रविवार, 2 दिसंबर 2007
लक्ष्य
मेरे साथ चलो न चलो
मेरी बातों को मानो न मानो,
हम सबका लक्ष्य एक है;
उसकी तरफ बढ़ते रहो, हमेशा की तरह,
कल भी, आज भी, कल भी,
इसे कोई प्रण कह ले या चुनौती;
इसे ही स्वीकार करना होगा!
क्षमता हो या न हो,
लक्ष्य की तरफ बढ़ना ही होगा,
कल भी, आज भी, कल भी।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी़-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106
एक दाने की तलाश!
नयी सदी का आना,
किरणों में एक सदी का गुजर जाना,
एक सदी के गर्भ में ही, एक सदी का जन्म
नई पौध, नया उत्साह, नई उर्जा, नया उमंग,
पर चिडि़यों की कोलाहल मैं, कुछ भी नया नहीं था।
वही धुन, वही राग, न वीणा न कोई तान,
बस था वही पुराना सा दर्द,
एक दाने की तलाश!
एक दाने की तलाश।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी़-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106
किरणों में एक सदी का गुजर जाना,
एक सदी के गर्भ में ही, एक सदी का जन्म
नई पौध, नया उत्साह, नई उर्जा, नया उमंग,
पर चिडि़यों की कोलाहल मैं, कुछ भी नया नहीं था।
वही धुन, वही राग, न वीणा न कोई तान,
बस था वही पुराना सा दर्द,
एक दाने की तलाश!
एक दाने की तलाश।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी़-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106
सती
मैं तो भावावेश में जल रही थी,
तुने आवेश में जलाया,
पापा-पापा मैंने की,
ऎ पापी!
तुने सती बनाया।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी़-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106
तुने आवेश में जलाया,
पापा-पापा मैंने की,
ऎ पापी!
तुने सती बनाया।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी़-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106
मैं भी धन्य हो जाऊँ
जन्म मुझे दो एक बार माँ, ऎसा गौरव पाऊँ,
इस मिट्टी का तिलक लगा, मैं भी धन्य हो जाऊँ।
जिस धरती का सुहाग, अमर अमिट हो लहराता हो,
कच्चे धागे का बंधन भी, तोड़ न कोई पाता हो,
माँ की ममता, दूध पिलाने को, हो जाती आतुर;
गौरव से सर ऊँचा कर जब गाँव-गाँव मुसकाता हो,
ऎसी धरा पर जन्म लेने को, मन मेरा अकुलाता है।
जन्म मुझे दो एक बार माँ, ऎसा गौरव पाऊँ,
इस मिट्टी का तिलक लगा, मैं भी धन्य हो जाऊँ।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी़-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106
ये आँखें हैं!
आँखों की स्नेह भरी दुनिया में, बीज ऩफ़रत के मत बोना।
ममता भरी इन आँखों में, आंसू के मोती मत पोना।।
प्यार भरी इन आँखों में, कामुक्ता से मत धोना।
शर्म-ओ-हया इन आँखों की, इंसान के आगे मत खोना।।
आँखों को देने वाले से, आँखें न कभी मिलाना तुम।
नफ़रत के बीज बोने वाले, खेती आँखों में हलने वाले,
बारूद के बल चलने वाले, जह़र के शब्दों से सींचने वाले;
नासमझ को बहकाने वाले,
इंसानों को धमकाने वाले,
यह मत समझो, इन आँखों ने,
जो तुमने दिखलाया,वो ही देखा,
बस देखा है इन आँखों ने वो सब !
जो तुमने नहीं देखा।
देगी ये आँखें ही तेरे इन कारनामों का जबाब,
जब ये जलेगी, तो मांगेगी, एक-एक से जनाब!
आज न सही,
तुम हिटलर, लादेन बनो या सद्दाम!
ये आँखें हैं!
आयेगी जरूर लेने एक दिन, अपना हिसाब
आयेगी जरूर लेने एक दिन, अपना हिसाब -शम्भु चौधरी
ममता भरी इन आँखों में, आंसू के मोती मत पोना।।
प्यार भरी इन आँखों में, कामुक्ता से मत धोना।
शर्म-ओ-हया इन आँखों की, इंसान के आगे मत खोना।।
आँखों को देने वाले से, आँखें न कभी मिलाना तुम।
नफ़रत के बीज बोने वाले, खेती आँखों में हलने वाले,
बारूद के बल चलने वाले, जह़र के शब्दों से सींचने वाले;
नासमझ को बहकाने वाले,
इंसानों को धमकाने वाले,
यह मत समझो, इन आँखों ने,
जो तुमने दिखलाया,वो ही देखा,
बस देखा है इन आँखों ने वो सब !
जो तुमने नहीं देखा।
देगी ये आँखें ही तेरे इन कारनामों का जबाब,
जब ये जलेगी, तो मांगेगी, एक-एक से जनाब!
आज न सही,
तुम हिटलर, लादेन बनो या सद्दाम!
ये आँखें हैं!
आयेगी जरूर लेने एक दिन, अपना हिसाब
आयेगी जरूर लेने एक दिन, अपना हिसाब -शम्भु चौधरी
शनिवार, 1 दिसंबर 2007
समझौता
गाँव से आया एक परिवार,
सड़क के किनारे,
घर बसा, खुदा से दुआ मांग रहा था।
कल तक गाँव में जो लड़की,
लगती थी आँखों को प्यारी,
शहर में आते ही लगी थी खटकने,
कल तक जो बच्ची लगती थी,
आज लगने लगी थी बड़ी,
पर लाचार हो चुपचाप था,
सुबह कब हुई, पता ही नहीं चला,
सामने लड़की चाय लिये खड़ी थी,
अब्बा ! चाय पी लो !
उसकी आँखों में शर्म,
और मेरी आँखों में लाचारी
दोनों ने एक दूसरे से समझौता कर लिया था।
उसने भी अपनी आँखें छुपा ली,
मैंने भी अपनी आँखें झूका ली
- शम्भु चौधरी
सड़क के किनारे,
घर बसा, खुदा से दुआ मांग रहा था।
कल तक गाँव में जो लड़की,
लगती थी आँखों को प्यारी,
शहर में आते ही लगी थी खटकने,
कल तक जो बच्ची लगती थी,
आज लगने लगी थी बड़ी,
पर लाचार हो चुपचाप था,
सुबह कब हुई, पता ही नहीं चला,
सामने लड़की चाय लिये खड़ी थी,
अब्बा ! चाय पी लो !
उसकी आँखों में शर्म,
और मेरी आँखों में लाचारी
दोनों ने एक दूसरे से समझौता कर लिया था।
उसने भी अपनी आँखें छुपा ली,
मैंने भी अपनी आँखें झूका ली
- शम्भु चौधरी
प्रेम
प्रेम तो बस्ती में बचा था,
पाँच-दस रूपये में नीलाम हो रहा था,
लोगों की लगी थी लम्बी कतारें,
घर के बच्चे सो गये थे ,
थके-हारे।
इस प्यार के इंतजार में ,
कुछ हमारे - कुछ तुम्हारे।
पाँच-दस रूपये में नीलाम हो रहा था,
लोगों की लगी थी लम्बी कतारें,
घर के बच्चे सो गये थे ,
थके-हारे।
इस प्यार के इंतजार में ,
कुछ हमारे - कुछ तुम्हारे।
कारपेन्टर
एक नेता ने अपने एक साथी से कहा;
जल्दी से कोई ऎसा राज बताओ,
या फिर संसद से कोई मंत्री की -
कुर्शी ही गायब करवाओ,
मुझे मंत्री बनना है।
कोई चमत्कार दिखलाओ,
पास खड़े एक समर्थक ने कहा -
सर! मेरे पास वही ' कारपेन्टर ' है,
जिसने संसद की सारी कुर्सियाँ बनाई है,
कहें तो,
मन्त्री की क्या बात करते हैं, सर्!
सीधे प्रधानमंत्री की ही कुर्सी बनवा लाता हूँ।
जल्दी से कोई ऎसा राज बताओ,
या फिर संसद से कोई मंत्री की -
कुर्शी ही गायब करवाओ,
मुझे मंत्री बनना है।
कोई चमत्कार दिखलाओ,
पास खड़े एक समर्थक ने कहा -
सर! मेरे पास वही ' कारपेन्टर ' है,
जिसने संसद की सारी कुर्सियाँ बनाई है,
कहें तो,
मन्त्री की क्या बात करते हैं, सर्!
सीधे प्रधानमंत्री की ही कुर्सी बनवा लाता हूँ।
भरोसा
खून की बोतल लिये, खड़ा एक मरीज,
मांग रहा था भीख।
दया करो! मांई-बाप!
आपके हाथों का स्वाद, कुछ अनोखा है,
न कोई कत्ल, न कोई धोखा है।
दिवालों पर लिखे नारों में,
इतना तो भरोसा है।
मानवाधिकारी से फरियाद
जेल में बन्द एक अपराधी, आयोग से गुहार लगाई।
हजूर!
मैं अपराधी नहीं हूँ, कत्ल के आरोप जो लगे हैं
अदालत में न कोई गवाह, न उनके कोई सबुत मिले हैं ;
और जो कत्ल हुए हैं उनके गुणाहगार सत्ता के मुलाजिम हैं।
मैने तो बस पेट के लिये उनका काम ही किया है,
हजूर!
ये लोग रोज मुझे मारते-पिटते और मुझ पे जुल्म ढाते हैं,
तड़पा-तड़पा के पानी पिलाते व दो दिन में एक बार ही खिलाते हैं
कड़कती सर्दी में रात को कम्बल छिनकर ले जाते हैं,
दवा के नाम पे ज़हर देने की बात दोहराते हैं।
हजूर!
ऎसा लगता है, आकावों के डर से मुझे डराते और धमकाते हैं,
भेद ना खुल जाये, इसलिये बार-बार आकर मुझे समझाते हैं
मुझे डर है कि ये लोग मुझ से भी बड़े अपराधी हैं
जो कानून की शरण में सारे गैर-कानूनी हथकण्डे अपनाते हैं।
हजूर!
मैं न सिर्फ निर्दोष, गरीब और बाल-बच्चेदार भी हूँ,
घर में मेरी पत्नी और बीमार माँ परेशान है,
मेरे सिवा उनको देखने वाला न कोई दूसरा इंसान है,
बच्चे सब छोटे-छोटे, करता मैं फरियाद हूँ।
हजूर!
ये लोग जान से मारने का सारा इंतजाम कर चुके हैं,
अदालत से कहिं ज्यादा इनका खौफ़ देख
करता मुझे हैरान है, कलतक मैं सोचा करता था,
शहर का सबसे बड़ा अपराधी मैं ही हूँ,
इनकी दुनिया देख तो लगता है मैं तो कुछ भी नहीं हूँ।
हजूर!
मै मानव हूँ, मुझे भी जीने का अधिकार है,
आप ही मेरे कृष्ण भगवान हैं, इस काल कोठरी में दिखती ;
एक मात्र आशा की किरण, जो आपके गलियारे से आती दिखाई देती है।
इस लिये है मानवाधिकारी!
हजूर!
आपके शरण में मैं खड़ा हूँ!
आपके शरण में मैं खड़ा हूँ!
-शम्भु चौधरी, एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106