अंतरराष्ट्रीय भाषा दिवस की पूर्व संध्या पर भाषा चेतना समिति के कार्यक्रम को संबोधित करते हुए बंगाल के भूमि व भूमि सुधार मंत्री माननीय अब्दुल रज्जाक मोल्ला ने एक नये विवाद को जन्म दे दिया, पहले ही महाराष्ट्र के श्री राज ठाकरे उत्तर भारतीय ,बाद में यु.पी और बिहार के लोगों, और फिर छठ पूजा के ऊपर अपना आक्रोश जाहिर कर चुके थे, वह विवाद अभी थमा ही नहीं था, कि पश्चिम बंगाल के मंत्री महोदय ने मीडिया वाले को एक नया मसाला थमा दिया, जब से माननीय मुख्यमंत्री श्री बुद्धदेव बाबू ने दूसरी बार शपथ ग्रहण लिया, तब से पता नहीं इनकी सरकार को क्या ग्रहण लग गया, कि वे जब-जब वे राज्य में विकास कि बात करते हैं, कोई न कोई नया हंगामा खड़ा हो जाता है, और इनके विकास की पटरी लाइन से उतरकर खेतों, नदी-नाले, या फिर मीडिया में दौड़ने लगती है। नहीं तो, ऐसी क्या खास बात थी भूमि सुधार मंत्री में जिसके बयान से राज ठाकरे भी फीके दिखे। इन राज नेताओं से किस बात की हम आशा कर सकते हैं? जिनके बयान ही कटूता भरें हों। जिन लोगों से समाज जोड़ने की उम्मीदें की जानी चाहिये। उनके श्रीमुख से प्रान्तीयतावाद का जहर निकल रहा है। हमारे राजनेताओं का स्तर इस कदर नीचे गिरेगा, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इस तरह का वातावरण समाज के ताने-बाने को चकनाचूर/तहस नहस कर के रख देगा। जिस भूमि में छत्रपति शिवाजी जैसे योद्धा, डॉ.केशव बलिराम हेडगवार जैसे संगठनकर्ता, रविन्द्रनाथ ठाकुर व नजरूल ईसलाम जैसे कवि, स्वामी विवेकानंद जैसे विचारक,राजाराम मोहन राय जैसे समाज सुधारक, सुभाषचन्द्र बोस जैसे क्रांतिकारी ने जन्म लिया हो, उस भूमि से प्रान्तीयता-जातियता का पनपना बड़े खेद का विषय है। यू.पी.-बिहारी के मजदूर राष्ट्र के निर्माण में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। खेत-खलियान से लेकर भवन निर्माण, शिक्षा के जगत में भी इस समाज का कोई मिसाल नहीं है। यह बात अलग है, कि ये लोग बड़े ही सरल स्वभाव के होते हैं, गरीबी भी इनका पीछा नहीं छोड़ती। इसका अर्थ यह नहीं कि इनका समाज में कोई स्थान नहीं।
हमारा समाज के सभी शिक्षित लोगों से भी निवेदन है कि, वे प्रान्तीयता के किसी भी विवाद को समाचार-मीडिया में आमदनी का जरिया न बनाये, ऐसे लोग पहले भी थे, आगे भी पनपते रहेगें। यह बात देश की अख्ण्डता के लिये ज्यादा महत्वपूर्ण है। इन दिनों कई बार इस तरह के समाचार मीडिया में देखने को मिल रहें हैं, यह हम सब की जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे लोगों को महत्व न देकर उनके कद को छोटा कर दे। अभी ताजा उदाहरण प.बंगाल का ही लें- विडिओ क्लिप में ध्यान दें तो पाते हैं कि, अब्दुल रज्जाक साहेब ने वास्तव में क्या कहा, उन्होंने जिस वक्त मारवाड़ी समुदाय की बात कही, उसी वक्त उन्होंने साथ में यह भी कहा कि ‘‘बंगालीरा एक-दूई परसेंट दिये-लिये काज कोरते चाय’’ सम्मेलन की तरफ से जब उनसे संर्पक किया गया तो,उन्होंने फोन पर स्पष्ट किया कि उनके कहने का अर्थ था कि वे मारवाड़ी समाज की कार्यकुशलता की तुलना बंगाली समाज से करना चाह रहे थे। जबकि मीडियावालों ने इस समाचार को जिस तरह से प्रस्तुत किया, यह हम सबके सामने है। यह अलग बात है कि जिस कार्यक्रम में मंत्री महोदय शरीकत ले रहे थे, वह एक उदेश्य के तहत माकपा द्वारा समर्थीत साहित्यिक मंच ‘भाषा चेतना समिति’ के कार्यक्रम में विश्व मातृभाषा दिवस मनाने इकट्ठे हुऐ थे। यह एक सोचने की बात है कि मंत्री महोदय को मातृभाषा के विकास पर बोलना था कि या उनको कौन कितना घुस देता या लेता है पर? जहाँ तक मातृभाषा का प्रश्न है तो यह लिखना जरूरी हो जाता है कि मारवाड़ी सम्मेलन बंगाल में बंगला एकाडमी के साथ मिलकर बंगाला साहित्यकारों को सम्मानित करती आई है, ठीक इसी प्रकार असम में भी असमिया साहित्य सभा के विकास में इस समाज के योगदान को इंकार नहीं किया जा सकता। समाज की यह मान्यता रही है, कि समाज के लोग जिस प्रान्त में हैं वे उस प्रान्त की भाषा, साहित्य व संस्कृति को न सिर्फ सम्मान करें उसे अपनावें भी। कोलकाता में स्थापित भारतीय भाषा परिषद इस दिशा में मह्त्वपूर्ण भूमिका भी निभा रहा है, माकपा समर्थित इस मंच से यदि बंगला भाषा के विकास बात की गई हो तो, किसी भी समाज को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, लेकिन यदि इस मंच का इस्तमाल बंगाली-अबंगाली करने के लिये किया जाता हो तो, माकपा को सोचने कि जरूरत है। इस बात में कोई दो मत नहीं कि बंगाल हमेशा से इस तरह के लोगों को दरकिनार करता रहा है। माकपा के शासन में तो इसके पर ही काट दिये गये, ऐसी स्थिती में माकपा के बैनर तले, माकपा का ही कोई मंत्री इस आग को हवा दे यह कदापि स्वीकार नहीं।
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