शनिवार, 27 सितंबर 2008

किस्मत की बलिहारी भइया

कुंवर प्रीतम

किस्मत की बलिहारी भइया, किस्मत की बलिहारी भइया
मेहनतकश को भूख नसीब पर, खाए जुआरी माल-मलइया
टाटा बिरला सेज बनावैं, हाथ बटावे कॉमरेड भइया
मार भगावें गरीब मजूर को, जमीन तुम्हारी काहे की भइया
भागो-भागो दूर गरीबो, देस तुम्हारा नहीं रहा अब
इंडिया शाइनिंग, इंडिया शाइनिंग, देत सुनात दिन-रात है भइया

गान्हीजी के देस में हमरी, हुई हाल ई काहे भइया
पूछा इकदिन माट साब से, बोले उड़ गई तोरी चिरइया
अब जे इस देस में रहबै, जै हिन्द बोली बन्द करो
भारतवर्ष का वासी हौ तो, अंखियां अपनी बन्द करौ
नाम रटो इटली मइया के, सोनिया देवी कहात हैं भइया
काका कहिन हार के हमसै, ले चल जीवत मशान रे भइया
हम न जीइब अब ई कलियुग में, देस हमार ना रहा ई भइया

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

हिन्दी पत्रकारिता के एक पराक्रमी युग का अवसान


प्रकाश चण्डालिया
संपादक 'राष्ट्रीय महानगर' (हिन्दी साप्ताहिक)


हिन्दी दैनिक सन्मार्ग के संचालक-संपादक श्री राम अवतार गुप्ता का मंगलवार 23 सितंबर को स्वर्गवास हो गया। वे 83 वर्ष के थे। अदम्य साहस और प्रबल इच्छाशक्ति के प्रतीक गुप्ताजी ने सन्मार्ग को निर्विवाद रूप से पूर्वी भारत का सर्वाधिक प्रसारित हिन्दी दैनिक बनाया। किसी जमाने में वे इस समाचार पत्र के प्रबन्धक हुआ करते थे। तत्कालीन संचालकों ने जब अखबार को बन्द करने का निर्णय किया तो श्री गुप्ता को यह फैसला रास न आया और उन्होंने मालिकों से सन्मार्ग खरीदने की इच्छा प्रकट की। अत्यन्त संघर्ष के बाद उन्होंने सन्मार्ग खरीदा, इसे बखूबी पटरी पर लाए और जीवन की अंतित सांस तक इसकी विकास यात्रा के सारथि बने रहे। उनके इकलौते पुत्र का वर्षों पहले असामयिक निधन हुआ था। इस कारण इस समाचार पत्र को उन्हें स्वयं के पराक्रम से ही संचालित करना पड़ा। बल्कि यूं भी कहा जा सकता है कि कालान्तर में सन्मार्ग परिवार के सभी सदस्य इनके पुत्र सरीखे हो गए। गुप्ताजी अंतिम समय तक अखबार में निरंतर निखार लाने में लगे रहे। न्यूजप्रिंट की कीमतों का हिंसाब तो कोई गुप्ताजी से सीखे। विज्ञापन के क्षेत्र में भी वे एक-एक सेंटीमीटर का मोल समझा करते थे। हिन्दी समाचार पत्र संचालकों में उनका नाम देश भर में आदर के साथ लिया जाता रहा है। वे समाचारपत्र संचालकों की अखिल भारतीय संस्था आईएनएस के पदों पर भी रहे। प्रतिष्ठित मातुश्री पुरस्कार से भी उन्हें नवाजा गया था। श्री राम अवतार गुप्ता अन्य सम्पादकों के मुकाबले आत्मप्रचार से सर्वदा दूर रहे। ऐसा भी नहीं था कि शोहरत ने उन्हें दंभी या आत्ममुग्ध बना दिया था। हिन्दी पत्रकारिता के विकास के लिए उनकी प्रेरणा से अ.भा.हिन्दी पत्रकारिता विकास परिषद की स्थापना की गयी।
गुप्ताजी पर रामजी की कृपा अवश्य थी। सन्मार्ग की यात्रा रामनवमी से शुरू हुयी, उनका नाम राम अवतार था और उनका निधन मंगलवार को हुआ। यह महज संयोग हो सकता है, पर आस्था रखने वाले के साथ प्रभु कहीं न कहीं लीलाएं करते ही रहते हैं। गुप्ताजी के कक्ष में रामदरबार का चित्र सहज ही किसी की भी श्रद्धा का केंद्र बन जाता था।
देश के किसी कोने में भी यदि राष्ट्रीय स्तर का कोई समाचारपत्र प्रकाशन यात्रा शुरु करता है तो स्थानीय स्तर पर अपेक्षाकृत कम संसाधनों पर चलने वाले अखबारों पर प्रतिकूल असर तो पड़ता ही है। पर सन्मार्ग इस मामले में अपवाद माना जा सकता है। नवभारत टाइम्स भी यहां से निकला पर सन्मार्ग को टक्कर नहीं दे पाया। 1991 में इण्डियन एक्सप्रेस के हिन्दी दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू होने पर गुप्ताजी को विचलित होते अवश्य देखा गया था, पर उन्होंने अपनी दूरदर्शिता के साथ सन्मार्ग में कई आमूलचूल परिवर्तन करते हुए पेज बढ़ाए, नतीजतन जनसत्ता की भारी भरकम सम्पादकीय फौज और तेवरों से लोहा लेने में वे कभी पीछे नहीं रहे। जनसत्ता के बाद शहर में और कई बड़े घरानों के अखबारों ने अपनी प्रकाशन यात्रा शुरु अवश्य की, पर सन्मार्ग के करीब आजतक कोई नहीं है। सन्मार्ग का कोलकाता संस्करण देश के इस भूभाग के हजारों हिन्दी पाठकों का पहला प्यार है। हजारों लोगों की नींद सन्मार्ग देखकर खुलती है।
हालांकि यह भी सत्य है कि गुप्ताजी ने जब पेज तीन (अब 4 पर) पर छपास रोगियों की फोटुओं को विज्ञापन का दर्जा देकर प्रकाशित करना शुरु किया तो सुधी पाठक इसे पचा नहीं पाए। आज भी इसे पत्रकारिता के मानदण्ड के खिलाफ माना जाता है। पर इस सम्बन्ध में गुप्ताजी से पूछा जाता तो वे कभी मुंह नहीं छुपाते थे। साफ कहते-यार, यहां हर किसी को अपनी फोटू छपाने का रोग है, किसकी छापें, किसको इनकार करें। छपास रोगियों को आज विज्ञापन की दर से सन्मार्ग में अपनी तस्वीर छपानी पड़ती है। हालांकि यह सिलसिला और अखबारों में भी है, लेकिन सन्मार्ग के अपने तेवर हैं। यही कारण है कि लोग सन्मार्ग में हजारों रुपए देकर फोटुएं छपाते हैं। सन्मार्ग में फोटू छपाने के लिए कुछ का सालाना बजट तो लाखों का है। इसमें भी दो राय नहीं कि ऐसा अधिकतर मारवाड़ी समाज के कुछ मध्यमवर्गीय लोग ही अपनी भड़ास निकालने के लिए करते हैं। कभी कभी तो छपास रोगियों की फोटुएं हास्यास्पद बन जाती हैं। इन सब स्थिति को भांपते हुए लगता है, गुप्ताजी ने सही कदम उठाया था।
गुप्ताजी अन्यान्य सम्पादकों की तरह सामाजिक संस्थाओं में अधिक फेरी नहीं लगाते थे। जब उनकी ऐसा करने की उम्र थी, उनका अपना दौर था, तब भी नहीं। उन्हें इतवारी समारोहों में मंचों पर ज्यादा नहीं देखा जाता था। यही नहीं, सन्मार्ग कार्यालय के समीप ही विशुद्धानन्द सरस्वती विद्यालय में मारवाड़ी समाज का पारम्परिक होली व दीपावली का सम्मेलन हुआ करता है। मारवाड़ी समाज का प्रतिनिधि प्रीति सम्मेलन होने का दावा किया जाता है, पर गुप्ताजी शायद ही ऐसे आयोजनों में शरीक हुए। मेल-मिलाप की रस्म अदायगी के लिए वे कार्यक्रम की समाप्ति पर सभा स्थल पर अवश्य जाते और लोगों से दुआ-सलाम कर वापस अपने कक्ष में लौट जाया करते। सम्मेलन की सभा में मैंने हाल के वर्षों में उन्हें कभी नहीं देखा। इसके पीछे कारण कुछ भी रहा हो, पर मुझे गुप्ता जी के इस कदम पर स्वाभिमानी सम्पादक की भूमिका नकार आती है। वैसे भी जिस प्रतिनिधि प्रीति सम्मेलन में समाज की नेतागिररि करने वाले बमुश्किल 100-150 लोग उपस्थित होते हों, वहां गुप्ताजी जैसे वरिष्ठ पत्रकार की उपस्थिति उनकी कमजोरी पर मुहर ही तो लगाती।
इन पंक्तियों के लेखक को गुप्ताजी का स्नेह एवं आशीर्वाद सदैव प्राप्त हुआ। सन 1999 में मेरे संपादन में निकलने वाले महानगर गार्जियन पर हमला होने पर गुप्ताजी को सूचित किया तो न सिर्फ उन्होंने तत्कालीन विधायक स्व. सत्यनारायण बजाज की तरह हर संभव सहयोग का आश्वासन देकर मनोबल बढ़ाया बल्कि सन्मार्ग में इस घटना को प्रमुखता से प्रकाशित भी किया था। यहां अग्रज पत्रकार की भूमिका साफ नकार आती है।
राष्ट्रीय महानगर को भी श्री राम अवतार गुप्ता ने सदैव अपने स्नेह से नवाजा। सांध्य दैनिक से साप्ताहिक संस्करण में तब्दील किए जाने के उपरान्त नए तेवर में आए राष्ट्रीय महानगर की पेज सज्जा और सामग्री के चयन पर उन्होंने अत्यन्त हर्ष व्यक्त किया था और अपना भरपूर आशीर्वाद दिया था। सन्मार्ग के प्रधान संवाददाता सुरेंद्र सिंह ने बताया कि गुप्ताजी ने किस प्रकार सन्मार्ग के सम्पादकीय विभाग के सहयोगियों के समक्ष राष्ट्रीय महानगर को सराहा था। (यह अलग बात है कि जब श्री सुरेंद्र सिंह ने मुझे फोन पर यह जानकारी दी थी, मैं शहर के ही एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार के साथ अहमदाबाद से उदयपुर की यात्रा पर था और वे महाशय राष्ट्रीय महानगर के नए तेवर पर अपनी ईर्ष्यात्मक प्रतिक्रिया दे रहे थे)।
वरेण्य श्री राम अवतार गुप्ता के निधन पर ई-हिन्दी साहित्य सभा परिवार की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। गुप्ताजी का नहीं रहना सन्मार्ग के लिए तो दु:खद है ही, पत्रकारिता से जुड़े हर शख्स के लिए यह निजी क्षति जैसी घटना है।
दु:ख की इस घड़ी में उनके उत्तराधिकारी पौत्र विवेक गुप्ता तथा समस्त परिजनों, सन्मार्ग परिवार के समस्त साथियों को परमपिता संबल प्रदान करें, यही कामना है।

रविवार, 21 सितंबर 2008

श्रद्धांजलि : डॉ.प्रभा खेतान को




प्रसिद्ध कथाकार डॉ. प्रभा खेतान नहीं रहीं। 66 वर्षीय प्रभा खेतान ने कल देर रात कोलकाता में अंतिम सांस ली। दो दिन पहले ही उन्हें सांस में तकलीफ की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था। शुक्रवार को उनकी बाईपास सर्जरी की गई थी, जिसके बाद उनकी हालत बिगड़ गई थी।


कवयित्री, उपन्यासकार और नारीवादी-अस्तित्ववादी चिन्तक डॉ. प्रभा खेतान का 19 सितम्बर 2008 को कोलकाता में निधन हो गया। दिनांक 21.09.2008 को इनके पार्थिव शरीर को पंचतत्त्व में विलिन कर दिया गया । गत सप्ताह ही उनसे मेरी मुलाकात हुई थी। आप चाहती थी कि इनके समस्त साहित्य यूनिकोड में परिवर्तित कर इन्टरनेट के पाठकों को उपलब्ध करा दिया जाय। इस क्रम में उनसे दो-तीन बार फोन पर बात भी हुई। अन्तीम बार जब वे हॉस्पीटल में थी तब आप से बात हूई थी। आज जब समाचारपत्र देखा तो, हम सभी दंग रह गये। इनके जीवन जीने का ढंग एक दम से निराला था। संपन्न परिवार में जन्म लेने के बाद भी आपने अपने आस पास कभी संपन्नता को प्रदर्शित नहीं होने दिया। आपका जन्म 1 नवंबर 1942 को हुआ। आपकी प्ररंभिक शिक्षा व उच्च शिक्षा कोलकाता में हुई। दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर करने के बाद उन्होंने "ज्याँ पॉल सार्त्र के अस्तित्त्ववाद" पर पीएचडी की। आपने 12 वर्ष की उम्र से ही अपनी साहित्य यात्रा का शुरुआत कर दिया था। उनकी पहली रचना (कविता) सुप्रभात में छपी थी, तब वे सातवीं कक्षा की छात्रा थी। 1980-81 से आप पूर्ण कालीन साहित्यिक सेवा में लग गई। आपकी छः कविता संग्रह 'अपरिचित उजले' (1981), 'सीढ़ियां चढ़ती हुँ मैं' 91982), 'एक और आकाश की खोज में' (1985), 'कृष्णधर्मा मैं' (1986), 'हुस्नोबानो और अन्य कविताएं' (1987), और 'अहिल्या ' (1988),। आपकी कई गद्य- उपन्यास 'आओ पेपे घर चले ' काफी चर्चित उपन्यास रहा। बाद की औपन्यासिक कृतियां 'तालाबंदी' (1991), ' अग्निसंभवा ' (1992) , 'एड्स ' ,' छिन्नमस्ता ' (1993), ' अपने -अपने चहरे ' (1994), ' पीली आंधी ' (1996), स्त्री पक्ष (1999) सभी उपन्यास साहित्यिक क्षेत्र में प्रशंसित रही। डॉ. प्रभा खेतान के साहित्य में स्त्री यंत्रणा को आसानी से देखा जा सकता है। बंगाली स्त्रियों के बहाने इन्होंने स्त्री जीवन में काफी बारीकी से झांकने का बखूबी प्रयास किया। आपने कई निबन्ध भी लिखे। सिमोन द बोउवा की पुस्तक ‘दि सेकेंड सेक्स’ के अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ ने उन्हें स्त्री विमर्श की पैरोकार के तौर पर पहचान दी। आपकी आत्मकथा 'अन्या से अनन्या ' की तो पूरे हिन्दी जगत में धूम रही । डॉ. प्रभा खेतान को स्त्रीवादी चिन्तक होने का गौरव जहाँ प्राप्त हुआ वहीं स्त्री चेतना के कार्यों में सक्रिय रूप से भी आप हिस्सा लेती रहीं। आप 'कोलकत्ता चेम्बर आफ कामर्स ' की पहली महिला अध्यक्षा भी रहीं। उन्हें ' 'प्रतिभाशाली महिला पुरस्कार ' और टॉप पर्सनैलिटी अवार्ड ' मिला। साहित्य में उल्लेखनीय अवदान के लिये केन्द्रीय हिन्दी संस्थान का 'महापंडित राहुल सांकृत्यायन ' पुरस्कार राष्ट्रपति के हाथों मिला। अब तक आपकी 6 कविता संग्रह, 7 उपन्यास, 2 उपन्यासिका, 6 चिन्तन, 1 आत्मकथा, 2 अनुवाद प्रकाशित व कई साहित्य संपादन का कार्य। धर्मयुग, हँस, जनसत्ता, कथा देश, सहारा समय, आऊटलुक पत्रिका, तद्भव, दैनिक जागरण में आपके कई लेख प्रकाशित। प्रभा खेतान फाउन्डेशन की संस्थापक अध्यक्षा, नारी विषयक कार्यों में सक्रिय रूप से भागीदारी रही, फिगरेट नामक महिला स्वास्थ्य केन्द्र की स्थापना, 1966 ई. में, 1976 से चमड़े तथा सिले-सिलाए वस्त्रों का निर्यात, अपनी कंपनी 'न्यू होराईजन लिमिटेड' की प्रबंध निदेशिका, हिन्दी भाषा की लब्ध प्रतिष्ठित उपन्यासकार, कवियित्री तथा नारीवादी चिंतक का इस तरह चले जाने से हिन्दी साहित्य जगत को काफ़ी क्षत्ति हुई है। ई-हिन्दी साहित्य सभा की तरफ से आपको अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि - शम्भु चौधरी

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

आजतक द्वारा किये जा रहे पाँच दिन प्यापी बहस में हिस्सा लें:


दिल्ली में सीरियल धमाके और बंगलौर - अहमदाबाद के पहले ही सूचनातंत्र को मेल भेजकर इंडियन मुजाहिद्दीन नामक धर्मनिरपेक्ष संस्था ने यह बता दिया था कि भारत की सुरक्षा में लगे ये खुफियातंत्र कितने सतर्क हैं । हम जिस वोट के लिए व्याकुल दिखते हैं, धीरे-धीरे वे तत्त्व ही हमारी धर्मनिरपेक्षता को लील रहे हैं । राजस्थान के बाद ठीक तीन माह के भीतर ही इन तत्त्वों ने एक के बाद एक शहर को निशाने पर ले लिया और हमारी एजेंसियां देखती रह गई । शायद इनको इस बात का खतरा था कि कहिं इनके किसी भी हरकतों से देश की धर्मनिरपेक्षता को खतरा न हो जाय, नहीं तो ऐसी क्या बात थी कि राजस्थान, बंगलौर - अहमदाबाद में हुए धमाके के बाद देश की राजधानी में पुनः बड़ा धमाका हो गया और हम देखते रह गये । श्रृंखलाबद्ध इन धमाकों ने यह बताने में कोई कसर बाकी नहीं रखी कि इन तत्त्वों की ताकत हमारी राजनीतिज्ञों के धर्मनिरपेक्ष चहेरे को कितना काला कर रही है, अभी हाल ही में इनकी नंगी प्रस्तुतीकरण हमें संसद के भीतर देखने को मिली थी। ईमेल संदेश इस बात का भी संकेत देते हैं कि इन तत्त्वों के पीछे किसी आतंकवादी संगठन का हाथ न होकर धार्मिक कट्टरवादीता है । निश्श्चित रूप से यह देश के राजनेताओं के ढ़ोंगी धर्मनिरपेक्षता का ही परिणाम माना जायेगा । ऐसा प्रतीत होता है कि इनको देश से कोई हमदर्दी नहीं कोई वोट के, तो कोई नोट के लिये संसद में जाता है । हर मानसिकता में धर्मनिरपेक्षता को बचाने की ताकत काम कर रही है । ऐसी धर्मनिरपेक्षता जो इनके वोट बेंक को बरकरार रख पाये । मानो वोट के लिए देश को भी बेच देंगे ये धर्मनिपेक्षता के पहरेदार ।
इस धर्मनिरपेक्षता ने देश को अंधकार में धकेल दिया है । कोई भी सरकार कुछ करने से घबराने लगी, सुरक्षा एजेंसियां कोई ठोस कार्यवाही नहीं कर पाती, कानून को पंगू बना दिया गया है, लोग मारे जा रहे हैं और यह सब हम देखकर भी लाचार हो चुके हैं । शायद हमारी नियती को घुन लग गया है जो धीरे-धीरे हमारी धर्मनिरपेक्ष पहचान को भीतर ही भीतर चाटता जा रहा है। किसी अजगर की तरह निगल जाये इससे पहले हमें इसके परिणाम को खुली आंखों से देखना होगा न कि वोट की आंखों से । यह मामला धारा 370 का नहीं, देश की एकता और अखंडता से ताल्लुक रखता है। जिस तरह सांप्रदायिकाता से हमें खतरा है ठीक इससे कई गुणा हमें धर्मनिपेक्षता से होने लगा है, हमें किसी तीसरे मार्ग को तलाशना होगा जहाँ ये दोनों सर को कुचले जा सकें । आपकी राय भी हमें लिख भेजे। - शम्भु चौधरी

Email: Ehindi Sahitya shabha

सोमवार, 15 सितंबर 2008

कथा-व्यथा का सितम्बर माह का अंक

मित्रों,
कथा-व्यथा का सितम्बर माह का अंक प्रकाशित कर दिया गया है।

इस अंक में देखें:


संपादकीय
पत्र-पत्रिका प्राप्ती
सूचना: कथा महोत्सव-2008
पाब्लो नेरुदा
राजनैतिक बनाम सामाजिक लोकतंत्र
समीक्षा काव्य संग्रह-‘‘अभिलाषा’’
श्रद्धांजलि: कवि वेणुगोपाल को

कविताएं:


दिल का जख्म - महेश कुमार वर्मा, पटना
इन्दिरा चौधरी की दो कविता
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव "विदग्ध" की दो कविता
हर राह में सफलता है -सुनील कुमार सोनु
मैं बारूद में हूँ -पवन निशान्त
कुन्डलिया: यही है भैया सावन -देवेन्द्र कुमार मिश्रा
दीप्ति गुप्ता की मौत पर लिखी कविताएं
श्रीमती श्रद्धा जैन की तीन कविताएं
श्रीमती कुसुम सिन्हा की तीन कविताएं
नीचे दिये गये लिंक पर देखें।
http://kathavyatha.blogspot.com
katya-vyatha september-08

शनिवार, 13 सितंबर 2008

हिन्दी दिवस विशेष: विदेशों में हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ

-सुभाष निगम-


हिन्दी पत्रकारिता का विदेशों में उन्नयन यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि जिस प्रकार से भारत में हिन्दी-पत्रकारिता विभिन्न चरणों में विकसित हुई है, ठीक उसी प्रकार से विदेशों में भी प्रवासी भारतियों के द्वारा उसके विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य हुआ है। विश्व के ऐसे अनेक देश हैं जहाँ शताब्दियों पूर्व भारतीय जाकर बस गये थे और उनके वंशज आज भी वहाँ निवास करते हैं, यद्यपि पीढ़ियों से रहते हुए उन्होंने न केवल वहाँ की वेशभूषा, रीति-रिवाज और आचार-विचार के साथ ही बोल-चाल की भाषा को भी अपना लिया है, परन्तु उनमें बहुत से ऐसे भी है जो अपने धर्म, संस्कार और भाषा से भावात्मक रूप में जुड़े हुए हैं। उन्हीं के द्वारा समय-समय पर हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ किया गया था, जो अनेक रूपों में आज भी हो रहा है।
इनके मूल में हिन्दी पत्रकारिता के प्रति निष्ठा की भावना ही है। हालांकि व्यावहारिक रूप से लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से उसमें हिन्दी के साथ ही स्थानीय भाषाओं का अंश भी प्रकाशित किया जाता है और वे द्विभाषी अथवा त्रिभाषी आदि रूपों में प्रकाशित हो रहे हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से विदेशों में हिन्दी पत्रकारिता का जन्म सन् 1883 में हुआ था। इसी वर्ष लंदन से ‘हिन्दोस्थान’ नामक त्रैमासिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ था। किसी भी विदेश से प्रकाशित होनेवाले सर्वप्रथम हिन्दी पत्र के रूप में इसकी मान्यता है। इसके संस्थापक राजा रामपाल सिंह थे। यह त्रिभाषी रूप में प्रकाशित होता था और इसमें हिन्दी के साथ ही उर्दू तथा अंग्रेजी के अंश भी रहते थे। दो वर्ष तक वहाँ से प्रकाशित होते रहने के पश्चात् सन् 1885 में यह राजा रामपाल सिंह द्वारा ही कालाकांकर (अवध) से प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ। पंडित मदन मोहन मालवीय इसके प्रधान सम्पादक थे। यहाँ से यह साप्ताहिक रूप में प्रकाशित होता था। सन् 1887 में यह दैनिक के रूप में प्रकाशित होने लगा। अमृतलाल चक्रवर्ती, शशि भूषण चटर्जी, प्रताप नारायण मिश्र, बाल मुकुन्द गुप्त, गोपाल राम गहमरी, लाल बहादुर, गुलाबचन्द चैबे, शीतल प्रसाद उपाध्याय, राम प्रसाद सिंह तथा शिवनारायण सिंह इसके सम्पादक रहे थे। हिन्दी पत्रकारिता के विकास में इसका ऐतिहासिक महत्व है।

कालांतर में इंगलैण्ड की राजधानी लंदन से ही कतिपय अन्य हिन्दी पत्र भी प्रकाशित हुए। इसमें शांता सोनी द्वारा सम्पादित ‘नवीन’ शीर्षक पत्र भी उल्लेखित किया जा सकता है। यह साप्ताहिक रूप में प्रकाशित होता था। इसी प्रकार एस.एन. गौरीसरिया के सम्पादकत्व में ‘सन्मार्ग’ शीर्षक से भी एक पत्र लंदन से प्रकाशित हुआ था। पी.जे. पेंडर्स ने भी एक पत्र यहीं से प्रकाशित किया था, इसका शीर्षक ‘केसरी’ था। इसी प्रकार सुकुमार मजूमदार के सम्पादकत्व में ‘प्रवासी’ शीर्षक से प्रकाशित एक पत्र भी उल्लेखनीय है।
लंदन से जो पत्र-पत्रिकाएं हिन्दी में प्रकाशित हुई, उनमें जगदीश कौशल द्वारा सम्पादित ‘अमरदीप’ का नाम भी उल्लेखनीय है। यह एक साप्ताहिक पत्र था। इसी प्रकार लंदन में भारत से प्रकाशित ‘आज’ के प्रतिनिधि धर्मेन्द्र गौतम ने भी ‘प्रवासिनी’ शीर्षक से एक पत्र का सम्पादन आरम्भ किया था जो त्रैमासिक प्रकाशित होता था।

‘सोवियत संघ’ शीर्षक से एक पत्र मास्को से प्रकाशित होता है। इसके प्रधान सम्पादक निकोलोई गिबाचोव तथा चित्रकार अलेक्सांद्र जितो मिस्कीं हैं। इसका प्रकाशन सन् 1972 में आरम्भ हुआ था।

जापान से प्रकाशित हिन्दी पत्रों में ‘सर्वोदय’ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसका सम्पादन त्रोश्यो तनाका द्वारा किया जाता है। जापान से ही एक अन्य हिन्दी पत्रिका ‘ज्वालामुखी’ शीर्षक से भी प्रकाशित होती है। इसकी विशेषता यह है कि यह जापानी नागरिकों द्वारा ही संपादित की जाती है और इसमें उन्हीं के द्वारा हिन्दी में लिखे लेख प्रकाशित होते हैं।
फ्रांस से भी हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में कतिपय उल्लेखनीय प्रयत्न परिलक्षित होते हैं। फ्रांस की राजधानी पेरिस से ‘यूनेस्को कूरियर’ नामक पत्र का प्रकाशन उल्लेखनीय है।

मारीशस से भी हिन्दी में अनेक पत्र-पत्रिकाएं समय-समय पर प्रकाशित हुई। इसमें ‘हिन्दुस्तानी’, ‘जनता’, ‘आर्योदय’, ‘कांग्रेस’, ‘हिन्दू धर्म’, ‘दर्पण’, ‘इण्डियन टाइम्स’, ‘अनुराग’, ‘महाशिवरात्रि’ एवं ‘आभा’ आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से मारीशस से प्रकाशित होने वाला हिन्दी का सर्वप्रथम पत्र ‘हिन्दुस्तानी’ थां इसका प्रकाशन सन् 1909 है। इसके प्रथम सम्पादक मणिलाल थे।

मारिशस से प्रकाशित अन्य हिन्दी पत्रिकाओं में आत्माराम विश्वनाथ द्वारा संपादित ‘जागृति’ भी उल्लेखनीय है। काशीराम किष्टो ने भी मारीशस से प्रकाशित एक हिन्दी पत्र ‘आर्यवीर’ का सम्पादन किया था। इसी क्रय में लक्ष्मण दत्त द्वारा संपादित ‘आर्यवीर’ ‘जागृति’ शीर्षक पत्र भी महत्व रखते हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि ‘ओरियंट गजट’ नामक पत्र मारीशस से प्रकाशित हुआ। इसका प्रकाशन आरम्भ 1930 से हुआ। ‘जागृति’ नाम से एक पत्र का प्रकाशन सन् 1940 में हुआ। इसके सम्पादक आत्माराम थे। इसका पूर्व नाम ‘आर्य पत्रिका’ था। ‘मारीशस इण्डियन टाइम्स’ शीर्षक से एक साप्ताहिक पत्र पोर्ट लुई से प्रकाशित हुआ। यह बहुभाषी पत्र था, जिसमें हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के अंश भी रहते थे। सोमदत्त बरबौरी ने पोर्ट लुई से सन् 1968 में त्रैमासिक ‘अनुराग’ का सम्पादन करके हिन्दी पत्रकारिता का उन्नयन किया ।

सूरीनाम देश में भी हिन्दी पत्रकारिता के विकास के संकेत मिलते हैं। यहाँ से अनेक पत्र हिन्दी में दैनिक, साप्ताहिक और मासिक रूप में प्रकाशित हुए। ये पत्र जहाँ इस देश में हिन्दी पत्रकारिता के अस्तित्व के द्योतक हैं वहाँ दूसरी ओर प्रवासी भारतीयों की हिन्दी के प्रति रुचि को भी दर्शाते हैं। इनमें दैनिक ‘कोहिनूर’ अखबार, साप्ताहिक ‘प्रकाश’ और ‘शांतिदूत’ तथा मासिक ‘ज्योति’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

‘अमृतसिंधु नामक’ एक मासिक पत्र नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) से प्रकाशित हुआ। इसके सम्पादक भवानी दयाल थे। इसका प्रकाशन आरम्भ 1990 से हुआ था। इसी क्रम में दक्षिण अफ्रीका के डरबन नामक शहर से ‘धर्मवीर’ नामक पत्र का प्रकाशन सन् 1916 में आरम्भ हुआ था। यह एक साप्ताहिक पत्र था। इसका सम्पादक रल्लाराम गांधीलामल भल्ला ने अमर धर्मवीर पंडित लेखराम की स्मृति में आरम्भ किया था। यह पत्र हिन्दी में प्रकाशित होता था। रल्लाराम गांधीलामल भल्ला उर्दू भाषा में मूल सामग्री प्रस्तुत करते थे तथा उनके सहायक मेहर चन्द भल्ला उसका अनुवाद हिन्दी में करके उसे छपने को देते थे। सन् 1917 में इसका सम्पादन स्वामी भवानी दयाल सन्यासी ने किया। 1919 तक इस दायित्व को सफलतापूर्वक निर्वाह करने के पश्चात् कुछ लेख अंग्रेजी में भी प्रकाशित होते थे।

‘हिन्दी’नामक मासिक पत्रिका मई सन् 1922 में डरबन (दक्षिण अफ्रिका) से प्रकाशित हुई थी। इसका सम्पादन स्वामी भवानी दयाल सन्यासी करते थे। यह अपने समय का प्रवासी भारतीयों का लोकप्रिय पत्र था। इस प्रकार ‘आर्य संदेश’ शीर्षक से एक पाक्षिक ट्रिनिडाड (दक्षिण) से प्रकाशित हुआ था। इसके सम्पादक एल. शिव प्रसाद थे। इसका प्रकाशन आरम्भ सन् 1950 में हुआ था। एक अन्य पत्र ‘आर्यमिक्र’ शीर्षक से भी दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित हुआ था। यह आर्य प्रतिनिधि सभा का मुख पत्र था।
सन् 1904 में अफ्रीका के डरबन नामक स्थान से ‘इण्डियन ओपिनयन’ नामक पत्र प्रकाशित हुआ था। इसका सम्पादन मदन जीत द्वारा आरम्भ किया गया। कुछ समय पश्चात् यह गांधीजी के संरक्षण में फिनिक्स से भी प्रकाशित हुआ था। इस पत्र ने राष्ट्रीय आंदोलन के प्रसार में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था। उस पत्र से जो अन्य पत्रकार जुड़े हुए थे उनमें मदनजीत, मनसुख लाल व भवानी दयाल प्रमुख थे। इसका प्रकाशन आरम्भ 1904 में तथा प्रकाशन स्थगित 1914 में हुआ। इस पत्र की एक प्रति का मूल्य 12 शिलिंग था। यह द्विभाषी पत्र था।

बर्मा से भी समय-समय पर हिन्दी की अनेक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होती रही है। इनमें ‘प्राची प्रकाश’ ‘जागृति’ तथा ‘ब्रह्म भूमि’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि ‘प्राची प्रकाश’ दैनिक पत्र रंगून से प्रकाशित होता है। यह बर्मा से हिन्दी मंे प्रकाशित होेने वाला दैनिक पत्र है।

अविभाजित भारत में ढाका (संप्रति बंगलादेश) से भी हिन्दी की अनेक महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाएँ 19वीं और बीसवीं षताब्दियों में प्रकाशित हुई हैं। इनमें प्राचीनतम ‘बिहार बन्धु’ हैं। यह पत्रिका मासिक रूप में प्रकाशित होती थी। इसका प्रकाशन वर्ष सन् 1871 है। इसी क्रम में 1880 में एक अन्य मासिक पत्रिका ‘धर्म नीति तत्व’ शीर्षक से भी प्रकाशित हुई थी। इसका प्रकाशन वर्ष भी 1880 है। इसके आठ वर्ष पश्चात् अर्थात 1888 में ‘विद्या धर्म दिपिका’ नामक पत्रिका ढाका से ही प्रकाशित हुई थी। सन् 1889 में ढाका से ही एक अन्य हिन्दी पाक्षिक पत्रिका भी प्रकाशित हुई थी। इसका शीर्षक ‘द्वित्र’ था। इसी प्रकार 1904 में ‘नारद’ शीर्षक से भी एक पत्र का प्रकाशन ढाका से आरम्भ हुआ था। सन् 1905 में ‘नागरी हितैषी’ पत्रिका का प्रकाशन भी ज्ञातव्य है। सन् 1911 में ‘तत्व दर्शन’ शीर्षक पत्र का उल्लेख भी आवश्यक है। इस प्रकार 1939 में ‘मेल-मिलाप’ शीर्षक से एक मासिक पत्रिका भी ढाका से ही प्रकाशित हुई थी।

हिन्दी पत्रकारिता में नेपाल से प्रकाशित पत्रों का भी उल्लेखनीय स्थान है। नेपाल की राजधानी काठमाण्डू से ‘नेपाल’ शीर्षक से एक हिन्दी पत्र प्रकाशित होता है। ज्ञातव्य है कि यह पत्र दैनिक रूप में प्रकाशित होने वाला एक विशिष्ट पत्र है। आठमाण्डू से ही प्रकाशित जो अन्य पत्र उल्लेखनीय है उनमें ‘हीमोवत संस्कृत’ पत्र भी है। इसी प्रकार ‘हिमालय’ शीर्षक से भी एक पत्र बीरगंज से प्रकाशित हुआ था। इसी क्रम में ‘नव नेपाल’ शीर्षक से एक साप्ताहिक पत्र काठमाण्डू (नेपाल) से प्रकाशित हुआ। इसके सम्पादक मणिराज उपाध्यक्ष थे। इसका प्रकाशन 1955 से आरम्भ हुआ था।

स्वतंत्रतापूर्व के भारत एवं तत्पश्चात् पाकिस्तान के अन्तर्गत चले गये लाहौर से भी बहुसंख्यक पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई हैं। इनमें ‘भारतीय’, ‘विश्वबन्धु’, ‘आर्यबन्धु’, ‘आर्यजगत’, ‘शान्ति’, ‘सुधाकर’, ‘क्षत्रिय पत्रिका’, ‘मित्र विलास’, ‘बूटी दर्पण’ व ‘आकाशवाणी’ आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त ‘आर्य प्रभा’ शीर्षक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी सन् 1914 में लाहौर से आरम्भ हुआ था। इसके आदि सम्पादक संत राम तथा सहायक सम्पादक महानन्द थे। सन् 1918 से यह पत्रिका साप्ताहिक रूप से प्रकाशित हुई थी। सन् 1914 में ही लाहौर से ‘उषा’ नामक पत्रिका भी प्रकाशित हुई थी। इसके सम्पादक भी संतराम थे। जमानत न देने की असमर्थता के कारण यह पत्र दो वर्ष बाद बन्द हो गया। इसी क्रम में ‘हिन्दी मिलाप’ नामक पत्र का प्रकाशन 11 सितम्बर 1927 को खुशहाल चन्द सुखचन्द (महात्मा आनन्द स्वामी) ने लाहौर से किया था। इसका सम्पादन सुदर्शन तथा बद्रीनाथ बर्मा करते थे। बाद में इसके प्रधान सम्पादक रणबीर तथा सम्पादक यश बने। हरिकृष्ण ‘प्रेमी’, रूपनाथ मलिक और संतराम भी इसके सम्पादकीय विभाग से जुड़े रहे थे। भारत विभाजन काल में इसके सम्पादक आत्म स्वरूप शर्मा थे जिन्होंने 15 अगस्त 1947 को अपना बलिदान कर दिया। सन् 23 सितम्बर 1949 से यश के सम्पादकत्व में यह जालंधर से पुनः प्रकाशित हुआ। इसका उर्दू संस्करण रणवीर के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुआ तथा एक अन्य संस्करण युद्धवीर के सम्पादकत्व में हैदराबाद से प्रकाशित होता है। इसका एक अन्य संस्करण लंदन से भी प्रकाशित होता है।

हिन्दी पत्रकारिता के विकास में विदेशों मे जो कार्य हुआ है उसको दृष्टि में रखते हुए फिजी से प्राकशित हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का महत्व अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। यहाँ से बहुसंख्यक पत्रों का प्रकाशन हुआ है जो सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक विषयों के साथ-साथ कृषि विज्ञान आदि से भी सम्बन्धित रहे है। ‘अखिल फिजी कृषक संघ’ शीर्षक से एक ऐसे ही पत्र का प्रकाशन दीनबन्धु के सम्पादकत्व में फिजी से हुआ था। इसी प्रकार ‘किसान’ शीर्षक से भी एक पत्रिका का प्रकाशन बी.बी. लक्ष्मण के द्वारा किया गया था। कृषि विषयक एक अन्य पत्रिका नन्द किशोर के सम्पादकत्व में ‘किसान मित्र’ शीर्षक से भी प्रकाशित हुई थी।
फिजी द्वीप समूह से जो अन्य पत्र-पत्रिकाएँ समय-समय पर प्रकाशित होती रही है, उनमें कमला प्रसाद मिश्र द्वारा ‘जय फिजी’ विवेकानन्द शर्मा द्वारा सम्पादित ‘सनातन संदेश’ तथा ‘फिजी संदेश’ जय नारायण शर्मा द्वारा सम्पादित ‘शांति दूत’ राघवनन्द शर्मा द्वारा ‘जागृति’, चन्द्रदेव सिंह द्वारा सम्पादित ‘फिजी समाचार’ आदि प्रमुख है। इसी क्रम में ‘फिजी सरकार’ तथा ‘पुस्तकालय’ आदि पत्रिकाएँ भी उल्लेखनीय हैं।

फिजी द्वीप समूह से ही प्रकाशित जिन अन्य बहुसंख्यक पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेख करना यहाँ आवश्यक है, उनमें ‘इण्डियन टाइम्स’ शीर्षक मासिक पत्रिका भी प्रमुख है। यह रामसिंह के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुई थी। यह एक द्विभाषी पत्रिका थी, जिसमें हिन्दी के साथ अंग्रेजी का अंश भी रहता था।

‘इण्डियन सेटेलर्स’ नाम से एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन सन् 1917 में हुआ था। इसके संपादक डा.मणिलाल तथा बाबू रामसिंह थे। 13 वर्ष तक प्रकाशित होने के पश्चात् सन् 1930 में यह पत्रिका बन्द हो गयी। यह सुवा से प्रकाशित होती थी। लिथो में मुद्रित यह बहुभाषी पत्रिका थी जिसमें हिन्दी का अंश भी रहता था।

सन् 1923 में ‘फिजी समाचार’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ था। यह पत्र बाबू राम सिंह के सम्पादकत्व में प्रकाशित होता था। यह एक साप्ताहिक पत्र था। इसका सम्पादन राम खिलावन शर्मा ने भी किया था। इसकी एक प्रति का षुल्क 3 पेनी और वार्षिक षुल्क 10 शिलिंग था। इसका प्रकाशन सन् 1975 में स्थापित हो गया था। यह इण्डियन पब्लिसिंग कम्पनी माक्र्स स्ट्रीट सुवा (फिजी) से प्रकाशित होता था। यह एक द्विभाषी पत्र था जिसमें हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी का अंश भी रहता था। गुरुदयाल शर्मा ने सन् 1928 में ‘वृद्धि’, 1930 में ‘पैसेफिक’ तथा सन् 1932-33 में ‘वृद्धि वाणी’ का सम्पादन एवं प्रकाशन करके फिजी में हिन्दी पत्रकारिता का प्रसार किया। सन् 1935 में सुवा से प्रकाशित‘शान्ति दूत’की स्थापना का श्रेय भी उन्हें प्राप्त है।

फिजी द्वीप समूह से ही ‘तारा’ नामक एक मासिक पत्रिका सन् 1941 में प्रकाशित हुई थी। इसका सम्पादन ज्ञानी दास करते थे। इस पत्रिका की एक प्रति का षुल्क 3 शिलिंग और वार्षिक 12 शिलिंग था। यह कुछ समय तक पाक्षिक रूप में ही प्रकाशित हुई थी। इसका त्रैमासिक संस्करण भी प्रकाशित होता था। इसका प्रकशन कार्यालय नसीनू (सुवा) में था। इसी प्रकार सिगातों का (फिजी) से राघवानन्द ने सन् 1976 से ‘जागृति’ शीर्षक का प्रकाशन करके हिन्दी पत्रकारिता के विकास में योगदान दिया। फिजी हिन्दी पत्रकार संघ के उप प्रधान के रूप में भी उनका क्रिया कलाप उल्लेखनीय है। इसी संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि ‘फिजी’ संदेश शीर्षक से एक पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन बी.एल. मानिस के द्वारा किया गया था।