उसकी भी क्या है मनुष्य में संज्ञा क्षिति पर ।।
Pratibha Agarwal in 'GODAN'
इसी वर्ष कृष्णाचार्य के संपादन में ‘हिन्दी नाट्य साहित्य’ का प्रकाशन हुआ । अनामिका को ‘नाट्य वार्ता’ नामक रंग पत्रिका के प्रकशन का भी श्रेय जाता है । 1963 से नाटकों के मंचन में सक्रिय ‘संगीत कला मंदिर’ नामक संस्था ने विभिन्न भाषाओं में पचास से अधिक प्रस्तुतियां की जिनमें ‘एक प्याला कॉफी’, ‘मृच्छकटिक’, ‘किसी एक फूल का नाम लो’, ‘एक गुलाम बीबी का’ व ‘एक और द्रोणाचार्य’ प्रमुख हैं । 1976 में इस संस्था ने मोहन राकेश को उनके नाटक ‘आधे-अधूरे’ के लिए मरणोपरांत पुरस्कृत किया ।अदाकार नाट्य दल को भी पचास से अधिक प्रस्तु्तियों का श्रेय है । यह दल ‘भूचाल’,'खामोश अदालत जारी है’ व ‘रिश्ते-नाते’ के उत्कृष्ट मंचन के लिए जाना जाता है । इसके निर्देशक-अभिनेता कृष्ण कुमार राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पाकर अहींद्र चौधरी से अभिनय का पाठ पढ़ने कोलकाता आए थे । अहींद्र चौधरी तब रवींद्र भारती में अभिनय कला के प्रोफेसर थे । अनामिका में अधिक प्रयोगशील व ‘बोल्ड’ नाटकों के मंचन के लिए वांछित खुलेपन की गुंजाइश न पाकर श्यामानंद जालान ने 1972 में ‘पदातिक’ की स्थापना की और ‘गीधाड़े’ और ‘सखाराम बाइंडर’ जैसे नाटकों को सफलतापूर्वक खेला । ‘पदातिक’ को ब्रेश्ट, मोलियर, इब्सन व सैमुअल बैकेट आदि विदेशी नाटककारों एवं मोहन राकेश, महा्श्वेता देवी,विजय तेंदुलकर, बादल सरकार, निर्मल वर्मा व जीपी देशपांडे जैसे भारतीय लेखकों के नाटकों को मंचित करने का श्रेय प्राप्त है । पदातिक ‘शुतुरमुर्ग’ ‘एवम इंद्रजीत’, ‘आधे-अधूरे’, ‘पगला घोड़ा’ व ‘सखाराम बाइंडर’ की प्रभावोत्पादक प्रस्तुतियों के लिए ख्यात है ।
Gopal Kalwani in 'Ram-shyam-Jadhu'
अभी हाल ही में काशीनाथ सिंह की सुप्रसिद्ध रचना पर ‘काशीनामा’ और मंटो की कहानियों पर आधारित तीन नाटकों की श्रृंखला के सफल मंचन द्वारा उन्होंने अपनी निर्देशकीय क्षमता को प्रदर्शित किया है । कोलकाता की एक शताब्दी से चली आ रही हिन्दी रंग परंपरा के ध्वजवाहक के रूप में लगभग एक दर्जन नाट्य दल अपनी सक्रियता से इसे पुष्ट कर रहे हैं । महेश जायसवाल ने अपने नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से हिन्दीभाषी समाज को जन संस्कृति के वृहत्तर सरोकारों से जोड़ा है । विपरीत परिस्थितियों में भी प्रताप जायसवाल ने न केवल अपनी टोली ‘अभिनय’ को बचाए रखा, बल्कि ‘मिस्टर अभिमन्यु’, ‘रावणलीला’ व ‘दुस्समय’ जैसी कई नाट्य प्रस्तु्तियों के माध्यम से हस्तक्षेप जारी रखा । स्पंदन, लिटिल थैस्पीयन, अकृत, रंगकृति, प्रयास, कला सृजन अकादमी, नीलांबर व कलाकार जैसी रंग संस्थाएं लगातार अपनी उपस्थिति का अहसास कराती रही हैं । सामूहिकता और सृजनात्मकता के लिए यह कठिन समय है । नाटक की तो संरचना ही सामूहिकता और सृजनात्मकता के पायों पर टिकी है । नाटक के होने का अर्थ है एकांतिकता और बंजरपन का न होना । एक समर्थ नाट्य आंदोलन जीवंत और गतिशील समाज की पहचान है । जिस भाषा में श्यामानंद जालान, प्रतिभा अग्रवाल और उषा गांगुली जैसे तपे हुए नाट्य व्यक्तित्व सक्रिय हों, जिसमें नाट्य शोध संस्थान जैसी अद्वितीय संस्था का अस्तित्व हो, जिसमें आज भी संसाधनों के अभाव के बावजूद सामूहिकता के बल पर नाटकों का मंचन संभव हो तो गैरजरूरी हताशा का कोई कारण दिखाई नहीं देता । http://samakaal.wordpress.com
[संदर्भ:'वागर्थ' के मार्च-अप्रैल २००२ अंक प्रियंकर पालीवल द्वारा लिखित ]
अनामिका:
‘अनामिका’ की स्थापना कलकत्ता में 22 दिसंबर 1955 को हुई। संस्था के गठन के लिए पहली बैठक जुलाई-अगस्त 1955 में बुलाई गई थी। अध्यक्ष पद के लिए गोविंद प्रसाद कानोड़िया और मंत्री पद के लिए प्रतिभा अग्रवाल तथा श्यामानंद जालान का चुनाव हुआ। संस्था ने आगामी दो तीन बैठकों में अपने मूल उद्देश्य, नियमावली तथा कार्यक्रम निश्चित किए और सुमित्रानन्दन पन्त के गीतों पर आधारित ‘पन्त प्रवाहिनी’ कार्यक्रम के साथ 22 दिसंबर 1955 को जनता के समक्ष आई। और तबसे यही दिन स्थापना दिवस के रूप में माना जाने लगा।
‘अनामिका’ का प्रथम कार्यक्रम ही साहित्यिक था- सुमित्रानन्दन पन्त के गीतों का व्याख्या एवं विवरण युक्त गायन। मार्च सन् 1956 में आर. जी. आनंद लिखित ‘हम हिन्दुस्तानी है’ ‘अनामिका’ की पहली नाट्य-प्रस्तुति थी।
सन् 1959 में जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ की नृत्य रूपक के रूप में प्रस्तुति साहित्य, संगीत एवं नाटक की त्रिवेणी थी, ‘अनामिका’ के मूल उद्देश्यों की सार्थक- समन्वित अभिव्यक्ति थी। इस काल में सौमेन टैगोर, भूपेन हजारिका (गुवाहाटी), चंद्रबदन सी. मेहता (बड़ौदा), चाल्र्स एल्सन (न्यूयार्क), पं.नारायण आचार्य (वाराणसी), कल्याणमल लोढ़ा (कलकत्ता) जैसे विद्वानों को ‘अनामिका’ ने अपने बीच पाया भवानी प्रसाद मिश्र और कैलाश वाजपेयी जैसे कवियों की कविताओं का रसास्वादन किया।
नाट्य क्षेत्र में ‘अनामिका’ को जो यश मिला, जो उसकी उपलब्धि हुई, उसने उसे नाट्य-प्रस्तुतियों पर ही अधिक ध्यान देने को प्रेरित किया। सन् 1959 में ‘संगीत नाटक अकादमी’ द्वारा ‘नए हाथ’ के मंचन पर प्रथम पुरस्कार की प्राप्ति ने इस धारणा की पुष्टि की। सन् 1961 में रवीद्र जन्म-शतावार्षिकी के अवसर पर ‘संगीत नाटक अकादमी’ द्वारा आयोजित विशेष समारोह में रवीन्द्रनाथ के ‘घरे बाइरे’ उपन्यास का नाट्य रूपान्तर प्रस्तुत करने के लिए ‘अनामिका’ के आमंत्रित होने पर उक्त धारणा को और बल मिला।
‘अनामिका’ के प्रारंभिक पाँच वर्षों के इतिहास को हम देखें तो एक ओर हमें कार्यक्रमों की विविधता दिखलाई पड़ती है, दूसरी ओर हिंदी नाटक एवं रंगमंच को ठोस धरातल प्रदान करने की चेष्टा। सन् 1956 से 1960 के बीच ‘हम हिन्दुस्तानी है’ (आर. जी. आनंद, मार्च 1956: श्यामानंद जालान), ‘नए हाथ’ (विनोद रस्तोगी, अप्रैल 1957: बद्रीप्रसाद तिवारी), ‘चाय पाटियाँ’ (संतोष नारायण नौटियाल, जनवरी 1959: संतोष नारायण नौटियाल), ‘जनता का शत्रु’ (हेनरिक इब्सन, मार्च 1959: श्यामानन्द जालान) तथा ‘आषाढ़ का एक दिन’ (मोहन राकेश, सितंबर 1960: श्यामानन्द जालान) पूर्णांग नाटक प्रस्तुत किए गए तथा ‘संगमरमर पर एक रात’ (धर्मवीर भारती, सितंबर 1956), ‘सत्य किरण’ (कृष्ण किशोर श्रीवास्तव, सितंबर 1956), ‘नदी प्यासी थी’ (धर्मवीर भारती, जनवरी 1956), ‘पाटलीपुत्र के खँडहर में’ (कमलाकांत वर्मा, सितंबर 1957), ‘अँजो दीदी’ (अश्क, सितंबर 1958), तथा ‘नवज्योति की नई हीरोइन’ (सत्येन्द्र शरत, सितंबर 1958) एकांकी प्रस्तुत किए गए।
‘अनामिका’ की गतिविधियों का दूसरा पंचवर्षीय चरण सन् 1961 से 1965 तक था। इन वर्षों में ‘घर-बाहर’ (रवीन्द्रनाथ ठाकुर, 1961: श्यामानन्द जालान), ‘छपते-छपते’ (मिहिल सेबेशियन, 1963: श्यामानन्द जालान), ‘शेष रक्षा’ (रवीन्द्रनाथ ठाकुर, 1963: प्रतिभा अग्रवाल), ‘मादा कैक्टस’ (लक्ष्मीनारायण लाल, 1964: श्यामानन्द जालान), ‘छलावा’ (परितोष गार्गी, 1964: प्रतिभा अग्रवाल) एवं ‘कांचन रंग’ (शंभु मित्र तथा अमित मैत्र, 1965: कृष्ण कुमार) नाटक प्रस्तुत किए गए। इनमें से ‘मादा कैक्टस’ को छोड़कर अन्य सब अनुवाद एवं रूपान्तर थे।
सन् 1966 में अमृत लाल नागर के ‘सुहाग के नूपुर’ का नाट्यरूपांतर (प्रतिभा अग्रवाल) और मोहन राकेश का ‘लहरों के राजहंस’ (श्यामानन्द जालान), सन् 1967 में लक्ष्मीनारायण लाल का ‘दर्पण’ (बद्री तिवारी), ज्ञानदेव अग्निहोत्री का ‘शुतुरमुर्ग’ (श्यामानन्द जालान), शिवकुमार जोशी का ‘साप-उतारा’ सन् 1968 में बादल सरकार का एवं ‘इन्द्रजीत’ (श्यामानन्द जालान), लुइजी पिरैडेलो के ‘राइट यूँ आर इफयू थिंक सो’ का भारतीय रूपान्तर ‘मनमाने की बात’ (प्रतिभा अग्रवाल), सन् 1969 में आर्थर मिलर के 'आल माई सन्स’ का भारतीय रूपान्तर ‘मेरे बच्चे’ (शिवकुमार जोशी), सन् 1970 में मोहन राकेश का ‘आधे-अधूरे’ (श्यामानन्द जालान), बादल सरकार का ‘बल्लभपुर की रूप कथा’ (कृष्ण कुमार) तथा ‘राम-श्याम-जदु’ (बादल सरकार) नाटक प्रस्तुत किए गए। इनमें ‘साप-उतारा’, ‘रूप कथा एवं राम-श्याम-जदु’ हास्यरस प्रधान नाटक थे, शेष सभी गंभीर। गंभीर नाटक होने के कारण इन सभी प्रस्तुतियों का महत्व था तथापि, इनमें ‘लहरों के राजहंस’, शुतुरमुर्ग’, एवं ‘इन्द्रजीत’ तथा ‘आधे-अधूरे’ विभिन्न दृष्टियों से विशेष महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय हैं।
सन् 1971 से ‘अनामिका’ की गतिविधियों ने जोर पकड़ा। मई 1970 से प्रारंभ की गई रविवारीय प्रदर्शन की योजना ने ‘अनामिका’ के कार्यकर्ताओं को सत क्रियाशील रहने को बाध्य किया। 1971 के प्रारंभ में ‘पगला-घोड़ा’ (श्यामानन्द जालान) का मंचन हुआ। भावनाओं के आलोड़न को बड़ी तीव्रता से प्रस्तुत करने वाला बादल सरकार का यह नाटक लोकप्रिय हुआ। उसी समय ‘बहु-रूपी’ ने भी इसे बँग्ला में प्रस्तुत किया। दोनों प्रदर्शन महीनों तक साथ-साथ चले और चर्चा का विषय रहे। मई 1971 में रविवारीय कार्यक्रम को एक वर्ष पूरा हुआ।
सन् 1970 और 1971 के दो बाल नाटकों का उल्लेख इसी प्रसंग में आवश्यक है।
प्रथम वर्ष श्यामा जैन द्वारा रचित एवं निर्देशित ‘कृतघ्न मनुष्य’ तथा 1971 में आत्मानन्द द्वारा रचित एवं निर्देशित ‘मासूम’ बाल नाटक बड़े लोकप्रिय हुए। सच पूछिए तो कलकत्ता में तभी से बाल नाटक प्रस्तुत करने की परंपरा सी चल पड़ी। 1973 में ‘अनामिका’ ने ही श्यामाजी के एक और नाटक ‘सुधीर और शैल’ का मंचन किया।
सन् 1972 में पुनः तीन नए नाटक प्रस्तुत किए गए- ‘कहत कबीरा’ (लेखन एवं निर्देशन: शिवकुमार जोशी), ‘हय बदन’ (गिरीश कार्नाड निर्देशन: राजेन्द्रनाथ) तथा ‘चटनी टमाटर की’ (गणेश बागचीय निर्देशन: शिवकुमार झुनझुनवाला)। ‘कहत कबीरा’ में मंच पर छोटा सा चकी मंच (12 फिट) भी लगाकर दृश्य परिवर्तन करने का नया प्रयोग किया गया। ‘हय बदन’ के निर्देशन के लिए दिल्ली से श्री राजेन्द्रनाथ को आमंत्रित किया गया।
इसी वर्ष श्री बसंत पोद्दार के एकालाप ‘सेर सिवराज ह’ के छह प्रदर्शन भी ‘अनामिका’ के तत्वावधान में किए गए।
सन् 1973 में पुनः तीन नाटकों- ‘लँगड़ी टाँग’ (हरि शंकर परसाई), ‘अबूहसन’ (बादल सरकार), ‘इस अँधेरे से’ (अमृत राय) तथा दो एकांकियों- ‘सेतुबंध’ एवं ‘नायक खलनायक विदूषक’ (सुरेन्द्र वर्मा) के साथ ही बसंत पोद्दार का एकालाप ‘अग्नि-पुत्र’ प्रस्तुत किए गए। प्रथम दोनों नाटकों का निर्देशन विमल लाठ ने, तीसरे का शिवकुमार झुनझुनवाला ने, तथा एकांकियों का प्रतिभा अग्रवाल ने किया।
सन् 1974 में ‘सारी-रात’ (बादल सरकार), ‘प्रयोग’ (कमलाकान्त वर्मा), ‘बड़ी बुआजी’ (बादल सरकार) तथा ‘चन्द्रगुप्त’ (प्रसाद) प्रस्तुत किए गए। ‘सारी रात’ की प्रस्तुति अत्यंत प्रभावपूर्ण हुई। स्त्री-पुरुष के संबंधों की उलझनों और घुटन को बड़ी गहराई से इस नाटक में बादल सरकार ने चित्रित किया है और उसे उतनी ही निष्ठा एवं गहराई के साथ निर्देशक शिवकुमार झुनझुनवाला ने उभारा तथा स्त्री की भूमिका में अभिनय करने वाली कलाकार यामा ने जिया। इस प्रस्तुति से ‘अनामिका’ एवं निर्देशक दोनों को प्रतिष्ठा मिली।
Bimal Lath in Middel
सन् 1975 में ‘अनामिका’ ने केवल दो नाटक प्रस्तुत किए- शिवकुमार जोशी रचित ‘लक्ष्मण रेखा’ और बादल सरकार रचित ‘बाकी इतिहास’। प्रथम का निर्देशन स्वयं नाट्यकार ने किया और दूसरे का शिवकुमार झुनझुनवाला ने। इसी वर्ष अगस्त में ‘लक्ष्मण रेखा’ का दूरदर्शन से प्रसारण भी हुआ।
अप्रैल सन् 1976 में रवि दवे के निर्देशन में प्रेमचन्द की अमर कृति ‘गोदान’ का नाट्य रूपान्तर प्रस्तुत किया गया। ‘अनामिका’ की इस प्रस्तुति ने साहित्य एवं नाट्य मर्मज्ञ, सामान्य दर्शक, छात्र वर्ग, ग्रामीण वातावरण में पले लोगों- तात्पर्य यह कि समाज के हर वर्ग के मन को को स्पर्श किया।
सन् 1976 में ही मणि मधुकर रचित ‘दुलारी बाई’ का मंचन हुआ, निर्देशक वे स्वयं थे।
अक्टूबर 1976 से ‘अनामिका’ ने एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया- ‘नाटक’। तीन अंकों के बाद इसका नाम बदलना पड़ा- ‘नाट्य वार्ता’।
सन् 1977 में ‘अनामिका’ केवल दो नए नाटक कर पाई- ‘देना-पावना और मिस आलूवालिया’। मिस आलूवालिया का निर्देषन किया स्व0 षेखर चटर्जी व गोपाल कलवानी ने। इस नाटक के 150 के करीब प्रदर्षन हुए। इसमें श्री कलवानी के अभिनय को बहुत ही सराहा गया। शरतचन्द्र की शतवार्षिकी के अवसर पर ‘देना पावना’ विशेष रूप से प्रस्तुत किया गया। रूपान्तर प्रतिभा जी ने किया एवं निर्देशन भी उन्होंने ही किया।
सन् 1978 प्रस्तुतियों की दृष्टि से अधिक सक्रिय वर्ष था। इस साल ‘वंशवृक्ष’, ‘एक था गधा’, ‘शरशय्या’ तथा ‘सूरदास’- चार नाटक प्रस्तुत हुए। कन्नड़ के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘वंशवृक्ष’ का रूपान्तर प्रतिभा जी ने किया।
इस साल की अंतिम प्रस्तुति ‘सूरदास’ थी। ‘सूरदास पंचशती समारोह समिति’ के आमंत्रण पर इसे विशेष रूप से तैयार किया गया पहला प्रदर्शन समिति द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सूर संगोष्ठी के अवसर पर 11 दिसंबर को किया गया। सूर-प्रेमियों ने इसे खूब सराहा, किन्तु नाट्य-प्रेमियों की दृष्टि में सूर के जीवन, दृष्टि और पदों को प्रस्तुत करने वाली यह कृति शिथिल रही।
सन् 1979 में दो नाटक हुए- ‘कथा एक कंस की’ तथा ‘हिमालय की छाया’। दया प्रकाश सिन्हा रचित ‘कथा एक कंस की’ एक सशक्त कृति है।
‘हिमालय की छाया’ वसंत काने टकर की बहुचर्चित
कृति है। इसका निर्देशन शिवकुमार जोषी ने किया। इसमें साठ-सत्तर वर्ष के बूढ़े की प्रमुख भूमिका में प्रदीप अरोड़ा ने बहुत सशक्त अभिनय किया। साथ ही सुस्मिता सिंघी (अब गुप्ता) ने माँ की भूमिका में अत्यन्त प्राणवान अभिनय किया। उसके लिए यह पहली महत्वपूर्ण भूमिका थी।
22 दिसंबर सन् 1979 को ‘अनामिका’ ने पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश किया। सन् 1980 को रजत जयन्ती वर्ष घोषित किया गया और अवसर के उपयुक्त वर्ष व्यापी कार्यक्रम आयोजित किया गया।
जनवरी 1980 में पाँच दिनों का ‘अनामिका’- नाट्योत्सव आयोजित हुआ, जिसमें तीन पुराने नाटकों की पुनरावृत्ति हुई तथा दो नए नाटक प्रस्तुत किए गए। सन् 1957 में प्रस्तुत ‘नए हाथ’ के तीन कलाकार भँवरमल सिंघी, नरेन्द्र अग्रवाल तथा प्रतिभा अग्रवाल ने पुरानी भूमिकाओं में अभिनय किया, शेष कलाकार नए रहे। इसी प्रकार सर्वप्रथम सन् 1969 में प्रस्तुत ‘बल्लभपुर की रूपकथा’ की पुनरावृत्ति हुई, जिसमें उत्तम राम नागर, आत्मानंद तथा नरेन्द्र अग्रवाल अपनी पुरानी भूमिकाओं में उतरे, रामगोपाल बागला नई में। सन् 1970 में प्रस्तुत ‘आधे-अधूरे’ के मूल कलाकारों में कृष्णकुमार तथा प्रतिभा अग्रवाल ने पुनः नई प्रस्तुति में अभिनय किया, शेष नए कलाकार लिए गए। सन् 1974 में अनामिका द्वारा आयोजित नाट्योत्सव में जयशंकर प्रसाद के चंद्रगुप्त की प्रस्तुति एक चुनौती थी। पूरे परिश्रम के बावजूद प्रस्तुति को सीमित सफलता मिली। केवल महोत्सव में एक प्रदर्शन होकर रह गया। इस प्रस्तुति के बाद निर्देशन में अंतराल रहा, सन् 1978 में शरद जोशी का 'एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ' को प्रस्तुत किया। ‘गोदान’ (1976), ‘आधे-अधूरे’ (1980), ‘नये हाथ’ (1980, पुनः मंचन), ‘रेशमी रूमाल’ (1988), ‘इस पार उस पार’ तथा ‘साँझ ढले’ (1985) आदि।
नई प्रस्तुतियों में ‘हानूश’ उल्लेखनीय है। भीष्म साहनी का यह नाटक दर्शकों द्वारा प्रशंसित हुआ, निर्देशक थे रवि दवे।‘अनामिका’ ने अपनी रजत जयंती मनाकर एक पड़ाव पार किया। उसके सामने उज्ज्वल किन्तु संघर्षमय भविष्य है।श्यामानन्द जालान ‘अनामिका’ के महत्वपूर्ण निर्देशक थे, सब उनकी कुशलता के कायल थे, कोई समस्या नहीं थी। सन् 1971 में अनामिका से श्री श्यामानन्द जालान का अलग होना, इस घटना को कोलकाता का कोई नट्य प्रेमी भुला नहीं पायेगा। श्यामानन्द जालान ने अनामिका में रहते हुए, अनामिका की ही एक अन्य कलाकार ' चेतना' से पहली पत्नी 'किरण' के रहते-रह्ते ही दूसरा विवाह कर लिया, जो 'अनामिका' जैसी संस्था के नाम पे बदनुमा धब्बा था । श्यामानन्दजी के ‘अनामिका’ से अलग होने पर निर्देंशक का भार दूसरों के कंधों पर देने को बाध्य होना पड़ा। हालांकि इस विघटन के बाद अनामिका का प्रदर्शन कम और प्रभावहीन होता चला गया श्री भंवरमल सिंघी व शुशीला सिंघी के देहावसान पश्चात तो यह संस्था प्रायः मृत सी हो गई है।
अनामिका से श्यामानन्द जालान अलग होने के बाद 1972 में ‘पदातिक’ नाम से नई संस्था का जन्म दिया। जिसके तत्वाधान में शुरूआती वर्ष में ‘गिधाड़े’, ‘सखाराम बाइंडर’, ‘हजार चैरासी की माँ तथा शकुंतला’ नाटकों का संचय किया गया। ‘पदातिक’ बन जाने के बाद कलकत्ते के हिन्दी रंगमंच में नए दौर की शुरुआत हुई। आज कोलकात्ता जैसे शहर में ‘पदातिक’ एक शिक्षण संस्थान के रूप में काफी चर्चित हो गई है। जिसका एक मात्र श्रेय श्री श्यामानन्द जी जालान को ही जाता है।
पदातिक
1949- नया समाज, 1950- विवाह का दिन, 1951- समस्या, 1952- अलग अलग रास्ता, 1953- एक थी राजकुमारी, 1954- कोणार्क, 1955- चंद्रगुप्त, 1956- हम हिन्दुस्तानी है, 1956- संगमरमर पर एक रात, 1956- सत्य किरण, 1957- नदी प्यासी थी, 1957- पाटलीपुत्र के खंडहर में, 1957- नये हाथ, 1958- अंजो दीदी, 1958- नवज्योती के नयी हिरोइन, 1958- नीली झील, 1959- जनता का शत्रु, 1959- कामायनी (डांस ड्रामा), 1960- आशाढ़ का एक दिन, 1961- घर और बाहर, 1963- शेष रक्षा, 1963- छपते छपते, 1964- मादा कैक्टस, 1966- लहरों के राजहंस, 1967- शुतुरमुर्ग, 1968- मन माने की बात, 1968- एवम् इंद्रजीत, 1970- आधे अधूरे, 1971- पगला घोड़ा, 1972- पंछी ऐसे आते हैं, 1972- तुगलक (बांग्ला),1973- सखाराम बाइंडर, 1977- गुड वुमन आफ सेटजुआन, 1978- हजार चैरासी की माँ, 1980- कौवा चला हंस की चाल, 1980- शकुंतलम्, 1981- पंक्षी ऐसे आते हैं, 1982- उद्वास्त धर्मशाला, 1982- बीबियों का मदरसा, 1983- आधे अधूरे, 1985- मुखिया मनोहरलाल, 1987- कन्यादान, 1987- क्षुदितो पाशाण, 1988- राजा लियर, 1989- बीबियों का मदरसा, 1991- सखाराम बाइंडर, 1992- आधार यात्रा, 1995- रामकथा रामकहानी, 1998- कौवा चला हंस की चाल, 2000- खामोश अदालत जारी है, 2006- माधवी, 2008- लहरों के राजहंस।
नोट: निर्देषक और अभिनेता के रूप में इन नाटकों में श्री श्यामानन्द जालान की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
अकृतः
श्री गोपाल कलवानी द्वारा निर्मित नाट्य-संस्था है जिसका मूल उद्देश्य है कोलकाता में हिन्दी नाट्य-मंच पर व्याप्त षून्य में से गुजरते हुए उसे इकाइयों, दहाइयों एवं ईश्वर चाहे तो अनगिनत संख्याओं में परिवर्तित करना ।
हिंदी नाट्य-मंच जिसका स्वर्णिम अतीत आसमान की ऊँचाइयाँ पाने के बाद बादलों के पीछे ओझल होता प्रतीत हो रहा था, बादलों के साये में से उसके अलौकिक आलोक का उद्दीपन आपको नजर आये, उसे उसका वर्तमान मिल जाए । ‘अकृत’ नाटक के साथ-साथ कला एवं संस्कृति के हर क्षेत्र में कार्य करने को प्रस्तुत है। गीत-संगीत नृत्य, चित्रकला व साहित्य सभी लौह कड़ियों से एक ऐसी मजबूत श्रृंखला बने जिसे चाहकर भी कोई तोड़ न पाये-अकृत के कार्य कलापों में यही भावना परिलक्षित होगी । इसके प्रमाण स्वरूप ‘अकृत’ की पहली प्रस्तुति ‘मायाजाल’ है। विजयदान की राजस्थानी कहानी ‘अमित लालसा’ पर आधारित यह संगीतमय नाटक दर्शकों को खूब पंसद आया। निर्देशक गोपाल कलवानी ने स्वरचित गीतों और लोक नृत्यों के माध्यम से इसे लोक नाटक का रूप दे दिया है ।
‘LittleThespain’:
Uma JhunJhunwala In 'Yadoon ke bhuje savere'
उमा झुनझुवाला द्वारा संचालित संस्था ने कथा-कोलाज-1 और कथा कोलाज-2 (2007 में) ‘?’ प्रश्नचिन्ह (हिन्दी, 2007 में), मंटों की कहानी पर आधारित नाट्य मंटों ने कहा (उर्दू 2006) यादों के बूझे हुए सवेरे (उर्दू 2005) हयवदन (नेपाली 2004 में), शुतुरमुर्ग (हिन्दी 2004 में), काँच के खिलौने (हिन्दी 2002 में) लाहौर (हिन्दी 1999) सुलगते चिनार (उर्दू 1996) महाकाल (हिन्दी 1995) और जब
आधार नहीं रहते हैं (हिन्दी 1997) और भी कई नाटकों मे आपकी संस्था ने महत्व पूर्ण पार्ट अदा किया है जिसमें बड़े भाई साहब (हिन्दी उर्दू 2006) रक्सी को श्रृष्टीकर्ता (नेपाली 2003) नमक की गुड़ीया (उर्दू 2001) तमसीली मुशायेरा (उर्दू 1998) सतगति (हिन्दी उर्दू 1994) और आग अब भी जल रही है (हिन्दी 1994) प्रमुख हैं। आपकी संस्था द्वारा कई स्ट्रीट नाटकों का भी मंचन किया गया-जिनमें ब्लैक संडे, किस्सा कुर्सी का, अटलबाबू-पटलबाबू, हाहाकार, खेल-खेल में आदि प्रमुख हैं।
शोधपरक लेख। काफी मेहनत की है आपने
जवाब देंहटाएंइस लेख का समूचा प्रारंभिक हिस्सा मेरे लेख 'कोलकाता का हिंदी रंगमंच:बीसवीं शती की उपलब्धियां' से लिया गया है जो भारतीय भाषा परिषद,कोलकाता द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'वागर्थ' के मार्च-अप्रैल २००२ अंक में प्रकाशित हो चुका है .
जवाब देंहटाएंयदि संदर्भ देंगे तो न्यायोचित होगा .
-- प्रियंकर पालीवाल
प्रियंकर पालीवल जी,
जवाब देंहटाएंनमस्कार,
आपका पत्र देखा, आपका नाम संदर्भ के रूप में जोड़ दिया हूँ, वैसे यह लेख http://samakaal.wordpress.com से लिया था, उस समय मैंने 'samakal'में एक पत्र भी दिया था जो इस प्रकार है-
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June 15, 2008 at 1:46 pm
कोलकात्ता के हिन्दी रंगमंच लेख आपके वेवपेज पर पढ़ने को मिला। बहुत ही अच्छा लेख है।
कृपया लेखक का नाम और पता हमें भेजें, ताकि इस लेख को ‘समाज विकास’ पत्रिका में प्रकाशित किया जा सके।
शम्भु चौधरी, सहयोगी सम्पादक
देखें:
http://samakaal.wordpress.com/2007/04/30/hindidramaofkolkata1/
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बीच-बीच में जो परिवर्तन किये गये हैं आप चाहें तो रहने दूगाँ, अन्यथा हटा दूगाँ। - शम्भु चौधरी