मंगलवार, 21 मई 2019

व्यंग्य - गरम-गरम चाय - शंभु चौधरी

व्यंग्य -  गरम-गरम चाय - शंभु चौधरी  
हाँ ! तो मैं सोच रहा था कि कोई "स्टार्टअप इंडिया " के अंतर्गत नया करोबार कर लिया जाए। पत्रकारिता करते-करते हम इतने कमजोर हो जाएंगे यह पहली बार एहसास हुआ। दिमाग जिस तेजी से सड़कों पर समाचार चुनने में, लिखने में काम कर रहा था वह रोजगार खोलने के नाम पर पूरा रूह ही कांपा दिया। दिमाग के परचे-परचे उखड़-उखड़ कर हाथ में आने लगे।  

वैसे आम बेचना बुरा तो नहीं हैं ? जब से भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी के विचार सुने तो मुझे स्टार्टअप इंडिया के अंर्तगत कई नये-नये आइडिया मेरी ज्ञानेंद्रियों में उछल-उछल के अपने आप आने लगे। कल जब मेरे एक मित्र से चर्चा की कि मैं आम का धंधा शुरू करने वाला हुँ तो उसने मेरे दो दिनों की मेहनत पर पानी ही फेर दिया, मानो वह किसी शोध खाने से ताजा-ताजा पककर निकला हो। बताने लगा कि " भाई ! आम का मौसम तो बस दो ही महीने का होता है फिर दस महीने क्या करोगे ?"  फिर आम के साथ 'आम पपड़ा', आम का आचार, आम का शर्बत का भी कारोबार शुरू कर लो बताने लगा इसके लिए एक छोटा सा फ़ैक्टरी भी डाल लो आजकल बैंक से स्टार्टअप के नाम पर पैसा भी मिल जायेगा। थोड़ा मुसकराते हुए भाई इस घंधे में मुझे भी पार्ट टाइम नौकरी रख लेना । बस प्रेस का काम समाप्त होते ही तेरे पास आ जाऊँगा तेरे काम में हाथ भी बंटा दूँगा और कुछ कमाई भी हो जायेगी वैसे ही आजकल प्रेस की नौकरी से गुजारा नहीं चलता। 

अब मैं उसकी बात सुनकर नई उलझन में पड़ गया। स्टार्टअप खोलने के लिए इतने बड़े महानगर में जगह किधर से लाऊँगा । रात भर छोटी सी जगह में करवटें बदलता रहा। पत्रकारिता करते-करते  15 साल से ऊपर हो गए अभी तक एक लाख जमा नहीं कर पाया। कुली-कबाड़ी ही मेरे से अच्छे हैं जो कम से कम मेहनत-मजदूरी कर मेरे से अच्छा कमा लेते हैं। पिछले माह ही एक स्टोरी तैयार की थी जिसमें देखा कि कोलकाता के एक कटरे में काम करने वाले ‘झाकिया’ जिसे लोग ‘झाका वाला’ भी बोल कर बुलाते हैं जो अपनी टोकरी में व्यापारियों या ग्राहकों का माल उठाकर उनके बताये स्थान पर पंहुचा देता है। उनके पास बेंत की एक चोड़ी टोकरी होती है जिसमें कुछ रस्सियां भी बंधी रहती है जो सामान बांधने के काम आती है। कोलकाता में ये झाका वाले लगभग सभी बिहार/झारखंड के ही हैं। ये लोग हर साल फसल बुवाई के समय गांव चले जाते हैं। मुझे तो गांव गये ही चार साल हो गये । परिवार को ही दो बार यहां बुला लिया करता हूँ उनका घुमना भी हो जाता है।  ख़रीददारी भी हो जाती है।

यह सब सोचते-सोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। सुबह रोजाना की तरह सारे समाचार पत्र पढ़ने में एक घंटा निकाल दिया । लोकसभा के सातों चरण के चुनाव समाप्त हो चुके थे । मीडिया पार्टी एक तरफ मोदी पार्टी को 300 सीटें से कम देने को तैयार नहीं थी तो दूसरी तरफ विपक्ष को मीडिया की बात गले ही नहीं उतर रही थी । चुनाव के समय बंगाल की राजनीति में नया दंभ भरने वाली पार्टी का बहुत सारा काम मुझे भी मिला था। आपसे क्या छुपाना रोजी-रोटी किसे नहीं प्यारी लगती। सत्ता में कोई आये (मरे), कोई जाए (जीयें), अपना तो ‘‘कफन का करोबार’’ करना है । चुनाव के समय नहीं कमाये तो पत्रकार ही क्या?  अब श्मशान में भी कोई मुर्दे की लाश से व्यापार ना करें तो वह कैसा व्यापारी?  पत्रकार तो रोजना जो खबरें देता है उसमें लाशें ही गिनना तो  हमारा काम है जैसे 'कफन बेचना' । एक व्यापारी 'मुर्दे' के लिए उनके परिवार वाले को 'कफ़न' बेच सकता है तो हम जिंदा इंसानों को "मुर्दे के कफन" क्यों नहीं बेच सकते?  फर्क सिर्फ इतना है एक व्यापारी मुर्दे को कफन उढ़वाता है हम पत्रकार उसके "मुर्दे के कफन" को नोच के उतार देते हैं।


मेरे एक मित्र हैं कुछ ही दिन पूर्व ही ‘‘संमार्ग समाचार’’  से सेवानृवित हुए हैं। बताने लगे की जब तक कोई बड़ी घटना नहीं घट जाती हमें बैचेनी बनी रहती कि आज कुछ घटा ही नहीं कैसे दिन गुजरेगा। दिनभर देश व शहर की गंदगी को समेटना हमारा काम होता है। संपादक उन गंदगी में से उसको छांटता है। प्रकाशक उसे छापता है और हाॅकर आपके-हमारे घर में दिन भर की जमा गंदगी को फैंक आता है। मजे की बात यह है कि इसे पाठक वर्ग बड़े चाव से स्वाद ले-लेकर पढ़ते हैं। विज्ञापन का सुख अलग से वह भी मुफ्त मिलता है।

हाँ ! तो मैं सोच रहा था कि कोई "स्टार्टअप इंडिया"  के अंतर्गत नया करोबार कर लिया जाए। पत्रकारिता करते-करते हम इतने कमजोर हो जाएंगे यह पहली बार एहसास हुआ। दिमाग जिस तेजी से सड़कों पर समाचार चुनने में,  लिखने में काम कर रहा था वह रोजगार खोलने के नाम पर पूरा रूह ही कांपा दिया। दिमाग के परचे-परचे उखड़-उखड़ कर हाथ में आने लगे। 

शाम को चाय की दुकान पर एक अन्य मित्र ने मेरी परेशानियों को भांप ही लिया। पूछ ही बैठा यार! - ‘‘गांव में सब कुशल-मंगल तो है न? ’’ चाय वाले को उसने ही दो चाय बनने का ऑडर देते हुए मेरे से हालचाल पूछने लगा। मैंने भी बिना किसी संकोच के उसे अपनी सारी कहानी एक ही सांस में सुना दी। बोले इसमें क्या बात है। बस मेरे एक मित्र हैं जो बैंक में मैनेजर हैं उनसे बोल कर तेरा सारा काम करवा दूंगा। तुम इसके साथ मेरी एक सलाह और मानो लो साथ में "चाय और पकौड़े" का कारोबार और जोड़ देना। तर्क के साथ उसने मुझे समझाया ‘‘अब देखो विदेश से आकर पीजा-बर्गर धरल्ले से बिकने लगा की नहीं।’’ साथ में एक गट्टर बना लेना सारा कचरा उसी में जमा करना उससे कुछ ही दिन में गैस भी पैदा होने लगेगी। 

तभी चाय वाले ने मेरे हाथ में गरम-गरम चाय का ‘भांड’ पकड़ा दिया । चाय पीते-पीते फिर हम मीडिया की बातें करने लगे । कुछ 23 मई से पहले ही मोदीजी को शपथ दिला रहे थे कुछ उनकी सरकार छीनने में लगे थे। मैं भी वहां से उठा और समाचार चुनने के लिए सड़कों की धूल छांकने लगा।  - शंभु चौधरी 

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