जातिगत राजनीति से लेकर धर्म आधारित राजनीति ने देश को यह भी सोचने को मजबूर कर दिया कि अब हर चुनाव धार्मिक तुष्टिकरण के आधार पर नहीं लड़ा जा सकता। पिछले 50-60 सालों से कांग्रेस पार्टी ने मुस्लिम वाटों पर केन्द्र की राजनीति की अब वह अपने खुद के बुने जाल में उलझती जा रही है।
कोलकाता से शम्भु चौधरी- पिछले माह पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव व इनके परिणामों पर विभिन्न विद्वानों के विश्लेषण से इस बात के संकेत प्राप्त होतें हैं कि कांग्रेस पार्टी में अब कार्यकर्ताओं की जगह नेताओं ने ले ली है। देश के चार राज्यों साम-दाम-दंड-भेद करने के बाद भी इनकी करारी हार ने ना सिर्फ कांग्रेस पार्टी के अस्तित्व पर ही एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा किया है। यह परिणाम कांग्रेस की नीतियों और इनके बड़बोलेपन नेताओं को भी सबक है।
जातिगत राजनीति से लेकर धर्म आधारित राजनीति ने देश को यह भी सोचने को मजबूर कर दिया कि अब हर चुनाव धार्मिक तुष्टिकरण के आधार पर नहीं लड़ा जा सकता। पिछले 50-60 सालों से कांग्रेस पार्टी ने मुस्लिम वाटों पर केन्द्र की राजनीति की अब वह अपने खुद के बुने जाल में उलझती जा रही है।
माहाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, छतिसगढ़, राजस्थान कुछ ऐसे राज्यों की सूची में आ चुके हैं जहाँ कांग्रेस के केन्द्रीय या राज्य के चन्द चापलूस-पदलोलुप नेताओं ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को सामने रख संगठन को हमेशा से नुकसान पंहुचाते रहे हैं। माहाराष्ट्र में जहाँ शरद पावर ने कांग्रेस से अलग होकर खुद को शक्तिशाली बना लिया तो बंगाल में ममता बनर्जी के कद को नीचा दिखाने व केन्द्र में रहने की मजबूरी ने इस पार्टी की जमीन ही बंगाल से हिला कर रख दी।
तमिलनाडु में पिछले 45 सालों से, बिहार और उत्तरप्रदेश में पिछले दो दशकों से, बंगाल में पिछले 35 सालों कांग्रेस पार्टी सत्ता से बहार हो चुकी है। पंजाब, कर्नाटक, आंध्रा, राजस्थान, असम, हरियाणा व देश के कुछ छोटे राज्यों में कांग्रेस अपनी स्थिति को किसी प्रकार बचा पाती है इसका कारण यह नहीं कि वहां इस पार्टी कर जनाधार मजबूत है। इसका कारण है कि अभी वहाँ जनता को कोई अच्छा विकल्प नहीं मिल पाया है। जबकि केरल व त्रिपुरा में माकपा का जनाधार कुछ हद तक कांग्रेस को टक्कर देती रही है।
कांग्रेस पार्टी के जो सोनिया के चापलुस नेतागण अपने ही राज्यों के मझले नेताओं के पर हमेशा से ही कुतरते रहे हैं इन लोगों ने ही सत्ता को अपनी जागीर बनाये रखने के लिए गांधी परिवार के सामने अपने घुटने टैकने का कार्य करते रहें हैं।
मजे कि बात यह है कि कांग्रेस पार्टी में इनके खुद की जमीन को मजबूत बनाने की जगह हवा में महल बनाने के लिए नींव रखी जाती रही है। दिल्ली के गलियारे तक सिमटती कांग्रेस पार्टी आज धीरे-धीरे राज्यों में अपनी जमीन खोती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है कांग्रेस पार्टी का जनमत पर विश्वास न कर गांधी परिवार तक सिमटता जा रहा है।
इससे देश के अन्दर छोटी-छोटी ताकतें अपना सर उठाने में सफल रही है। देश का राजनैतिक परिदृश्य भी तेजी से बदलता जा रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम हमें चौंकाने वाले परिणाम से कांग्रेस पार्टी को पुनः सोचने के लिए विवश तो किया है साथ ही ‘‘आम आदमी पार्टी’’ को देश में तीसरे विकल्प के रूप में जगह भी प्रदान कर दी है।
इसका विश्लेषण कांग्रेस पार्टी को अंततः करना ही चाहिए कि उनकी पार्टी किस दिशा में जा रही है? राज्य के नेताओं के पर्र कुतरने के बजाय यदि कांग्रेस पार्टी उनके कद को एक अनुशासन के अन्दर महत्व प्रदान करे और सत्ता प्राप्त करने की जल्दबाजी न कर अपने संगठन को महत्व दे तो संभवतः यह दल भारतीय राजनीति में अपनी पहचान पुनः बना पाएगी अन्यथा इसका हर्ष सिमटता चला जाऐगा।
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