सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

परिचय: पद्म विभूषण श्रीमती महाश्वेता देवी : -शम्भु चौधरी


Mahasweta Deviमहाश्वेता देवी एक ऐसा नाम जिसका ध्यान में आते ही उनकी कई-कई छवियां आंखों के सामने प्रकट हो जाती हैं। जिसने अपनी मेहनत व ईमानदारी के बलबूते अपने व्यक्तित्व को निखारा है। उन्होंने अपने को एक पत्रकार, लेखक, साहित्यकार और आंदोलनधर्मी के रूप में विकसित किया। महाश्वेता देवी का जन्म सोमवार 14 जनवरी १९२६ को ईस्ट बंगाल जो भारत विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान वर्तमान में (बांग्लादेश) के ढाका शहर में हुआ था।
गत 13 फरवरी '2009 को सुबह 11.30 बजे सहारा समय (कोलकाता) की वरिष्ठ पत्रकार सईदा सादिया अज़ीम , हिन्द-युग्म (दिल्ली से) श्री शैलेश भारतवासी और मैं खुद कोलकाता स्थित महाश्वेता देवी के घर उसने मिलने गये थे।
महाश्वेता जी ने अपना सारा जीवन ही मानो आदिवासियों के साथ गुजार दिया हो। जल, जंगल और जमीन की लड़ाई के संघर्ष में खर्च कर दिया हो। उन्होंने पश्चिम बंगाल की दो जनजातियों 'लोधास' और 'शबर' विशेष पर बहुत काम किया है। इन संघर्षों के दौरान पीड़ा के स्वर को महाश्वेता ने बहुत करीब से सुना और महसूस किया है।
Mahasewta Devi and Shambhu Choudharyपीड़ा के ये स्वर उनकी रचनाओं में साफ-साफ सुनाई पड़ते हैं। उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ' 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां' हैं। आपको पद्मविभूषण पुरस्कार (२००६), रैमन मैग्सेसे (1997), भारतीय ज्ञानपीठ(1996) सहित कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है। पिछले दशक में महाश्वेता देवी को कई साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। आपको मग्सेसे पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है जो एशिया महादीप में नोबेल पुरस्कार के समकक्ष माना जाता है।
फिर भी आप बोलती हैं कि आपने किसी पुरस्कार के लिये कार्य नहीं किया। बार-बार आदिवासी के प्रश्न पर विचलित होते इनको कई बार देखा गया। कहती हैं कि "हम लोग तब तक अपने आपको सभ्य नहीं कह सकतें,जब तक हम आदिवासियों के जीवन को नहीं बदल देते। आपने 'संथाल', 'लोधास', 'शबर' और मुंदास जैसे खास आदिवासी (आदिवासी जन जाति) लोगों के जीवन को बहुत गहराई से न सिर्फ अध्ययन ही किया इन पर बहुत कुछ अपनी कथाओं में समेटने का प्रयास भी किया है, आज भी आपको ऐसे समाचार विचलित कर देतें हैं जहाँ किसी आदिवास के ऊपर ज़ुल्म किया जाता है। आप सदैव से सामाजिक और राजनीतिक प्रासंगिक विषयों पर अपनी कलम से प्रहार करती रहीं हैं। आप एक जगह लिखती हैं- ‘‘एक लम्बे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी.....।’’ आपने अपना पूरा जीवन और साहित्य, आदिवासी और भारतीय जनजातीय समाज को समर्पित कर दिया है। इसलिए नौ कहानियों संग्रह में से आठ कहानियों के केन्द्र में आदिवासी जाति केन्द्रित है, जो आज भी समाज की मूख्यधारा से कटकर जी रहा है।
Mahasveta Deviलेखिका महाश्वेता देवी 14 जनवरी 2009 को 83 वें साल की हो गई, पर इनके चेहरे पर हमें कहीं कोई थकान देखने को नहीं मिला। बातें ऐसे करती हैं जैसे कोई परिवार का सदस्य ही हो हम। वर्ष 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान उनकी लेखनी ने लोगों को दहला दिया था। आज भी किसी आंदोलन के नाम आपको आगे देखा जा सकता है। जब मैंने यह प्रश्न किया कि-"आप तो बुद्धदेव बाबू (वर्तमान में बंगाल के मुख्यमंत्री) को तो बहुत मानती थी, फिर नंदीग्राम और सिंगूर के मुद्दे पर आपने उनका साथ नहीं दिया?" बोलने लगी- " मैं बहुत दिन राजनीतिक की हूँ। किसानों की जमीं को दखल करके उद्योग कैसे लगाया जा सकता है?" तुम्हीं सोचो... फिर थोड़ा रूक कर किसान भूमिहीन हो जायेगा तो खायेगा क्या?
तब तलक फोटोग्राफर भी आ गया था। उसे देखते ही एकदम से उस पर बरस पड़ी "एई...ई अमार छ्वी कोथाई?" फिर मुस्कराते हुए बोलीं- " तारा.. ताड़ी छ्वी तुलो ... ओनेक काज कोरते होवे...."( देवज्योति फोटोग्रफर को देखते ही उस पर नाराज हो गई.... ए लड़के ... मेरी फोटौ कहाँ है? ... फिर थोड़ा मुस्कारते हुए कहा.. जल्दी से फोटो ले लो मुझे बहुत काम करना है अभी) इससे पहले जब हिन्द-युग्म के श्री शैलेश भारतवासी उनसे बात करना शुरू ही किये थे तो बात को शुरू करने के लिये मैंने जैसे ही बंगला में उनका परिचय देना शुरू किया तो बोलने लगी- "तुमी हिन्दीते बोलो... मैं अच्छा से हिन्दी जानती हूँ।"
आपने साहित्य व सांस्कृतिक आंदोलन के साथ राजनीतिक आन्दोलनों में भी भाग लिया है। तसलीमा नसरीन को कोलकाता से हटाये जाने के मामले को लेकर वे पश्चिम बंगाल व केंद्र सरकार के रवैये से काफी आहत हैं। आप बोलती हैं कि " इधर देश में जहाँ मुस्लमान हैं वहाँ हमलोग मुस्लीम उम्मीदवार तो जिधर हिन्दू हैं उधर हिन्दू उम्मीदवार खड़े करते हैं इससे देश कैसे चलेगा। सोचो तब तो उनकी भाषा में ही हमें बात करना होगा। हमने उनके साथ जो पल गुजारा इसे आपके साथ बाँटने का यह प्रयासभर है। किसी राजनैतिक विचारधारा से हमें कोई सरोकार नहीं है, फिर भी कहीं कोई बात आपको राजनीति सी लगती हो तो उसे नजरांदाज कर देंगे। इस अवसर पर आपको मेरे द्वारा संपादित कोलकाता से प्रकाशित एक समाजिक पत्रिका "समाज विकास" के कुछ साहित्य विशेषांक भी भेंट किया जिसे आपने स्वीकार करते हुए कहा कि- "खूब भालो काज कोरछो तुमी" ( खूब अच्छा काम करते हो तुम) चेहरे पर तेजस्व की रोशनी इस तरह चमक रही थी जैसे साक्षात हमने माँ का दर्शन कर लिया हो।
परिचय:
आप न सिर्फ एक प्रख्यात लेखिका एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। महाश्वेता देवी का जन्म सोमवार 14 जनवरी १९२६ को ईस्ट बंगाल जो भारत विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान वर्तमान में (बांग्लादेश) के ढाका शहर में हुआ था। आपके पिता मनीष घटक एक कवि और एक उपन्यासकार थे, और आपकी माता धारीत्री देवी भी एक लेखकिका और एक सामाजिक कार्यकर्ता थी। आपकी स्कूली शिक्षा ढाका में हुई। भारत विभाजन के समय किशोरवस्था में ही आपका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया। बाद में आपने विश्वभारती विश्वविद्यालय,शांतीनिकेतन से बी.ए.(Hons)अंग्रेजी में किया, और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय में एम.ए. अंग्रेजी में किया। कोलकाता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त करने के बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में आपने अपना जीवन शुरू किया। तदुपरांत आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता के रूप में नौकरी भी की। तदपश्चात 1984 में लेखन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए आपने सेवानिवृत्त ले ली।
महाश्वेता जी ने कम उम्र में लेखन का शुरू किया और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान दिया। आपकी पहली उपन्यास, "नाती", 1957 में अपनी कृतियों में प्रकाशित किया गया था
‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है। जो 1956 में प्रकाशन में आया। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने कलकत्ता में बैठकर नहीं बल्कि सागर, जबलपुर, पूना, इंदौर, ललितपुर के जंगलों, झाँसी ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज अफसर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। आप बताती हैं कि "पहले मेरी मूल विधा कविता थी, अब कहानी और उपन्यास है।" उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ' 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां', माहेश्वर, ग्राम बांग्ला हैं। पिछले चालीस वर्षों में, आपकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के करीब (सभी बंगला भाषा में) प्रकाशित हो चुकी है।
लिंक के साथ है नीचे :
आपकी कुछ कृतियां हिन्दी में:(सभी बंग्ला से हिन्दी में रुपांतरण)
अक्लांत कौरव, अग्निगर्भ, अमृत संचय, आदिवासी कथा, ईंट के ऊपर ईंट, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, उम्रकैद, कृष्ण द्वादशी, ग्राम बांग्ला, घहराती घटाएँ, चोट्टि मुंडा और उसका तीर, जंगल के दावेदार, जकड़न, जली थी अग्निशिखा, झाँसी की रानी, टेरोडैक्टिल, दौलति, नटी, बनिया बहू, मर्डरर की माँ, मातृछवि, मास्टर साब, मीलू के लिए, रिपोर्टर, रिपोर्टर, श्री श्री गणेश महिमा, स्त्री पर्व, स्वाहा और हीरो-एक ब्लू प्रिंट आदि...

Contact Address: Smt. Mahasveta Devi, W-2C, 12/3 Phase- II, Golf Green, Kolakata - 700095 Phone: 033-24143033

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

हिन्दुस्तानी एकेडेमी का साहित्यकार सम्मान समारोह:

Dr.Kavita Vachaknavee


इलाहाबाद, 6 फ़रवरी 2009 ।
"साहित्य से दिन-ब-दिन लोग विमुख होते जा रहे हैं। अध्यापक व छात्र, दोनों में लेखनी से लगाव कम हो रहा है। नए नए शोधकार्यों के लिए सहित्य जगत् में व्याप्त यह स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है।" उक्त विचार उत्तर प्रदेश के उच्च शिक्षा मन्त्री डॊ.राकेश धर त्रिपाठी ने हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा आयोजित सम्मान व लोकार्पण समारोह के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में सम्बोधित करते हुए व्यक्त किए। उत्तर प्रदेश भाषा विभाग द्वारा संचालित हिन्दी व उर्दू भाषा के संवर्धन हेतु सन् 1927 में स्थापित हिन्दुस्तानी एकेडेमी की श्रेष्ठ पुस्तकों के प्रकाशन की श्रृंखला में इस अवसर पर अन्य पुस्तकों के साथ एकेडेमी द्वारा प्रकाशित डॊ. कविता वाचक्नवी की शोधकृति "समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावली : निराला-काव्य" को लोकार्पित करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यह पुस्तक अत्यन्त चुनौतीपूर्ण विषय पर केन्द्रित तथा शोधकर्ताओं के लिए मार्गदर्शक है। इस अवसर पर एकेडेमी के सचिव डॉ. सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय द्वारा सम्पादित 'सूर्य विमर्श' तथा एकेडेमी द्वारा वर्ष १९३३ ई. में प्रकाशित की गयी पुस्तक 'भारतीय चित्रकला' का द्वितीय संस्करण (पुनर्मुद्रण) भी लोकार्पित किया गया। किन्तु जिस पुस्तक ने एकेडेमी के प्रकाशन इतिहास में एक मील का पत्थर बनकर सबको अचम्भित कर दिया है वह है डॉ. कविता वाचक्नवी द्वारा एक शोध-प्रबन्ध के रूप में अत्यन्त परिश्रम से तैयार की गयी कृति "समाज-भाषाविज्ञान : रंग-शब्दावली : निराला-काव्य"। इस सामग्री को पुस्तक का आकार देने के सम्बन्ध में एक माह पूर्व तक किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। स्वयं लेखिका के मन में भी ऐसा विचार नहीं आया था। लेकिन एकेडेमी के सचिव ने संयोगवश इस प्रकार की दुर्लभ और अद्‌भुत सामग्री देखते ही इसके पुस्तक के रूप में प्रकाशन का प्रस्ताव रखा जिसे सकुचाते हुए ही सही इस विदुषी लेखिका द्वारा स्वीकार करना पड़ा। कदाचित्‌ संकोच इसलिए था कि दोनो का एक-दूसरे से परिचय मुश्किल से दस-पन्द्रह मिनट पहले ही हुआ था। यह नितान्त औपचारिक मुलाकात अचानक एक मिशन में बदल गयी और देखते ही देखते मात्र पन्द्रह दिनों के भीतर न सिर्फ़ बेहद आकर्षक रूप-रंग में पुस्तक का मुद्रण करा लिया गया अपितु एक गरिमापूर्ण समारोह में इसका लोकार्पण भी कर दिया गया। रंग शब्दों को लेकर हिन्दी में अपनी तरह का यह पहला शोधकार्य है। इसके साथ ही साथ महाप्राण निराला के कालजयी काव्य का रंगशब्दों के आलोक में किया गया समाज-भाषावैज्ञानिक अध्ययन भावी शोधार्थियों के लिए एक नया क्षितिज खोलता है। निश्चय ही यह पुस्तक हिदी साहित्य के अध्येताओं के लिए नयी विचारभूमि उपलब्ध कराएगी।
Dr.Kavita Vachaknavee's Book
इस समारोह में एकेडेमी की ओर से हिन्दी, संस्कृत एवम उर्दू के दस लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों प्रो. चण्डिकाप्रसाद शुक्ल, डॉ. मोहन अवस्थी, प्रो. मृदुला त्रिपाठी, डॉ. विभुराम मिश्र, डॉ. किशोरी लाल, डॉ. कविता वाचक्नवी, डॉ. दूधनाथ सिंह, डॉ. राजलक्ष्मी वर्मा, डॉ. अली अहमद फ़ातमी और श्री एम.ए.कदीर को सम्मानित भी किया गया। यद्यपि इनमें से डॉ. दूधनाथ सिंह, डॉ. राजलक्ष्मी वर्मा, डॉ. अली अहमद फ़ातमी और श्री एम.ए.कदीर अलग-अलग व्यक्तिगत, पारिवारिक या स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से उपस्थित नहीं हो सके, तथापि सभागार में उपस्थित विशाल विद्वत्‌ समाज के बीच छः विद्वानों को उनके उत्कृष्ट कार्य के लिए शाल, नारियल, व सरस्वती की अष्टधातु की प्रतिमा भेंट कर सम्मानित किया गया। प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किए गए। एकेडेमी द्वारा अन्य अनुपस्थित विद्वानों के निवास स्थान पर जाकर उन्हें सम्मान-भेंट व प्रशस्ति-पत्र प्रदान कर दिया जाएगा।
सम्मान स्वीकार करते हुए अपने आभार प्रदर्शन में डॊ. कविता वाचक्नवी ने कहा कि इस लिप्सापूर्ण समय में कृति की गुणवता के आधार पर प्रकाशन का निर्णय लेना और रचनाकार को सम्मानित करना हिन्दुस्तानी एकेडेमी की समृद्ध परम्परा का प्रमाण है, जिसके लिए संस्था व गुणग्राही पदाधिकारी निश्चय ही साधुवाद के पात्र हैं।
आरम्भ में हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सचिव डॊ. एस. के. पाण्डेय ने अतिथियों का स्वागत किया। उल्लेखनीय है कि वे स्वयं संस्कृत के विद्वान हैं , उनके कार्यकाल में एकेडेमी का सारस्वत कायाकल्प हो गया है। इस अवसर पर समारोह के अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त ने सरस्वती दीप प्रज्वलित किया और सौदामिनी संस्कृत विद्यालय के छात्रों ने वैदिक मंगलाचरण प्रस्तुत किया। एकेडेमी के ही अधिकारी सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने खचाखच भरे सभागार में उपस्थित गण्यमान्य साहित्यप्रेमियों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया। *

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

यह भी एक युद्ध है - महाश्वेता देवी

Mahasweta Devi


इन दिनों मैं बेतरह उद्विग्न हूँ। इसकी वजह बांग्ला लेखिका तसलीमा नसरीन का दु:ख है। वे वैध वीसा लेकर भारत में रह रही हैं फिर भी उन्हें दिल्ली की एक अज्ञात जगह पर दो महीने से नजरबंद कर रखा गया है। तसलीमा के दु:सह्य एकाकीपन, अनिश्चयता और मृत्युमय निस्तब्धता से उनकी मुक्ति की माँग को लेकर हम यथासाध्य आंदोलन कर रहे हैं और इसी तरह की मुहिम की देशव्यापी जरूरत भी शिद्दत से महसूस करते हैं।
मैं पूछना चाहती हूँ कि तसलीमा को आखिर बंदी जीवन-यापन क्यों करना होगा? उन्हें स्वाभाविक जीवन-यापन क्यों नहीं करने दिया जा रहा है? इन सवालों ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों को भी विचलित किया है। तसलीमा को कोलकाता लौटाने की माँग को लेकर इसी महीने 14 जनवरी को बंगाल के मुस्लिम बुद्धिजीवी सामने आए। डॉ. गियासुद्दीन और डॉ. शेख मुजफ्फर हुसैन सरीखे विशिष्ट बुद्धिजीवियों ने कोलकाता में एक सभा कर और उसमें सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर कहा कि तसलीमा को तत्काल कोलकाता लौटाया जाए और उन्हें सुरक्षा उपलब्ध कराई जाए, पर सामान्य जीवन भी जीने दिया जाए। उस सभा में मैं भी उपस्थिति थी और यह बात मुझे अत्यंत प्रीतिकर लगी कि मुसलमान भी अब तसलीमा के पक्ष में आवाज उठा रहे हैं। उस सभा से यह भी स्पष्ट हो गया कि यह धारणा भ्रांत है कि सभी मुसलमान तसलीमा के विरुद्ध हैं। बंगाल के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने 'धर्म मुक्त मानव मंच' नामक संस्था बनाकर इस मामले पर जल्द ही रैली और कनवेंशन करने का भी एलान किया है।
Taslima
रही, दूसरे बुद्धिजीवियों की बात, तो अपर्णा सेन, शंख घोष, सुकुमारी भट्टाचार्य, शुभ प्रसन्न, कौशिक सेन, जय गोस्वामी, विभाष चक्रवर्ती, साँवली मित्र समेत सैकड़ों बुद्धिजीवियों ने तसलीमा को कोलकाता लौटाने की माँग को लेकर पिछले महीने 22 दिसम्‍बर को कोलकाता में एक विशाल रैली की थी। उसके बाद दो जनवरी को इसी माँग को लेकर बुद्धिजीवियों ने कोलकाता के महाबोधि सोसाइटी सभागार में विशाल सभा की थी। उस दोनों में भी मैं शरीक हुई थी।
बंगाल के बुद्धिजीवी तसलीमा के लिए बहुत जल्द फिर सड़क पर उतरेंगे। मैं भी इस उम्र में भी पदयात्रा करूँगी और जो कुछ भी संभव है, करूँगी। मेरे लिए यह भी एक युद्ध है। एक स्त्री और एक लेखिका नजरबंद रहे, तो हम चैन की साँस आखिर कैसे ले सकते हैं? इसीलिए हम युद्धरत रहने का संकल्प लेते हैं और यही अपेक्षा भारत की सभी भाषाओं के लेखकों से करते हैं। पिछले महीने दिल्ली में भी भारतीय भाषाओं के लेखकों ने एक सभा की थी। मुझे बताया गया कि उस सभा में भी सर्वाधिक मुखर शमसुल इस्लाम थे। वे तसलीमा के पक्ष में ठोस आंदोलनात्मक कार्यक्रम के हिमायती थे। उस सभा में मलयालम के लेखक ए.अच्युतन, हिन्दी के राजेंद्र यादव, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, पंकज बिष्ट, अरुण कमल, रामशरण जोशी, संजीव, सुरेश सलिल, अनिल चमड़िया समेत कई लेखक जुटे थे। जिस दिन दिल्ली में यह सभा हुई थी, उसी दिन कुलदीप नैयर, खुशवंत सिंह, अरुंधती राय और एमए बेबी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिख कर तसलीमा को कोलकाता लौटाने की माँग की थी। हिन्दी लेखकों की तरफ से भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यह माँग की गई है। तसलीमा के लिए आवाज केरल से भी उठ रही है और उत्तर प्रदेश से भी।
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने राय की 27 प्रतिशत मुस्लिम आबादी को खुश करने के लिए तसलीमा को बंगाल से निर्वासित किया। मई में बंगाल में पंचायत चुनाव है और उस चुनाव में जीतने के लिए मुस्लिम वोटों की उन्हें दरकार है। केंद्र सरकार की तरफ से यह मामला देख रहे प्रणव मुखर्जी अपनी कुर्सी बचाने के लिए बुद्धदेव के खिलाफ जाहिर है, कोई काम नहीं करेंगे। मुझे पता है, प्रणव मुखर्जी ने तसलीमा को ‘द्विखंडित’ से कतिपय पृष्ठ वापस लेने के लिए बाध्य किया। तसलीमा ने वे पृष्ठ सिर्फ इसलिए वापस लिए, क्योंकि वह कोलकाता लौटना चाहती हैं, लेकिन प्रणव मुखर्जी और प्रियरंजन दासमुंशी इतने क्रूर और बर्बर हैं कि अब तसलीमा को कोलकाता लौटाने की बजाय, उनसे सार्वजनिक तौर पर मुसलमानों से माफी माँगने को कह रहे हैं। अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के मुस्लिम वोटों के लिए वे इतना गिर सकते हैं, यह भी देश ने देख लिया। बुद्धदेव का ही नहीं, प्रणव और दासमुंशी का भी धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा उतर गया है। प्रणव मुखर्जी और दासमुंशी ने जो जघन्‍य सांस्‍कृतिक अपराध किया है, उसका जवाब उन्‍हें तसलीमा के पाठक और साहित्य के करोड़ों पाठक देंगे। हिन्‍दुस्‍तान से साभार

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

भारत में जो किसान सोना पैदा कर रहे हैं वे तो भूखों मर रहें हैं


Shambhu Choudharyभारत के अर्थशास्त्री जब तक वातानुकूलित चेम्बर में बन्द होकर विदेशी ज्ञान के बल पर भारत के भाग्य का फैसला करते रहेंगे तब तलक भारत के किसानों का कभी भला नहीं हो सकता। भारत में जो किसान सोना पैदा कर रहे हैं वे तो भूखों मर रहें हैं और जो लोग इसका व्यापार कर रहें हैं वे देश के सबसे बड़े धनवान होते जा रहें हैं। इसकी मूल समस्या है हमारे अन्दर का ज्ञान जो गलत दिशा से अर्जित की हुई है।
पूरा लेख इस लिंक को चटका कर देंखे।

महाश्वेता देवी से एक मुलाकात

Shambhu Choudhary<br />With Mahasewta Devi
चित्र में महाश्वेता जी, शम्भु चौधरी के साथ एक दुर्लभ मुद्रा में


कोलकाता, 13 फरवरी'2009: आज दिन के लगभग 11.30 बजे सहारा समय (कोलकाता) की वरिष्ठ पत्रकार सईदा सादिया अज़ीम , हिन्द-युग्म (दिल्ली से) श्री शैलेश भारतवासी और मैं खुद कोलकाता स्थित महाश्वेता देवी के घर उसने मिलने गये। उस समय की ली गई एक तस्वीर जिसमें महाश्वेता जी एक दुर्लभ मुद्रा में बात करती हुई। जिसे हम यहाँ अपने पाठकों के लिये जारी कर रहें हैं, इस अवसर पर महाश्वेता जी से लिये गये साक्षात्कार को जल्द ही "हिन्द-युग्म" और "ई-हिन्दी साहित्य सभा" पर जारी किया जायेगा। - शम्भु चौधरी

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

बंगाल के दूत: कृपाशंकर चौबे

Kripa Shanker Chobey

कोलकाता : बांग्ला के सुपरिचित कथाकार सुनील गंगोपाध्याय का कहना है कि हिंदी के लेखक कृपाशंकर चौबे बंगाल की साहित्य, कला व संस्कृति के बारे में कई बंगालियों से ज्यादा जानते हैं। 20 वर्षो से शोध में जुटे डॉ चौबे ने 10 किताबें लिखी हैं। वे हिंदी प्रदेशों में बंगाल के दूत हैं। पुस्तक मेले में उन्होंने अपने लिखित बयान में ये बातें कहीं। कोलकाता पुस्तक मेले में आनंद प्रकाशन के स्टाल पर डॉ चौबे की दो नयी पुस्तकों-समाज, संस्कृति और समय तथा रंग, स्वर और शब्द के लोकार्पण समारोह में श्री गंगोपाध्याय की उक्तियों को पढ़ा गया। उन्होंने कहा कि बंगाल में हिंदी में लिखनेवाले डॉ चौबे हिंदी के मौलिक लेखक हैं, इसलिए दोनों ही भाषाएं उनकी ऋणी हैं। रंग, स्वर और शब्द का लोकार्पण साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि अरुण कमल ने किया, जबकि समाज, संस्कृति और समय का लोकार्पण इंद्रनाथ चौधरी ने किया। इस मौके पर श्री कमल व श्री चौधरी ने कहा कि दोनों ही किताबें समकालीन बांग्ला साहित्य, कला व संस्कृति का मुकम्मल परिचय कराती हैं। आलोचक श्रीनिवास शर्मा ने कहा कि डॉ चौबे ने हिंदी व बांग्ला के बीच सेतु बनाने का काम किया है। समारोह का संचालन वरिष्ठ पत्रकार विश्वंभर नेवर ने किया। आनंद प्रकाशन के दिनेश त्रिवेदी ने धन्यवाद ज्ञापन किया।

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

जीवन ही ऊर्जा है - शम्भु चौधरी


Shambhu Choudharyआप और हम सभी साधारण प्राणी मात्र हैं। हमारे जीवन में हर जगह महापुरुषों की उपस्थिति संभव नहीं हो सकती। यह कार्य खुद ही हमें करना होगा, जिसे हम इस "जीवन उर्जा" के स्त्रोत से पूरा करने का प्रयास करेंगे।
हमने देखा है कि कई बार परिवार में कोई घटना घटती है तो हम उस घटना की सूचना मात्र से ही रो पड़ते हैं या किसी खुशी के समाचार से मिठाईयाँ बाँटने लग जाते हैं। हम किसी भी झण या तो खुद को कमजोर अनुभव करने लगते हैं या दौड़ने लगते हैं। किसी इच्छा पूर्ति से जब हम परिवार में खुशियाँ बाँटते हैं तो आशानुकूल न होने पर गम में पूरे वातावरण को परिवर्तित कर देते हैं।
परन्तु श्री अर्जुन के समक्ष ऐसी कोई घटना अकस्मात नहीं घटती है, फिर भी श्री अर्जुन अपने आपको शिथिल क्यों समझने लगे थे। -
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