बुधवार, 5 मार्च 2008

लघु कथा: नहीं.............................

सूरज को आज न जाने क्या हो गया, सुबह से ही कुछ परेशान सा दिख रहा था।
कल रात की कलह को लेकर मस्तिष्क में तूफ़ान सा मचा हुआ था।
छोटी-मोटी बातें तो रोज ही होती रहती थी।
आज ऎसी क्या बात थी जो सूरज को सोचने के लिये मजबूर कर रही थी।
सूरज की शादी हुये चार साल हो गये थे, सीमा एक माह बाद ही मायके से लोटी थी।
सूरज को दो बच्चे सोनू तीन साल का हो गया था। छोटी लड़की अभी गोद में ही थी।
तीन माह ही तो हुये थे उसको, सीमा का पहला जापा ( प्रसूति) घर में ही हुआ था।
इस बार सीमा चाहती थी कि उसका दूसरा बच्चा पीहर में ही हो,
जहाँ घर के पास ही एक मारवाड़ी अस्पताल है,
जहाँ आसानी से अपने होने वाले बच्चे को जन्म भी दे सकेगी।
बस इतनी सी ही बात थी जो कल के कलह का मूल कारण था।
माँ को यह बात नागवार गुजरा।
जैसे ही सीमा ने घर में कदम क्या रखा, माँ ने तो मानो स्वांग ही भर लिया हो।
"मांगने से भीख भी नहीं मिलती"
बड़ा आया है - "भीख माँग लूँगा - भीख माँग लूगा!
पढ़ा-लिखा के इसलिए तुझे बड़ा किया था?
""काम-धाम तो रहा नहीं।"
दो-दो बच्चे पैदा कर लिये।
पाल नहीं सकते तो, किसने कहा था बच्चे पैदा करने के लिये।
न घर की इज्जत, ना गाँव का ख्याल,
मान- मर्यादा को ताख पर रख दिया।
थोड़ा तो अपने खानदान की इज्जत रख ली होती।
बस बहु क्या आ गयी, ससुराल का हो गया।
मैं तो जलती लकड़ी हूँ!
कब बुझ जाऊँगी, पता नहीं!
सीमा के घर में प्रवेश करते ही मानो,
तीन महिने का गुस्सा फूट परा हो।
कल तो माँ ने तूफान ही मचा दिया था।
सूरज को लगा कि अब इस घर में ओर बर्दास्त नहीं हो सकेगा।
बहुत हो गया.... यह सब।
बस काम मिलते ही घर छोड़कर चला जायेगा।
रात को सीमा ने भी कसम ही खा ली थी, कि
अब या तो तुम भी साथ चलो, नहीं तो वह इस घर में नहीं रहेगी।
बहुत दिन हो गये माँ की सुनते-सुनते।
सीमा रात भर रो-रोकर कभी मुझे, तो कभी माँ को कोसती रही।
बहुत समझाने की चेष्टा कर ली।
परन्तु सीमा ने तय कर लिया था कि
कल फैसला कर ही लेना है।
दोनों तरफ से समझौते की संभावना नहीं नज़र आ रही थी।
यह द्वंद्व मुझे पशोपेश में डाल दिया था।
घर में माँ एकेली कैसे रहेगी?
सीमा अब घर में किसी भी हालात मै रहने को तैयार नहीं थी।
यह सब सोचते-सोचते घर से बाहर निकल..... रेल की पटरियों के बीच चलने लगा
दिमाग पूरी तरह से खोखला हो चुका था।
काम कि तलाश, घर की इज्जत, माँ की देखभाल,
बच्चे का ख्याल, सीमा की बात, माँ के ताने,
गाँव की मर्यादा, सबकुछ एक साथ अपना हक माँगने के लिये खड़े थे।
एक की बात सुनूँ तो दूसरे का अपमान,
किसकी मानूँ,
रेल की पट्रियों से आती आवाज ने रफ्फ्तार ले ली थी,
सूरज को पता था कि अब कुछ ही पलकों में इन पटरियों के ऊपर से ट्रेन गुजरने वाली है।
सूरज को यह भी पता था कि उसे इन पटरियों से नीचे दूर हटना ही होगा।
सूरज चाहता भी नहीं था कि उसे कमजोर होकर लड़ना है।
आत्महत्या का जरा भी विचार मन में नहीं था।
वह यह भी जानता था कि यह कार्य कमजोर मानसिकता का जन्म है,
या फिर मानसिक अस्वस्थता के लक्षण।
वह जीवन से हताश नहीं था,
परेशान जरूर हो चुका था, लेकिन इतना भी नहीं कि उसे जीवन के इतने करीब ला खड़ा कर दे।
ट्रेन की रफ्तार काफी नजदीक आ चुकी थी,
सूरज बस अब हटने की सोच ही चुका था।
एक तेज आवाज बस कान को सुनाई दी।
नहीं..................ट्रेन की पटरियों पर लोगों की हुजूम लग गया था।
ट्रेन रूक चुकी थी।
भीड़ से एक ने सूरज को पहचानते हुये....
चिल्ला पड़ा .... अरे ये तो सूरज है। - शम्भु चौधरी 6th March'2008

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें