ईं माथै थूं
अ आ ई तो रेख देवती!
सांभ्या अतरा साज,
बिना साजिंदां
रागोळ्यां रंभावै,
वै गूंजां-अनुगूंजां
सूत्योड़ै अंतस नै जा झणकारै
सातूं नीं तो
एक सुरो
एकतारो ई तो थमा देंवती!
जिकै झरोखै
जा-जा झांकूं
दीखै सांप्रत नीलक
पण चारूं दिस
झलमल-झलमल
एकै सागै सात-सात रंग
इकरंगी कूंची ई
म्हारै मन तो फेर देंवती!
जिंयां घड़यो थेंघड़ीज्यो,
नीं आयो रच-रचणो
पण बूझण जोगो तो
राख्यो ई थें
भलै ई मत टीप
ओळियो म्हारो,
रै अणबोली
पण म्हारी रचणारी!
सैन-सैन में
इतरो ई समझादै-
कुण सै अणदीठै री बणी मारफत
राच्योड़ो राखै थूं
म्हारो जग ऐड़ो? [‘जिण हाथां आ रेत रचीजै’ से ]


2.
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों,
दफ्तरों को रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!


3.
क्षण-क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ!
पसर गया है / घेर शहर को
भरमों का संगमूसा / तीखे-तीखे शब्द सम्हाले
जड़े सुराखो तो जानूँ! / फेंक गया है
बरफ छतों से
कोई मूरख मौसम
पहले अपने ही आंगन से
आग उठाओ तो जानूँ!
चैराहों पर
प्रश्न-चिन्ह सी
खड़ी भीड़ को
अर्थ भरी आवाज लगाकर
दिशा दिखाओ तो जानूँ!
क्षण-क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ!
[‘एक उजली नजर की सुई’ से]


4.
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां

झोलिया फैलाये लोग
भूग रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव-लाव भैरवी बजत है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे
भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले

दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
[रोटी नाम सत है]


संपर्क:
पताः छबीली घाटी, बीकानेर फोनः 09413312930

शनिवार, 27 जून 2009

कहानी: अपना मुकद्दमा वापस लेती हूँ..... -शम्भु चौधरी

अरे...आप चिन्ता मत किजिए....एक ठाहके के बीच ही वकील सा'ब ने अपने मुवक्किल जो गाँव के मुखिया भी हैं को कहा.....आपके लड़के को कोई सजा नहीं होगी। "जी....जी... पर...आप तो जानते ही हैं कि अगले साल चुनाव है... पार्टी ने मुझे चुनाव लड़ने को कहा है... इस मामले में लड़के को सजा हो गई तो मेरी इज़्ज़त ही सारी मिट्टी में मिल जायेगी.... बीच में ही मुखिया जी बोल पड़े।" "अरे सा'ब आप बस देखते जाईये....वकील सा'ब ने पुनः मुखिया जी को ढाढ़स बंधाया।" एक ठहाका..... फिर बोले..." ये तो आपके लड़के ने एक ही लड़की की इज़्ज़त लूटी है.. मुखिया जी...गाँव का कन्हैया है... पूरे गाँव की लड़कियोँ की भी... समझ रहे हैं न मैं क्या कहना चाह रहा हूँ...आप चिन्ता न करें .. फिर थोड़ा रुककर...मुखिया जी का लड़का है.. शौक भी तो मुखिया जैसे ही होने चाहिये।".. ठहाका...... "आप निश्चिंत रहें आपका काम हो जायेगा। एक लड़की की इज़्ज़त से ज्यादा जरूरी है आपकी इज़्ज़त को बचाना... आखिर आप हमारे गाँव के मुखिया भी तो हैं....वकील सा'ब ने यह बात कह कर मुखिया जी के दिल को मजबूत आधार प्रदान कर दिया" हाँ ! सो तो है...मुखिया जी ने वकील सा'ब से सहमति जताते हुए कहा- "आप भी चिन्ता न करें बस किसी तरह हमारी इज़्ज़त को बचा लीजिये...आपको....गाँव की तिजौरी संभला दूँगा।" "हूँ.... सो तो ठीक है.. पर आप तो जानते ही हैं... मामला पेचीदा बनता जा रहा है...आपने सुना नहीं कि कल किस तरह पत्रकारों ने कुत्ते की तरह पीछा किया था... बार-बार पूछ रहे थे.. कि मैं इस मामले की पैरवी क्यों कर रहा हूँ। "बीच में ही टोकते हुए मुखिया जी ने पूछा.. फिर आपने क्या कहा उनको..." - कहना क्या था वकील हूँ मेरा पेशा है अपने मुवक्किल की पैरवी करना.. जब तक अपराध साबित नहीं हो जाता, कानून की नज़र में कोई अपराधी नहीं है।.. मुखिया जी का लड़का तो निर्दोष है बेचारे को फंसाया गया है।...." "फिर वे लोग (पत्रकार) पूछने लगे...कि वो जो मेडिकल रिपोर्ट है....?" पास टेबल पर पड़े पानी के गिलास को उठाकर पानी पीते हुए... "फिर क्या कहा आपने......एक साथ कई प्रश्नों से घिरे मुखिया जी पत्रकारों की बात सुनकर एकबार कांप से गये..... कड़ाके की ठंडक में भी चेहरे पर पसीना साफ झलकने लगा था" "कहता क्या....कह दिया मामला अदालत में है...अदालत में देखा जायेगा वकील सा'ब ने जवाब दिया।" "वकील सा'ब आप इस जिले के सबसे बड़े वकील हैं....." "हां ... सो तो है ही... आपकी इज़्ज़त से कहीं ज्यादा मेरी इज़्ज़त का भी ख़्याल है मुझे।.... फिर कहने लगे कि मैंने आजतक कोई मुकदमा नहीं हारा है.. आप देखते रहिये...कोर्ट में लड़की की ऐसी इज़्ज़त उतारूँगा कि कमरे के अन्दर आपके लड़के ने क्या इज़्ज़त उतारी होगी वह भी भूल जायेगी।....ठहाका....." (मानो वकील सा'ब यह बताना चाहते थे कि इज़्ज़त कचहरी के अन्दर ही उतरती है, इनकी हँसी में वासना की भूख नज़र आ रही थी।) यह सुनकर मुखिया जी को अब थोड़ी राहत महसूस होने लगी थी। "वकील सा'ब ने अपनी बात को बढ़ाते हुए आगे कहा- अपने नाम के साथ वकील लिखना बन्द कर दूँगा.. आपका मुक़द्दमा हार गया तो।" अपने बैग से कुछ नोटों के बण्डल टेबल पर रखते हुए... "बस आप मामला लड़ते जाईए...किसी तरह से लड़की मामला उठा ले तो भी मैं समझौता करने को तैयार हूँ ...लड़के की शादी भी करनी ही है....मुखिया जी ने एक मझे-मझाये हुए अंदाज में वकील सा'ब की इंसानियत को भी परखने का प्रयास किया।" "नहीं...नहीं....यह बात दिमाग में भी नहीं लायें...किसी के सामने बोल मत दीजियेगा.... सारा मामला हाथ से निकल जायेगा.... समझे न क्या कह रहा हूँ.....वकील सा'ब ने अपने अनुभव से मुखिया जी की इंसानियत को जिंदा ही दफ़ना दिया।..... फिर बोलने लगे न जात .....न पात...... ऐसी लड़की को तो गाँव में नहीं, शहर के कोठे पर होना चाहिये...... आपके पवित्र मंदिर जैसे घर की शोभा कैसे बन सकती है?...... जिसने आपकी इज़्ज़त को कचहरी में चुनौती दे दी हो........ मामला कमजोर पड़ जायेगा।...... आपके यह सब बोलने से........ कचहरी में कानून बोलता है,......... इंसानियत नहीं बोलती..........गवाह देने होते हैं...........फिर एक ठहाका........आपने सुना नहीं ....-"कानून अंधा होता है"........फिर एक ठहाका........ कमरे के भीतर एक अजीब सी हलचल पैदा हो गई थी, मानो किसी जानवर ने वकील के शरीर में प्रवेश कर सारे वातावरण में हड़कम्प पैदा कर दिया हो........मुखिया जी की बात ने कुछ ऐसा ही माहौल पैदा कर दिया था।" "हां सो तो .....मुखिया जी ने अपनी बात को वापस लेते हुए कहा ...आप जैसा कहेंगे.. ठीक वैसा ही होगा.. वकील सा'ब ...आप पर मुझे पूरा भरोसा है। पर वो दो टकिया छोकड़ी तो मुँह पर लगाम देती ही नहीं....." "सब ठीक हो जायेगा... कतरन की सी जुबान पर जब सूई चुभने लगेगी तो खुद व खुद जुबान भी बंद हो जायेगी... फिर एक ठहाका...हहाहहह....बस आप देखते जाईये।" "हाँ.. पर.. मामला कमजोर है.....वो मेडिकल रिपोर्ट?...फिर एक प्रश्न के समाधान खोजने का प्रयास किया था मुखिया जी के मन ने" "आप भी कैसी बात करते हैं....मुखिया जी....कैसा मामला....कोर्ट...कचहरी...थाना...पुलिस....पी.पी....पेशकार...सबतो आपके साथ खड़े हैं...बस वो जज का बच्चा नया आया है....उसे भी कुछ समय लगेगा..... सब ठीक हो जायेगा......।" "हां!.........जज का नाम सुनते ही मुखिया जी को एक नई शंका ने घेर लिया । [मुखिया जी हर प्रश्न का समाधान पहले ही खोज लेना चाहेते थे] अब तक वकील सा'ब की बातों से जितना आश्वस्त हुए थे, नये जज का नाम सामने आते ही पुनः चेहरे पर पसीने की बूंदे झलकने लगी थी..........पर आप तो बता रहे थे....कि जज को आप मेनैज कर लेंगे.....? "कोशिश तो की थी......पर....मन ही मन में कुछ सोचते हुए अभी बताना मुनासिब नहीं होगा......अब वकील सा'ब ने मुखिया जी की कमजोर नबज़ को टटोलते हुए ....एक काम करियेगा...आप कल एक पेटी भिजवा दीजियेगा।" "किसकी सेव की या संतरा की.. मुखिया जी ने सोचा कि शायद जज सा'ब को भेंट भेजने को कह रहे हैं वकील सा'ब...... वकील सा'ब से पूछा.." "अरे इतने भोले मत बनिये....... मुखिया जी.. अभी आपका लड़का तो रिमाण्ड पर ही गया है.. ख़ुदा न करे, कल उसे जेल हो जाये। मुझे बताना पड़ेगा कि.... पेटी का क्या मतलब होता है।" "हां...हाँ समझ गया.. कल सुबह आठ बजे तक आपके पास मेरा आदमी एक पेटी लेकर आ जायेगा।" "तो बस आप भी समझो कि आपका काम हो गया" दृश्य बदलता है: दिन का समय है सुहानी धूप ने मौसम को सुहावना बना दिया है। "वाह... मदनगोपाल जी (वकील सा'ब का नाम).....आपने तो कमाल ही कर दिया.. क्या इज़्ज़त उतारी.... आपने.... उस लड़की की..... अदालत में मजा आ गया, जैसे लग रहा था, मनोरमा कहानी सुना रहे हों आप......वाह...... मज़्ज़्जा आआआअग्या।" "दूसरे वकील ने कहा....अरे सा'ब मदनगोपाल जी का जोड़ा नहीं है अदालत में, कोई फांसी पर भी लटकता हो तो बचा लेंगे उसको।.....क्या टियूस्ट किया था, उस समय... आपने.... "अपने कपड़े खुद खोले थे कि लड़के ने खोले थे"......." "तीसरे ने कहा...... अरे उस समय तो बड़ा मजा आ गया जब आपने उस लड़की से पूछा था...तुम और कितनों से संबंध रखती हो? सच मुझे तो लगा कि आपको सब पता है कि इस लड़की के कितने मर्दों से संबंध है.. वाह सा'ब!..... कहीं आप भी इस चक्कर में तो नहीं...... रहते..? ठहाका.....इतने राज की बात तो बस वही जान सकता है...." "चौथे ने कहा देखा नहीं कैसे बात खुलते ही सहम गई बेचारी...... चिल्ला पड़ी...........नहीं.............नहीं मेरी और इज़्ज़त मत उतारो.........बेचारी......""मैं अपना मुकद्दमा वापस ले लेती हूँ।""" उसके वकील की तो आपने बोलती ही बन्द कर दी थी बेचारा शर्म के मारे सर नीचे कर लिया था ......ठहाका......" " पुनः एक ने कहा- देखा नहीं कैसे भावनात्मक बातें कर रहा था.... नारी जाति .....नारी जाति.......जैसे कोर्ट में मुकद्दमा नहीं किसी फिल्म में भाषण देने आया हो।" "दूसरे ने एक प्रश्न भरी निगाहों से मदनगोपाल जी से पूछा... सर वो फोटो कहाँ से मिली उसकी जिसमें उसके........" अरे रहने भी दो यार.... सब यहीं पूछ लोगे तो कल क्या सुनोगे वकील साब ने एक बार सबको अपना आभार व्यक्त करते हुए बात को समाप्त करने की चेष्टा की।" तभी पास खड़े एक पत्रकार ने पूछ लिया... सर आपने मामला तो जीत ही लिया है मानो, पर यह तो बताते जाईये कि कल को यही घटना आपकी लड़की के साथ हो जाती तो आप क्या करते?.... पत्रकार के इस प्रश्न ने अचानक पास खड़े सभी वकीलों के चेहरे पर सन्नाटा ही पैदा कर दिया था । अभी तक जो हँस-हँस के वकील सा'ब को बधाई दे रहे थे, धीरे से सटक लिये... मदनगोपाल जी अकेले खड़े इस प्रश्न का उत्तर खोजने में लग गये। रातभर बिस्तर पर तड़पते रहे........ सुबह पुनः उसी अदालत में सभी खड़े थे.. जज साहेब ने अदालत की कार्यवाही शुरू करने का आदेश दिया। लड़की के बायन को पुनः दर्ज किया जाना था.... लड़की उठी और मदनगोपाल जी को हाथ जोड़ते हुए कहा..... आप मेरे पिता तुल्य हैं और कटघरे में जाकर खड़ी हो गई। आज फैसला होना ही था यह सबकी जुबान पर था कि लड़की मुकद्दमा हार चुकी है। मदनगोपाल जी उठे....... अदालत के चारों तरफ देखा। अपने मुवक्किल को ध्यान से देखा उसके चेहरे पर उसकी हँसी देखी...... लड़की को देखते हुए कहा...... मैं इस मुकदमे को नहीं लडूँगा.. अपना वकालतनाम वापस लेता हूँ। अदालत परिसर में यह बात आग की तरह फैल गई....... मदन जी ने मुकदमा लड़ने से इंकार कर दिया है। जज ने स्वीकृति प्रदान करते हुए लिखा काश! मदनगोपाल जी की जगह यह गौरव मेरे को मिल पाता...... मदनगोपाल जी ने आज इस अदालत में जो इतिहास रचा है.. वह हमेशा याद रखा जायेगा। नोट: सभी पात्र और घटना काल्पनिक है।

लेखक : शम्भु चौधरी,

बुधवार, 4 मार्च 2009

साहित्य-संगीत को साथ लेकर चलने की जरुरत: पं. जसराज

Pandit Jasraj, Pramod Shah and  Dr. Krishn Bihari Mishra
संगीत मार्तण्ड पद्मविभूषण पंडित जसराज प्रमोद शाह द्वारा तीन खंडों में परिकल्पित, संकलित एवं संपादित पुस्तक ‘थॉट्स ऑन रिलीजियस पॉलिटिक्स इन इंडिया’ (1857-2008) का लोकार्पण करते हुए। साथ में हैं डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र, प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश, श्री हरि कृष्ण चौधरी और एकदम बायें प्रमोद शाह।

कोलकाता: भारत को साहित्य व संगीत को साथ लेकर चलने की जरुरत है, इसी से मनुष्यता और सद्भाव बचेगा। मुझे कुछ लिखना-पढ़ना नहीं आता। जो कुछ है, उसे गाकर जी लेता हूँ। ये बातें संगीत मार्तण्ड पद्मविभूषण पंडित जसराज ने प्रमोद शाह द्वारा तीन खंडों में परिकल्पित, संकलित एवं संपादित पुस्तक ‘थॉट्स ऑन रिलीजियस पॉलिटिक्स इन इंडिया’ (1857-2008) का लोकार्पण करते हुए कही। समारोह की अध्यक्षता डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने की। समारोह के विशिष्ट अतिथि प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश ने भी अपने विचार रखे।
Religious Politics In Indiaभारतीय भाषा परिषद में आयोजित लोकार्पण समारोह में पंडित जसराज ने कहा, ‘मैं एक समारोह में गा रहा था तो पीछे से किसी ने फरमाया, अल्लाह हो मेहरबान। इसे सुन कर मैं क्षण भर के लिए खो गया इसके बारे में जब मैंने अपनी बेटी को फोन किया, तो उसने बताया कि भगवान ने आपको एक विशेष काम के लिए धरती पर भेजा है। अपना विचार प्रस्तुत करने के बाद पंडित जसराज ने ‘चिदानन्द शिवोह्म, अल्लाह हो मेहरबान’ और शिवशंकर महादेव गाकर श्रोताओं को भाव-विभोर कर दिया। हर-हर महादेव कहते हुए उन्होंने प्रमोद शाह को आशीर्वाद दिया। उन्होंने कहा, मेरे मुंह से अभी हर-हर महादेव का स्वर निकला है। इसलिए आपकी यह किताब दुनिया को बहुत पसंद आयेगी।’ मौके पर प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश ने कहा कि सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं राजनीतिक प्रतिक्रिया है। इतिहास के गड़े मुर्दे को उखाड़ने से देश शक्तिशाली नहीं होगा। जो भारत को गढ़ना और बनाना चाहते हैं, उन्हें भाषा, धर्म, जाति और समुदाय से ऊपर उठ कर सद्भाव बनाने की पहल करनी चाहिए। समारोह की अध्यक्षता मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने की। उन्होंने कहा कि साहित्य, संगीत व अध्यात्म का स्वर राजनीति छोड़ दे, तो वह लंगड़ी हो जायेगी। रामकृष्ण परमहंस व महात्मा गांधी से बड़ा धर्मनिरपेक्ष कौन हो सकता है? गांधी और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे लोगों ने समझाया कि सभी मनुष्य एक हैं। गांधी जी ने सचेत करते हुए कहा था कि आज हमारा देश अधार्मिक हो रहा है। लोकार्पित पुस्तक के बारे में डॉ. मिश्र ने कहा कि यह पुस्तक नई पीढ़ी के लिए प्रेरक और हमारी पीढ़ी के लिए गौरव की बात है। समारोह में पंडित जसराज की उपस्थिति ने समारोह में प्राण प्रतिष्ठा कर दी है। प्रमोद शाह ने पुस्तक को संपादित करने में जो अनुभव और संघर्ष झेला, उसे सुनाया और कहा कि धर्म अलग है। धर्म के नाम पर राजनीति अलग है। धर्म को संस्कृति में रखने पर देश सुधरता है और राजनीति में रखने पर विकृत होता है। धार्मिक मतभेदों को भुला कर हमें देश को खुशहाल करने की कोशिश करनी चाहिए। कार्यक्रम का संचालन नंदलाल शाह व स्वागत भाषण संयोजक महेश चन्द्र शाह और धन्यवाद ज्ञापन डॉ.शशि शेखर शाह ने किया। सोसायटी फाॅर नेशनल अवेयरनेस के अध्यक्ष व प्रकाशक हरि कृष्ण चौधरी ने कहा कि आनेवाली पीढ़ी के लिए यह पुस्तक प्रेरणादायक साबित होगी। कार्यक्रम के शुरुआत में श्रीमती अनुराधा खेतान ने तीनों पुस्तकों का ऑडिओ-वीडियो चित्रण दिया।

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

परिचय: पद्म विभूषण श्रीमती महाश्वेता देवी : -शम्भु चौधरी


Mahasweta Deviमहाश्वेता देवी एक ऐसा नाम जिसका ध्यान में आते ही उनकी कई-कई छवियां आंखों के सामने प्रकट हो जाती हैं। जिसने अपनी मेहनत व ईमानदारी के बलबूते अपने व्यक्तित्व को निखारा है। उन्होंने अपने को एक पत्रकार, लेखक, साहित्यकार और आंदोलनधर्मी के रूप में विकसित किया। महाश्वेता देवी का जन्म सोमवार 14 जनवरी १९२६ को ईस्ट बंगाल जो भारत विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान वर्तमान में (बांग्लादेश) के ढाका शहर में हुआ था।
गत 13 फरवरी '2009 को सुबह 11.30 बजे सहारा समय (कोलकाता) की वरिष्ठ पत्रकार सईदा सादिया अज़ीम , हिन्द-युग्म (दिल्ली से) श्री शैलेश भारतवासी और मैं खुद कोलकाता स्थित महाश्वेता देवी के घर उसने मिलने गये थे।
महाश्वेता जी ने अपना सारा जीवन ही मानो आदिवासियों के साथ गुजार दिया हो। जल, जंगल और जमीन की लड़ाई के संघर्ष में खर्च कर दिया हो। उन्होंने पश्चिम बंगाल की दो जनजातियों 'लोधास' और 'शबर' विशेष पर बहुत काम किया है। इन संघर्षों के दौरान पीड़ा के स्वर को महाश्वेता ने बहुत करीब से सुना और महसूस किया है।
Mahasewta Devi and Shambhu Choudharyपीड़ा के ये स्वर उनकी रचनाओं में साफ-साफ सुनाई पड़ते हैं। उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ' 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां' हैं। आपको पद्मविभूषण पुरस्कार (२००६), रैमन मैग्सेसे (1997), भारतीय ज्ञानपीठ(1996) सहित कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है। पिछले दशक में महाश्वेता देवी को कई साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। आपको मग्सेसे पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है जो एशिया महादीप में नोबेल पुरस्कार के समकक्ष माना जाता है।
फिर भी आप बोलती हैं कि आपने किसी पुरस्कार के लिये कार्य नहीं किया। बार-बार आदिवासी के प्रश्न पर विचलित होते इनको कई बार देखा गया। कहती हैं कि "हम लोग तब तक अपने आपको सभ्य नहीं कह सकतें,जब तक हम आदिवासियों के जीवन को नहीं बदल देते। आपने 'संथाल', 'लोधास', 'शबर' और मुंदास जैसे खास आदिवासी (आदिवासी जन जाति) लोगों के जीवन को बहुत गहराई से न सिर्फ अध्ययन ही किया इन पर बहुत कुछ अपनी कथाओं में समेटने का प्रयास भी किया है, आज भी आपको ऐसे समाचार विचलित कर देतें हैं जहाँ किसी आदिवास के ऊपर ज़ुल्म किया जाता है। आप सदैव से सामाजिक और राजनीतिक प्रासंगिक विषयों पर अपनी कलम से प्रहार करती रहीं हैं। आप एक जगह लिखती हैं- ‘‘एक लम्बे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी.....।’’ आपने अपना पूरा जीवन और साहित्य, आदिवासी और भारतीय जनजातीय समाज को समर्पित कर दिया है। इसलिए नौ कहानियों संग्रह में से आठ कहानियों के केन्द्र में आदिवासी जाति केन्द्रित है, जो आज भी समाज की मूख्यधारा से कटकर जी रहा है।
Mahasveta Deviलेखिका महाश्वेता देवी 14 जनवरी 2009 को 83 वें साल की हो गई, पर इनके चेहरे पर हमें कहीं कोई थकान देखने को नहीं मिला। बातें ऐसे करती हैं जैसे कोई परिवार का सदस्य ही हो हम। वर्ष 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान उनकी लेखनी ने लोगों को दहला दिया था। आज भी किसी आंदोलन के नाम आपको आगे देखा जा सकता है। जब मैंने यह प्रश्न किया कि-"आप तो बुद्धदेव बाबू (वर्तमान में बंगाल के मुख्यमंत्री) को तो बहुत मानती थी, फिर नंदीग्राम और सिंगूर के मुद्दे पर आपने उनका साथ नहीं दिया?" बोलने लगी- " मैं बहुत दिन राजनीतिक की हूँ। किसानों की जमीं को दखल करके उद्योग कैसे लगाया जा सकता है?" तुम्हीं सोचो... फिर थोड़ा रूक कर किसान भूमिहीन हो जायेगा तो खायेगा क्या?
तब तलक फोटोग्राफर भी आ गया था। उसे देखते ही एकदम से उस पर बरस पड़ी "एई...ई अमार छ्वी कोथाई?" फिर मुस्कराते हुए बोलीं- " तारा.. ताड़ी छ्वी तुलो ... ओनेक काज कोरते होवे...."( देवज्योति फोटोग्रफर को देखते ही उस पर नाराज हो गई.... ए लड़के ... मेरी फोटौ कहाँ है? ... फिर थोड़ा मुस्कारते हुए कहा.. जल्दी से फोटो ले लो मुझे बहुत काम करना है अभी) इससे पहले जब हिन्द-युग्म के श्री शैलेश भारतवासी उनसे बात करना शुरू ही किये थे तो बात को शुरू करने के लिये मैंने जैसे ही बंगला में उनका परिचय देना शुरू किया तो बोलने लगी- "तुमी हिन्दीते बोलो... मैं अच्छा से हिन्दी जानती हूँ।"
आपने साहित्य व सांस्कृतिक आंदोलन के साथ राजनीतिक आन्दोलनों में भी भाग लिया है। तसलीमा नसरीन को कोलकाता से हटाये जाने के मामले को लेकर वे पश्चिम बंगाल व केंद्र सरकार के रवैये से काफी आहत हैं। आप बोलती हैं कि " इधर देश में जहाँ मुस्लमान हैं वहाँ हमलोग मुस्लीम उम्मीदवार तो जिधर हिन्दू हैं उधर हिन्दू उम्मीदवार खड़े करते हैं इससे देश कैसे चलेगा। सोचो तब तो उनकी भाषा में ही हमें बात करना होगा। हमने उनके साथ जो पल गुजारा इसे आपके साथ बाँटने का यह प्रयासभर है। किसी राजनैतिक विचारधारा से हमें कोई सरोकार नहीं है, फिर भी कहीं कोई बात आपको राजनीति सी लगती हो तो उसे नजरांदाज कर देंगे। इस अवसर पर आपको मेरे द्वारा संपादित कोलकाता से प्रकाशित एक समाजिक पत्रिका "समाज विकास" के कुछ साहित्य विशेषांक भी भेंट किया जिसे आपने स्वीकार करते हुए कहा कि- "खूब भालो काज कोरछो तुमी" ( खूब अच्छा काम करते हो तुम) चेहरे पर तेजस्व की रोशनी इस तरह चमक रही थी जैसे साक्षात हमने माँ का दर्शन कर लिया हो।
परिचय:
आप न सिर्फ एक प्रख्यात लेखिका एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। महाश्वेता देवी का जन्म सोमवार 14 जनवरी १९२६ को ईस्ट बंगाल जो भारत विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान वर्तमान में (बांग्लादेश) के ढाका शहर में हुआ था। आपके पिता मनीष घटक एक कवि और एक उपन्यासकार थे, और आपकी माता धारीत्री देवी भी एक लेखकिका और एक सामाजिक कार्यकर्ता थी। आपकी स्कूली शिक्षा ढाका में हुई। भारत विभाजन के समय किशोरवस्था में ही आपका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया। बाद में आपने विश्वभारती विश्वविद्यालय,शांतीनिकेतन से बी.ए.(Hons)अंग्रेजी में किया, और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय में एम.ए. अंग्रेजी में किया। कोलकाता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त करने के बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में आपने अपना जीवन शुरू किया। तदुपरांत आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता के रूप में नौकरी भी की। तदपश्चात 1984 में लेखन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए आपने सेवानिवृत्त ले ली।
महाश्वेता जी ने कम उम्र में लेखन का शुरू किया और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान दिया। आपकी पहली उपन्यास, "नाती", 1957 में अपनी कृतियों में प्रकाशित किया गया था
‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है। जो 1956 में प्रकाशन में आया। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने कलकत्ता में बैठकर नहीं बल्कि सागर, जबलपुर, पूना, इंदौर, ललितपुर के जंगलों, झाँसी ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज अफसर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। आप बताती हैं कि "पहले मेरी मूल विधा कविता थी, अब कहानी और उपन्यास है।" उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ' 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां', माहेश्वर, ग्राम बांग्ला हैं। पिछले चालीस वर्षों में, आपकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के करीब (सभी बंगला भाषा में) प्रकाशित हो चुकी है।
लिंक के साथ है नीचे :
आपकी कुछ कृतियां हिन्दी में:(सभी बंग्ला से हिन्दी में रुपांतरण)
अक्लांत कौरव, अग्निगर्भ, अमृत संचय, आदिवासी कथा, ईंट के ऊपर ईंट, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, उम्रकैद, कृष्ण द्वादशी, ग्राम बांग्ला, घहराती घटाएँ, चोट्टि मुंडा और उसका तीर, जंगल के दावेदार, जकड़न, जली थी अग्निशिखा, झाँसी की रानी, टेरोडैक्टिल, दौलति, नटी, बनिया बहू, मर्डरर की माँ, मातृछवि, मास्टर साब, मीलू के लिए, रिपोर्टर, रिपोर्टर, श्री श्री गणेश महिमा, स्त्री पर्व, स्वाहा और हीरो-एक ब्लू प्रिंट आदि...

Contact Address: Smt. Mahasveta Devi, W-2C, 12/3 Phase- II, Golf Green, Kolakata - 700095 Phone: 033-24143033

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

हिन्दुस्तानी एकेडेमी का साहित्यकार सम्मान समारोह:

Dr.Kavita Vachaknavee


इलाहाबाद, 6 फ़रवरी 2009 ।
"साहित्य से दिन-ब-दिन लोग विमुख होते जा रहे हैं। अध्यापक व छात्र, दोनों में लेखनी से लगाव कम हो रहा है। नए नए शोधकार्यों के लिए सहित्य जगत् में व्याप्त यह स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है।" उक्त विचार उत्तर प्रदेश के उच्च शिक्षा मन्त्री डॊ.राकेश धर त्रिपाठी ने हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा आयोजित सम्मान व लोकार्पण समारोह के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में सम्बोधित करते हुए व्यक्त किए। उत्तर प्रदेश भाषा विभाग द्वारा संचालित हिन्दी व उर्दू भाषा के संवर्धन हेतु सन् 1927 में स्थापित हिन्दुस्तानी एकेडेमी की श्रेष्ठ पुस्तकों के प्रकाशन की श्रृंखला में इस अवसर पर अन्य पुस्तकों के साथ एकेडेमी द्वारा प्रकाशित डॊ. कविता वाचक्नवी की शोधकृति "समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावली : निराला-काव्य" को लोकार्पित करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यह पुस्तक अत्यन्त चुनौतीपूर्ण विषय पर केन्द्रित तथा शोधकर्ताओं के लिए मार्गदर्शक है। इस अवसर पर एकेडेमी के सचिव डॉ. सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय द्वारा सम्पादित 'सूर्य विमर्श' तथा एकेडेमी द्वारा वर्ष १९३३ ई. में प्रकाशित की गयी पुस्तक 'भारतीय चित्रकला' का द्वितीय संस्करण (पुनर्मुद्रण) भी लोकार्पित किया गया। किन्तु जिस पुस्तक ने एकेडेमी के प्रकाशन इतिहास में एक मील का पत्थर बनकर सबको अचम्भित कर दिया है वह है डॉ. कविता वाचक्नवी द्वारा एक शोध-प्रबन्ध के रूप में अत्यन्त परिश्रम से तैयार की गयी कृति "समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावली : निराला-काव्य"। इस सामग्री को पुस्तक का आकार देने के सम्बन्ध में एक माह पूर्व तक किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। स्वयं लेखिका के मन में भी ऐसा विचार नहीं आया था। लेकिन एकेडेमी के सचिव ने संयोगवश इस प्रकार की दुर्लभ और अद्‌भुत सामग्री देखते ही इसके पुस्तक के रूप में प्रकाशन का प्रस्ताव रखा जिसे सकुचाते हुए ही सही इस विदुषी लेखिका द्वारा स्वीकार करना पड़ा। कदाचित्‌ संकोच इसलिए था कि दोनो का एक-दूसरे से परिचय मुश्किल से दस-पन्द्रह मिनट पहले ही हुआ था। यह नितान्त औपचारिक मुलाकात अचानक एक मिशन में बदल गयी और देखते ही देखते मात्र पन्द्रह दिनों के भीतर न सिर्फ़ बेहद आकर्षक रूप-रंग में पुस्तक का मुद्रण करा लिया गया अपितु एक गरिमापूर्ण समारोह में इसका लोकार्पण भी कर दिया गया। रंग शब्दों को लेकर हिन्दी में अपनी तरह का यह पहला शोधकार्य है। इसके साथ ही साथ महाप्राण निराला के कालजयी काव्य का रंगशब्दों के आलोक में किया गया समाज-भाषावैज्ञानिक अध्ययन भावी शोधार्थियों के लिए एक नया क्षितिज खोलता है। निश्चय ही यह पुस्तक हिदी साहित्य के अध्येताओं के लिए नयी विचारभूमि उपलब्ध कराएगी।
Dr.Kavita Vachaknavee's Book
इस समारोह में एकेडेमी की ओर से हिन्दी, संस्कृत एवम उर्दू के दस लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों प्रो. चण्डिकाप्रसाद शुक्ल, डॉ. मोहन अवस्थी, प्रो. मृदुला त्रिपाठी, डॉ. विभुराम मिश्र, डॉ. किशोरी लाल, डॉ. कविता वाचक्नवी, डॉ. दूधनाथ सिंह, डॉ. राजलक्ष्मी वर्मा, डॉ. अली अहमद फ़ातमी और श्री एम.ए.कदीर को सम्मानित भी किया गया। यद्यपि इनमें से डॉ. दूधनाथ सिंह, डॉ. राजलक्ष्मी वर्मा, डॉ. अली अहमद फ़ातमी और श्री एम.ए.कदीर अलग-अलग व्यक्तिगत, पारिवारिक या स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से उपस्थित नहीं हो सके, तथापि सभागार में उपस्थित विशाल विद्वत्‌ समाज के बीच छः विद्वानों को उनके उत्कृष्ट कार्य के लिए शाल, नारियल, व सरस्वती की अष्टधातु की प्रतिमा भेंट कर सम्मानित किया गया। प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किए गए। एकेडेमी द्वारा अन्य अनुपस्थित विद्वानों के निवास स्थान पर जाकर उन्हें सम्मान-भेंट व प्रशस्ति-पत्र प्रदान कर दिया जाएगा।
सम्मान स्वीकार करते हुए अपने आभार प्रदर्शन में डॊ. कविता वाचक्नवी ने कहा कि इस लिप्सापूर्ण समय में कृति की गुणवता के आधार पर प्रकाशन का निर्णय लेना और रचनाकार को सम्मानित करना हिन्दुस्तानी एकेडेमी की समृद्ध परम्परा का प्रमाण है, जिसके लिए संस्था व गुणग्राही पदाधिकारी निश्चय ही साधुवाद के पात्र हैं।
आरम्भ में हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सचिव डॊ. एस. के. पाण्डेय ने अतिथियों का स्वागत किया। उल्लेखनीय है कि वे स्वयं संस्कृत के विद्वान हैं , उनके कार्यकाल में एकेडेमी का सारस्वत कायाकल्प हो गया है। इस अवसर पर समारोह के अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त ने सरस्वती दीप प्रज्वलित किया और सौदामिनी संस्कृत विद्यालय के छात्रों ने वैदिक मंगलाचरण प्रस्तुत किया। एकेडेमी के ही अधिकारी सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने खचाखच भरे सभागार में उपस्थित गण्यमान्य साहित्यप्रेमियों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया। *

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

यह भी एक युद्ध है - महाश्वेता देवी

Mahasweta Devi


इन दिनों मैं बेतरह उद्विग्न हूँ। इसकी वजह बांग्ला लेखिका तसलीमा नसरीन का दु:ख है। वे वैध वीसा लेकर भारत में रह रही हैं फिर भी उन्हें दिल्ली की एक अज्ञात जगह पर दो महीने से नजरबंद कर रखा गया है। तसलीमा के दु:सह्य एकाकीपन, अनिश्चयता और मृत्युमय निस्तब्धता से उनकी मुक्ति की माँग को लेकर हम यथासाध्य आंदोलन कर रहे हैं और इसी तरह की मुहिम की देशव्यापी जरूरत भी शिद्दत से महसूस करते हैं।
मैं पूछना चाहती हूँ कि तसलीमा को आखिर बंदी जीवन-यापन क्यों करना होगा? उन्हें स्वाभाविक जीवन-यापन क्यों नहीं करने दिया जा रहा है? इन सवालों ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों को भी विचलित किया है। तसलीमा को कोलकाता लौटाने की माँग को लेकर इसी महीने 14 जनवरी को बंगाल के मुस्लिम बुद्धिजीवी सामने आए। डॉ. गियासुद्दीन और डॉ. शेख मुजफ्फर हुसैन सरीखे विशिष्ट बुद्धिजीवियों ने कोलकाता में एक सभा कर और उसमें सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर कहा कि तसलीमा को तत्काल कोलकाता लौटाया जाए और उन्हें सुरक्षा उपलब्ध कराई जाए, पर सामान्य जीवन भी जीने दिया जाए। उस सभा में मैं भी उपस्थिति थी और यह बात मुझे अत्यंत प्रीतिकर लगी कि मुसलमान भी अब तसलीमा के पक्ष में आवाज उठा रहे हैं। उस सभा से यह भी स्पष्ट हो गया कि यह धारणा भ्रांत है कि सभी मुसलमान तसलीमा के विरुद्ध हैं। बंगाल के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने 'धर्म मुक्त मानव मंच' नामक संस्था बनाकर इस मामले पर जल्द ही रैली और कनवेंशन करने का भी एलान किया है।
Taslima
रही, दूसरे बुद्धिजीवियों की बात, तो अपर्णा सेन, शंख घोष, सुकुमारी भट्टाचार्य, शुभ प्रसन्न, कौशिक सेन, जय गोस्वामी, विभाष चक्रवर्ती, साँवली मित्र समेत सैकड़ों बुद्धिजीवियों ने तसलीमा को कोलकाता लौटाने की माँग को लेकर पिछले महीने 22 दिसम्‍बर को कोलकाता में एक विशाल रैली की थी। उसके बाद दो जनवरी को इसी माँग को लेकर बुद्धिजीवियों ने कोलकाता के महाबोधि सोसाइटी सभागार में विशाल सभा की थी। उस दोनों में भी मैं शरीक हुई थी।
बंगाल के बुद्धिजीवी तसलीमा के लिए बहुत जल्द फिर सड़क पर उतरेंगे। मैं भी इस उम्र में भी पदयात्रा करूँगी और जो कुछ भी संभव है, करूँगी। मेरे लिए यह भी एक युद्ध है। एक स्त्री और एक लेखिका नजरबंद रहे, तो हम चैन की साँस आखिर कैसे ले सकते हैं? इसीलिए हम युद्धरत रहने का संकल्प लेते हैं और यही अपेक्षा भारत की सभी भाषाओं के लेखकों से करते हैं। पिछले महीने दिल्ली में भी भारतीय भाषाओं के लेखकों ने एक सभा की थी। मुझे बताया गया कि उस सभा में भी सर्वाधिक मुखर शमसुल इस्लाम थे। वे तसलीमा के पक्ष में ठोस आंदोलनात्मक कार्यक्रम के हिमायती थे। उस सभा में मलयालम के लेखक ए.अच्युतन, हिन्दी के राजेंद्र यादव, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, पंकज बिष्ट, अरुण कमल, रामशरण जोशी, संजीव, सुरेश सलिल, अनिल चमड़िया समेत कई लेखक जुटे थे। जिस दिन दिल्ली में यह सभा हुई थी, उसी दिन कुलदीप नैयर, खुशवंत सिंह, अरुंधती राय और एमए बेबी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिख कर तसलीमा को कोलकाता लौटाने की माँग की थी। हिन्दी लेखकों की तरफ से भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यह माँग की गई है। तसलीमा के लिए आवाज केरल से भी उठ रही है और उत्तर प्रदेश से भी।
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने राय की 27 प्रतिशत मुस्लिम आबादी को खुश करने के लिए तसलीमा को बंगाल से निर्वासित किया। मई में बंगाल में पंचायत चुनाव है और उस चुनाव में जीतने के लिए मुस्लिम वोटों की उन्हें दरकार है। केंद्र सरकार की तरफ से यह मामला देख रहे प्रणव मुखर्जी अपनी कुर्सी बचाने के लिए बुद्धदेव के खिलाफ जाहिर है, कोई काम नहीं करेंगे। मुझे पता है, प्रणव मुखर्जी ने तसलीमा को ‘द्विखंडित’ से कतिपय पृष्ठ वापस लेने के लिए बाध्य किया। तसलीमा ने वे पृष्ठ सिर्फ इसलिए वापस लिए, क्योंकि वह कोलकाता लौटना चाहती हैं, लेकिन प्रणव मुखर्जी और प्रियरंजन दासमुंशी इतने क्रूर और बर्बर हैं कि अब तसलीमा को कोलकाता लौटाने की बजाय, उनसे सार्वजनिक तौर पर मुसलमानों से माफी माँगने को कह रहे हैं। अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के मुस्लिम वोटों के लिए वे इतना गिर सकते हैं, यह भी देश ने देख लिया। बुद्धदेव का ही नहीं, प्रणव और दासमुंशी का भी धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा उतर गया है। प्रणव मुखर्जी और दासमुंशी ने जो जघन्‍य सांस्‍कृतिक अपराध किया है, उसका जवाब उन्‍हें तसलीमा के पाठक और साहित्य के करोड़ों पाठक देंगे। हिन्‍दुस्‍तान से साभार

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

भारत में जो किसान सोना पैदा कर रहे हैं वे तो भूखों मर रहें हैं


Shambhu Choudharyभारत के अर्थशास्त्री जब तक वातानुकूलित चेम्बर में बन्द होकर विदेशी ज्ञान के बल पर भारत के भाग्य का फैसला करते रहेंगे तब तलक भारत के किसानों का कभी भला नहीं हो सकता। भारत में जो किसान सोना पैदा कर रहे हैं वे तो भूखों मर रहें हैं और जो लोग इसका व्यापार कर रहें हैं वे देश के सबसे बड़े धनवान होते जा रहें हैं। इसकी मूल समस्या है हमारे अन्दर का ज्ञान जो गलत दिशा से अर्जित की हुई है।
पूरा लेख इस लिंक को चटका कर देंखे।

महाश्वेता देवी से एक मुलाकात

Shambhu Choudhary<br />With Mahasewta Devi
चित्र में महाश्वेता जी, शम्भु चौधरी के साथ एक दुर्लभ मुद्रा में


कोलकाता, 13 फरवरी'2009: आज दिन के लगभग 11.30 बजे सहारा समय (कोलकाता) की वरिष्ठ पत्रकार सईदा सादिया अज़ीम , हिन्द-युग्म (दिल्ली से) श्री शैलेश भारतवासी और मैं खुद कोलकाता स्थित महाश्वेता देवी के घर उसने मिलने गये। उस समय की ली गई एक तस्वीर जिसमें महाश्वेता जी एक दुर्लभ मुद्रा में बात करती हुई। जिसे हम यहाँ अपने पाठकों के लिये जारी कर रहें हैं, इस अवसर पर महाश्वेता जी से लिये गये साक्षात्कार को जल्द ही "हिन्द-युग्म" और "ई-हिन्दी साहित्य सभा" पर जारी किया जायेगा। - शम्भु चौधरी

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

बंगाल के दूत: कृपाशंकर चौबे

Kripa Shanker Chobey

कोलकाता : बांग्ला के सुपरिचित कथाकार सुनील गंगोपाध्याय का कहना है कि हिंदी के लेखक कृपाशंकर चौबे बंगाल की साहित्य, कला व संस्कृति के बारे में कई बंगालियों से ज्यादा जानते हैं। 20 वर्षो से शोध में जुटे डॉ चौबे ने 10 किताबें लिखी हैं। वे हिंदी प्रदेशों में बंगाल के दूत हैं। पुस्तक मेले में उन्होंने अपने लिखित बयान में ये बातें कहीं। कोलकाता पुस्तक मेले में आनंद प्रकाशन के स्टाल पर डॉ चौबे की दो नयी पुस्तकों-समाज, संस्कृति और समय तथा रंग, स्वर और शब्द के लोकार्पण समारोह में श्री गंगोपाध्याय की उक्तियों को पढ़ा गया। उन्होंने कहा कि बंगाल में हिंदी में लिखनेवाले डॉ चौबे हिंदी के मौलिक लेखक हैं, इसलिए दोनों ही भाषाएं उनकी ऋणी हैं। रंग, स्वर और शब्द का लोकार्पण साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि अरुण कमल ने किया, जबकि समाज, संस्कृति और समय का लोकार्पण इंद्रनाथ चौधरी ने किया। इस मौके पर श्री कमल व श्री चौधरी ने कहा कि दोनों ही किताबें समकालीन बांग्ला साहित्य, कला व संस्कृति का मुकम्मल परिचय कराती हैं। आलोचक श्रीनिवास शर्मा ने कहा कि डॉ चौबे ने हिंदी व बांग्ला के बीच सेतु बनाने का काम किया है। समारोह का संचालन वरिष्ठ पत्रकार विश्वंभर नेवर ने किया। आनंद प्रकाशन के दिनेश त्रिवेदी ने धन्यवाद ज्ञापन किया।

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

जीवन ही ऊर्जा है - शम्भु चौधरी


Shambhu Choudharyआप और हम सभी साधारण प्राणी मात्र हैं। हमारे जीवन में हर जगह महापुरुषों की उपस्थिति संभव नहीं हो सकती। यह कार्य खुद ही हमें करना होगा, जिसे हम इस "जीवन उर्जा" के स्त्रोत से पूरा करने का प्रयास करेंगे।
हमने देखा है कि कई बार परिवार में कोई घटना घटती है तो हम उस घटना की सूचना मात्र से ही रो पड़ते हैं या किसी खुशी के समाचार से मिठाईयाँ बाँटने लग जाते हैं। हम किसी भी झण या तो खुद को कमजोर अनुभव करने लगते हैं या दौड़ने लगते हैं। किसी इच्छा पूर्ति से जब हम परिवार में खुशियाँ बाँटते हैं तो आशानुकूल न होने पर गम में पूरे वातावरण को परिवर्तित कर देते हैं।
परन्तु श्री अर्जुन के समक्ष ऐसी कोई घटना अकस्मात नहीं घटती है, फिर भी श्री अर्जुन अपने आपको शिथिल क्यों समझने लगे थे। -
पूरा लेख इस लिंक को चटका कर देंखे।

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

साहित्य शिल्पी: प्ररेणा उत्सव


Rajiv Ranjan Prasadसाहित्य शिल्पी ने अंतरजाल पर अपनी सशक्त दस्तक दी है। यह भी सत्य है कि कंप्यूटर के की-बोर्ड की पहुँच भले ही विश्वव्यापी हो, या कि देश के पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण में हो गयी हो किंतु बहुत से अनदेखे कोने हैं, जहाँ इस माध्यम का आलोक नहीं पहुँचता। यह आवश्यकता महसूस की गयी कि साहित्य शिल्पी को सभागारों, सडकों और गलियों तक भी पहुचना होगा। प्रेरणा उत्सव इस दिशा में पहला किंतु सशक्त कदम था।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण करने लिये साहित्य शिल्पी ने 25/01/2009 को गाजियाबाद स्थित भारती विद्या सदन स्कूल में लोक शक्ति अभियान के साथ मिल कर प्रेरणा दिवस मनाया। सुभाष चंद्र बोस एसे व्यक्तित्व थे जिनका नाम ही प्रेरणा से भर देता है। साहित्य शिल्पी के लिये भी हिन्दी और साहित्य के लिये जारी अपने आन्दोलन को एसी ही प्रेरणा की आवश्यकता है। कार्यक्रम का शुभारंभ अपने नियत समय पर, प्रात: लगभग साढ़े दस बजे प्रसिद्ध विचारक तथा साहित्यकार बी.एल.गौड के आगमन के साथ ही हुआ। मंच पर प्रसिद्ध शायर मासूम गाजियाबादी तथा सुभाष के चिंतन पर कार्य करने वाले सत्यप्रकाश आर्य भी उपस्थित थे। मंच पर साहित्य शिल्पी का प्रतिनिधित्व चंडीगढ से आये शिल्पी श्रीकांत मिश्र ‘कांत’ ने किया।
नेताजी सुभाष की तस्वीर पर पुष्पांजलि के साथ कार्यक्रम का आरंभ किया गया। तत्पश्चात लोक शक्ति अभियान के मुकेश शर्मा ने आमंत्रित अतिथियों का अभिवादन किया एवं लोक शक्ति अभियान से आमंत्रितों को परिचित कराया। नेताजी सुभाष के व्यक्तित्व पर बोलते हुए तथा विचारगोष्ठी का संचालन करते हुए योगेश समदर्शी ने युवा शक्ति का आह्वान किया कि वे अपनी दिशा सकारात्मक रख देश को नयी सुबह दे सकते हैं। काव्य गोष्ठी का संचालन श्री राजीव रंजन प्रसाद ने किया।


Masum Gajiyavadiगाजियाबाद के शायर मासूम गाजियाबादी ने अपनी ओजस्वी गज़ल से काव्य गोष्ठी का आगाज़ किया। अमर शहीदों को याद करते हुए उन्होंने कहा :-
भारत की नारी तेरे सत को प्रणाम करूँ
दुखों की नदी में भी तू नाव-खेवा हो गई
माँग का सिंदूर जब सीमा पे शहीद हुआ
तब जा के कहा लो मैं आज बेवा हो गई


पाकिस्तान और सीमापार आतंकवाद पर निशाना साधते हुए मासूम गाजियाबादी आगे कहते हैं:
मियाँ इतनी भी लम्बी दुश्मनी अच्छी नहीं होती
कि कुछ दिन बाद काँटा भी करकना छोड़ देता है
Subhash Nirawसुभाष नीरव ने अपनी कविता सुना कर श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर दिया। उन्होने कहा -
राहो ने कब कहा हमें मत रोंदों
उन्होंने तो चूमे हमारे कदम और खुसामदीद कहा
ये हमीं थे ना शुकरे कि पैरों तले रोंदते रहे
और पहुंच कर अपनी मंजिल तक
उन्हें भूलते भी रहे....


मास फॉर अवेयरनेस मूवमेंट चलाने वाले नीरज गुप्ता ने सुभाष के व्यक्तित्व पर बोलते हुए राष्ट्रीय चेतना के लिये छोटे छोटे प्रयासों की वकालत की। उन्होने अपने कार्टूनो को उस देश भक्ति का हिस्सा बताया जो लोकतंत्र को बचाने व उसे दिशा देने में आवश्यक है।
उनके वक्तव्य के बाद कार्यक्रम को कुछ देर का विराम दिया गया और उपस्थित अतिथि कार्टून प्रदर्शिनी के अवलोकन में लग गये। कार्यक्रम का पुन: आरंभ किया गया और श्रीकांत मिश्र कांत सुभाष की आज आवश्यकता पर अपना वक्तव्य दिया।
Yogesh Samdarshiयोगेश समदर्शी ने इसके पश्चात बहुत तरन्नुम में अपनी दो कवियायें सुनायीं। एक ओजस्वी कविता में वे सवाल करते हैं:-
तूफानों से जिस किश्ती को लाकर सौंपा हाथ तुम्हारे
आदर्शों की, बलिदानों की बड़ी बेल थी साथ तुम्हारे
नया नया संसार बसा था, नई-नई सब अभिलाषाएं थीं
मातृभूमि और देश-प्रेम की सब के मुख पर भाषाएं थीं
फिर ये विघटन की क्रियाएं मेरे देश में क्यों घुस आईं
आपके रहते कहो महोदय, ये विकृतियाँ कहाँ से आईं


Avinash Vachspatiअविनाश वाचस्पति ने कार्यक्रम में विविधता लाते हुए व्यंग्य पाठ किया। उन्होंने व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए कहा कि “फुटपाथों पर पैदल चलने वालों की जगह विक्रेता कब्जार जमाए बैठे हैं और पैदलों को ही अपना सामान बेच रहे हैं। तो इतनी बेहतरीन मनोरम झांकियों के बीच जरूरत भी नहीं है कि परेड में 18 झांकियां भी निकाली जातीं, इन्हेंज बंद करना ही बेहतर है। राजधानी में झांकियों की कमी नहीं है। सूचना के अधिकार के तहत मात्र दस रुपये खर्च करके आप लिखित में संपूर्ण देश में झांकने की सुविधा का भरपूर लुत्फं उठा तो रहे हैं। देश को आमदनी भी हो रही है, जनता झांक भी रही है। सब कुछ आंक भी रही है। देश में झांकने के लिए छेद मौजूद हैं इसलिए झांकियों की जरूरत नहीं है।
कार्यक्रम में स्थानीय प्रतिभागिता भी रही। गाजियाबाद से उपस्थित कवयित्री सरोज त्यागी ने वर्तमान राजनीति पर कटाक्ष करते हुए कहा :-
बहन मिली, भैया मिले, मिला सकल परिवार
लाया मौसम वोट का, रिश्तों की बौछार
चुन-चुन संसद में गये, हम पर करने राज
सत्तर प्रतिशत माफ़िया, तीस कबूतरबाज
अल्लाह के संग कौन है, कौन राम के साथ
बहती गंगा में धुले, इनके उनके हाथ


Ajay Yadavकाव्यपाठ में सुनीता चोटिया ‘शानू’, शोभा महेन्द्रू, राजीव तनेजा,अजय यादव, राजीव रंजन प्रसाद, मोहिन्दर कुमार, पवन कुमार ‘चंदन’ एवं बागी चाचा ने भी अपनी कवितायें सुनायी।
Sunita Chotiaसुनीता शानू ने अपनी कविता में कहा:-
मक्की के आटे में गूंथा विश्वास
वासंती रंगत से दमक उठे रग
धरती के बेटों के आन बान भूप सी
धरती बना आई है नवरंगी रूप सी


Pawan Kumar Chandanपवन चंदन ने शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए प्रस्तुत किया-
चाहता हूं तुझको तेरे नाम से पुकार लूं
जी करता है कि तेरी आरती उतार लूं


Shobha Mahendroशोभा महेंद्रू ने नेताजी सुभाष पर लिखी पंक्तियाँ प्रस्तुत कीं:-
२३ जनवरी का दिन एक अविष्मर्णीय दिन बन जाता है
और एक गौरवशाली व्यक्तित्त्व को हम लोगों के सामने ले आता है
एक मरण मांगता युवा आकाश से झाकता है
और पश्चिम की धुन पर नाचते युवको को राह दिखाता है


Rajiv Tanejaराजीव तनेजा ने कहा -
क्या लिखूं कैसे लिखूं लिखना मुझे आता नहीं ...
टीवी की झ्क झक मोबाईल की एसएमएस मुझे भाता नही ....
Bagi Chachaबागी चाचा ने सुनाया -
आज भी जनता शहीद हो रही है और वह डाक्टर के हाथो से शहीद हो रही थी
दीनू की किस्मत फूटनी थी सो फूट गई..


कार्यक्रम के मध्य में मोहिन्दर कुमार ने अपनी चर्चित कविता "गगन चूमने की मंशा में..." सुनायी साथ ही, साहित्य शिल्पी और उसकी गतिविधियों तथा उपलब्धियों से उपस्थित जनमानस का परिचय करवाया।
विचार गोष्ठी में सत्यप्रकाश आर्य ने सुभाष चंद्र बोस और उनके व्यक्तित्व पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने सुभाष के जीवित होने जैसी भ्रांतियों पर भी अपने विचार रखे। कार्यक्रम में स्थानीय विधायक सुनील शर्मा की भी उपस्थिति थी। सुनील जी ने समाज के अलग अलग वर्ग को भी देश सेवा के लिये आगे आने की अपील की। कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष बी.एल. गौड ने अपने विचार प्रस्तुत लिये। उन्होंने कार्य करने की महत्ता पर बल दिया और विरोधाभासों से बचने की सलाह दी।
उन्होने बदलते हुए समाज में सकारात्मक बदलावों की वकालत करते हुए रूढीवादिता को गलत बताया। अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ भी प्रस्तुत की:


ऐ पावन मातृभूमि मेरी
मैं ज़िंदा माटी में तेरी
मैं जन्म-जन्म का विद्रोही
बागी, विप्लवी सुभाष बोस
अतिवादी सपनों में भटका
आज़ाद हिंद का विजय-घोष
मैं काल-निशाओं में भटका
भटका आँधी-तूफानों में
सागर-तल सभी छान डाले
भटका घाटी मैदानों में
मेरी आज़ाद हिंद सेना
भारत तेरी गौरव-गाथा
इसकी बलिदान-कथाओं से
भारत तेरा ऊँचा माथा


कार्यक्रम में साहित्यकारों विद्वानों और स्थानीय जन की बडी उपस्थ्ति थी।
साहित्य शिल्पी ने कार्यक्रम के अंत में यह संकल्प दोहराया कि साहित्य तथा हिन्दी को अभियान की तरह प्रसारित करने के लिये इस प्रकार के आयोजन जीयमित होते रहेंगे।
कार्यक्रम का समापन "जय हिन्द" के जयघोष के साथ हुआ।

सोमवार, 26 जनवरी 2009

‘‘अभिलाषा‘‘ काव्य-संकलन



कृष्ण कुमार यादव के प्रथम काव्य-संकलन ‘‘अभिलाषा‘‘ की प्रस्तुति देखकर प्रथमदृष्ट्या कहा जा सकता है कि उनके मस्तिष्क-पिण्ड में प्रशासनिक व्यवस्था के साथ-साथ फूलों की खुशबू समान काव्य-सर्जक का गुण भी विद्यमान है। इसी गुण के कारण अभिधा शैली में नानाविध 88 छन्दमुक्त कविताओं का यह अनुपम संकलन सामने आया है। इस संकलन में प्रस्तुत कवितायें उनके चिन्तन के विविध बहुरंगी रूप हैं। ‘‘अभिलाषा‘‘ रूपी काव्य का यह गुलदस्ता निरूपित कर रहा है कि कृष्ण कुमार यादव का व्यक्तित्व कितने अच्छे गुणों और मौलिक विचारों की तिजोरी है। मेरा प्रयत्न यही है कि ‘‘अभिलाषा‘‘ काव्य-संकलन जिन बारह शीर्षकों की परिधि में आवृत्त किया गया है, उसका विवेचन हमें क्या दिशा और बोध देता है, उस छोर की बात कह सकूं।
‘माँ‘ की ममता, कृपा, सुरक्षा, बच्चों के प्रति दुलार, कर्तव्य इत्यादि भावों को बच्चे की छोटी उम्र से लेकर बड़ा होने तक शादी होने तक के विभिन्न पड़ावों को कवि ने बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। कवि के समर्पण लेकिन मातृत्व भाव को देखिए- बेटे की शादी होनें के बाद बेटे का हाथ बहू के हाथ में देते हुए वह कहती है- उसे संभालना, बड़े दुलार से पाला है। माँ के आँसू, माँ का पत्र, परी इत्यादि रचनाओं से कवि की संवेदनशीलता का भाव, पाठक-मन के मर्म को छू जाता है। यह प्रस्तुति सराहनीय है, प्रशंसनीय है। काश! निर्दयी लोगों के मन माँ के लिए ऐसे ही भावुक बन जाएं, तो धरती को स्वर्ग बनने में देरी नहीं लगेगी।
तितलियाँ जितनी नाजुक व कोमल होती हैं, ऐसा ही ‘प्रेम‘ होता है- अपनी ‘प्रेयसी‘ के लिए। ‘तुम्हारी खामोशी‘ में ‘तुम्हें जीता हूँ‘। जब कभी भी ‘बेवफा‘ हुआ हूँ, मुझे तुम्हारी ‘तलाश‘ है- ढूँढ़ता हूँ हर कहीं/ इस छोर से उस छोर तक/ उस छोर से इस छोर तक। तब ‘तुम और चाँद‘ में फर्क भूल जाता हूँ। क्या ‘तुम‘ ऐसी ही नहीं हो? प्रेम एक भावना है/ समर्पण है, त्याग है/ प्रेम एक संयोग है/ तो वियोग भी है/.... पतंगा बार-बार जलता है/ दीये के पास जाकर, आखिर क्यूं ? जीवन-संगिनी क्या चीज है, इस जिम्मेदारी को और उसके लिए पवित्र प्रेम को समझना एवं तद्नुरूप कर्तव्यबोध को अवगत कराया है- कृष्ण कुमार यादव ने।
‘ईश्वर‘ को लेकर कृष्ण कुमार जी का नजरिया बिल्कुल साफ है। ऐसी सोच और विवेक को वे आमजन-मानस में देखना चाहते हैं, यथा- मैं किसी मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे में नहीं/मैं किसी कर्मकाण्ड और चढ़ावे का भूखा नहीं/ नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा ये सब कुछ/मैं सत्य में हूँ, सौंदर्य में हूँ, कर्तव्य में हूँ। इसी प्रकार ‘नारी‘ के आत्मबल को पहचानते हुए उसे अबला की संज्ञा देना तथा उस पर होने वाले जुल्मोसितम व उत्पीड़न से आज के पुरूष समाज को चेताने का प्रयास किया है और अपेक्षा की है कि पुरूष, नारी को अपने बराबर ही समझे।
‘बचपन‘ खण्ड के अन्तर्गत निहित कविताएं बहुत अच्छा संदेश देती हैं। बचपन में मन-मस्तिष्क पर जमे संस्कार कवि-मन को कचोटते हैं। वर्तमान में एक दूसरे के प्रति दिखाई देने वाली नफरत, दूरियाँ, घृणा, बैर, विद्रूपता को वह सहन नहीं कर पाता है और अपेक्षा करता है कि - अरे! आज लड़ाई हो गई/शाम को दोनों गले मिल रहे हैं/एक दूसरे को चूम रहे हैं/.....दीवाली है, ईद है/ अपनी मंडली के साथ/मिठाइयांँ खाए जा रहा है/क्या फर्क पड़ता है/ कौन हिन्दू कौन मुसलमां।
‘एकाकीपन‘ शीर्षक में लिखी सभी रचनाओं ने जिस मनोदर्शन और अन्तद्र्वन्द्व को उकेरा है, मुझे तो ऐसा लगता है कि ‘खिड़कियाँ‘ कविता की खिड़की से प्रवेश करती धूप-रश्मियाँ ही ‘अपने लोग‘ हैं। रश्मिरूप ‘अपने लोग‘ ही आपके मन से बातें कर रहे होते हैं। न जाने कितनी अच्छी और न जाने कितनी देर तक। कभी ‘मानव जीवन‘ तो कभी ‘अकेलेपन के संघर्ष‘ और ‘अकेलापन‘ की। अन्र्तमन को रश्मियों के रूप में इतना अच्छा मीत मिल गया हो और उसके साथ हम घंटों बतियाते हुए ‘‘अभिलाषा‘‘ रूपी काव्य-संग्रह जन्मते हैं, तो कवि किसी भी हाल में अकेला नहीं होता है। हाँ, मन जब सौ पर्दों में कैद हो जाता है, दरो-दीवारों में बंद महसूस करता है, तब वह ‘वातायन‘ की अपेक्षा करता है।
‘दतर‘ का जीवन, मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन को काफी प्रभावित करता है। इसका कारण एक अपरिपक्व उम्र में नौकरी में लगना है। उस वक्त का उसका कर्तव्य बोध, अपने संस्था के लिए सेवाभाव, समर्पण, त्याग, उद्देश्य, सिद्धान्त, सपने आदि एक-एक करके दबते जाते हैं, जब कार्यालय के अन्य भ्रष्ट कर्मचारी उस पर गलत तरीके अपनाने का दबाव डालते हैं और वह भी इनके समान गलत रास्ते अपना लेता है। इन मनोभावों को कवि ने ‘फाइलें‘ निपटाने में ‘सुविधा शुल्क‘ जैसी प्रवृत्ति और तद्नुसार एक ‘युवा अधिकारी‘ के मनोभावों में होने वाले बदलाव को बड़े अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है- जिन्दगी में समझौतावादी बनो/यहांँ कोई नहीं देखता/ कि आपने क्या किया/ बस आपकी सी.आर. देखी जाती है/उसे ही ठीक-ठाक रखने का प्रयास करो/ मुझे अपने अन्दर कुछ टूटता सा नजर आता है।
‘प्रकृति‘ शीर्षक के अन्तर्गत पचमढ़ी, बादल, नया जीवन और प्रकृति के नियम कविताएं कवि के प्रकृति प्रेम को उजागर करती हैं। ‘मूल्य एवं विसंगतियाँ‘ शीर्षक के माध्यम से कवि ने सिद्ध कर दिया है कि आज नैतिकता के साथ-साथ मानवता का कितना अधःपतन हो चुका है। ये सब कविताएं मन के मर्म को छूती हैं। हमारी चेतना और संवेदना को जागृत करती हैं। काश! समाज की दशा और दिशा बिगाड़ने वाले लोगों को इन कविताओं के अर्थों का संदेश मिले, ताकि वांछित परिवर्तन हो सकें।
वास्तविक रूप से ‘महात्मा गाँधी‘ को हाशिए पर डालने वाले ये इंसान ऐसे ‘खटमल‘ हैं, जो स्वयं की ‘मौत‘ के वक्त भी अपने मुख से ‘हे राम‘ कभी नहीं कहेंगे। ये ‘मानवता के दुश्मन‘ कभी सुधर सकते हैं क्या? अतीत का इतिहास और वर्तमान के सबूत यही गवाही देते हैं। रोज पढ़ा जाने वाला ‘सुबह का अखबार‘ भी यही निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। यदि समाज सुधारकों का बस चल सके तो मजबूर गरीब, बेरोजगार, पीड़ितो का ‘गुर्दा‘ न निकालकर ऐसे बेईमानों के गुर्दे निकालकर और उन्हें बेचकर इन बेसहारा लोगों की जानी चाहिए। ‘सम्बन्ध‘ और ‘जिन्दगी का दोराहा‘ कविताएं कवि मन की संवेदनशीलता के साथ-साथ चिंता को निरूपित करती हैं। क्योंकि जिंदगी को मोड़ देने के अहम् फैसले मृगमरीचिका साबित हुए तो क्या हश्र होगा इससे भी कवि चिंतित नजर आता है।
‘समकालीन‘ शीर्षक में प्रकाशित बारह कविताएं वर्तमान और दैनन्दिन जीवन में घटित होने वाले विषयों के संबंध में आगाह करती हैं। ये कवि की जागरूकता, कार्यालयीन, सामाजिक, प्रादेशिक और देशज घटनाओं को विशेष रूप से इंगित करती हंै। ‘क्लोन‘ कविता में कवि मानव को आगाह करता है- प्रकृति को ललकारना/तो आसान है/ लेकिन/इसके दुष्परिणामों को भुगतना/उतना ही कठिन। इसी प्रकार ‘कश्मीर‘ में व्याप्त आतंकवाद और हिंसा के अंजाम से बेपरवाह कवि कहता है- अतीत की परछाईयों से क्या डरना/चाहे भारत पाक में जाए/या पाक भारत में आए/ पर हम एक तो होंगे/ फिर यह तो अवाम तय करेगी/शासकों का भविष्य क्या है। ‘हिन्दी सप्ताह‘ कविता में सरकारी रवैये का एक नमूना देखिए - सरकारी बाबू ने कुल खर्च की फाइल/धीरे-धीरे अधिकारी तक बढ़ाई/अधिकारी महोदय ने ज्यों ही/ अंग्रेजी में अनुमोदन लिखा/बाबू ने धीमे से टोका/अधिकारी महोदय ने नजरें उठायीं/और झल्लाकर बोले/तुम्हें यह भी बताना पड़ेगा/कि हिन्दी सप्ताह बीत चुका है। इसी तरह अन्य कविताओं आटा की चक्की, मेरी कहानी, ई-पार्क, जज्बात, ट्रैफिक जाम इत्यादि में आज के मनुष्य और शासन तंत्र की अमानवीय व्यवस्था और स्वार्थपरक प्रवृत्ति का अच्छा खाका तैयार किया है।
‘विविध‘ के अन्तर्गत संकलित कविताओं के तेवर और प्रवाह कवि कृष्ण कुमार यादव के मौलिक विचारों की प्रस्तुति में नयापन का आभास देते हैं, यथा-कविता है वेदना की अभिव्यक्ति/कविता है एक विचार/कविता है प्रकृति की सहचरी/कविता है क्रान्ति की नजीर/कविता है शोषितों की आवाज/कविता है रसिकों का साज/कविता है सृष्टि और प्रलय का निर्माण/कविता है मोक्ष और निर्वाण। इसी तरह मजदूर, कुर्सियां, ये बादल इत्यादि कविताओं में कवि के सरलतम शब्दों के ताने-बाने ने समर्थ मनभावन भावों को चुनकर मन के मर्म को सर्वथा एक नये लेकिन भिन्न अन्दाज से छुआ है। ऐसे ही अनेक बहुरंगी विचार कृष्ण कुमार यादव जी की अन्य रचनाओं में यत्र-तत्र-सर्वत्र मौजूद हैं। इस मायने में कवि एक समर्थ रचनाकार है। निश्चित ही आने वाले वर्षों में लेखन की परिपक्वता का यह ग्राफ और भी गहराता जाएगा।
अन्त में यह कहना चाहूँगा कि कविवर कृष्ण कुमार जी के मन-मस्तिष्क में विद्यमान सुप्त-सरस्वती जो सुख-दुःख के फूलों के बीच प्रवहमान रहती है, काव्य लेखन हेतु उनको विशेष दर्द और वेदना से अवगत कराती है। उसमें निहित चेतना और संवदेना का प्रस्फुटीकरण ही देशज, सामाजिक, मानवीय गुणों से आपूर्ति करने हेतु ‘‘अभिलाषा‘‘ काव्य-संकलन के रूप में प्रकट हुआ है। निश्चित ही श्री यादव के विचारों, चिन्तन आदि की दशा और दिशा देश, समाज और मानव कल्याण की ओर उन्मुख है।



समालोच्य कृति- अभिलाषा (काव्य संग्रह)
कवि- कृष्ण कुमार यादव, भारतीय डाक सेवा, वरिष्ठ डाक अधीक्षक, कानपुर मण्डल/
kkyadav.y@ rediffmail.com
प्रकाशक- शैवाल प्रकाशन, दाऊदपुर, गोरखपुर
पृष्ठ- 144,
मूल्य- 160 रुपये
समीक्षक- विष्णु मंगरूलकर ‘तरल‘, अध्यक्ष-हिन्दी साहित्य समिति, मुलताई, 63, नेहरू वार्ड, अमरावती मार्ग,मुलताई, बैतूल (म0प्र0)

रविवार, 25 जनवरी 2009

समझौते की बात न हो तो अच्छा है


राष्ट्रीय महानगर कोलकाता महानगर सांध्य दैनिक की तरफ से गत २३ जनवरी को कोलकाता के माहेश्वरी भवन सभागार में "अपनी धरती अपना वतन" कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसकी शुरूआत श्री प्रकाश चण्डालिया के पुत्र चिं. चमन चण्डालिया ने माँ सरस्वती वन्दना से की।
कोलकाता. सांध्य दैनिक राष्ट्रीय महानगर की और से आयोजित कवि सम्मलेन एवं अपनी धरती-अपना वतन कार्यक्रम कई मायनों में यादगार बन गया। कोलकाता में हाल के वर्षों में यह ऐसा पहला सार्वजनिक कवि सम्मलेन था जिसमे भाग लेने वाले सभी कवि इसी महानगर के थे। महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया ने अपने संबोधन में कहा भी, कि यहाँ जब भी कोई सांस्कृतिक आयोजन होता है तो लोग कलाकार का नाम जानने को उत्सुक रहते हैं, लेकिन जब कभी भी कोलकाता में कोई कवि सम्मलेन होता है तो उसका शहर जानने को उत्सुक रहते हैं। इस सोच कि पृष्ठभूमि में शायद यह बात छिपी है कि कोलकाता में शायद अच्छे कवि हैं ही नही। पर राष्ट्रीय महानगर ने इस सोच से मुकाबिल होते हुए इस कवि सम्मलेन में केवल कोलकाता में प्रवास करने वाले कवियों को ही चुना, उन्होंने कहा कि खुशी इस बात कि है कि कोलकाता के कवियों को सुनने पाँच सौ से भी अधिक लोग उपस्थित हुए। वरिष्ठ कवि श्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन', श्री नन्दलाल 'रोशन', श्री जे. चतुर्वेदी 'चिराग', श्रीमती गुलाब बैद और उदीयमान कवि सुनील निगानिया ने अपनी प्रतिनिधि रचनाएँ सुना कर भरपूर तालियाँ बटोरीं, साथ ही, डाक्टर मुश्ताक अंजुम, श्री गजेन्द्र नाहटा, श्री आलोक चौधरी को भी मंच से रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया गया। सभी कवियों ने अपनी उम्दा रचनाएँ सुनायीं। देशभक्ति, आतंकवाद और राजनेताओं की करतूतों पर लिखी इन कवियों कि रचनाएँ सुनकर श्रोता भाव विभोर हो गए और बार बार करतल ध्वनि करते रहे। कवि सम्मलेन लगभग दो घंटे चला। कवि सुमनजी और रोशनजी ने जबरदस्त वाहवाही लूटी। मुश्ताक अंजुम कि ग़ज़ल भी काफ़ी सराही गई। गजेन्द्र नाहटा ने कम शब्दों में जानदार रचनाएँ सुनाई। गुलाब बैद कि रचना भी काफ़ी सशक्त रही। कार्यक्रम के दूसरे दौर में देश विख्यात कव्वाल जनाब सलीम नेहली ने भगवन राम कि वंदना के साथ साथ ये अपना वतन..अपना वतन.. अपना वतन है, हिंदुस्तान हमारा है जैसी उमड़ा देशभक्ति रचनाएँ सुनकर श्रोताओं को बांधे रखा। संध्या साढ़े चार बजे शुरू हुआ कार्यक्रम रात दस बजे तक चलता रहा और सुधि श्रोता भाव में डूबे रहे। कार्यक्रम का सञ्चालन राष्ट्रीय महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया ने किया, जबकि कवि सम्मलेन का सञ्चालन सुशिल ओझा ने किया। प्रारम्भ में सुश्री पूजा जोशी ने गणेश वंदना की और नन्हे बालक चमन चंडालिया ने माँ सरस्वती का श्लोक सुनाया। कार्यक्रम में अतिथि के रूप में वृद्धाश्रम अपना आशियाना का निर्माण कराने वाले वयोवृद्ध श्री चिरंजीलाल अग्रवाल, वनवासियों के कल्याण के बहुयामी प्रकल्प चलाने वाले श्री सजन कुमार बंसल, गौशालाएं चलाने वाले श्री बनवारीलाल सोती और प्रधान वक्ता सामाजिक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन के पैरोकार श्री कमल गाँधी के साथ साथ कोलकाता की पूर्व उप मेयर श्रीमती मीना पुरोहित, पार्षद सुनीता झंवर उपस्थित थीं। कार्यक्रम के प्राण पुरूष राष्ट्रीय महानगर के अनन्य हितैषी श्री विमल बेंगानी थे। उन्होंने अपने स्वागत संबोधन में कहा कि यह आयोजन देशप्रेम कि भावना का जन-जन में संचार सेवा के उदेश्य से किया गया है। कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रीय महानगर के पाठकों की और से राष्ट्रीय महानगर के संस्थापक श्री लक्ष्मीपत सिंह चंडालिया और श्रीमती भीकी देवी चंडालिया का भावभीना सम्मान किया गया। शहरवासियों के लिए इस कार्यक्रम को यादगार बनाने में सर्वश्री विद्यासागर मंत्री, विजय ओझा, राकेश चंडालिया, गोपाल चक्रबर्ती, विजय सिंह दुगर, गौतम दुगर, पंकज दुधोरिया, हरीश शर्मा, राजीव शर्मा, प्रदीप सिंघी, सरीखे हितैषियों का सक्रिय सहयोग रहा। बदाबजर के महेश्वरी भवन में आयोजित इस विशिष्ट समारोह में सभी क्षेत्र के लोग उपस्थित थे। इस अवसर पर राष्ट्रीय महानगर की सहयोगी संस्था अपना मंच कि काव्य गोष्ठियों के चयनित श्रेष्ठ कवि श्री योगेन्द्र शुक्ल सुमन, श्री नन्दलाल रोशन और सुश्री नेहा शर्मा का भावभीना सम्मान किया गया। सभी विशिष्ट जनों को माँ सरस्वती की नयनाभिराम प्रतिमा देकर सम्मानित किया गया। समारोह में उपस्थित विशिष्ट जनों में सर्वश्री जुगल किशोर जैथलिया, नेमीचंद दुगर, जतनलाल रामपुरिया, शार्दुल सिंह जैन, बनवारीलाल गनेरीवाल, रमेश सरावगी, सुभाष मुरारका, सरदार निर्मल सिंह, बंगला नाट्य जगत के श्री अ.पी. बंदोपाध्याय,राजस्थान ब्रह्मण संघ के अध्यक्ष राजेंद्र खंडेलवाल, हावडा शिक्षा सदन की प्रिंसिपल दुर्गा व्यास, भारतीय विद्या भवन की वरिष्ठ शिक्षिका डाक्टर रेखा वैश्य सेवासंसार के संपादक संजय हरलालका, आलोक नेवटिया, अरुण सोनी, अरुण मल्लावत, रामदेव काकडा, सुरेश बेंगानी, कन्हैयालाल बोथरा, नवरतन मॉल बैद, रावतपुरा सरकार भक्त मंडल के प्रतिनिधि सदस्य, रावतमल पिथिसरिया, शम्भू चौधरी, प्रमोद शाह, गोपाल कलवानी, प्रदीप धनुक, प्रदीप सिंघी, महेंद्र दुधोरिया, प्रकाश सुराना, नीता दुगड़, वीणा दुगड़, हीरालाल सुराना, पारस बेंगानी, बाबला बेंगानी, अर्चना रंग, डाक्टर उषा असोपा, सत्यनारायण असोपा, गोपी किसान केडिया, सुधा केडिया, शर्मीला शर्मा, बंसीधर शर्मा, जयकुमार रुशवा, रमेश शर्मा, सुनील सिंह, महेश शर्मा, गोर्धन निगानिया, आत्माराम तोडी, घनश्याम गोयल, बुलाकीदास मिमानी, अनिल खरवार, डी पांडे, राजेश सिन्हा उपस्थित थे ।


"अपनी धरती अपना वतन"
मंच पर आसीन कवि थे सर्वश्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन', नन्दलाल 'रोशन', जे. चतुर्वेदी 'चिराग, श्रीमती गुलाब बैद, और सुनील निंगानिया। देशप्रेम की भावना से परिपूर्ण श्री नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में कोलकाता स्थित स्थानीय माहेश्वरी भवन सभागार में किया था। कार्यक्रम के प्रारम्भ में प्रधान वक्ता बतौर श्री कमल गाँधी ने देश के वीर सेनानियों को नमन करते हुए मुम्बई घटना में हुए शहीदों को अपनी भावपुर्ण श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि इन शहिदों के नाम को जितनी श्रद्धा के साथ लिया जाय उतना ही कम है, देश के वर्तमान नेताओं के नाम को लिये बिना आपने कहा कि जिस मंच पर सुभाष-गांधी को याद किया जाना है, वीर शहिदों को याद किया जाना है ऐसे मंच पर खड़े होकर उनका नाम लेकर इस मंच की मर्यादा को कम नहीं करना चाहता। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच श्री कमल गाँधी ने कहा कि हम अभी इतने भी कायर नहीं हुए कि अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते देशहित को तिलांजलि दे देगें, हमारे लिये देशहित सर्वप्रथम है। इस समारोह की अध्यक्षता शहर के जाने-माने समाज सेवी श्री चिरंजीलाल अग्रवाल ने किया। कार्यक्रम का उद्घाटन श्री एस.के पारिक ने किया। बतौर प्रदान अतिथि थे श्री सजन कुमार बंसल और बनवारी लाल सोती। कार्यक्रम के स्वागताध्यक्ष श्री बिमल बैंगानी ने सभी का स्वागत किया और धन्यवाद दिया महानगर के जाने -माने पत्रकार और 'राष्ट्रीय माहानगर' के संपादक श्री प्रकाश चण्डालिया ने कवि मंच " अपनी धरती-अपना वतन" कार्यक्रम के संचालन की शुरूआत श्री सुशील ओझा ने श्री छविनाथ मिश्र की कविता से की:


मेरे दोस्त मेरे हमदम तुम्हारी कसम
कविता जब किसी के पक्ष कें या
किसी के खिलाफ़ जब पूरी होकर खड़ी होती है;
तो वह ईश्वर से भी बड़ी होती है।
-छविनाथ मिश्र


अपनी धरती अपना वतन कार्यक्रम का शुभारम्भ करते हुए श्रीमती गुलाब बैद ने माँ सरस्वती पर अपनी पहली रचना प्रस्तुत की।
माँ सरस्वती.. माँ शारदे, हम सबको तेरा प्यार मिले...2
चरणों में अविनय नमन करें,
तेरा बाम्बार दुलार मिले। हे वीणा वादणी, हंस वाहिणी.. तू ममता की मूरत है।
श्री सुनील निंगानिया ने आतंकवाद पर अपनी कविता के पाठ कर बहुत सारी तालियां बटोरी..
शहर-शहर.... गाँव-गाँव मौसम मातम कुर्सी का
आम अवाम लाचार हो गई, देख रही छलनी होते ..
भारत माँ की जननी को .. शहर-शहर....
दिल्ली का दरबार खेल रहा है, खेल ये कैसा कुर्सी का...
यह कैसी आजादी होती, हम आजादी पर रोते हैं
सरहद से ज्यादा खतरा घर की चारदिवारी का... शहर-शहर....
आगे इन्होंने कहा..
उग्रवाद का समाधान नहीं .. राजनीति की दुकानों पे
हासिल करना होगा इसे हमें, अपने ही बलिदानों से..शहर-शहर....
श्री जे. चतुर्वेदी 'चिराग'
धरा पुनः वलिदान मांगती......हिन्द देश के वासी जागो...
जीवन नाम नहीं जीने का, जिस सम अधिकार नहीं हो,
जीवन की परिभाषा तो, अधिकार छीनकर जीना होता...
धरा पुनः वलिदान मांगती......हिन्द देश के वासी जागो...
श्रीमती गुलाब बैद ने अपनी ओजस्वी गीत से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।
1.कभी मार सकी मौत तुम्हें, हे अमर वीर बलिदानी...
भारत माँ के सच्चे सपुत हो, सच्चे हिन्दुस्तानी...
जब-जब भारतमाता को, दुश्मन ने आँख उठाकर
सीमा पर ललकारा
तब-तब भारत माँ ने तुम्हें पुकारा....
2.सैनिक जीवन है सर्वोत्तम, सर्वोत्तम सैन्य कहानी
कब मार सकी है मौत तुम्हें
हे अमर वीर बलिदानी...
3. चन्दन है भारत की माटी
महक रहा इसका कण-कण
जिसकी गौरव गाथा गाते
हरषे धरती और गगन.....
श्री नन्दलाल 'रोशन' ने ग़ज़ल और कविताओं के सामंजस्य को इस बखूबी बनाया कि सभी दर्शकगण बार-बार तालियां बजाते चले गये..
-कौन मेरे इस वतन में बीज नफ़रत के बो रहा....
-उनकी जुवां पर पत्थर पिघलने की बात है,
यह तो महज दिल को बहलाने की बात है।
-जो भी आया सामने.. सारे के सारे खा गये
हक़ हमार खा गये.. हक़ तुम्हारा खा गये..
और खाते-खाते पशुओं का चारा भी वो खा गये।
-पल में तौला.. पल में मासा, राजनीति का खेल रे बाबा..
धक-धक करती चलती दिल्ली अपनी.. रेल रे बाबा..
बहुत पुराना खेल रे बाबा...
सां-संपेरे का खेल हो गया.... पकड़ लिया तो बात बन गई,
चुक गया तो मारा गया रे बाबा.....
ताल ठोक संसद जाते, जनता के प्रतिनिधी कहलाते।
सारा ऎश करे य बहीया...
जनता बेचे तेल रे भईया...
पहले मिल बाँटकर खाते.. फिर आपस में लड़ जाते;
स्वाँगों की भी जात !.. फेल हो गई रे बाबा...
डॉ.मुस्ताक अंजूम ने अपनी ग़ज़लों से सभी को मोह लिया।
हजारों ग़म हैं, फिर भी ग़म नहीं है
और हमारा हौसला कुछ कम नहीं है।
और उसकी बात पर कायम है सबलोग
जो खुद अपनी बात पर कायम नहीं है।।
श्री गजेन्द्र नाहटा और श्री आलोक चौधरी जी ने भी अपनी कविताओं का पाठ इस मंच से किया।
गजेन्द्र जी नाहाटा-
दर्द को खुराक समझ के पीता हूँ
और टूटते हृदय को आशाओं के टांके से सीता हूँ।
आलोक चौधरी
जब सुभाष ने शोणित माँगा था.. सबसे करी दुहाई थी,
जाग उठा था देश चेतना.. पाषाणों में, जान आई थी।
कवि मंच "अपनी धरती-अपना वतन" के इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन' ने अपनी कविताओं का पाठ शुरू करने से पूर्व कहा कि सभागार में शहर के सो से भी अधिक कवियों की इस उपस्थिति ने यह बता दिया कि कि इस महानगर में भी कवि रहते हैं श्री प्रकाश चण्डालिया का आभार व्यकत करते हुए अपनी दो पंक्तियां कही..
जो दिलों को जोड़ता है, उन ख्यालों को सलाम
अव्वल तुफानों में उन मशालों को सलाम
जो खुद जलकर उजाला बांटता हो उन मशालों को सलाम।
आपने कहा कि वे अपने लोगों से गुजारिश करूँगा कि वे अपने शहर के चिरागों को सामने लायें। आपने "मातृभूमि की बलिवेदी को प्रणाम" कविता का पाठ भी किया.. आपने वर्तमान राजनीति के रंग को अपनी इस कविता के माध्यम से चित्रण किया..
जिन शलाखों के पीछे वह बरसों रहे ... वे अब शलाखों के पहरेदार हैं।
कल तलक जो लुटेरे थे, आज उनकी सरकार है।।
होना हो तो एक बार हो, ये बार-बार होना कैसा है।
और धार चले तो एक बार चले.. धार-धार चलना कैसा है।।
आपने आगे कहा...
तासकंद की रात न हो तो अच्छा है,
शिमला जैसा प्रातः न हो तो अच्छा है,
करगील जैसा घात न हो तो अच्छा है
समझौते की बात न हो तो अच्छा है।

सोमवार, 19 जनवरी 2009

साहित्य शिल्पी: एक परिचय



विडम्बना की बातें की जाती हैं कि एक अरब की जनसंख्या वाले इस राष्ट्र में हिन्दी की दुर्दशा है। जब भी आँसू बहाने की बारी आती है, हिन्दी के दिवस मनाये जाते हैं और फिर एक वर्ष का मौन व्रत। इस भाषा की तरक्की और विस्तार के लिये आखिर बुनियादी स्तर पर कार्य क्या हुआ है? सरकारी फाइलें जो भी कहती हों केवल आँकड़ों का खेल ही होगा। दशा पर बहुत चर्चाएँ हुईं, किंतु दिशा की बातें कम ही हुई हैं। जब मैं सोचता हिन्दी में हूँ, पुकारता हिन्दी में हूँ, खुश हिन्दी में होता हूँ,  मन की भड़ास हिन्दी में,  तो भाई यह अंग्रेज़ी कब तक गुप-चुप  "मम्मी-लेंगवेज" रहेगी?....। चिड़िया की कहानी याद आती है। खेत में घोसला था और रोज किसान खेत काटने की बात करता और किसी न किसी रिश्तेदार को काम सौंप कर चला जाता। चिड़िया नित्य चर्चा सुनती और निश्चिंत होकर काम पर निकल जाती। एक दिन जब किसान ने कहा कि निकम्मे हैं सारे लोग “कल खेत मैं काटूंगा”, चिड़िया बच्चों सहित खेत से उड गयी, जानती थी कि खेत ज़रूर कटेगा। और ऐसा ही हुआ। साहित्य शिल्पी को ऐसा ही प्रयास कहा जा सकता है जहाँ रचनाधर्मी उर्जा ने यह ठान लिया कि हिन्दी के लिये अब हमें ही जुटना होगा, पूरी गंभीरता और ताकत के साथ।

यह प्रश्न उठता है कि साहित्य शिल्पी द्वारा अंतरजाल को ही माध्यम क्यों चुना गया। इस प्रश्न का उत्तर तकनीक और साहित्य के प्रयोग की ओर इंगित करता है। अखबारों में इन दिनों प्रकाशित हो रही कविताओं/कहानियों आदि को देखें तो लगता है कि या तो लेखन खो गया है या वास्तविक लेखन की प्रिंट-मीडिया तक पहुँच आसान नहीं रही। जो स्थापित पत्रिकायें हैं, उन तक पैंठ नये साहित्य सर्जकों की आसान भी नहीं।...। फिर तकनीक के परिप्रेक्ष्य में अंतरजाल जैसे व्यापक माध्यम को अछूता क्यों छोड दिया जाय? अंतरजाल पर हिन्दी सामग्री अभी बहुत अधिक दृष्टिगोचर नहीं होती। कुछ वेब-पत्रिकायें, कुछ अखबारों के हिन्दी संस्करण तथा कुछ समाचार प्रधान साइटों के परे साहित्यिक हलचल से अंतर्जाल जगत अभी अछूता ही है। हाँ, हाल ही में यूनिकोड टाईपिंग द्वारा हिन्दी लिखना और उसका वेब-प्रस्तुतिकरण अवश्य आसान हुआ है। साहित्य शिल्पी ने अंतरजाल जगत की इसी नब्ज को और यूनिकोड की ताकत को पहचाना है। हिन्दी की पुनर्स्थापना का रास्ता कंप्यूटर के कीबोर्ड से हो कर भी जाता है।

साहित्य शिल्पी वस्तुत: हिन्दी तथा साहित्य की सेवा के लिये समर्पित रचनाकारों का समूह है। इस मंच पर कविता, कहानी, नाटक, संस्मरण, समसामयिक विषयों पर परिचर्चायें, कार्टून विधा, बाल साहित्य आदि तो प्रस्तुत हो ही रहे हैं, साथ ही विद्वान हिन्दी सेवियों के साक्षात्कार भी प्रस्तुत हुए हैं। गोपालदास नीरज, शहरयार, नासिरा शर्मा, लाला जगदलपुरी, मानव कौल, श्याम माथुर, ज़ाकिर अली ‘रजनीश’, पूर्णिमा वर्मन आदि के साक्षात्कार के बाद साहित्य शिल्पी प्रसिद्ध कवि कुँवर बैचैन का साक्षात्कार प्रस्तुत करने की तैयारी में है। प्रसिद्ध अभिनेता मनोज बाजपेयी नें साहित्य शिल्पी को अपने साक्षात्कार में इस अभियान की प्रशंसा करते हुए इसे साहित्य के लिये किया जा रहा सार्थक प्रयास बताया।

कविता पर रिकार्ड हुए गीत, कवि की आवाज में रिकार्ड कवितायें, कविता पर बने वीडियो आदि समय समय पर साहित्य शिल्पी द्वारा प्रस्तुत किये गये। इस श्रंखला की महत्वपूर्ण प्रस्तुतियों में महेन्द्र भटनागर के गीत उनके पुत्र आदित्य विक्रम के स्वर व संगीत में, गीता बाल निकेतन फरीदाबाद के बच्चों द्वारा तैयार किया गया एलबम - अनहद गीत, पंडित नरेन्द्र शर्मा की रचनायें लावण्याशाह की के सौजन्य से, देवेन्द्र मणि पाण्डेय की कवितायें हरीश भिमानी के स्वर में आदि प्रमुख हैं। आगामी आकर्षणों में प्रख्यात कथाकार तेजिन्दर शर्मा की कहानियों के ऑडियो भी मंच पर प्रस्तुत किये जाने हैं।

नाटक विधा को अंतर्जाल पर स्थान दिलाने के अपने अभियान में साहित्य शिल्पी नें न केवल स्थायी स्तंभ इस दिशा में आरंभ किया है अपितु पहली बार सत्यजीत भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित एक नाटक “राई-द स्टोन” का विडियो इस मंच पर प्रस्तुत किया गया। इस प्रस्तुति के दौरान साहित्य शिल्पी को प्राप्त हुई प्रतिक्रियाओं नें यह सिद्ध किया कि नाटक को आज भी दर्शकों की कमी नहीं है।

कार्टून को विधा का दर्जा दिलाना साहित्य शिल्पी का उद्देश्य है। इस कडी में एक गंभीर प्रयास करने की कोशिश व्यंग्यकार अविनाश वाचस्पति तथा प्रख्यात कार्टूनिष्ट कीर्तिश भट्ट् द्वारा की गयी। दोनों ने नैनो कार पर व्यंग्य और कार्टून की जुगलबंदी प्रस्तुत की जिसे पाठकों नें भी हाँथो-हाँथ लिया। प्रसिद्ध कार्टूनिष्ट अभिषेक तिवारी साहित्य शिल्पी पंच पर सप्ताह का कार्टून स्तंभ भी चला रहे हैं। साथ ही साथ माह में दो बार कीर्तिश भट्ट के कार्टून मंच पर प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

साहित्य शिल्पी मंच यह मानता है कि हमारे साहित्यकार हमारी निधि हैं। यदि हम अपने माननीय साहित्यकारों की यादों को सजो कर नहीं रखेंगे तो साहित्य को ही खो देंगे।साहित्य शिल्पी सभी स्थापित रचनाकारों/साहित्यकारों के जन्मदिवस अथवा पुण्यतिथि पर उनको स्मरण करते हुए उनके जीवन एवं कृतीत्व पर आलेख प्रस्तुत करता रहा है। इस कडी में रामधारी सिंह दिनकर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, मैथिली शरण गुप्त, त्रिलोचन, हरिवंशराय बच्चन, अमृता प्रीतम, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रेम चंद, पंडित मुकुटधर शर्मा आदि मनीषियों के संदर्भ में साहित्य शिल्पी संग्रहालय से सामग्री प्राप्त की जा सकती है, जो निरंतर समृद्दि की ओर है। युगप्रवर्तकों में भगत सिंह, दुर्गाभाभी, सुभाष चंद्रबोस जैसे क्रांतिकारियों का भी जीवन परिचय साहित्य शिल्पी संग्रहालय में है।

साहित्य शिल्पी पर चलाये जा रहे प्रमुख नीयमित स्तंभों में हिन्दी साहित्य का इतिहास तथा ग़ज़ल- शिल्प और संरचना प्रमुख हैं। बाल साहित्य को भी इस मंच पर प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता है। देश भर में हो रही साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को भी प्रमुखता से मंच पर स्थान दिया गया है। प्रसिद्ध समालोचक सुशील कुमार जी काव्यालोचना स्तंभ आरंभ कर मंच पर प्रकाशित कविताओं की समीक्षा कर रहे हैं।

साहित्य शिल्पी मंच पर नये रचना-प्रस्तोता साहित्यकारों को मार्गदर्शन मिल सके और इस मंच के स्तर में उत्तरोत्तर सुधार हो इसके लिये वरिष्ठ साहित्यकारों का भी मार्गदर्शन व आशीर्वाद प्राप्त होता रहा है। साहित्य शिल्पी समूह के लिये यह गर्व का विषय है कि कई स्थापित व वरिष्ठ साहित्यकार भी इस अभियान की मशाल थाम रहे हैं। साहित्य शिल्पी यह गर्व के साथ कह सकता है कि हमने हिन्दी और साहित्य की सेवा के लिये न केवल भारत अपितु विदेशों में बसे रचनाकारों को भी इस सूत्र में जोडा है। इस मंच की विचारधारा है सृजन। हमने इसे किसी पंथ/विचार या संघ से नहीं जोडा बल्कि हर प्रकार के विरोधाभासों को स्थान देने का यत्न किया है जिससे सार्थक परिचर्चायें जन्म लें और हिन्दी तथा साहित्य का विकास हो।

आलेख: साहित्य शिल्पी के लिये राजीव रंजन प्रसाद द्वारा

सोमवार, 12 जनवरी 2009

डॉ.हरिवंशराय बच्चन: मानवीय प्रेम एवं संवेदना के अमर गायक

श्रद्धांजलि (18 जनवरी पर विशेष)


- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव


युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डॉ.वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक, आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डॉ.वीरेन्द्र जी ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि.प्र.) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतिया (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन करते हैं।


एक सफल साहित्यकार काल की गति और कला को ठुकराता हुआ ऐसे साहित्य का निर्माण करता है जिसके बीज में मानव जीवन के कल्याण के लिये संस्कार भरे होते हैं। ऐसे साहित्यकार का आग्रह समाज की परिधि में व्यक्ति की पहचान खोजने के साथ-साथ मानव मन की गुफाओं, कन्दराओं और भित्तियों का शिल्पी निर्मित ढांचा देकर मनोवैज्ञानिक तरीके से अपने परिवेश का यथार्थ निरूपित करना होता है। सफल साहित्यकार की इन्हीं परिस्थितियों में उसकी रचना युग-धारा से सम्पृक्त होकर ही रूपाकर पाती है।
साहित्य वाङ्मय में नया और पुराना कुछ भी नहीं होता है। साहित्य के माध्यम से जिस नवीनता एवं प्राचीनता की बात हम करते हैं ‘‘वह मूलतः और सारतः अनुभूति से अभिव्यक्ति तक, और साथ ही सम्प्रेषण की क्षमता तक, भावना और विचार, कल्पना और यथार्थ, कला और जीवन, साहित्य और समाज की मान्यताओं को आंकने झांकने, समझने-परखने और अभिव्यक्त करने की केवल एक परम्परावादी दृष्टि भर है। यही वजह है कि हिन्दी कविता-धारा में नयी कविता का प्रस्फुटन एक ऐसी क्रांतिकारी घटना बन गई जिसकी स्वीकृति-अस्वीकृति को लेकर ढेरों प्रश्न चिन्ह खड़े होने लगे साथ ही कविता की नव्यता को अति तीव्र और दीर्घ एवं अन्तहीन विवादों के घेरे में खड़ा कर दिया।
डॉ. हरिवंशराय बच्चन छायावाद कालीन साहित्यिक परिवेश में भौतिक तथा आध्यात्मिक द्वन्द्व की समस्याओं से टकराते हुये उत्तर छायावाद युग में जब प्रवेश करते हैं तो उनका कवित्व मुख्यता गायक की मादकता में डूब जाता है। ‘‘बच्चन यों तो छायावाद से प्र्रगतिवाद और प्रयोगवाद में रूपान्तरण की अवधि के कवि दिखते हैं, जिनके भाषागत प्रयोगों को समीक्षकों ने उत्साह के साथ रेखांकित किया है और जिनकी अनुभूति की गहराई छायावादी कवियों से अधिक मानी है। इस दूसरी मान्यता से सहमत हो पाना निश्चय ही कठिन होगा। यहाँ आत्मपरकता और अनुभूति की गहराई में समीक्षकों ने कोई भेद नहीं समझा और फलतः छायावादी काव्य के प्रति अनजाने में ही एक बड़ा अन्याय कर डाला। फिर एक सिलसिला-सा बन गया।’’ वैसे बच्चन जी की इस मादकता में अनेक स्तरों पर विरोध के स्वर जरूर उठे परन्तु इस सच से इन्कार नहीं किया जा सकता है। कि बच्चन का उत्तरकालीन काव्य दिनकर की उर्वशी और नरेन्द्र अंचल के गीत शारीरिक अनुभवों और उसके उल्लास का अकुंठ भाव से अंकन करते हैं। इस संदर्भ में पूर्व बच्चन और उत्तर बच्चन की संवेदना के बीच स्पष्ट अंतर परिलक्षित होता है, जिसकी विभाजक-रेखा उनके गीत संग्रह मिलन यामिनी में देखी जा सकती है। पहले दौर में अनुभव प्रधान है, दूसरे में शरीर। यहाँ रचना-समस्या यह है कि छायावाद की सांकेतिक शैली में संयोग-चित्र, उदाहरण के लिये आँसू का प्रसंग परिरंभ कुम्भ की मदिरा/निश्वास मलय के झोंके, जहाँ कल्पना को उद्दीप्त करते हैं, वहाँ सीधी-सादी भाषा में शरीर के चित्र, शरीर को ही स्पर्श करते हैं। ‘‘उर्दू के कवि अपने सीधे भाषिक विधान में इसलिये विरह वेदना का चित्रण अधिकतर लेते हैं। शरीर की भंगिमाओं को नहीं। इस सन्दर्भ में मधुबाला से लेकर ‘एकांत संगीत’ तक बच्चन अपने श्रेष्ठतम रूप में दिखाई देते हैं। इसके बाद का काव्य प्रायः उनके निजी सुख-दुख का लेखा होकर रह जाता है। पूर्व बच्चन का कृतित्व उत्तर-छायावाद का प्रतिनिधि और महत्वपूर्ण काव्य हैं।’’ बच्चन जी तत्कालीन लोकमानस में इतने व्यापक और गहरे स्तरों पर उतर चुके थे जिसका कोई विकल्प उनके तत्कालीन समय के विरोधियों के पास उपलब्ध नहीं हो सका था। शायद इसका एक दूसरा पहलू यह भी था कि बच्चन का स्वर माधुर्य लोगों को झूमने पर विवश कर देता था। इसके साथ ही बच्चन की भाषा श्रोता के मन में उनकी अपनी भाषा जैसी लगती थी जो उनके संवेदना के स्तर पर गहराई से जुड़ जाती थी। मिट्टी का तन/मस्ती का मन/क्षण भर जीवन/मेरा परिचय, जब बच्चन ये पंक्तियां गाते ऐसे में, कुम्हार के घड़े को प्रतीक बनाकर परिचय देना पाठक को संवेदना के स्तर पर अपने से जोड़ देती है। ‘‘इसी प्रकार जब मधुशाला के पदों में बच्चन अपने स्वर माधुर्य को छलकाते हैं तो यह केवल स्वर का ही जादू नहीं, बल्कि उसमें निहित चुम्बकीयता होती है जो पाठक के मन को इतनी गहराई से बांध लेती है। मेरी जिह्वा पर हो अन्तिम वस्तु न गंगाजल, हाला/मेरे होठों पर हो अन्तिम वस्तु न तुलसी दल, प्याला। दे वे मुझ को कन्धा जिनके पग मग डग मग करते हों/और जलूँ उस ठौर जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला।’’ बच्चन जब इन पदों को गा-गाकर सुनाते थे तो उनके स्वर का सम्भार, इन पदों का शब्द-विन्यास और इनमें निहित संवेदना एक रसायन बनकर श्रोता या पाठक के मन को अपने जादू में बाँध लेती थी।’’ अपनी सम्प्रेषण क्षमता के बल पर डॉ. बच्चन ने जितना विशाल पाठक एवं श्रोता समुदाय हिन्दी जगत को उपलब्ध कराया, उसका ऐतिहासिक महत्व निर्विवाद है। आत्मकथा के माध्यम से उत्तर छायावाद के प्रमुख कवि बच्चन का लेखन इस युग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विवादास्पद रहा है। उनकी आत्म कथा के चार खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं - क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969), ‘नीड़ का निर्माण फिर (1970)’ बसेरे से दूर (1977)’, दशद्वार से सोपान तक (1985)। इस आत्मकथा में लेखक ने अपने को केन्द्र में रखा है, उपलक्ष्य नहीं माना है। फिर कुछ जीवित व्यक्तियों, विशेषतः महिलाओं के सम्बन्ध में ऐसे उल्लेख दिये हैं जो बहुत शोभन नहीं कहे जा सकते। तीसरा खण्ड प्रवास-काल से सम्बन्ध होने के कारण ऐसे कई विवादों से मुक्त हैं। इसके अन्तर्गत एक रोचक तुलनात्मक विवेचन आपसे आप उभरता है लेखक के स्वदेशी इलाहाबाद विश्वविद्यालय और विदेशी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बीच। इन दोनों परिसरों के बारे में कवि-दृष्टि के पर्यवेक्षण विशेष महत्व रखते हैं।’’ बच्चन जी के साहित्य पर विशेष प्रभाव उमर खैय्याम का पड़ा था। आपने उमर खैय्याम की रूबाइयों को उनकी गहराइयों में समझने की चेष्टा की थी और इन गहराइयों में उन्हें वेदांत और उपनिषदों के दर्शन की स्पष्ट झलक भी दिखती है। ‘खुरासान के इराल शहर में ग्यारहवीं शताब्दी में जन्में उमर खैय्याम एक दीर्घायु कवि थे और वे मूलतः गणितज्ञ और ज्योतिषी थे। उन्हें केवल मदवी, रसगश्त, रिंद या नाफ़र्मान समझना भारी भूल है। फिट जेराल्ड ने भी उन्हें फारस का ज्योतिषी कवि - यानी कवि से भी पहले ज्योतिषी माना था। बच्चन जी सम्भवतः जान पेन के इस मन्तव्य से सहमत थे कि उमर खैय्याम औपनिषिदक सिद्धान्तों के पालक ही नहीं प्रचारक भी रहे होंगे। अतः उमर खैय्याम की अनेक रूबाइयों की व्याख्या वेदांत दर्शन के आलोक में भी की जा सकती थी। इस वैचारिक पृष्ठभूमि में बच्चन की मधुशाला के अर्थोंमीलन को एक गम्भीर धरातल पर समझने की चेष्टा की जानी चाहिये।’’ इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘‘अपनी लक्षणा और व्यंजना में, डॉ. बच्चन जी की मधुशाला एक लोकप्रिय रचना बन गई है तथा वह हालावाद की भाव-भंगिमापूर्ण अमूर्त रहस्यात्मकता को व्यंजित करने के साथ ही युगातीत और युगीन समय सन्दर्भों को भी प्रतिबिम्बित करती है। ‘‘बैर कराते मस्जिद-मंदिर, मेल कराती मधुशाला जैसी पंक्तियां इसी मानी में पंथ-निरपेक्षता की ओर हमें प्रेरित करती हैं। बच्चन ने खैय्याम के हताशावादी चिन्तन से प्रभावित होकर भी जिजीविषा से सराबोर आशावादी चिन्तन का साक्षात्कार किया था, जहाँ एक ओर उमर खैय्याम जीवन की नश्वरता से हताश एवं अभिनिवेश (मृत्यु भय) से परास्त मन को क्षणवादी सुखात्मक दर्शन की मादक उत्तेजना में भुलाये रखना चाहते हैं वहीं दूसरी तरफ बच्चन की हाला चेतना की ज्वाला है जिसका पान करके कवि ‘मरण’ जीवन का महोत्सव मनाने लगता है क्योंकि बच्चन जी की हाला में निःसन्देह मानवीय आशाओं, आकांक्षाओं का भाव विह्वल उन्मेष तथा व्यथा विभोर परिस्थितियों में जीवन की जिस उद्दाम अभिलाषा का जलधि उद्वेलित होकर उसकी चेतना में क्रांति की हलचल मचा देता है, उसे अभिव्यक्ति देने के लिये तारूण्य की आरक्त, पलाश-ज्वाला से भरा हाला का प्रतीक ही सम्भव तथा सक्षम प्रतीत हो सकता था। ‘‘बच्चन के सम्पर्क में आकर उमर खैय्याम का मिट्टी का ‘प्याला’, ‘हाला’ तथा मधुशाला-सबका रूपान्तरण हो जाता है और वे अभिनव आनन्द, अभिनव जीवन चेतना तथा अभिनव युग के सौन्दर्य बोध के प्रतीकों में परिणित हो जाते हैं।’’ कुछ समीक्षकों का मानना है कि जिस हालावाद की नींव डॉ. बच्चन ने डाली थी, लगता है कि वह अब समाप्त की ओर है यह हमारी दृष्टि में उचित नहीं जान पड़ता है। क्योंकि हालावादी काव्य सृजन के पथ पर चलने वाले कवियों की आज भी एक लम्बी कतार है। ‘हालावाद गम से घबड़ाकर खुदकुशी करने की बात नहीं कहता, बल्कि वह गम को खोने की बात कहता है, गम को पीने की बात कहता है। अपने काव्य में हाला-प्याला का प्रयोग जितना डॉ. बच्चन ने किया, उतना किसी अन्य कवि ने अब तक नहीं किया। हाला दुःख दर्दों के विस्मरण का साधन है। मधुशाला पर हो रहीं प्रतिक्रियाओं के परिप्रेक्ष्य में अपने एक संस्मरण में (इन्दौर में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन) डॉ. बच्चन कहते हैं कि किसी ने गाँधी जी से शिकायत कर दी थी कि जिस सम्मेलन के आप सभापति हों उसमें मदिरा का गुणगान किया जाये, बड़े आश्चर्य की बात है। दूसरे दिन अंतरंग सभा की बैठक थी, रात के 12 बजे गाँधी ने मुझे सभा हाल के बगल वाले कमरे में मिलने को बुलाया। लोगों के मांगने पर भी गाँधी जी से मिलने का समय नहीं मिलता था, मुझे बुलवाने की खुशी थी, डर भी, अगर कह दें कि ‘मधुशाला’ न पढ़ा करूँ या नष्ट कर दूँ तो उनकी आज्ञा को टालना कैसे सम्भव होगा। गाँधी जी ने शिकायत की और मधुशाला के कुछ पद सुनने चाहे। कुछ सतर्कता मैंने भी बरती। चुन-चुनकर ऐसी रूबाइयाँ सुनाई जिसके संकेतार्थ शायद उन्हें सहज ग्राह होते, दो की मुझे याद है -


मदिरा जाने को घर से चलता है पीने वाला,
किस पथ से जाऊँ, असमंजस में है वह भोला भाला
अलग-अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतालाता हूँ,
राह पकड़ तू एक चला चल पा जाएगा मधुशाला।
मुसलमान और, हिंदू हैं दो, एक, मगर, उनका प्याला
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक मगर उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मंदिर-मस्जिद में जाते,
बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला।


‘‘इसमें तो मदिरा का गुणगान नहीं है।’ उनसे यह सुन और उनके द्वारा बख्शा जाकर मैं भागा। उनको भी समय नहीं था। शरीर से गाँधी जी के इतने निकट बैठने का मेरा पहला और अंतिम अवसर था।’’ डॉ. बच्चन ने मधुशाला के माध्यम से एक सहज, सरल और कभी-कभी गद्य की समीपी काव्य-भाषा को खड़ी बोली में जन्म दिया। यह भाषा हृदय को छूकर मर्म-स्पर्शिनी बन गयी है। मधुशाला की एक दूसरी विशेषता यह थी कि कवि ने बहुत ही सतर्क होकर अपनी कल्पनाजन्य अनुभूति में ;प्कपंजमक म्गचमतपमदबमेद्ध अपने पाठकों और श्रोताओं को रमा दिया था। वास्तव में कल्पित अनुभूति इसलिये कि डॉ. बच्चन ने कभी शराब का स्वाद तक नहीं चखा था, किसी मधुशाला, मयखाने में जाने की बात तो दूर रही। बच्चन ने शराब के साथ अपने रिश्ते को बताते हुये एक स्थान पर लिखा है कि अमोड़ा के कायस्थ कभी शराब नहीं पीते। डॉ. बच्चन के यहाँ किंवदन्ती के रूप में यह लोग मानते हैं कि यदि कोई शराब पियेगा, तो कोढी हो जायेगा। अपने कुशल काव्य नेतृत्व के जरिये पाठकों को भ्रमित रखने के लिये उत्तर भारत की लोकधारणा और चन्दरवाई के एक छप्पय की पंक्ति का सहारा लेते हुये एक ऐसी रूबाई लिख दी -


मैं कायस्थ कुलोदभव, मेरे।
पुरखों ने इतना ढाला
मेरे तन के लोहू में है
पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है
मदिरालय के आॅगन पर,
मेरे दादों-परदादों के
हाथ बिकी थी मधुशाला।


इस पर व्यंग्य का पुट हो सकता है लेकिन अपनी विदेश यात्राओं और इंग्लैण्ड-प्रवास के बावजूद बच्चन शराब के स्वाद से अपरिचित थे। इसलिये मधुशाला अपनी अभिधा में कल्पित अनुभूतियों के कारण एक अच्युत ब्रह्मचारी द्वारा लिखित कोक शास्त्र के सम्भोग प्रकरण जैसी कृति है। हालावादी कवि संसार की विषम परिस्थितियों से संघर्ष नहीं करता; वह तो अपनी पीढ़ा को मदिरा की बोतल में ढालता है। किसी वस्तु को वह तोड़ता नहीं; टूटे हुये दिलों को जोड़ता है। डॉ. बच्चन की व्यक्तिवादी कविता का प्रमुख प्रतिपाद्य यही है। यही तत्व उन्हें हालावादी कवि की श्रेणी में ला खड़ा कर देता है - पीने वालों ने/मदिरा का मूल्य/हाय! कब पहचाना, फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी मधुशाला। कितनी ही विषम परिस्थितियाँ कवि बच्चन के लिये अपने आपको संघर्ष से मस्ती की ओर उन्मुख करती हैं क्योंकि मस्ती के लिये मस्ती चाहिये, यह डॉ. बच्चन के लिये उनके अपने जीवन का मूल मंत्र रहा है -


पीकर मदिरा/मस्त हुआ तो/प्यार किया क्या मदिरा से ?
मैं तो पागल हो उठता हूँ - सुन लेता यदि मधुशाला।


महाकवि सुमित्रा नंदन पंत के अनुसार - ‘‘मधुशाला अमृत संजीवनी है, जिसका पान कर मृत्यु भी जीवित हो उठती है।’’ उर्दू फारसी शैली में जितनी इश्क मिजाजी तथा साकी और शराब के प्यालों की खुमारी बच्चन की कविताओं में मिलती है; उतनी अन्यत्र दुर्लभ है। उनकी मधुशाला इस युग की गीता है; मृदुभावों के अंगूरों की हाला है/पर कैसे ?


प्रियतम ! तू मेरी हाला है/मैं तेरा प्यासा प्याला।
अपने में मुझको भरकर/तू बनता है पीने वाला।।
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला।
प्रियतम ! अपने हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला।।


इन पंक्तियों के अमर गायक डॉ. बच्चन जी की मधुशाला में भाँति-भाँति के रसों की भरमार है। विशेषता यह है कि उनके गीतों को पीते-पीते न तो पीने वाले थकते हैं और न तो पिलाते-पिलाते पिलाने वाले ही। ऐसा लगता है कि डॉ. बच्चन की मदिरा पीने वालों की प्यास कभी मिटती नहीं।


कभी न कण भर/खाली होगा/लाख पियें दो लाख पियें
दिन को होली/रात दिवाली/रोज मनाती मधुशाला।


डॉ. बच्चन जी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कविता में बोलचाल का प्रयोग करते हैं। इस सन्दर्भ में यह लक्षित करना रोचक है कि कैसे घरेलू पुकार का साधारण नाम बच्चन आधुनिक हिन्दी कविता का क्रमशः एक महत्वपूर्ण नाम बन गया। बच्चन का ध्यान उर्दू-काव्य शैली पर भी था, जहाँ भाषा के बोले जाने वाले रूप का प्रयोग सर्वाधिक काम्य रहा है, जहाँ गजल लिखी नहीं कही जाती है। बोलचाल वे अपने नगर इलाहाबाद से सीखते हैं, तो उर्दू काव्य-शैली के प्रभाव के लिये उसके सबसे बड़े कवि मीर के प्रति आभारी हैं - ‘‘कोई न खड़ी बोली लिखना आरम्भ करे। अंदाज मीर का बे-जाने बे पहचाने। बच्चन अपने काव्य विकास के क्रम में उत्तरोत्तर उर्दू की साफ़गोई की ओर झुकते गये। पर उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि उर्दू बोलचाल का मुहावरा हिन्दी की शब्द-व्यंजना-प्रधान काव्य भाषा से मेल नहीं खाता। यहाँ वह महज इतिवृत्त कथन जैसा होकर रह जाता है।’’
परम्परा एवं आधुनिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये एक-दूसरे के पूरक हैं। परम्पराओं का अनुगामी व्यक्ति आधुनिक भी हो सकता है और आधुनिक विचार प्रधान व्यक्ति परम्पराओं का अनुगमन भी कर सकता है। जीवन के परिप्रेक्ष्य में बच्चन न तो पूर्णतः परम्परावादी थे और न उन्होंने आधुनिकता का अंधानुकरण ही किया है। सदियों से चली आ रही रूढ़ियों एवं परम्परा के अन्तर्गत आने वाले उन समस्त तथ्यों का, जो व्यक्ति विशेष की उन्नति के मार्ग को अवरूद्ध करते हैं। बच्चन ने उसका पूरी तरह से बहिष्कार किया है और जो विकास का पथ प्रशस्त करते हैं, उन्हें अंगीकृत किया है। हिन्दू समाज में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे धार्मिक कर्मकाण्डों, पुराण पंथियों द्वारा सद्गति दिलाने के उद्देश्य से मरणोपरान्त किये जाने वाले कर्मों के प्रति बच्चन ने पूर्ण रूप से अनास्था प्रकट की है। अपनी आत्मकथा में बच्चन का कहना है कि दाह तो मैं कर दूँगा, पर ‘कर्म’ नहीं, यानी दाह से सम्बद्ध रोष कर्मकाण्ड नहीं। मुझसे यह नहीं होगा। मैं एक वस्त्र ही, छरी-लौटा ले, तख्त पर चटाई डाल कर बैठूं ..... और वह सब खटराग करूँ जो नाई, ब्राह्मण मुझे कराये। इन सब बातों से मेरा विल्कुल विश्वास नहीं।’’


पितृ पक्ष में, पुत्र उठाना/अध्र्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना गंगा-सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिट्टी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जायेगी
तर्पण-अर्पण करना मुझको/पढ़-पढ़कर के मधुशाला।।


कहा जाता है कि देवकी नंदन खत्री के उपन्यासों को पढ़ने के लिये लोगों ने हिन्दी भाषा सीखी। बच्चन के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि जिन्हें कविता के प्रति कोई रूझान नहीं था उन लोगों ने बच्चन की कविताओं को सुनकर कविता पढ़ना सीखा और कविता की परिधि को विस्तृत किया।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि जीवन के दग्ध अनुभवों ने बच्चन को नई दृष्टि दी। महाकवि निराला की भाँति आंसुओं को भीतर ही भीतर पीकर, उनकी ऊर्जा और सौंदर्य में, अपनी कविता को स्वर्ण की तरह चमकवान बनाया। उमर खैय्याम की रूबाइयों का गायक जिसने साक्षात मनुष्य की आकांक्षाओं को संसार की सीमाओं के अन्दर घुटते-टूटते साथ ही व्यक्ति के सुकुमार स्वप्नों को संसार के कठोर सत्यों से टक्कर खाकर चूर-चूर होेते देखा है। इन रूबाइयों के अन्दर एक उद्विग्न और आर्त चेतना की पुकार है, एक विषण्ण और विपन्न मन का रोदन है, एक दलित और भग्न हृदय का क्रन्दन है। विष्णु प्रभाकर जी के शब्दों में अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा जो उन्होंने श्रद्धांजलि स्वरूप डॉ. बच्चन की स्मृति में कहीं थी। ‘‘बच्चन जी ज्ञानी कवि थे; उमर खैय्याम की रूबाइयों पर आधारित मधुशाला को अपनाकर हिन्दी साहित्य को इस प्रकार उन्होंने प्रस्तुत किया कि मधुशाला हिन्दी जगत की हो गई। जब वे गाकर मधुशाला सुनाते थे तो एक अद्भुत वातावरण पैदा हो जाता था।’’


सम्पर्क -वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
डी. वी. कालेज, उरई (जालौन) 285001 उ. प्र. मो. 09415924888