शनिवार, 5 जुलाई 2008

कोलकाता शहर

विश्व के एक नम्बर में आने वाला शहर कोलकाता,
आज भारत की अन्तीम पंक्ती में खड़ा है।
विकास के नाम पर
कामगार मजदूरों के हाथों में
थमा दिया है झंण्डा,
हिंसा और अराजकता का डण्डा।
आज भी इस आशा में जीवित हैं,
जर्जर होता शरीर, कल-कारखाने
दिवारों पर लिखे नारे,
इस भयानक स्थिति की घोषणा करते हैं-
"यहाँ कोई आशा नहीं"
केवल '' मिथ्या आक्रोश "
शेष बचा है।


कचरे का अम्बार, विषाक्त हवा,
टूटी-फुटी सड़कें, बहती गंदी नालियाँ,
पानी के फटे पाइप,
पीने के पानी की वही पुरानी व्यवस्था,
कतार में लगे लोग,
रोजाना शहर आना, कुछ हो न हो
शहर को गंदा जरूर कर जाना।
चप्पा-चप्पा अबाद है,
शहर के फुटफाथ
कहिं दुकान, घर, या धर्मस्थल
यदि कुछ नहीं है तो, बस खाली जगह।


दो रोटी खा लेना,
सो जाना,
बहुत कुछ हुआ तो,
रास्ते पर ही कहीं बैठ- सुस्ता लेना;
न कोई मनोरंजन,
न कोई उत्साह,
बस,
दिनभर आने-जाने,
जाम और थकावट से
हर इंसान,
परिवार से इस कदर दूर हो जाता है;
पति-पत्नि का प्रेम,
बच्चों का प्यार, स्नेह,
बिस्तर में थकावट का रूप ले,
करवटें बदल सो जाता है।


-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता- 700106

1 टिप्पणी: