दरअसल में ये सभी मिलकर ‘‘मछली.मछली कितना पानी’’ का खेल, खेल रहें हैं। इस खेल का परिणाम इनको पहले से ही मालूम है कि क्या होने वाला है। जनता चारों तरफ से खुद को ठगी सी महसूस करने लगी। एक तरफ लोकतांत्रिक ढांचे के द्वारा चुने हुए तानाशाहों की जमात तो दूसरी तरफ आम जनता आमने-सामने हो चुकी है। कल की बहस हमने देख ली और आज समाचार पत्रों में पढ़ भी लिया होगा। कल का दिन मंहगाई के बली चढ़ गया। भाजपा के नेताओं को बोलते-बोलते भूख लग गई सो देश की जनता अपने टी.वी.सेट को ताकती रह गई।
बचपन में हम एक खेल खेला करते थे। ‘‘मछली.मछली कितना पानी’’ पानी का स्तर जैसे-जैसे कम होते जाता, मछली जल के लिए तड़फने लगती और अंत में मर जाती है। कल जो संसद के भीतर सत्तापक्ष और तमाम विपक्ष ने जो खेल खेला इससे कम से कम हमें तो यही प्रतीत होता है कि इस देश को इन चुने हुए सांसदों ने मिलकर देश को तमाशा बना दिया है। बढ़ती मंहगाई और चारों तरफ व्याप्त भ्रष्टाचार पर किस तरह काबू पाया जाए इसकी किसी को चिंता नहीं दिखी धारा 184 के तहत इस बहस को लेकर न तो सत्ता पक्ष, ना ही विपक्ष गंभीर दिखाई दिया। मत विभाजन मात्र आम जनता को धोखा देने का एक नाटक बन कर रह गया संसद में। सवाल उठता है कि यदि पक्ष और विपक्ष का यही हाल हमें संसद में देखने को मिला तो संसद को बनाने और इसे चलाने के सवाल पर सीधा सा प्रश्न चिन्ह क्यों न खड़ा किया जा सकता है कि फिर हमें इसे बनाने और इसे चलाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने की जरूरत ही क्या है? देश के चुने हुए सांसदों के बयानों से अब आम जनता को बड़ी निराशा होने लगी है। संसद के अंदर और संसद के बाहर जैसे शब्दों का प्रयोग कर सत्ता और विपक्ष ने यह प्रमाणित कर दिया कि अब संसद के अंदर जाने वाले लोग देश के हित में सोच ही नहीं सकते उनका उद्देश्य न सिर्फ जनता को गुमराह करना है बल्की संसद का प्रयोग भी खुद के राजनैतिक स्वाथों की पूर्ति के लिए करना है। सबके सब इस बात पर चिंता व्यक्त करते दिखे कि अन्ना हजारे संसद के बहार खड़ा होकर संसद को चुनौती दे रहे हैं जो लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुका है।
दरअसल में ये सभी मिलकर ‘‘मछली.मछली कितना पानी’’ का खेल, खेल रहें हैं। इस खेल का परिणाम इनको पहले से ही मालूम है कि क्या होने वाला है। जनता चारों तरफ से खुद को ठगी सी महसूस करने लगी। एक तरफ लोकतांत्रिक ढांचे के द्वारा चुने हुए तानाशाहों की जमात तो दूसरी तरफ आम जनता आमने-सामने हो चुकी है। कल की बहस हमने देख ली और आज समाचार पत्रों में पढ़ भी लिया होगा। कल का दिन मंहगाई के बली चढ़ गया। भाजपा के नेताओं को बोलते-बोलते भूख लग गई सो देश की जनता अपने टी.वी.सेट को ताकती रह गई। नेतागण खाने चले गये। पुनः संसद की कार्यवाही शुरू हुई तो 90प्रतिशत सांसद पक्ष-प्रतिपक्ष नेता, उपनेता सबके सब संसद से नदारत दिखे। आज लोकपाल बिल पर भी कुल इसी प्रकार की बहस की उम्मिद हम इन भूखरों से करते है जो न सिर्फ संसद क अंदर मुफ्त का माल गटगते हैं देश को भी भीतर ही भीतर खोखला करते जा रहें हैं।
ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि क्या जिस चुनावी ढांचे के अंर्तगत हम इन बेईमानों को चुनकर संसद में भेजते है क्यों न हम इस व्यवस्था को ही मूलरूपेन बदल डालें? इसके लिए जनता को बगावत करनी होगी और यह तभी संभव हो सकेगा जब कोई छोटी सी ही सही एक इमानदार राजनैतिक दल को इस आंदोलन से जुड़कर न सिर्फ सत्ता परिवर्तन की बात करनी होगी। देश की वर्तमान संसदीय प्रणाली को भी बदलने के लिए कारगार कदम उठाने के वादे जनता से करे तभी इन बेइमानों को पूर्ण रूप से बदला जा सकेगा। अन्त में मेरी एक कविता के कुछ अंश से अपनी बात को आज विराम दूँगा-
जल जायेगी धरती तब, संसद के गलियारों में,
भड़क उठेगी ज्वाला जब, नन्हे से पहरेदारों में।
न्यायपालिका जब यहाँ पर,
हो जायेगी गूँगी तब,
संसद में बैठे नेतागण,
चिर का हरण करेगें तब।
कौन बनेगा ‘कृष्ण’ यहाँ,
किसकी सामत आयी है,
कलियुग के भीम-गदा को देखो,
युधिष्ठर, नकुल, सहदेव कहाँ
‘अर्जून’ की तरकश में अब,
वाणों का वह वेग कहाँ,
भीष्मपितामह की वाणी में,
ममता-व- स्नेह कहाँ,
‘धृतराष्ट्र’ ढग-ढग पे देखों,
सत्ता के गलियारों में,
दुर्योधन की गिनती कर लो,
चाहे हर मंत्रालयों में।।
शम्भु चौधरी का संक्षिप्त परिचयः
श्री शम्भु चौधरी का जन्म 15 अगस्त 1956 को कटिहार (बिहार) में हुआ। गत 30 वर्षों से कोलकाता में ही स्थाई निवास। आपकी एक पुस्तक "मारवाड़ी देस का ना परदेस का" प्रकाशित। बचपन से ही कविता, लघुकथा, व सामाजिक लेख लिखना, देश के कई पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथा, कविताओं, सामाजिक व राजनैतिक विषयों पर लेखों का प्रकाशन। स्वतंत्र पत्रकारिता करना व सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जनमानस को जगाना। "देवराला सती काण्ड" के विरुद्ध कलकत्ता शहर में जुलूस निकालकर कानून में संसोधन कराने में सक्रिय भूमिका का निर्वाह। सामाजिक विषय पर चिन्तनशील कई पुस्तकों का सम्पादन। समाज के युवाओं को संगठित कर उनको विकासमूलक कार्यों में लगाना, राजनीति का सामाजिकरण करना, व स्वतंत्र पत्रकारिता में रुचि। कोलकात्ता से प्रकाशित "समाज विकास" सामाजिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक पद पर कार्य कर चुके श्री चौधरी जी के कई लेखों ने सामाजिक और राजनीतिक समिकरण में बदलाव लाया है। वर्तमान में आपने श्री अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को अपना नैतिक समर्थन देते हुए अपनी कलम को इस आन्दोलन से जोड़ दिया है। आपके द्वारा 2ब्लाग भी संचालित किये जातें हैं जिनके पते निम्न हैं।
आदरणीय शम्भू चौधरी जी सहमत हूँ आपसे...अब तो बगावत करनी ही होगी...किन्तु यहाँ भी एक समस्या है, हमारे देश में आजकल बुद्धुजीवियों की जमात काफी बड़ी हो गयी है...ये न तो खुद कुछ करते हैं और न किसी को कुछ करने देते हैं...
जवाब देंहटाएंआपकी कविता बेहद सटीक सटीक लगी...
आदरणीय चौधरी जी,
जवाब देंहटाएंकिस तरह से खड़ा होऊं कि लगे बगावत में खड़ा हूँ
भूख मुझको भी लगी है
इसलिये आपकी 'दावत' में खड़ा हूँ.