शनिवार, 28 दिसंबर 2013

केजरीवाल का ऐतिहासिक भाषण -शम्भु चौधरी



अब यह सरकार सिर्फ 7 मंत्री नहीं चलायेगें, सरकार कुछ अफ़सर नहीं चलायेगें, सरकार कुछ पुलिसवाले नहीं चलायेंगें। हमें ऐसी व्यवस्था कायम करगें दिल्ली के अंदर हम डेढ़ करोड़ लोग मिलकर सरकार बनायेगें। डेढ़ करोड़ मिलकर सरकार चलायेगें। - अरविंद 

मेरी एक कविता है-
वोटों की ताकत को जानो, अपनी ताकत  को  पहचानो,
   घर-घर अलख जगा दो आज, भ्रष्टाचार मिटा दो आज। 




























अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के रामलीला मैदान के ऐतिहासिक मंच पर


श्री अरविंद केजरीवाल ने आज दिल्ली के रामलीला मैदान के ऐतिहासिक मंच पर अपने 6 विधायकों के साथ मुख्यमंत्री पद व गोपनीयता की शपथ लेकर देश के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। लोकतंत्र इस रामलीला मैदान से मानो हुंकार भर यह कह रहा हो- ‘‘मुझे मजाक से भी हल्का मत लेना’’

लाखों लोगों के जन सैलाब, लबालब भरा रामलीला मैदान को देशभर की जनता अपनी आंखों से देख रही थी । भारत के इतिहास में सैलाब वह भी एक साधारण सामाजिक जीवन से राजनीति में आने वाले एक आम आदमी के उस क्षण का है जो हमेशा से ही अपना नया रास्ता बनाता रहा है। मध्यम श्रेणी के परिवार में जन्मे श्री अरविंद केजरीवाल ने अपने चंद साथियों के साथ सफलता के उस शिखर पर कदम रखने के लिए अपना पहला कदम बढ़ा दिया हो।
दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जिस ऐतिहासिक जीत की कल्पना किसी ने भी नहीं की थी, आम आदमी पार्टी ने उन तमाम राजनैतिक आंकड़ों को उथल-पुथल कर रख दिया। लोकतंत्र क्या होता है यह देश की जनता को बता दिया। भले ही इसका रूप हमें आज बहुत छोटा नजर आता हो पर कहावत है- ‘‘ देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर’’ जो राजनीति पार्टियाँ अपने अहंकार में मस्त-मस्त हो चल रही है अथवा जो राजनेता इस बात के घमंड में चूर है कि वे सत्ता की ताकत से इस आम आदमी को मिटा देने का जज्बा रखते हैं उनके एक लिए अरविंद केजरीवाल एक सबक है।

दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान से श्री अरविंद केजरीवाल अपनी टीम के साथ शपथ लेने के तुरंत बाद जो भाषण दिया उस भाषण के प्रमुख अंश जो इस प्रकार है। -

अभी हमने मुख्यमंत्री और मेरे साथियों ने मंत्री पद की शपथ ली है। यह सारी लड़ाई जो हमलोगों ने लड़ी थी, यह सारी कबायत जो हमलोगों ने की थी, यह कबायत हमलोगों ने अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाने के लिए नहीं की थी। यह सत्ता के किले तोड़कर सत्ता जनता के हाथ में देने के लिए की थी।

 दोस्तों!! आज आम आदमी की जीत हुई है। दिल्ली के लोगों ने इस बार दिल्ली विधानसभा के चुनाव में एक बहुत बड़ा काम कर के दिखाया है। अभी तक हमलोग, इस देश के लोग बिल्कुल निराश हो चुके थे, हमें लगता था इस देश का कुछ नहीं हो सकता यह देश तो बिल्कुल गर्त में जा रहा है। इस देश की राजनीति ने सब कुछ बर्बाद कर दिया था, लेकिन इसबार दिल्ली विधानसभा के चुनाव में दिल्ली के लोगों ने दिखा दिया कि ईमानदारी से भी राजनीति की जा सकती है। ईमानदारी से चुनाव लड़ें जा सकतें हैं, और ईमानदारी से चुनाव जीते जा सकते हैं।

दोस्तों!  इसके लिये मैं आप सब लोगों को बहुत-बहुत बधाई देता हूँ। दिल्ली के लोगों को बधाई देता हूँ। यह एक बहुत बड़ी जीत है, दिल्ली के लोगों की जीत है। मैं परमपिता परमेश्वर, ईश्वर, अल्लाह, वाहेगुरु उनको मैं धन्यवाद देना चाहुँगा। जो यह जीत हुई है, यह वाकई यह कुदरती करिश्मा लगता है। नहीं तो आज से दो साल पहले हमलोग यह सोच भी नहीं सकते थे। इस देश में ऐसी क्रांति आयेगी कि जो जब हम भ्रष्ट पार्टियों को उखाड़ कर फेंक देगें और असल में जनता का राज स्थापित होगा।

दोस्तों!! यह हमारी वजह से नहीं हुआ। यह जरूर कुछ न कुछ कुदरती करिश्मा है। इसके लिये हम भगवान को धन्यवाद अदा करता हूँ, ईश्वर को धन्यवाद अदा करता हूँ अल्लाह का शुक्रिया अदा करता हूँ।

दोस्तों! अभी तो यह शुरूआत है। अभी तो केवल आम आदमी की सरकार बनी है। असली लड़ाई अभी बहुत लम्बी है। यह लड़ाई हम लोग नहीं लड़ सकते। अरविंद केजरीवाल अकेले नहीं लड़ सकता। हम 6 लोग 7 लोग मिलकर यह लड़ाई नहीं लड़ सकते। लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि अगर दिल्ली के डेढ़ करोड लोग़ एकट्डें हो जायें तो इस देश से दिल्ली से भ्रष्टाचार हम दूर कर सकते हैं। हम मिलकर भ्रष्टाचार दूर कर सकते हैं।

दोस्तों ! हमें यह बिल्कुल गुमान नहीं है, हमें यह बिल्कुल घमंड नहीं है कि सारी समस्याओं का समाधान हमारे पास है। हमारे पास सारी समस्याओं का समाधान नहीं है। भगवान ने सारी बुद्धी हमें नहीं दी है। हमारे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है कि आज सरकार बनेगी, कल सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। लेकिन हमें यह पूरा यकिन है कि यदि दिल्ली के डेढ़ करोड़ लोग एकट्डा हो गए तो ऐसी कोई समस्या नहीं कि जिसका समाधान हम नहीं निकाल सकते। हमें अब दिल्ली मिलकर चलानी होगी।

अब यह सरकार सिर्फ 7 मंत्री नहीं चलायेगें, सरकार कुछ अफ़सर नहीं चलायेगें, सरकार कुछ पुलिसवाले नहीं चलायेंगें। हमें ऐसी व्यवस्था कायम करगें दिल्ली के अंदर हम डेढ़ करोड़ लोग मिलकर सरकार बनायेगें। डेढ़ करोड़ मिलकर सरकार चलायेगें। 

आम आदमी पार्टी की टोपी पहने अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। इनके साथ 6 अन्य मंत्रियों ने भी शपथ ग्रहण किया । दिल्ली के उप राज्यपाल श्री नजीब जंग ने इनको पद की गोपनीयता की शपथ दिलाई। यह एक ऐतिहासिक वह झण था जिसे दिल्ली वासियों ने ना सिर्फ सुना इस घटना को अमर बना दिया है।
 -शम्भु चौधरी 28/12/2013

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

आम आदमी की सरकार -शम्भु चौधरी

कांग्रेसी नेताओं के अहंकार ‘‘हम चुनकर आयें हैं, हमसे बात करना हो तो चुन कर आयें। जनता ने प्रतिनिधित्व करने का दायित्व हमें दिया है। आपलोग एक भीड़ का हिस्सा हो।’’ जैसे शब्दों का चयन करना और उनको देश की जनता को सीधे तौर इस बात की चुनौती देना कि राजसत्ता में जनता कि नहीं नेताओं की बात सुनी जाती है। आखिरकार दिल्ली की जनता ने इनके इस अहंकार को नस्तनामूद कर दिया।
श्री प्रमोद शाह की एक कविता है-
इंतजार और नही, और नहीं, और नहीं
गर बदलना है इसे, आज बदलना होगा। 

आम आदमी पार्टी का उदय एक ऐसे समय में हुआ है जब देश की प्रायः सभी राजनैतिक पार्टियों के भीतर अधिकांशतः नेतागण भ्रष्टाचार में लिप्त हो चुके हैं। धीरे-धीरे इनकी जड़ें इतनी मजबूत हो चूंकि है कि ये लोग भ्रष्टाचारियों व दागी नेताओं को सही ठहराये जाने के पक्ष में कई तरह के तर्क देते नहीं थकते। इन सबके बीच दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों ने इन नेताओं की जुबान पर मानो ताला ही जड़ दिया हो। आम आदमी के हित को अनदेखी करने वाले नेता आज मजबूर और बेबस नजर आने लगे हैं। 

भले ही इस बेबसता के बीच आम आदमी को भले ही दिल्ली के चुनाव में आंशिक सफलता ही मिली हो, परन्तु इस सफलता की चर्चा ना सिर्फ देश में, दुनियाभर में हो रही है। दुनिया को केजरीवाल के अंदर ना जाने ऐसा क्या दिख रहा है कि भारत की बदलती राजनीति में उन्हें एक मसीहा के तौर पर देखा जाने लगा है। 

केजरीवाल के अंदर भ्रष्टाचार से लड़ने की ताकत का अंदाजा उस समय लगा जब 2011 में श्री अण्णा हजारे ने केजरीवाल के सहयोग से रामलीला मैदान में ‘‘इंडिया एगेंस्ट कप्शन’’  के बैनर तले अनशन किया गया था। उस ऐतिहासिक घटना को दुनियाभर के लोगों ने देखा था। 

कांग्रेसी नेताओं के अहंकार ‘‘हम चुनकर आयें हैं, हमसे बात करना हो तो चुन कर आयें। जनता ने प्रतिनिधित्व करने का दायित्व हमें दिया है। आपलोग एक भीड़ का हिस्सा हो।’’ जैसे शब्दों का चयन करना और उनको देश की जनता को सीधे तौर इस बात की चुनौती देना कि राजसत्ता में जनता कि नहीं नेताओं की बात सुनी जाती है। आखिरकार दिल्ली की जनता ने इनके इस अहंकार को नस्तनामूद कर दिया।

उस समय देश की आम जनता को लगा कि भ्रष्ट व्यवस्था बदलने के लिए सत्ता में अच्छे और इमानदार लोगों को सामने आना ही होगा। अण्णा आंदोलन के समय देशभर की यही भावना थी कि अच्छे लोगों को राजनीति में आना ही होगा। जिसकी कमान संभाली श्री अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, संजय सिंह व गोपाल राय ने। तमाम राजनीति विपरीत परिस्थितियों व सहयोगी के अड़ियल रूख के बावजूद इन लोगों ने हार नहीं मानी। 
राजनीति का क, ख, ग भी नहीं जानने वाले साथियों के साथ मिलकर एक विचारधारा ‘‘पूर्ण स्वराज्य’’ के सिद्धांतों को लेकर आगे बढ़ाने का दृढ़ संकल्प ले इन नन्हे सेनानियों की टोली ने दिल्ली में अपना भाग अजमाने चुनावी मैदान में कूद पड़े। इस बगावत के झंडे को जिसने भी थामा उसे जनता ने सर पै बैठा लिया। 40-40 साल से चुने जानेवाले कदवार नेता को एक अदने से आम आदमी के सामने मुंह की खानी पड़ी। लोकतंत्र मानो हंस कर कह रहा था ‘‘मुझे मजाक से भी हल्का मत लेना’’

इन सबके बीच कांग्रेस ने पुनः एक नई चाल चली, इन लोगों ने अण्णाजी को पुनः अनशन कराने और देश की भावना को बांटने की साजिश रची। आनन-फानन में एक लंगड़ा लोकपाल सदन के पटल पर लाया गया। भाजपा के नेता तो इस लंगड़े बिल को पारित करने के लिए इतने उतावले दिखे कि उन्होंने यहां तक कह डाला कि इसे पारित करने के लिए वक्त ना मिले तो बिना बहस के ही इस बिल को पारित किया जा सकता है। इन दोंनो राजनैतिक पार्टियों के उतावलेपन से साफ हो गया था कि केजरीवाल के बढ़ते कद का इनको पहले से ही आभास हो चुका था। जिसे ये लोग लोकपाल बिल चाहे जैसा ही क्यों न हो पारित कर दिल्ली की जनता का ध्यान बांट देना चाहते थे। ताकि चुनाव में आम आदमी पार्टी को करारी शिकस्त दी जा सके साथ ही देश में बन रहे नये राजनीति धुर्वीकरण को रोका जा सके।

कहावत है ‘‘जो लोग दूसरों के लिए गड्ढा खोदतें हैं खुद उसमें गिरते हैं’’ देश की राजनीति ने नई करवटें लेनी शुरु कर दी। अण्णा को आंदोलन राळेगांव सिद्धी से शुरु होकर राहुल गांधी तक सिमटकर रह गई। 

 जोड़-तोड़ की राजनीति और गठबंधन धर्म की राजनीति ने देश को भीतर ही भीतर दीमक की तरह खोखला बना दिया है। मसरुम की तरह फैलते राजनीति दलों के गठबंधन की खेती सिर्फ धन पैदा करने की फसल बनकर रह गई। लोकतंत्र के चारों खंभे इस लहलहाती खेती को ललचाई आंखों से देखते और हर कोई अपने बाड़े-न्यारे करने में लग गये। बंदरबांट की इस राजनीति के बीच अचानक से एक हल्की सी चिंगारी पैदा कर दी है केजरीवाल ने।

मेरी एक कविता - 
भले ही अंधरे ने बसा लिया हो साम्राज्य दुनिया में सदा,/ बस एक चिंगार भर से ही कांप जायेगा वह सदा।
जागते रहो...जागते रहो....जागते रहो...../ ठक...ठक....ठक...ठक....ठक...ठक....
बस इस शब्दचाप से ही / चोर भाग जाएगा सदा।
-शम्भु चौधरी 
 25/12/2013

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

दिल्ली चुनावः आप ने रचा नया इतिहास-2


भारतीय गणतंत्र की इस खुशबू के साथ ही हमें यह भी सोचना होगा कि इस चमन में जो फूल खिल रहे हैं उसे कैसे इन गिद्ध दृष्टि से बचाया जा सके। निःश्कोंच मुझे यह बात मानने से कोई परहेज नहीं कि अभी आम आदमी पार्टी में परिपक्वता की काफी कमी देखने को मिली है। हांलाकि उनकी भावना और ईमानदारी पर कोई शक नहीं, परन्तु जिस प्रकार के शब्दों का चयन या प्रयोग पार्टी के कार्यकर्ताओं को करते देखा जा रहा है यह लोकतंत्र की भाषा नहीं हो सकती। कम से कम सभ्य तो नहीं मानी जा सकती। 
देश के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि कोई राजनैतिक पार्टी सिर्फ इसलिए जनता के पास रायशुमारी के लिए जाती है कि अब चूंकि उनकी पार्टी को विधानसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिला है ऐसे में उनकी पार्टी को सरकार बनाने के लिए दूसरी राजनीति पार्टी अर्थात जिस कांग्रेस के खिलाफ वे चुनाव लड़कर आयें हैं उनके ही समर्थन से सरकार बनानी चाहिए कि नहीं?

भारत के राजनीति इतिहास में कहीं भी ऐसे प्रयोग की चर्चा पढ़ने या सुनने को नहीं मिली है। हाँ! अक्सर इस बात की चर्चा हम जरूर करते हैं कि दो विपरीत विचारधाराओं को संसद और विधान सभाओं में जो चुनाव के पूर्व एक दूसरे के कट्टर विरोधी माने जाते थे, एक -दूसरों के खून के प्यासे थे, वे सत्ता के लिए कमरे में बैठकर आपस में गले मिल जनता का गला घोंटते रहें हैं। जनता इनके इन इरादों को कभी भाँप भी ही नहीं पाती थी। लाचार जनता किंकर्तव्यविमूढ खुद को ठगी सी महसूस करती अगले चुनाव का इंतजार करती नजर आती। जिस अंगूलियों से उन्होंने वोट दिया था उन अंगूलियों को दाँत के तले दबाने के अलावा जनता के पास कुछ भी नहीं बचता था।

देश में कई राजनीति दल तो सिर्फ इस काम के लिए ही बने हैं जो सिर्फ खरीद फरोख्त के कार्य को ही अपना राजनीति धर्म मानती रही हैं । ऐसे राजनीति दलों की इस वातावरण में चाँदी ही चाँदी हो जाती थी। यह भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा सच भी है तो मजाक भी है। गठबंधन की सरकार चलाना या सरकार बनाने के लिए गठबंधन बनाना सिवा एक राजनैतिक समझौता है। जिसने देश को लूटने के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है।

भारत की जनता को यह भी सोचना जरूरी हो गया कि देश में गठबंधन राजनीति का जो दौर शुरु हुआ है यह देश के कितने हित में है? कांग्रेस पार्टी के वर्तमान अनुभव की ही बात को लें तो यूपीए-2 का गठबंधन पूरी तरह से भ्रष्टाचार के बलि चढ़ चुका है। जिन-जिन राजनैतिक पार्टियों ने कांग्रेस से गठबंधन किया उन लोगों ने जमकर देश को लूटने में कोई कोरकसर बाकी नहीं रखी। कुछ ईमानदार लोग राजनीति करने की चेष्टा की तो उनको बीच में ही इस गठबंधन से बाहर जाना पड़ा। एक गये तो दो नये आ गये। कुल मिलाकर गठबंधन की राजनीति, सत्ता का संरक्षण और देश को लूटने का लाइसेंस बन चुका है। इस राजनीति में आतंकवादी तक भी संरक्षण प्राप्त कर सकता है।

इन सबके बीच भारतीय लोकतंत्र में एक ठंडी हवा का हल्का सा झोंका ही सही देश की जनता ने दिल्ली के चुनाव में महसूस किया है। शायद मेरे मित्र मेरी इस बात से भी सहमत होंगे कि भले ही हमारी अपनी अलग-अलग विचारधारा रही हो पर इस बार दिल्ली के चुनाव में सिर्फ दिल्ली की जनता की ही भागीदारी हमें नहीं दिखी बल्की लगभग पूरी देश की निगाहें इस चुनाव पर ही टिकी थी, दिल्ली की जनता के साथ-साथ देश की जनता ने भी ‘आप पार्टी’ की रायशुमारी में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है। जो कभी देखने को नहीं मिला था।

भारतीय गणतंत्र की इस खुशबू के साथ ही हमें यह भी सोचना होगा कि इस चमन में जो फूल खिल रहे हैं उसे कैसे इन गिद्ध दृष्टि से बचाया जा सके। निःश्कोंच मुझे यह बात मानने से कोई परहेज नहीं कि अभी आम आदमी पार्टी में परिपक्वता की काफी कमी देखने को मिली है। हांलाकि उनकी भावना और ईमानदारी पर कोई शक नहीं, परन्तु जिस प्रकार के शब्दों का चयन या प्रयोग पार्टी के कार्यकर्ताओं को करते देखा जा रहा है यह लोकतंत्र की भाषा नहीं हो सकती। कम से कम सभ्य तो नहीं मानी जा सकती। आम आदमी पार्टी ने जनता का विश्वास प्राप्त करने में जरूर सफलता प्राप्त की है परन्तु इस विश्वास पर खरा उतरने के लिए इनको ना सिर्फ अपनी भाषा को संतुलित करने, साथ ही इनको अब ज़िम्मेदारी पूर्वक बयान देने की भी जरूरत है।

रविवार की रात आम आदमी पार्टी के लिये काफी महत्वपूर्ण साबित होगा। ‘आप’ एक ऐसे अंतर्विरोध के बाद सरकार बनाने का फैसला लेगी जहां दिल्ली में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर विधानसभा में विपक्ष की भूमिका निभायेगी।  लोकतंत्र में इसे त्रासदी कह लें यह हकीकत। आम आदमी पार्टी को मानना ही होगा कि वह जो सोचती है ये रास्ते उतने आसान नहीं हैं। अपने घोर दुश्मन के सहयोग से सरकार बनाना उससे भी कहीं खतरनाक मार्ग है। जबकि इनको इनमें से एक विकल्प चुनना ही होगा। इसी को लोकतंत्र कहा जा सकता है।

मेरी शुभकानाऐं ‘आप’ के सभी कार्यकर्ताओं के साथ है। इसी शुभकामनाएं के साथ।
शम्भु चौधरी
21-12-2013

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दिल्ली चुनावः आप ने रचा नया इतिहास-1

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

दिल्ली चुनावः 'आप' ने रचा नया इतिहास


राजनीति में कुछ भी हो सकता है। यह बात चार दिन की आम आदमी पार्टी के उस दावे को झूठलाने के लिए सामने खड़ी है जिसमें ‘आप’ ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में साफ किया था कि उनकी पार्टी ‘‘ना तो किसी का समर्थन लेगी ना देगी। साथ ही इनका प्रमुख सिद्धांत कि ‘‘हम यहां राजनीति करने नहीं - बल्की इसे बदलने आये हैं।’’ यह बात सही है कि जबसे ‘आप’ ने राजनीति मंच पर अपने पैर फैलने शुरु किये हैं, भारत की राजनीति में कई नये प्रयोग हमें देखने को मिल रहें हैं। जिसे अबतक के राजनीति धुरंधर समझ पाने में ना सिर्फ नकाम रहे हैं। जाने-अनजाने में वे जो भी शतरंजी दाव चलते हैं सब ‘आप’ के रणनीतिकारों के सामने रैंगते और घुटने टैकते नजर आते हैं।

चुनावी सर्वेक्षण और सट्टाबजार
जिसप्रकार राजनीतिक पार्टीयाँ चुनाव के पूर्व और बाद के चुनावी सर्वेक्षणों और सट्टाबजार की राजनीति करती रही है इसबार दिल्ली के विधानसभा में इन्हें मुंह की खानी पड़ी है। यह कोई पहली घटना नहीं है इससे पहले भी कुछ राज्यों में ऐसा हो चुका है। दिल्ली के चुनाव परिणामों को देखकर ऐसा लगने लगा कि ‘आप’ पार्टी की सोच अन्य राजनीतिक पार्टियों की सोच से अलग हटकर है जिसे भांप पाना आसान नहीं है जितना ये लोग सोचतें हैं। मीडियावाले एक-एक राजनीति दलों के पक्ष में धूंआधार प्रचार और उनके पक्ष में आंकड़े प्रस्तुत करने में लगे थे। पहले कौन बाजी मार ले, इस दौड़ में कुछ मीडिया कर्मी को छोड़ दें तो बाकी बचे सबके सब रस्सा-कस्सी के मैदान में जंग लड़ने को तैयार दिखाई दे रहे थे । शब्दों के जाल बूने जा रहे थे। नये-नये अल्फाजों से इतिहास बूनने की तैयार चल रही थी कि दिल्ली के चुनाव परिणामों ने इनकी तुकाबाजी को विराम लगा दिया। इनको यह बात समझने की है कि सट्टा बाजार की तरह अटकलें लगाना व जाति, धार्मिक आंकडों के जोड़-तोड़ कितना सही है? 

भाजपा का मैदान छोड़कर भागना
चार राज्यों के चुनाव परिणाम के पश्चात जिस प्रकार भाजपा ने 4-0 क मशाल जलाकर दौड़ लगाई यह मशाल दिल्ली तक आते-आते ही बूझने लगी। अंततः भाजपा को 3-1 पर ही संतोष करना पड़ा। जोड़-तोड़ के सिद्धांत को राजनीति की सच्चाई माननेवाली भाजपा जो हरकतें चुनाव के पूर्व करने का प्रयास कर, अपनी सरकार बनाने का दावा पेश कर रही थी। चुनाव परिणाम आते-आते शाम तक इनके पांव-हाथ सूजने लगे थे। डा. हर्षबर्धन जी की ज़ुबान लड़खड़ाने लगी। बोले हमारे पक्ष में आंकड़ें नहीं हैं। हम विपक्ष में बैठेगें। राजनीति के माहिर इनके इस बयान से ना सिर्फ अचंभित थे। जानकारों की बात माने तो यह एक प्रकार से इनकी नैतिक राजनैतिक हार ही मानी जाएगी। जिस नैतिकता का ‘भूत’ भाजपा ने दिल्ली में पाला है यह ‘भूत’ भाजपा को अब आजन्म पीछा छोड़ने वाला नहीं। भले ही इनके पक्ष या विपक्ष में भाजपा जो भी तर्क ये दे दें। भाजपा को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेकर ही मैदान छोड़ना चाहिये था जो कि ये लोग नहीं कर सके। यह तो ठीक ‘‘खेल के मैदान में दौड़ लगाने से पहले ही भाग लेना’’ सी बात हुई। भाजपा ये सभी बातें ‘‘फ्लोर आॅफ दी हाउस’’ में बहुमत प्रस्तुत करते वक्त भी कह सकती थी। उप राज्यपाल के निमंत्रण से पहले ही भाजपा का इस प्रकार से पहले ही मैदान में फैल जाना फिर इसे आंकड़ों का खेल बताना, प्रमाणित करता है कि भाजपा को अभी भी राजनीति सीखनी होगी।

कांग्रेस पार्टी का समर्थन
सांप्रदायिकता की राजनीति करनेवाली कांग्रेस दिल्ली में महज 8 सीटों पर आकर किसी प्रकार अपनी लाज बचा पाई। प्रायः सभी सीटों पर तीसरे और चौथे स्थान पर आने वाली पार्टी अपने 8 विधायकों के साथ दिल्ली के राजनीति हलचल आज भी बनी हुई है। जबकि इसके विपरीत 32 सीटों वाली भाजपा दिल्ली के खेल में अपना दम पहले ही तोड़ चुकी हैं। इस बात से यह तो पता चलता है कि दिल्ली विधानसभा में भले ही कांग्रेस का सफाया सा हो चुका है पर राजनीति हासिये पर खड़ी अभी भी डूबते को तिनके का सहारा मिला चुका है। दिल्ली के विधानसभा के गठन में अब कांग्रेस का महत्वपूर्ण रोल को नकारा नहीं जा सकता। भले ही कांग्रेस पार्टी का जो भी चरित्र इतिहास रहा हो। इतिहास गवाह है कि कांग्रेस समर्थन देने के मामले में हमेशा से सत्ता गिराने या सत्ता के करीब बना रहने की नियत बनी रहती है। जिस चुनाव में जो ‘आप’ कांग्रेस पार्टी को जी भर-भरकर गालियां दी इनके भ्रष्टाचार को उजागर किया, अभी भी लगातार नये-नये विशेषण से कांग्रेस पार्टी को अलंकृत कर रही है फिर भी थेतर की तरह अपने राजनीति एजेंडे कि  ‘‘हम सांप्रदायिक पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिये ‘आप’ को समर्थन दे रहें हैं।’’ अरे भाई! भाजपा तो पहले ही सत्ता से बहार होने का दावा प्रस्तुत कर चुकी है। अब तो केवल ‘आप’ ही बची है जो आपसे समर्थन भी नहीं मांग रही। फिर भी कांग्रेस की ज़ुबान से सांप्रदायिकता शब्द की भाषा निकलना इस बात की तरफ इशारा करता है कि उनको जो आठ सीटें दिल्ली विधानसभा में मिली है उसका जांच परख की जाये तो साफ हो जाता है कि मुसलमानों के वोट बैंक ने कांग्रेस को 8 सीटों में से 6 सीटें प्रदान की है। यदि मुसलमान कांग्रेस का साथ ना देते तो दिल्ली विधानसभा में कांग्रेस का सुपड़ा साफ हो जाता।                                                                      
शम्भु चौधरी
21-12-2013

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

व्यंग्य: अन्ना का अनशन ड्रामा समाप्त - शम्भु चौधरी

 बस शुरु हो गया लोकपाल ड्रामा।  कहते हैं 50 प्रतिशत लाभ मिलेगा। कानून में भी प्रतिशत होता है यह तो हमने आज पहली दफा ही सुना है। हमें तो इतना ही पता है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कोई ईमानदार मसीहा देश को चाहिए। अन्ना ने अनशन किया ही कब था जो तोड़ दिया? सब कुछ ड्रामा था। इसके अलावा कुछ नहीं था।   तभी एक ने बीच में ही टोक दिया- ‘‘वो राहुल का नाम आपने भी तो नहीं लिया?’’ बोले अरे मियाँ सब बात बोलने की नहीं होती कुछ बात खुद ही समझा करो। 

वैसे तो मॉर्निंग वॉक के समय हंसी-मजाक को दौर रोजाना चलता ही रहता है, कभी धर्म और राजनीति को लेकर तो कभी महिलाओं से छेड़-छाड़, घरेलू हिंसा, दहेज, बलात्कार, बच्चों की शिक्षा, शादी-विवाह, स्वास्थ, जीना-मरना आदि आदि।

धीरे-धीरे इन विषयों के वक्ता भी हमारी टीम में जमा हो गए। मुंगेरीलाल रोजना कोई नई बात (समाचार) लाते और व्यायाम के पश्चात शुरु हो जाती बहस की परम्परा। कुछ दिनों से मुंगेरीलाल बिस्तर पर ही पड़े थे लगभग एक सप्ताह हो गया। उनका अन्न-पानी सब छूट सा गया था। वजन भी कम होने लगा था। सबने मिलकर मन बनाया कि क्यों ना आज मुंगेरीलाल के पास ही मिलने को चला जाए। एक ने कुछ नाश्ता के पैकेट खरीद लिये, एक ने दो पैकट दूध ले लिया बोले- ‘‘यार लगा तो काम आ जाएगा नहीं तो घर लेते जाएंगे।’’

घर पंहुते ही एक ने व्यंग्य कसा ‘‘ कैसे हो भाई!! अब तो ‘जल’-‘पानी’ ग्रहण कर लो, लोकपाल बिल पास हो गया है।’’
मानो किसी ने मुंगेरीलाल की दुखती नब्ज को ही छेड़ दिया हो। बोले क्या खाक पास हो गया? अन्ना ने देश के साथ धोखा किया है। सब कुछ पहले से ही तय था यह सब  आप लोगों ने सुना नहीं!! हमलोगों कि तरफ देखते हुए कहने लगे... मेरी तो तबियत खराब चल रही है नहीं तो....

तभी उनको बीच में ही टोकते हुए रामप्रसाद जी बोल पड़े... ‘‘अरे भाई अभी थोड़ा आराम भी कर लो, फिर लिखना जो मन आयें वैसे भी तेरे लिखे को पढ़ते ही कितने लोग हैं? अपने मुंह मियाँ मिठू खुद ही बनते रहो, खुद ही लडू बनाओ और खुद ही खाओ। फिर बात को बदलते हुए ‘‘हम तो बस आपकी सेहत का हाल जानने आ गये, कैसी है अभी आपकी सेहत?’’ पास ही भाभी जी खड़ी थी बोलने लगी - इनको कल ही डाक्टर के पास दिखाने ले गई थी बोले अभी भी थोड़ा बुखार है एक दो दिन में उतर जायेगी। सर्दी-जूकाम लग गई थी।’’

सीताराम जी को पिछले रात की घटना याद थी भाभी जी को बीच में ही रोकते हुए बोल - ‘‘ वह तो लगनी ही थी, अब भला कोई सुबह चार बजे ही इस ठंडी के समय घर से बहार किसी से लड़ने निकल जाए तो सर्दी नहीं लगेगी तो और क्या लगेगी?’’

तभी भाभी ने वैहिचक होते हुए हमारे हाथ से नाश्ते का पैकेट लेते हुए बोली- ‘‘इनसब की क्या जरूरत थी! थोड़ी सकुचाती हुई बोली दूध तो अभी आने ही वाला है...’’ तभी रामप्रसाद ने बात को संभालते हुए बोले ‘‘नहीं भाभीजी हमारे मॉर्निंग वॉकर क्लब का यह नियम ही है कि सुबह किसी से मिलने जाना हो तो वहां भी हमें अपना नाश्ता और चाय पीनी हो तो दूध साथ ही ले जाना होगा। बस आप तो इसमें अपना प्यार मिला कर हमें परोस दिजिए’’

भाभी मुसकराती हुई नाश्ते के पैकेट लेकर भीतर जाते-जाते एक तीर चला गई - हां!! हां!! अभी लाती हूँ थोड़ी इनको भी अक्ल दे देते कि कैसे बात संभाली जाती है’’ और भीतर चली गई।

तभी ने एक ने मुंगेरलाल के हालचाल पूछने के लिये पुनः उसकी दुखती नब्ज को सहलाया ‘‘तो आपने अनाज क्यों छोड़ दिया?’’ हमने तो सुना कि आप भी अन्ना के साथ अनशन में बैठे हो।

अब मुंगेरीलाल का पारा सातवें आसमान को छूने लगा। बोले- ‘‘ अरे यार मेरा अन्ना से कोई लेना-देना नहीं ना ही मेरी इस बीमारी से उनके लोकपाल बिल का कोई संबंध है। हां! एक पत्रकार के हैसियत से मैं उस आदमी की जरूर खबर लूंगा।

‘‘क्यों? क्या कर दिया अन्ना ने बीच में ही रामप्रसाद जी ने उन्हें रोकते हुए पूछ डाला।’’

क्या किया? अब मुंगेरीलाल आपे से बहार हो गया था। उसका पूरा चेहरा लाल तपतपाने लगा। ये लोग सब मिलकर संसद को ड्रामा मंच बना दिये हैं लगता ही नहीं कि कोई देश चला रहा है। सारे बिल ऐसे पास हो रहे हैं कि  जैसे मनमोहन मुद्रा में पूरी संसद सोई हुई हो ... बिल्ली जैसी आंख से टूकूर-टूकूर देखता है बोलता ऐसे है जैसे कोई दैहाती औरत अपने पति के सामने घीघीयाती हो।
 तभी उनका गुस्सा बीजेपी पर भी आ गया। इनको कब से लकवा मार दिया। इनके नेता तो ऐसे बात करते है कि मानो संसद में इनके बाप की बपौती चल रही हो ‘‘ बिल को बिना बहस के भी पास किया जा सकता है’’ क्यों भाई फिर बहस के बीच कुछ संशोधन करने का ड्रामा क्यों किया था इन लोगों ने?
 तभी उनका गुस्सा बीजेपी पर भी आ गया। इनको कब से लकवा मार दिया। इनके नेता तो ऐसे बात करते है कि मानो संसद में इनके बाप की बपौती चल रही हो ‘‘ बिल को बिना बहस के भी पास किया जा सकता है’’ क्यों भाई फिर बहस के बीच कुछ संशोधन करने का ड्रामा क्यों किया था इन लोगों ने?
फिर थोड़ा रुककर सोचते हुए। दिल्ली चुनाव में भाजपा की भी सांस फूलने लगी। इनको लगा कि ये केजरीवाल ने कांग्रेस पार्टी का जो हर्ष दिल्ली में किया कहीं दोनो राजनीति पार्टियों की भी बैंड ना बजा दे?

बस अन्ना के दो दलाल (नाम नहीं लिया) पर इशारा काफी था को इस काम में लगा दिया। उधर अन्ना को इस बात के लिए मना लिया कि वह जनता का ध्यान बंटाने में कांग्रेस की मदद करे और कांग्रेस उनके बिल को संसद में पास कर देगी। बस शुरु हो गया लोकपाल ड्रामा।

कहते हैं 50 प्रतिशत लाभ मिलेगा। कानून में भी प्रतिशत होता है यह तो हमने आज पहली दफा ही सुना है। हमें तो इतना ही पता है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कोई ईमानदार मसीहा देश को चाहिए। अन्ना ने अनशन किया ही कब था जो तोड़ दिया? सब कुछ ड्रामा था। इसके अलावा कुछ नहीं था।  

तभी एक ने बीच में ही टोक दिया- ‘‘वो राहुल का नाम आपने भी तो नहीं लिया?’’ बोले अरे मियाँ सब बात बोलने की नहीं होती कुछ बात खुद ही समझा करो। कह दिया ने ‘‘अन्ना का अनशन ड्रामा समाप्त‘‘ जब तक कि हमारी बात समाप्त होती चाय-नाश्ता आ गया था।  

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

व्यंग्य: चूहे ने बिल खा लिया... - शम्भु चौधरी

अब मुंगेरीलाल ने मेरा हिसाब लेना शुरू कर दिया - ‘‘ अच्छा ये बताओ ये अन्ना का आंदोलन तुमने क्यों किया था? मुझे रोज उसपर लिखने को क्यों कहता था? भाई! वो तो दो साल पुरानी बात हो गई, इसबार तो हमने कोई आंदोलन-वांदोलन नहीं किया? यह अन्ना कहां से बीच में आगया आज?
मॉर्निंग वॉकर क्लब के हमारे पत्रकार मित्र मुंगेरीलाल ने पता नहीं क्या लिख दिया कि सुबह-सुबह पांच बजे ही मुझे उठाने चले आये। ठंड से सिकुड़ता हुआ रजाई के भीतर से ही उनकी आवाज सुनी...‘‘अरे ओउउउ..सीताराम जी... जल्दी बहार आओ घूमने जाना नहीं क्या?

 मुझे अनायास ही ‘अरे’ कि जगह पता नहीं सिर्फ ‘‘ओअअअ म्हारा सीताराम जी’’ सुनाई देने लगा। मैंने उनको समझाते हुए कहा कि यार सुबह-सुबह तो शुभ-शुभ बोला कर यार....
दूसरी बार उन्होंने फिर जोर से आवाज लगाई.... मैं हड़बड़ी में गरम-गरम रजाई का मोह त्याग कर खिड़की से बहार देखा- चारों तरफ  कुप अंधेरा ही अंधेरा, कुहासा छाया हुआ था मध्यरात्रि सा सन्नाटा चारों तरफ बिखरा हुआ था। स्ट्रीट लाईटें चमक रही थी। कोलकाता में दिसम्बर माह में भी ठंड कम ही रहती है परन्तु हमारा ईलाका शहर से थोड़ा दूर रहने के चलते यहाँ गांव जैसा आनन्द मिलता है।

अपनी आंखें मसलते हुए- बोला यार आता हूँ...आता हूँ....उम्र की इस दहलीज पर भी आकर तुम नहीं सुधरने वाले। सुबह-सुबह क्यों बकवास किये जा रहे हो।

मुंगेरीलाल कहां मेरी बात सुनता वह चिल्लाये ही जा रहा था जल्दी बहार आता है कि आज इस कलम की समाधी तेरे घर के बाहर ही कर दूंगा। मुझे समझ में आ गया जरूर कोई बड़ी घटना रात को हो गई होगी। जल्दी से गुसलखाने में गया, कपड़े बदले सोचता हुआ रात 11 बजे तक के समाचार में तो कोई बड़ी खबर नहीं थी सिवा लोकपाल के और केजरीवाल के। पर केजरीवाल पर तो हमने कल ही बात की थी और रही लोकपाल के यह तो दो साल पुरानी बात है। अन्ना का आंदोलन में भी इस बार कोई खास बात नहीं थी जैसा कि पिछले बार देखने को मिला था। फिर इनको यह क्या सूझी कि तड़के सुबह-सुबह ही हंगामा मचाने लगे।

वैसे तो मॉर्निंग वॉक में जबतक मुंगेरीलाल जी कोई नया धमाका नहीं करते हमें मजा ही नहीं आता। हम सबने मिलकर इनका नाम ही ‘‘मीडिया समाचार’’ रख दिया है।

 घर के बाहर आकर दरवाजा भीतर से बंद किया, चाबी खिड़की के भीतर डालते हुए अंदर आवाज दी... अजी सुनती हो.... ‘‘चाबी भीतर डाल दी है!’’  अंदरे से एक चुभती हुई आवाज निकली- ‘‘ मेरे सर पर मार देते?’’ काम-धाम तो कुछ करना नहीं बस दूसरों को परेशान करना। 

मैंने वह आवाज सुनी-अनसुनी करते हुए मुंगेरीलाल की तरफ रुख किया बोलो तुम्हें क्या हो गया इतनी सुबह?
मुंगेरीलाल और ताव खा गया बोला- ‘‘चल बेटा आज तो तेरी भीतर भी धुलाई होनी है और बहार भी’’
मैंने उसकी तरफ शक की नजर से देखा.. प्रश्नवाचक चिन्ह की मुद्रा में उसको निहारा- ‘‘मैं...मैं...ने??
अच्छा..अ..अ..आ अब मिमियाने भी लगा तुमको सब पता है। तुम्ही हो वो....अभी थोड़ी देर में ही तुमको सब पता चल जायेगा।

मैंने ऊपर की ओर देखा अभी भी सूरज की लालीमा पूरब में नहीं दिखाई दे रही थी.. सेन्ट्रल पार्क का मैनगेट भी अभी तक नहीं खुला होगा। मुंगेरीलाल की तरफ देखते हुए भाई सुबह-सुबह मेरे से क्या गलती हो गई कि तुम इतने गुस्से में दिखाई दे रहे हो?

मुंगेरीलाल कुछ बोलता तभी पीछे से किसी ने आवाज दी.....जयश्री राम.....!! राधे....राधे....!!
हमदोंनो ने पीछे मुड़कर देखा रामप्रसाद जी मफ्लर, चादार ओढ़े चले आ रहें हैं... मैंने मौका देखते ही बात पलटने की चेष्टा की ‘‘क्यों रामप्रसादजी इतनी भी ठंड नहीं है कि आपको इतना ठंडा लग गया’’
रामप्रसादजी भी कहाँ मौका खोनेवाले थे मुझपर पलटवार करते हुए कहा- बस अब सूरज की किरण आकाश में चढ़ने दो सबको गर्मी आ जायेगी। राधे...राधे...

अब मुंगेरीलाल ने मेरा हिसाब लेना शुरू कर दिया - ‘‘ अच्छा ये बताओ ये अन्ना का आंदोलन तुमने क्यों किया था? मुझे रोज उसपर लिखने को क्यों कहता था?

भाई! वो तो दो साल पुरानी बात हो गई, इसबार तो हमने कोई आंदोलन-वांदोलन नहीं किया? यह अन्ना कहां से बीच में आगया आज?

खुद ही देख लो मैंने कहा था अन्ना से सावधान रहना!!! अब लो लोकपाल!! पूरा का पूरा लोकपाल बिल में चला गया.... अन्ना का अनशन..अन्ना का अनशन, सब दिखावा था। शेर को पीछे करने और चूहे को सामने लाने का। मजा लो अब! चूहे ने बिल खा लिया...।

मैं शर्मिंदा था। आज मुंगेरीलाल ने वह बात कह दी जो मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मुझे पहली बार लगा कि मुंगेरीलाल को गुस्सा करने का हक बनता है। सुरज निकल चुका था.. लोगों का आना शुरु हो चुका था।
व्यायाम करते-करते मुझे अपनी धर्मपत्नी की भी याद आ गई। उन दिनों किस प्रकार मुझपर अन्ना का भूत सवार था। मैं उसकी एक बात सुनने को तैयार नहीं था। आज मुंगेरीलाल की बात सुनकर मुझे भीतर ही भीतर इतनी आत्मग्लानी हो रही थी कि कुछ बोले भी नहीं बन रहा था।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

गांधी परिवार तक सिमटती कांग्रेस?

जातिगत राजनीति से लेकर धर्म आधारित राजनीति ने देश को यह भी सोचने को मजबूर कर दिया कि अब हर चुनाव धार्मिक तुष्टिकरण के आधार पर नहीं लड़ा जा सकता। पिछले 50-60 सालों से कांग्रेस पार्टी ने मुस्लिम वाटों पर केन्द्र की राजनीति की अब वह अपने खुद के बुने जाल में उलझती जा रही है।

कोलकाता से शम्भु चौधरी- पिछले माह पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव व इनके परिणामों पर विभिन्न विद्वानों के विश्लेषण से इस बात के संकेत प्राप्त होतें हैं कि कांग्रेस पार्टी में अब कार्यकर्ताओं की जगह नेताओं ने ले ली है। देश के चार राज्यों साम-दाम-दंड-भेद करने के बाद भी इनकी करारी हार ने ना सिर्फ कांग्रेस पार्टी के अस्तित्व पर ही एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा किया है। यह परिणाम कांग्रेस की नीतियों और इनके बड़बोलेपन नेताओं को भी सबक है।
जातिगत राजनीति से लेकर धर्म आधारित राजनीति ने देश को यह भी सोचने को मजबूर कर दिया कि अब हर चुनाव धार्मिक तुष्टिकरण के आधार पर नहीं लड़ा जा सकता। पिछले 50-60 सालों से कांग्रेस पार्टी ने मुस्लिम वाटों पर केन्द्र की राजनीति की अब वह अपने खुद के बुने जाल में उलझती जा रही है।

 माहाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, छतिसगढ़, राजस्थान कुछ ऐसे राज्यों की सूची में आ चुके हैं जहाँ कांग्रेस के केन्द्रीय या राज्य के चन्द चापलूस-पदलोलुप नेताओं ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को सामने रख संगठन को हमेशा से नुकसान पंहुचाते रहे हैं। माहाराष्ट्र में जहाँ शरद पावर ने कांग्रेस से अलग होकर खुद को शक्तिशाली बना लिया तो बंगाल में ममता बनर्जी के कद को नीचा दिखाने व केन्द्र में रहने की मजबूरी ने इस पार्टी की जमीन ही बंगाल से हिला कर रख दी।

 तमिलनाडु में पिछले 45 सालों से, बिहार और उत्तरप्रदेश में पिछले दो दशकों से, बंगाल में पिछले 35 सालों कांग्रेस पार्टी सत्ता से बहार हो चुकी है। पंजाब, कर्नाटक, आंध्रा, राजस्थान, असम, हरियाणा व देश के कुछ छोटे राज्यों में कांग्रेस अपनी स्थिति को किसी प्रकार बचा पाती है इसका कारण यह नहीं कि वहां इस पार्टी कर जनाधार मजबूत है। इसका कारण है कि अभी वहाँ जनता को कोई अच्छा विकल्प नहीं मिल पाया है। जबकि केरल व त्रिपुरा में माकपा का जनाधार कुछ हद तक कांग्रेस को टक्कर देती रही है।

 कांग्रेस पार्टी के जो सोनिया के चापलुस नेतागण अपने ही राज्यों के मझले नेताओं के पर हमेशा से ही कुतरते रहे हैं इन लोगों ने ही सत्ता को अपनी जागीर बनाये रखने के लिए गांधी परिवार के सामने अपने घुटने टैकने का कार्य करते रहें हैं।

मजे कि बात यह है कि कांग्रेस पार्टी में इनके खुद की जमीन को मजबूत बनाने की जगह हवा में महल बनाने के लिए नींव रखी जाती रही है। दिल्ली के गलियारे तक सिमटती कांग्रेस पार्टी आज धीरे-धीरे राज्यों में अपनी जमीन खोती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है कांग्रेस पार्टी का जनमत पर विश्वास न कर गांधी परिवार तक सिमटता जा रहा है।
 इससे देश के अन्दर छोटी-छोटी ताकतें अपना सर उठाने में सफल रही है। देश का राजनैतिक परिदृश्य भी तेजी से बदलता जा रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम हमें चौंकाने वाले परिणाम से कांग्रेस पार्टी को पुनः सोचने के लिए विवश तो किया है साथ ही ‘‘आम आदमी पार्टी’’ को देश में तीसरे विकल्प के रूप में जगह भी प्रदान कर दी है।
इसका विश्लेषण कांग्रेस पार्टी को अंततः करना ही चाहिए कि उनकी पार्टी किस दिशा में जा रही है? राज्य के नेताओं के पर्र कुतरने के बजाय यदि कांग्रेस पार्टी उनके कद को एक अनुशासन के अन्दर महत्व प्रदान करे और सत्ता प्राप्त करने की जल्दबाजी न कर अपने संगठन को महत्व दे तो संभवतः यह दल भारतीय राजनीति में अपनी पहचान पुनः बना पाएगी अन्यथा इसका हर्ष सिमटता चला जाऐगा।

व्यंग्य: हम हार नहीं मानगें? - शम्भु चौधरी



कुछ तो शर्म करो भाई! भाजपा ने दिल्ली में सरकार बना भी लेती या नहीं बनाई तो क्या हुआ? केजरीवाल को दे तो दिया सबने मिलकर अपना समर्थन। अब उसकी जिम्मेदारी है कि वह जनता से किये वादों को पूरा करे। सिर्फ छह महीने में बिजली-पानी का वादा हम भी देखते हैं कैसे पूरा करेंगें? हमने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं। जबतक केजरीवाल को अपनी जाति में शामिल नहीं कर लेते, हम हार नहीं मानगें।  


भाजपा को अगला चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ना चाहिए। यह बात हमें सुनने में बड़ी ही अटपटी सी लगती हो, पर इस बात में कहीं ना कहीं सच्चाई तो लग ही रही है। आज सुबह मॉर्निंग वॉकर क्लब में कुछ हंसी मजाक की बात चल रही थी तभी मुंगेरीलाल काफी गंभीर हो कर बोलने लगे’ आप लोगों को मजाक की सूझ रही है? इस देश का अब क्या होगा? ऐसे ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा, सरकार बनाने से पहले ही मैदान छोड़ कर पतलीगली से भाग निकली। नैतिकता का यही तकाजा यदि लोकसभा चुनाव के पश्चात दिखा तो सोचे देश का क्या होगा?
पास खड़े सीताराम जी मुंगेरीलाल की बात सुन कर थोड़े चिंतित नजर आने लगे। बीच में ही मुंगेरीलाल को टोकते हुए बोले- ‘‘यार बात तो सोचने की है, अब केजरीवाल को ही देखो समर्थन लेने के नाम पर भी अपनी शर्तें रख रहा है। गजब ही कर दिया बंदे ने’’ मेरे जीवन में तो ऐसा कभी नहीं सुना था। इतनी नैतिकता किस काम की? भले आदमी को थोड़ा तो समझौता करना ही चाहिए। अब ये घमंड ही तो है और इसको क्या कहें ?

अब सुबह का वातावरण धीरे-धीरे राजनीतिमय होने लगा। गोपालजी ने चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि मुझे तो लगता है इसमें भी कोई राजनीति है? केजरीवाल को सरकार बना लेनी चाहिए। राजनीति पार्टियों को समर्थन लेने की कीमत चुकानी पड़ती है परन्तु केजरीवाल को तो सब कुछ बिना शर्त बिलकुल मुफ्त मिल रहा है। कहावत हैं न ‘‘हल्दी लगे ना फिटकरी रंग चोखो आये’’ अब केजरीवाल को कुछ काम कर के दिखाना चाहिए।
हमारे कुछ मित्र राजनीति बहस होते देख धीरे-धीरे घिसकने लगे। अब हम चार ही बच गये थे सो बात करते-करते चाय की दुकान की तरफ हो लिए। चाय वाले के पास खड़े-खड़े बात ही कर रहे थे कि पास में ही युवकों की एक टोली खड़ी थी पहले तो वे लोग हमारी बातें सुनते रहे, फिर कुछ देर बाद उनमें से एक युवक थोड़ा ताव में आकर बोलने लगा। -
‘‘तो भाई सा’ब ये बीजेपी और कांग्रेस वाले ही मिलकर सरकार क्यों नहीं बना लेते? इनकी हर जगह आपस में मैच फिक्सड है। अब ये लोकपाल बिल को ही ले लिजिये? बीजेपी के वो क्या नाम है..... कुछ याद करते हुए... हां!  जेटली जी सा’ब कहते हैं कि ‘‘संसद में लोकपाल बिल को बिना बहस के ही पास कर दिया जाए’’ भाई!  मैं पूछता हूँ ये दोनों इतने उतावले क्यों दिखने लगे लोकपाल बिल को पास करने के मामले में? सोचना तो पड़ेगा ही दो विपरीत विचारधारा के ध्रुव जब एक दिखें तो दाल में काला तो जरूर है। हो ना हो देश में ग्रहण काल दिख रहा है।
तभी उनमें से एक दूसरा युवक बोलने लगा-
‘‘मुझे तो राहुल गांधी ज्यादा ईमानदार नजर आते हैं। बेचारा जो कुछ भी बोलता है सही बोलता है। दागी बिल में भी राहुल जी को उन लोगों ने वेबजह बकरा बना दिया। जब भाजपा और कांग्रेस दोनों ने तो तय ही कर लिया था कि दागी अध्यादेश जल्दी से पास हो जाए तो बेचारे को बकरा क्यों बनाया मिलकर?

तभी तीसरा युवक सामने आया- हमें समझाने की लहजे में बोला ‘‘आरटीआई कानून से लेकर कोयला दलाली तक दोनों राजनीति दल सूर में सूर मिलाते नजर आतें हैं। क्यों ने दोनों ही मिलकर दिल्ली में सरकार बना लेते?’’
अब मुंगेरीलाल से रहा नहीं गया। बीच में ही टोकते हुए कहे ये सब तो ठीक है पर केजरीवाल को तो मौका हाथ से गँवाना नहीं चाहिए?
हम तो गंवारू लोग हैं, हमें तो बस यही समझ में आता है कि कैसे भी हो सरकार बना लो बस। जनता का वादा पानी, बिजली से हमें अब क्या लेना-देना वैसे भी केजरीवाल को कौन सा 5 साल सरकार चलानी है। 6 माह के बाद चुनाव करवाना तो होगा ही? अभी तो सरकार बना ही लेनी चाहिए’’ - क्यों कोई गलत बात हो तो बताओ?
मेरे से तब रहा नहीं गया। मैंने उनसे पूछा मेरी एक बात समझ में नहीं आती ये अन्ना को क्या हो गया जो उनको अचानक से ये अनशन की क्या सूझी, मुझे तो इनके अनशन के समय और इनके बयान पर भी शंका नजर आने लगी।

मुंगेरीलाल अब आपे से बहार हो गए- बोले जो भी हो जैसा भी हो बस अब संसद को चलने भी दो यार मिलकर जब दोनों बड़ी पार्टियां काम करती हैं तो इसमें देश का भला ही तो है। आप लोगों को बस बात बनानी आती है। बेबजह हर बात में अंगूली करना आदत सी बन गई है।

देश की दो बड़ी राजनीति पार्टी देश हित में लगातार फैसलों पर फैसला लिये जा रही है। चार साल संसद को जम कर लूटा, देश को मिल बांट कर लूटा। अब चुनाव का समय आया और फैसले लेने में लगी है तो भी इनके ऊपर सवाल पर सवाल किये जा रहे हो!! कुछ तो शर्म करो भाई! भाजपा ने दिल्ली में सरकार बना भी लेती या नहीं बनाई तो क्या हुआ? केजरीवाल को दे तो दिया सबने मिलकर अपना समर्थन। अब उसकी जिम्मेदारी है कि वह जनता से किये वादों को पूरा करे। सिर्फ छह महीने में बिजली-पानी का वादा हम भी देखते हैं कैसे पूरा करेंगें? हमने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं। जबतक केजरीवाल को अपनी जाति में शामिल नहीं कर लेते, हम हार नहीं मानगें।

रविवार, 15 दिसंबर 2013

Letter to Sonia Gandhi By Aam Adami Party

सोनिया गांधी को अरविंद केजरीवाल ने चिट्ठी में क्या लिखा.
 दिनांकः 14/12/13
श्रीमती सोनिया गांधी जी, 
अध्यक्षा, कांग्रेस पार्टी 
नई दिल्ली
HIGHLIGHT: हम इस राजनीति में सत्ता हासिल करने नहीं आएं हैं। जनता उन समस्याओं का समाधान चाहती हैं।
श्रीमती सोनिया जी,
कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में सरकार बनाने के लिए आम आदमी पार्टी को बिना शर्त समर्थन देने के लिए कहा है। हमने तो कांग्रेस से समर्थन मांगा नहीं था। आम आदमी पार्टी का जन्म ही बीजेपी और कांग्रेस पार्टियों की भ्रष्ट, आपराधिक और साम्प्रदायिक राजनीति के कारण हुआ। जब देश का आम आदमी भ्रष्टाचार से कराह उठा तो इस देश के आम लोगों ने खुद अपनी पार्टी बनाई और आवाज उठाने का निश्चय किया। ऐसे में आम आदमी पार्टी और बीजेपी जैसी पार्टियों के साथ कैसे हाथ मिला सकती है?
चुंकि आपकी पार्टी ने कहा है कि आप बिना शर्त समर्थन देने के लिए तैयार हैं तो देश की जनता जानना चाहती है कि इसका क्या मतलब है? दिल्ली की जनता के कुछ ज्वलंत मुद्दे हैं जिसकी वजह से दिल्ली की जनता परेशान है। 15 वर्ष के शासनकाल में कांग्रेस की सरकार ने इन मुद्दों का समाधान करने की बजाय कई जगह तो जनता की परेशानियों को और ज्यादा बढ़ा दिया है। सात वर्ष के अपने शासनकाल में भाजपा ने नगर निगम को जमकर लूटा है। ऐसे में यदि अब आप आम आदमी पार्टी की सरकार को बिना शर्त समर्थन देते हैं तो आपका इन मुद्दों पर क्या विचार होगा?
आज देश की राजनीति केवल सत्ता हासिल करने का एक माध्यम बन गई है। सत्ता हासिल करने के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े। हर पार्टी किसी भी तरह सत्ता हासिल करना चाहती है। लोगों के मुद्दों से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। हम इस राजनीति में सत्ता हासिल करने नहीं आएं हैं। हम जनता उन समस्याओं का समाधान चाहती हैं।
ऐसे कुछ मुद्दे मैं इस पत्र के साथ संलग्न कर रहा हूँ। आपसे उम्मीद करता हूँ कि आपकी पार्टी हर मुद्दों पर अपना रुख साफ करेगी। चूंकि हमारी पार्टी की बुनियाद ही सच्चाई और पारदर्शिता पर आधारित है, इसलिए यह पत्र मैं जनता के बीच रख रहा हॅँ। आपका जो भी जबाब आएगा उसे भी हम जनता के बीच रख देंगे और जनता से पूछेंगे कि आपके जबाब के मद्देनजर क्या आम आदमी पार्टी को सरकार बनानी चाहिए? और हां! कृपया हर मुद्दों पर अपना नजरिया स्पष्ट रूप से बतलाइएगा। गोलमोल करके मत कहिएगा। जैसे - ‘‘सैद्धांतिक रूप से हम साथ हैं’’ इत्यादि। आपके जबाब का इंतजार रहेगा।
अरविंद केजरीवाल

रविवार, 8 दिसंबर 2013

आम आदमी पार्टी की सफलता आम आदमी - शम्भु चौधरी

कल तक जो काँग्रेसी और भाजपाई ‘‘आम आदमी पार्टी’’ को भारत की राजनीति में कोई महत्व तक देने को तैयार नहीं थे आज चुनाव परिणामों को देख कर ना सिर्फ कांग्रेस पार्टी के नीचे की जमीन खिसक गई, भाजपा पार्टी के भी दाँत खट्टे कर दिये। चुनाव परिणाम के दो दिन पूर्व तक जो पार्टी आम आदमी के सदस्यों को तोड़ने की गंदी साजिश करने का प्रयास कर रही थी? आज अचानक से नैतिकता की बात करने लगी। डॉ. हर्षवर्धन कल तक अपनी जीत का दावा करते नहीं थक रहे थे आज उनको विपक्ष में बैठने का ज्ञान जग गया।

दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम में किसी एक राजनीति दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है। ऐसे में आप आदमी पार्टी का अच्छा प्रदर्शन देश की राजनीति में हलचल सी पैदा कर दी है। 125 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी के स्टार केंपेनर श्री राहुल गांधी ने इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि दिल्ली में उनकी पार्टी की शीला दीक्षित के अच्छे कार्यों के बावजूद उनकी पार्टी आम आदमी की बात को समझने में भूल की है। उन्होंने अपने नेताओं को भी कड़ा संदेश देते हुए आम आदमी पार्टी के नेताओं से सीख लेने की सलाह तक दे डाली।

कल तक जो काँग्रेसी और भाजपाई ‘‘आम आदमी पार्टी’’ को भारत की राजनीति में कोई महत्व तक देने को तैयार नहीं थे आज चुनाव परिणामों को देख कर ना सिर्फ कांग्रेस पार्टी के नीचे की जमीन खिसक गई, भाजपा पार्टी के भी दाँत खट्टे कर दिये। चुनाव परिणाम के दो दिन पूर्व तक जो पार्टी आम आदमी के सदस्यों को तोड़ने की गंदी साजिश करने का प्रयास कर रही थी? आज अचानक से नैतिकता की बात करने लगी। डॉ. हर्षवर्धन कल तक अपनी जीत का दावा करते नहीं थक रहे थे आज उनको विपक्ष में बैठने का ज्ञान जग गया।

मुझे याद है जोड़-तोड़ में माहिर भाजपा के नेताओं ने कई बार राज्यपाल व महामहिम राष्ट्रपति जी को इस आधार पर नैतिकता का पाठ पढ़ा चुके हैं कि उनकी पार्टी संसद या विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई है। जनता का जनादेश उनके पक्ष में है। अतः सरकार बनाने का पहला अधिकार उनकी पार्टी को ही मिलना चाहिए। आज नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाली पार्टी, जोड़-तोड़ की राजनीति में आस्था रखने वाली पार्टी के मुंह से नमाज पढ़ने की बात गले नहीं उतर रही। कहावत तो हम भी पढ़ते हैं और भाजपा भी पढ़ती है। यदि इसी बात को कहावत में कहा जाए तो ‘‘ सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को ’’ इन पर सटीक बैठता है।

दिल्ली के विधानसभा चुनाव परिणाम ने देश की तमाम राजनीतिज्ञों को एक चेतावनी भर दी है कि ‘‘ वे इस बात का अहंकार कि ‘‘वे चुन कर आयें हैं’’ इसलिए वे ही आम आदमी के प्रतिनिधि हैं इसके अलावा वे किसी को भी जनता का प्रतिनिधि नहीं मानते और जिनको उनसे बात करनी हो तो पहले चुनाव लड़कर आयें तब ही वे उनसे बात करे।’’

पहली बात तो यह कि यदि आम आदमी ही चुनकर चले गये तो उनसे बात ही क्यों करेंगें? दूसरी बात कि जब आम आदमी ही चुनकर संसद या विधानसभा में पंहुचगें तो आप खुद ही बहार हो जाएंगे। इसलिए यह अहंकार पालने वाले सांसदों को भी आज सोचने की जरूरत है कि जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें।

देश से बड़ा कोई व्यक्ति नहीं होता और लोकतंत्र में संसद या विधानसभा से बड़ा कोई मंदिर। इस मंदिर के पुजारी यदि वहां बैठकर जनता को लूटने में लग जाए। लोकतंत्र के पवित्र मंदिर को अपवित्र कर दे तब प्रशांत भूषण, अरविन्द केजरीवाल, मनीष सीसोदिश, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, संजय सिंह, शाजिया इल्मी जैसे नेता पैदा होते हैं। इतिहास में इनके नाम सदैव स्वर्ण अक्षरों में लिखें जाऐगें। Date:09/12/2013

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

वाममोर्चा का ‘‘सांप्रदायिक-सेक्युलरवाद’’ - शम्भु चौधरी

कांग्रेस पार्टी देश में "सेक्युलर-सांप्रदायिकता" की राजनीति शुरु से ही करती रही है परन्तु चूंकि इस बार दिल्ली में कांग्रेस की हालत ना सिर्फ पतली होती जा रही है वाममोर्चा कभी भी यह खतरा नहीं उठाना चाहेंगी कि वह भी कहीं कांग्रेस पार्टी के चक्कर में जनता के आक्रोश का शिकार ना बन जाए। तब बंगाल में उनको सीट कहां से मिलेगी?

जो वाममोर्चा लगातार 35 सालों से बंगाल में एक छत्र राज किया कई बार काँग्रेसी बैशाखी के सहारे लंगड़ाती हुई चली, दिल्ली में कांग्रेस को सहारा देती, तो कभी लतियाती रहती। बंगाल में ठीक चुनाव के समय या यूँ कह लें चुनाव के ठीक एक वर्ष पूर्व से ही वाममोर्चा के नेतागण कांग्रेस पार्टी को पानी पी-पी कर कोसते नजर आते और चुनाव में टिकट बांटते समय फ्रेंडली चुनाव लड़कर दिल्ली में उनकी सरकार बनाने में मदद करते रहें है। जिसमें सिर्फ एक चुनाव में माकपा ने जयप्रकाश आंदोलन के समय जनता पार्टी जिसमें आज की भाजपा (जनसंघ) भी शामिल थी के साथ कई सालों भात-दाल खाया था।

पिछले लोकसभा चुनाव 2009 के ठीक पूर्व भी वाममोर्चा ने इसका प्रयोग जारी रखा पर उस बार यह प्रयोग इनको भारी पड़ गया । कांग्रेस पार्टी ने पलटवार करते हुए बंगाल की शेरनी तृणमूल नेत्री जो लगातार वाममोर्चा के विरूद्ध अपनी आवाज उठाती रही थी का साथ दे दिया। लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा से भी वाममोर्चा के परचे-परचे उखड कर गाड़ी का टायर सड़क पर ही पौं बोल गया।

विधानसभा का चुनाव हो या म्यूनिसिपल व पंचायत का चुनावों में सब जगह वाममोर्चा की लाल तानाशाही ने दम तोड़ दिया। पिछले 35 सालों में बंगाल को कंगाली के हालात में पंहुचा देने वाली माकपा जिसने ना सिर्फ बंगाल को कर्ज में गले तक डुबो दिया। हवड़ा के सरकारी अस्पताल में पिछले 30 सालों तक एक ऐम्बूलेंस तक खरीद कर नहीं दे सकी। सारा का सारा सांसद निधि, विधायक निधि तक को डकार जाती रही वाममोर्चा की सरकार अब एक नया राग अलापने में लगी है। ‘सेक्लुलरवाद’

इनका सेक्युलरवाद क्या है?

बंगाल में तृणमूल की सरकार व इस राजनीति दल के साथ इस वाममोर्चा कभी भी किसी भी हालात में एक साथ खड़ी नहीं हो सकती कारण स्पष्ट है जिस वाममोर्चा को जड़ से उखाड़ने का प्रण ममता बनर्जी ने ले रखा तब उसका क्या होगा? कांग्रेस पार्टी देश में "सेक्युलर-सांप्रदायिकता" की राजनीति शुरु से ही करती रही है परन्तु चूंकि इस बार दिल्ली में कांग्रेस की हालत ना सिर्फ पतली होती जा रही है वाममोर्चा कभी भी यह खतरा नहीं उठाना चाहेंगी कि वह भी कहीं कांग्रेस पार्टी के चक्कर में जनता के आक्रोश का शिकार ना बन जाए। तब बंगाल में उनको सीट कहां से मिलेगी?

वाममोर्चा बंगाल में अपना दम-खम पहले ही समाप्त कर चुका है बंगाल में अब ज्योति बसु और सुभाष चक्रवर्ती सरिके नेता नहीं रहे। रही-सही कसर इन लोगों बंगाल के वरिष्ठ माकपा नेता श्री सोमनाथ चटर्जी को संगठन से अलग कर माकपा महासचिव श्री प्रकाश करात के अहंकार पर मोहर जड़ दी। आज माकपा दिल्ली का ख़्वाब देखने में लगी है। सोचती है सेक्युलरवाद का सहारा ही ले लिया जाए? इसमें बुराई ही क्या है। सब राजनीति दल जब यही कह रहें तो वाममोर्चा भी उनके सूर में सूर मिला दें तो हर्ज ही क्या है।

मैं इनसे ही जानना चाहता हूँ वामपंथी विचारधारा के किस विचारधारा को यह नेतृत्व करती हैं, धर्म आधारित विचारधारा को या कुछ और ? अफसोस की बात है कि इनका बैचारिक दिवालिपन तो बहुत पहले ही निकल चुका था। अब इनका मानसिक दिवालियापन निकलना बाकी है। खैर यह भारत की राजनीति ही है जहां माकपा के नेता समझते हैं कि देश की जनता अनपढ़ है और खुद को विद्वान समझते हैं। इनके ‘‘सांप्रदायिक-सेक्युलरवाद’’ की जनता इस बार के लोकसभा चुनाव में जमकर पिटाई करेगी। लूट-लूट कर देश को जर्जर अवस्था में पंहुचा देने राजनीतिज्ञों के द्वारा अब सेक्युलरवाद का सहारा लेना देश की जनता को खलने लगा है।