कोलकाता: 20 अक्टूबर 2011
विश्व की निगाहें भारत के इस बहस पर लगी हुई है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में श्री अण्णा हजारे ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। ‘राइट टू रिजेक्ट’ एवं ‘राइट टू रिकॉल’ अर्थात चुनाव संबंधी प्रावधानों में जरूरी संषोधन किए जाने की। जिससे मतदान की प्रक्रिया के समय ही मतदाता सभी उम्मीदवारों को यदि अस्वीकार कर दे तो ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग पुनः नये उम्मीदवारों को सामने आने का अवसर प्रदान कर सकती है। इसी प्रकार चुने जाने के बाद जो सांसद या विधायक अपने क्षेत्र में विकास के कार्य न कर रौबदारी या भ्रष्टाचार में संलिप्त पाया जाता हो, ऐसे सदस्यों को जनता पुनः वापस बुला सके।
पिछले दिनों रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर श्री अण्णा हजारे जी का अनशन को सारी दुनिया ने देखा। विश्वभर में श्री अण्णाजी के समर्थन में लोगों ने अपनी राय रखी। दो कदम आगे-दो कदम पीछे करने वाली सियासी पार्टियों ने भी आखिरकार श्री अण्णा की बातों पर अपनी मोहर लगा दी। आखिर हमें किसी व्यक्ति पर टिप्पणी करने से पहले यह तो सोचना ही पड़ेगा कि क्या सिर्फ जब श्री अण्णा हजारे ही सोचेगें तब ही हमारे देश की संसद सक्रिय होगी अन्यथा वह उसी निरसता के साथ देश के चुने हुए सांसद अपनी धौंस जमाते रहेंगें कि वे ‘चुन कर आयें हैं।’ मानो देश चलाने या लूटने का एक प्रकार से इनको जनता ने लाइसेंस दे दिया हो अब जनता चुपचाप पांच साल अपने घरों में ताला लगा कर बैठ जाए? हमें इन सभी बिन्दुओं पर खुलकर सोचने की जरूरत है।
देश के जिम्मेदार कई संपादकों ने पिछले दिनों हिसार में हुए लोकसभा सीट के चुनाव पर श्री अण्णा हजारे टीम पर अपनी कलमें धिसने का कोई अवसर चुकने नहीं दिया। मौका भी था चुनाव में राजनीति तो करनी ही चाहिए। परन्तु लोकतंत्र का चौथा खंभा भी राजनीतिज्ञों का मोहरा बन जाए तो इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जा सकता है। एक पत्रकार मित्र ने लिखा कि यदि कांग्रेस को वोट न दें तो श्री अण्णाजी को यह भी बताना चाहिए कि किसको वोट दें? हम उनसे ही जानना चाहतें हैं कि जब बुखारी साहब जामा मस्जिद से फतुआ जारी करते हैं उस समय इनकी कलम किस पान की दुकान पर ‘मुजरा’ देखने चली जाती है? या उस समय सियासतदानों की सोच किस कसाईखाने की दुकान पर हलाल होने के लिए तैयार खड़ी दिखती है? हमारे जिन मित्रों को बोलने या लिखने का पैसा मिलता है उनकी बात तो मुझे भी समझ आती है परन्तु जिनकी कलम आजाद परिन्दें की तरह स्वतंत्र अकाश में गोता लगाती है उनकी सोच को जब लकवा मार जाए तो हमें कुछ सोचने को मजबूर तो कर ही देती है।
आज जो कुछ भी लिखा या पढ़ा जा रहा है यह भविष्य में हमें आज की घटनाओं की याद दिलाएगी। आजादी के बाद देश में इतनी बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी एवं युवा वर्ग एक साथ सामने आकर देश में सूरसा की तरह फैलती जा रही एड्स बीमारी (भ्रष्टाचार) को रोकने/कम करने के लिए कार्य कर रही है। ऐसे में हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपनी कलम की रूख को भी ईमानदारी से उसकी दिशा तय करने दें। गंगा में प्रदूषण फैलाने से हमारी आने वाली पौध को बहुत क्षति हाने वाली है, वेवजह इस जल प्रवाह में अपनी दखलदांजी न करें। हाँ! जो सच है उस पर अपनी बेबाक राय अवश्य देनी ही चाहिए।
आज देश के सामने नई पहल पर बहस होनी शुरू हो गई चुनाव आयोग से लेकर प्रायः सभी राजनैतिक दलों के अलग-अलग प्रतिनिधि ‘राइट टू रिजेक्ट’ एवं ‘राइट टू रिकॉल’ पर अपनी-अपनी प्रतिक्रियाओं व चिन्ताओं से देश को अवगत करा रहें हैं। देश के युवाओं में भी इस बहस में अच्छी रुचि देखी जा रही है। विदेशों में कई देश के युवा वर्ग अपने-अपने देश में इस व्यवस्था को लागू करवाना चाह रहें हैं ऐसे में भारत की तरफ तमाम विश्व की नजर टिकी है कि हम इस बहस का कौन सा समाधान निकालने जा रहे हैं।
जहाँ तक अभी तक के तमाम विचारों को जानने का अवसर मुझे मिला जिसमें किसी व्यक्ति विशेष का नाम लिखना उचित नहीं प्रतीत होता ‘राइट टू रिजेक्ट’ का समाधान सभी को आसान लगता है जबकि ‘राइट टू रिकॉल’ पर बहुत सारी आशंकाएँ चुनाव आयोग सहित देश के एक बुद्धिजीवी वर्ग ने जताई है।
‘राइट टू रिजेक्ट’:
जहाँ तक मैं समझता हूँ कि ‘राइट टू रिजेक्ट’ को जितना हम आसान समझ रहे हैं जबकि चुनाव आयोग के लिए यह एक पैचिदा भरा निर्णय होगा। एक तरफ तो हमारा संविधान देश के प्रत्येक नागरिकों को चुनाव लड़ने का अधिकार देती है तो दूसरी तरफ हम जनता को यह अधिकार भी दे दें कि वह उनको ‘रिजेक्ट’ कर सकती है तो क्या दोबारा इसी उम्मीदवार को किसी दूसरे चुनाव क्षेत्र से संसद या विधानसभा में नहीं भेजा जा सकता? या फिर पुनः वही उम्मीदवार उसी सीट से चुनाव लड़कर जीत गया तो इसका क्या अर्थ निकाला जाएगा?
‘राइट टू रिकॉल’:
इस विषय पर प्रायः एक सी बात सामने आ रही है कि चुनाव आयोग इसमें उलझ कर रह जाएगा। जबकि इस समस्या का सीधा समाधान है। हम ‘राइट टू रिकॉल’ को चुनाव आयोग से अलग कर दें। जिस प्रकार हम किसी सरकारी कर्मचारी को बर्खास्त या ससपेंड करते हैं अथवा महा-न्यायाधीशों पर महा-अभियोग लगाकर उनको न्यायिक प्रक्रियाओं से अलग किया जाता रहा है हमें इस समस्या को भी इन्हीं प्रक्रियाओं के तहत गुजारना होगा। वर्तमान में हम नैतिक आधार पर उनका मंत्री पद तो छिन लेते हैं परन्तु उनकी सदस्यता बनी रहती है। कई बार ऐसे सदस्यों को सरकार ब्लैकमेल कर अपने पक्ष में संसद/विधान सभाओं में मतदान कराने के मामले भी उजागर हुए हैं। अतः जब हम संसद में भ्रष्टाचार के मामले पर एक लम्बी बहस कर ही रहें हैं तो इसी में ऐसे सदस्यों पर महा-अभियोग लाने का भी प्रावधान कर दिया जाना चाहिए ताकी देश के खजाने को लूटने वाले चन्द राजनेताओं को यह अंदेशा बना रहे कि उनकी राजनीति अब समाप्त होने वाली है।
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