मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

इस बहस में भाग लें: प्रन्तीयतावाद का जहर

महाराष्ट्र के राज ठाकरे व बाल ठाकरे का उत्तर भारतियों के प्रति विषपान एवं अंतर्राष्ट्रीय भाषा दिवस की पूर्व संध्या पर भाषा चेतना समिति के एक कार्यक्रम में भाषण देते समय बंगाल के भूमि व भूमि सुधार मंत्री माननीय अब्दुल रज्जाक मोल्ला ने ये वक्तव्य दिया है। इस बयान के प्रकाश में कई सवाल खड़े होते हैं। यह एक अलग विषय है कि श्री मोल्ला ने क्या कहा और क्या नहीं, हमारे राष्ट्र के समक्ष यह प्रश्न जरूर खड़ा हो गया कि इन राजनैतिक नेताओं के इस जहर का सामना हमें किस तरह करना होगा
एक समय था जब इन प्रन्तों से राष्ट्रवाद की मशाल जलायी जाती थी। आज इन प्रान्तों के राज नेताओं का इतना पतन हो चुका है कि ये क्या कह रहें हैं और इनको क्या कहना चाहिये इसमें इनका स्वार्थ कितना छुपा है। यह कोई नहीं जानता, शायद भगवान भी नहीं? इस बहस में पक्ष और विपक्ष दोनों विचार आप दें सकतें हैं बस आपको अपनी भाषा पर नियत्रण रखना जरूरी होगा। आपकी इस बहस को समाज विकास के अगले अंक में प्रकाशित की जायेगी। कृपया अपना पता जरूर लिखें ताकि आपको यह अंक डाक द्वारा भेजी जा सके।
आप अपनी प्रतिक्रिया डाक द्वारा भी हमें भेज सकतें हैं। हमारा पता है:
- शम्भु चौधरी, सहयोगी संपादक , समाज विकास, 152बी, महात्मा गांधी रोड, कोलकाता - 700007
email : samajvikas@gmail.com
भूमि सुधार मंत्री श्री अब्दूल रज्जाक मोल्ला की कथित टिप्पणी:
‘‘जारा मारवाड़ी, तारा सब किछु पोयसा दिए मैनेज कोरे निच्चे, ऐरा मैनेज मास्टर। बांगालीरा किछु कोरते पारचे ना।
ओरा कोनो काज कोरते गेले 10 परसेंट मनी रेखे दाय। पोयसा दिए जे कोनो काज कोरिये नाय।
अर्थात
जो मारवाड़ी हैं, वो सब कुछ पैसे देकर मैनेज कर लेते हैं। ये लोग मैनेज मास्टर हैं। बंगाली लोग कुछ नहीं कर पाते हैं। वो लोग कोई भी काम शुरू करते समय 10 परसेंट मनी रख देते हैं। पैसे देकर कोई भी काम करवा लेते हैं।
मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की टिप्पणी:
मारवाड़ी समुदाय के खिलाफ राज्य के एक मंत्री अब्दुल रज्जाक मोल्ला के गैर जिम्मेदाराना बयान शर्मसार राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने आज सरकार की ओर से माफी मांगी। राइटर्स बिल्डिंग में जब तृणमूल के विधायक दिनेश बजाज व मारवाड़ी समाज के प्रतिनिधियों ने मंत्री के बयान के खिलाफ मुख्यमंत्री के समक्ष शिकायत दर्ज करायी। मुख्यमंत्री ने इनके माध्यम से समुदाय से मांफी मांगी। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा है कि मारवाड़ी या हिंदीभाषी को लेकर किसी तरह की दुर्भावना सरकार में नहीं है । उन्होंने मामले मे सफाई देते हुए कहा कि मारवाड़ी व हिंदीभाषी समाज के बिना हम सब अधूरे हैं । आपके समाज का बंगाल के विकास में बहुत बड़ा योगदान हैं। औद्योगिकीकरण की दिशा में जिस तरह से यह राज्य आगे बढ़ रहा है, इसमें आपके समाज की अहम भूमिका है।
विमान बोस (मकपा राज्य सचिव) - पार्टी सहमत नहीं
माकपा के राज्य सचिव विमान बोस ने कहा कि राज्य के भूमि सुधार मंत्री अब्दुल रज्जाक मोल्ला ने मारवाड़ी (हिंदीभाषी) समुदाय के खिलाफ जो टिप्पणी की है, उससे राज्य माकपा का कोई लेना देना नहीं है, हमारी पार्टी किसी संप्रदाय या समुदाय या भाषा के खिलाफ किसी तरह का विद्वेष नहीं रखती। हमारी पार्टी सामाजिक समरसता की हिमायती है। हम किसी भी समुदाय या जाति या प्रांतवाद पर यकीन नहीं रखते ।
महाश्वेता देवी - एकता को खतरा
मारवाडि़यों पर रिश्वत देने का रास्ता अपनाने का आरोप लगाने के मंत्री अब्दुल रज्जाक मोल्ला के बयान पर साहित्यकार महा’वेता देवी ने कहा कि ऐसे बयानों से देश की एकता को खतरा हो सकता है। रिश्वत देकर काम निकालने का रास्ता सभी अपनाते हैं। ऐसे में केवल एक समुदाय पर आरोप लगाना काफी गलत हैं। मंत्री का बयान गैरजिम्मेदाराना है।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008

प्रान्तीयवाद का पनपना खेद का विषय- शम्भु चौधरी

अंतरराष्ट्रीय भाषा दिवस की पूर्व संध्या पर भाषा चेतना समिति के कार्यक्रम को संबोधित करते हुए बंगाल के भूमि व भूमि सुधार मंत्री माननीय अब्दुल रज्जाक मोल्ला ने एक नये विवाद को जन्म दे दिया, पहले ही महाराष्ट्र के श्री राज ठाकरे उत्तर भारतीय ,बाद में यु.पी और बिहार के लोगों, और फिर छठ पूजा के ऊपर अपना आक्रोश जाहिर कर चुके थे, वह विवाद अभी थमा ही नहीं था, कि पश्चिम बंगाल के मंत्री महोदय ने मीडिया वाले को एक नया मसाला थमा दिया, जब से माननीय मुख्यमंत्री श्री बुद्धदेव बाबू ने दूसरी बार शपथ ग्रहण लिया, तब से पता नहीं इनकी सरकार को क्या ग्रहण लग गया, कि वे जब-जब वे राज्य में विकास कि बात करते हैं, कोई न कोई नया हंगामा खड़ा हो जाता है, और इनके विकास की पटरी लाइन से उतरकर खेतों, नदी-नाले, या फिर मीडिया में दौड़ने लगती है। नहीं तो, ऐसी क्या खास बात थी भूमि सुधार मंत्री में जिसके बयान से राज ठाकरे भी फीके दिखे। इन राज नेताओं से किस बात की हम आशा कर सकते हैं? जिनके बयान ही कटूता भरें हों। जिन लोगों से समाज जोड़ने की उम्मीदें की जानी चाहिये। उनके श्रीमुख से प्रान्तीयतावाद का जहर निकल रहा है। हमारे राजनेताओं का स्तर इस कदर नीचे गिरेगा, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इस तरह का वातावरण समाज के ताने-बाने को चकनाचूर/तहस नहस कर के रख देगा। जिस भूमि में छत्रपति शिवाजी जैसे योद्धा, डॉ.केशव बलिराम हेडगवार जैसे संगठनकर्ता, रविन्द्रनाथ ठाकुर व नजरूल ईसलाम जैसे कवि, स्वामी विवेकानंद जैसे विचारक,राजाराम मोहन राय जैसे समाज सुधारक, सुभाषचन्द्र बोस जैसे क्रांतिकारी ने जन्म लिया हो, उस भूमि से प्रान्तीयता-जातियता का पनपना बड़े खेद का विषय है। यू.पी.-बिहारी के मजदूर राष्ट्र के निर्माण में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। खेत-खलियान से लेकर भवन निर्माण, शिक्षा के जगत में भी इस समाज का कोई मिसाल नहीं है। यह बात अलग है, कि ये लोग बड़े ही सरल स्वभाव के होते हैं, गरीबी भी इनका पीछा नहीं छोड़ती। इसका अर्थ यह नहीं कि इनका समाज में कोई स्थान नहीं।
हमारा समाज के सभी शिक्षित लोगों से भी निवेदन है कि, वे प्रान्तीयता के किसी भी विवाद को समाचार-मीडिया में आमदनी का जरिया न बनाये, ऐसे लोग पहले भी थे, आगे भी पनपते रहेगें। यह बात देश की अख्ण्डता के लिये ज्यादा महत्वपूर्ण है। इन दिनों कई बार इस तरह के समाचार मीडिया में देखने को मिल रहें हैं, यह हम सब की जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे लोगों को महत्व न देकर उनके कद को छोटा कर दे। अभी ताजा उदाहरण प.बंगाल का ही लें- विडिओ क्लिप में ध्यान दें तो पाते हैं कि, अब्दुल रज्जाक साहेब ने वास्तव में क्या कहा, उन्होंने जिस वक्त मारवाड़ी समुदाय की बात कही, उसी वक्त उन्होंने साथ में यह भी कहा कि ‘‘बंगालीरा एक-दूई परसेंट दिये-लिये काज कोरते चाय’’ सम्मेलन की तरफ से जब उनसे संर्पक किया गया तो,उन्होंने फोन पर स्पष्ट किया कि उनके कहने का अर्थ था कि वे मारवाड़ी समाज की कार्यकुशलता की तुलना बंगाली समाज से करना चाह रहे थे। जबकि मीडियावालों ने इस समाचार को जिस तरह से प्रस्तुत किया, यह हम सबके सामने है। यह अलग बात है कि जिस कार्यक्रम में मंत्री महोदय शरीकत ले रहे थे, वह एक उदेश्य के तहत माकपा द्वारा समर्थीत साहित्यिक मंच ‘भाषा चेतना समिति’ के कार्यक्रम में विश्व मातृभाषा दिवस मनाने इकट्ठे हुऐ थे। यह एक सोचने की बात है कि मंत्री महोदय को मातृभाषा के विकास पर बोलना था कि या उनको कौन कितना घुस देता या लेता है पर? जहाँ तक मातृभाषा का प्रश्न है तो यह लिखना जरूरी हो जाता है कि मारवाड़ी सम्मेलन बंगाल में बंगला एकाडमी के साथ मिलकर बंगाला साहित्यकारों को सम्मानित करती आई है, ठीक इसी प्रकार असम में भी असमिया साहित्य सभा के विकास में इस समाज के योगदान को इंकार नहीं किया जा सकता। समाज की यह मान्यता रही है, कि समाज के लोग जिस प्रान्त में हैं वे उस प्रान्त की भाषा, साहित्य व संस्कृति को न सिर्फ सम्मान करें उसे अपनावें भी। कोलकाता में स्थापित भारतीय भाषा परिषद इस दिशा में मह्त्वपूर्ण भूमिका भी निभा रहा है, माकपा समर्थित इस मंच से यदि बंगला भाषा के विकास बात की गई हो तो, किसी भी समाज को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, लेकिन यदि इस मंच का इस्तमाल बंगाली-अबंगाली करने के लिये किया जाता हो तो, माकपा को सोचने कि जरूरत है। इस बात में कोई दो मत नहीं कि बंगाल हमेशा से इस तरह के लोगों को दरकिनार करता रहा है। माकपा के शासन में तो इसके पर ही काट दिये गये, ऐसी स्थिती में माकपा के बैनर तले, माकपा का ही कोई मंत्री इस आग को हवा दे यह कदापि स्वीकार नहीं।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

व्यंग्य: मंत्री की भडास - शम्भु चौधरी

अंतरराष्ट्रीय भाषा दिवस की पूर्व संध्या पर भाषा चेतना समिति के कार्यक्रम को संबोधित करते हुऎ बंगाल के भूमि व भूमि सुधार मंत्री माननीय अब्दुल रज्जाक मोल्ला ने एक नये विवाद को जन्म दे दिया, पहले ही महाराष्ट्र के श्री राज ठाकरे उत्तर भारतीय ,बाद में उ.पी और बिहार के लोग, और फिर छ्ठ पूजा के ऊपर अपना गुस्सा जाहिर कर चुके थे, वह विवाद अभी थमा ही नहीं था, कि पश्चिम बंगाल के मंत्री महोदय ने मीडिया वाले को एक नया मसला थमा दिया, जब से मानणीय मुख्यमंत्री श्री बुद्धदेव बाबू ने दूसरी बार शपथ ग्रहण लिया, तब से पता नहीं इनकी सरकार को क्या ग्रहण लग गया, कि वे जब-जब विकास कि बात करते हैं, कोई न कोई नया बबंडर खड़ा हो जाता है, और इनके विकास की पटरी लाइन से ऊतरकर खेतों, नदी-नाले, या फिर मीडिया में दौड़ने लगती है। आइये देखते हैं ऎसी क्या खास बात थी, भूमि सुधार मंत्री माननीय अब्दुल रज्जाक मोल्ला के बयान में जिसको लेकर राज ठाकरे भी फिंके पड़ने लगे, जब राज ठाकरे ही फिंके पड़ गये तो बाल ठाकरे को कौन पुछता है। बालासाहेब को इतना तो सब्र रखना ही चाहिये, कि लिखने से पहले असम, चनैई, बंगाल, उडिसा में छठ पूजा के समय निकलकर देख आना चाहिये कि छठ पूजा सिर्फ बिहारी समुदाय ही नहीं मनाते, मारवाड़ी, बंगाली, यहाँ तक पंजाब, गुजरात, मराठा, दक्षिण भारत के कई घरों में भी श्रद्धा से मनाई जाती है, जिस श्रद्धा से महाराष्ट्र में गणेश उत्सव मनाया जाता है। भारत किसी एक सांस्कृति से नहीं सबकी संस्कृति को लेकर चलता है, इन जैसे लोग ही, राजनीति के दुकानदार कई प्रान्तों में फल-फूल रहें है, कहीं जात-पात के नाम पर तो कहीं धर्म के नाम पर। इस बात में कोई दो मत नहीं कि महाराष्ट्र प्रान्त में जाकर लालू जी, मुलायम जी, और मायावती जी को जातिवाद की राजनीति नहीं करनी चाहिये, इससे विवाद को जन्म ही दिया जा सकता है।
अब बंगाल में कल की बात ही लें बंगाल के भूमि सुधार मंत्री माननीय अब्दुल रज्जाक मोल्ला ने कल ऎसी कोई नई बात नहीं कही जिसको लेकर मारवाड़ी समाज को उत्तेजित होना पड़े, अरे भाई अभी तो ये बंगाल की वफादारी में लगे है, ये तो असली बंगाली हैं, और मारवाड़ी "मेड़ा" ?
पहले देखते हैं इनके श्री मूख ने क्या कहा-
"जारा मारवाड़ी, तारा सब किछु पोयसा दिए मैनेज कोरे निच्चे, ऐरा मैनेज मास्टर. बांगालीरा किछु कोरते पारचे ना.ओरा कोनो काज कोरते गेले 10 परसेंट मनी रेखे दाय. पोयसा दिए जे कोनो काज कोरिये नाय."अर्थात "जो मारवाड़ी हैं, वो सब कुछ पैसे देकर मैनेज कर लेते हैं. ये लोग मैनेज मास्टर हैं. बंगाली लोग कुछ नहीं कर पाते हैं. वो लोग कोई भी काम शुरू करते समय 10 परसेंट मनी रख देते हैं. पैसे देकर कोई भी काम करवा लेते हैं."

सिर्फ इतना ही नहीं आगे भी उन्होंने कहा कि " बंगाली 1-2 परसेंट ही ले-देकर काम चला लेते थे" मंत्री महोदय शायद भूल चुके होगें कि स्व. इन्दीरा गांधी के समय बोफोर्स दलाली का बहुत बड़ा मामला श्री विश्वनाथ सिंह के पिटारे से जिन बन बहार निकला था, सरकार कि हिला कर रख दिया, वहां पर कौन थे? इस घुस देने लेने की बात आपको इस लिये अच्छी नहीं लगी कि आप भूमि सुधार मंत्री होते हुऎ भी , बंगाल की जमीन पर आपको कोई घुस देने नहीं जाता। अच्छा एक बात पुछता हूँ, ये सलीम कौन है, जिसने कोलकाता में एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट लाने की घोषणा की थी , सरकार ने उसे बहुत बड़ा भू-भाग दिया था, उसका अब क्या हाल है, और उस प्रोजेक्ट का क्या हाल है, आप तो भू मालिक हैं जरा बताइयेगा कि उसे अब कौन बना रहा है, सरकार ने उसे कितने में बैची थी, बाद में कितने में बिका। ये "सहारा" वाले कौन है, शायद मारवाड़ी ही होंगे है? आप जरा पता लगाईयेगा कि DLF वाले के पास इतना धन कहाँ से आ गया, इण्डिया बुल्ल रिलेटर, एमार, ये सब तो मारवाड़ी ही हैं क्यों ठीक बात हैं न , बंगाली से सहानुभुति लेने के किये कुछ तो आपको कहना ही होगा, जमीन को लेकर पहले ही सिंगुर, नन्दीग्राम में आपलोगों की किरकरी हो चुकी है।
अरे भाई बंगाल में भाषा चेतना समिति का कार्यक्रम हो रहा था, जमीन या घुस पर शोध नहीं हो रहा था। देखिये भाषा चेतना समिति के लोगों ने कितनी अच्छी बात कही: " इमानूल हक साहब ने कहा- जो प.बंगाल में रहना चाहता हो, उसे बंगला सिखना पड़ेगा। दूसरे बड़े नेता श्री रतन भट्टाचार्या ने कहा कि- मारवाड़ी लोग फैक्टरी के नाम पर जमीन लेकर उसे सॉपिंग मॉल बनाते जा रहें इससे बंगाल के बच्चों को काम नहीं मिल रहा। इन्होंने तो लालू को भी नहीं छोड़ा- आगे कहा कि बिहारी बड़ी संख्या में रेल में भर्ती हो रहे हैं बड़ी संख्या में हिन्दी भाषी लोग हमलोगों का काम छिन रहें हैं। अब बात भाषा चेतना समिति की हो, और अपने मन की बात भी नहीं कहे ,तो भला कब कहेगें, आपको इनकी भावना की कद्र करनी चाहिये, कि इन लोगों ने खुलकर अपने मन के भड़ास को निकाला। सिर्फ एकेले ही बाला साहेब ठाकरे, लालू जी, मुलायम जी, राज ठाकरे जी ही देश को थोड़े चलायेगें, इस श्रेणी में बंगाल का नाम नहीं आयेगा तो इतिहासकार कहीं फिर न लिख दे कि देश कि प्रगति में बंगाल पीछे रह गया। वैसे भी वामपंथियों में इस बहस को लेकर मतभेद सामने आया है, पहली बार विमान बोस ने बात काबिले तारीफ़ कही - "बंगाल की यह संस्कृति नहीं रही है", वैसे शायद विमान बाबू को याद दिला देना चाहता हूँ कि बंगाल की संस्कृति में क्या है क्या नही, परन्तु माकपा के सिद्धान्त में इस तरह के लोगों का कोई स्थान नहीं है, आपको यदि मो, सलीम साहेब जैसे लोग न मिले तो जगह को खाली रहने दें। -शम्भु चौधरी
नोट: मारवाड़ी समाज की प्रतिनिधि संस्था अ.भा.मारवाड़ी सम्मेलन ने एक प्रेस विज्ञप्ती जारी कर कहा है कि: भूमि सुधार मंत्री श्री अब्दूल रज्जाक मौल्ला की कथित टिप्पणी पर उन्हेंने स्पष्ट किया कि उनकी कथित टिप्पणी को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है। श्री मौल्ला ने अपने वक्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि उन्होंने यह कहा था मारवाड़ी समुदाय मुख्यतः व्यवसाय में है अपने व्यवसाय को अच्छा ‘‘मैनेज’’ करना जानते हैं। श्री मौल्ला ने कहा इस ‘‘मैनेज’’ ‘शब्द को मीडिया द्वारा गलत रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। श्री मौल्ला ने श्री शर्मा से कहा कि वे मारवाड़ी समाज सहित सभी समाज की इज्जत करते हैं एवं जातिगत तथा साम्प्रदायिक आधारित टिप्पणी में विश्वास नहीं करते । उन्होंने कहा कि मेरा अभिप्राय मारवाड़ी समाज की भावना को ठेस पहुँचाना कतई नहीं था। अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन, मंत्री महोदय के स्पष्टीकरण पर संतोष व्यक्त करते हुए ऐसे संवेदनशील विषय पर मंत्रियों द्वारा टिप्पणी में संयम एवं सावधानी बरतने की अपील करती है। सम्मेलन मारवाड़ी समाज से भी मंत्री महोदय के स्पष्टीकरण एवं ठेस नहीं पहुंचाने के वक्तव्य को सही भावना के साथ लेने की अपील करता है

रविवार, 17 फ़रवरी 2008

पत्रकारिता और मारवाड़ी समाज:

मारवाड़ी देस का न परदेस का भाग - 6 लेखक- शम्भु चौधरी
पत्रकारिता और मारवाड़ी समाज:

मारवाड़ी समाज में पत्रकार तो बहुत हैं, परन्तु पत्रकारिता का अभाव है। समाज प्रेस तो खरीद सकता है, परन्तु कलम नहीं। समाज का एक धड़ा यह मानता रहा कि वह प्रेस का मालिक बनकर एवं अपनी कारों में प्रेस का बिल्ला चिपका कर समाज में शोहरत हासिल कर 'अंधों में काना राजा' वाली कहावत चरितार्थ कर रातों-रात साहित्यकार, पत्रकार, लेखक या फिर संपादक बन जाएंगे। ऎसे लोग सामाजिक संस्थाओं के द्वारा पूज्यणीय भी बन जाते हैं, जबकि न तो समाज को इनसे कोई लेना-देना होता, न ही इन्हें समाज से। अपने समाचार पत्रों में उन समारोह की फोटो छप जाने व सुबह कुछ मित्रों के फोन आ जाने भर से ही इनकी पत्रकारिता जीवित रहती है। विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन की राशी इस बात का मापदण्ड होती है कि वे किसके समारोह में शामिल हो, या किसे अपने कार्यक्रमों में बुलाये। इनका काम कई बार राजभवन में आये नेताओं की जी-हजुरी करने और शहर के कुछ चुने हुए विज्ञापन दान-दाताओं को बुलाकर उनकी फोटो उतारना, उनका कोई सरकारी काम अटका पड़ा हो तो उसे सलटाने के लिये मोल-तौल कराना, किसी को सम्मानित करा देना, किसी को भामाशाह घोषित करा कर उस व्यक्ति से मोटी रकम वसुल कर लेना यह इनका मुख्य व्यापार रहता है। पत्रकारिता के नाम पर ये समाज के कलंक है, जो खुद तो बदनाम होते ही हैं, साथ ही समाज की गलत तस्वीर इतर समाज के समक्ष रख, पूरी की पूरी कौम को बदनाम करने में इनको जरा भी हिचक नहीं होता, पर मन को थोड़ा शुकून तब मिलता है कि इन सबके बीच कुछ अच्छे लोग भी बचे हुये हैं, इनमें स्व। रामनाथ गोयनका का नाम लिखा जा सकता है, और कुछ ऎसे उद्योगपति जो इस क्षेत्र को अपना आर्थिक सहयोग देकर साहित्यकारों, लेखकों, कवि, पत्रकारों का पोषण करते हैं, देश में ऎसे समाचार पत्रों की संख्या कम है, 20 वर्ष पूर्व की एक घटना मुझे याद आती है, उस रात मैं भी गुवाहाटी के एक होटल में ठहरा हुआ था, जब कामरूप चेम्बर आफ कॉमर्स के तत्कालीन अध्यक्ष शंकर बिरमीवाल की हत्या 'अल्फा' वालों ने कर दी थी, सुबह के समाचार इस घटना से रंगे पड़े थे, समाज के लोग सड़कों पर उतर पड़े थे, चारों तरफ भय का वातावरण बना हुआ था। समाज के कूछ लोग मूझसे आकर मिले और असम की सारी स्थिति की जानकारी दी, मैंने यह तय किया कि ' अल्फा' के इस आतंक को देश के सामने रखा जाय, कोलकाता आकर अपना पहला लेख तैयार कर समाज के इन तथाकथित समाचार पत्रों के मालिकों से मिलता रहा, सबने एक स्वर में कहा कि अल्फा के खिलाफ वे अपने समाचार पत्र में कुछ भी छाप नहीं सकते, मुझे काफी हताशा का सामना करना पड़ा, उन दिनों कोलकाता के एक समाचार जिसे रामावतार गुप्ता जी चलाते थे, उनके पास गया, उन्होने कहा कि मैं उपाध्यायजी से मिल लूँ। मुझे देखकर उपाध्याय जी ने कहा 'तुम मारवाड़ी हो?' मैने कहा हां, तो उन्होंने पास पड़े एक कागज को लिया, मुँह से पान की पीक उस कागज पर थूंकी, कागज को मोड़कर नीचे पड़े रद्दी के टोकरी में डालते हुऎ बोले, रखकर जाओ, कल और लिखकर लाना। मैंने पूछा आप एक बार देख लेते तो अच्छा रहता, उन्होने कहा कल अखबार में देख लुंगा। सच! दूसरे दिन 'सन्मार्ग' के तीसरे पृष्ठ पर "असम में अल्फा का आतंक" नामक शीर्षक से लेख छप चुका था, असम से दूसरे दिन समाचार आया, इस लेख की काफी प्रतिक्रिया हुई है, दूसरे दिन तो असम में संन्मार्ग हवाईजाहज से ऊतर पाया, तीसरे दिन ही इस पर अल्फा वालों ने पाबंदी लगा दी, तब तक बिहार के श्री कैलाशपति मिश्र ने संसद में सन्मार्ग को संसद के पटल पर रखते हुए सरकार से इस दिशा में स्पष्टीकरण की मांग कर डाली, हमारा उद्धेश्य सफल हो चुका था। पूर्वांचल प्रहरी, असम के मालीक श्री जी.एल.अग्रवाल उन दिनों कोलकाता के असम हाउस में ही ठहरे हुवे थे, उनसे मुलाकत करने असम हाउस गया, उन्होंने बताया कि वे इस संबंध में अपने समाचार में कुछ भी नहीं छाप पायेगें, यह बात तो मेरे समझ से बाहार है कि ये अखबार क्या सिर्फ समाज को मुर्ख बनाने के लिये ही चलाते हैं? कई बार कुछ राजनैतिक कारण होते हैं जैसे इन्दीरा गांधी द्वारा जारी आपातस्थिति की घोषणा के समय प्रायः सभी हिन्दी भाषी समाचार केवल ' जनसत्ता' को छोड़कर अपने घुटने टेक दिये थे। रोजना समाचार के नाम पर समाज में अश्लीलता भरे समाचार, सनसनी भरे समाचार, या फिर खुदके समाचार और विज्ञापनों से समाचार पत्रों को पाट कर पाठकों को रोजना मुर्ख बनाने के लिये ही समाचार पत्र नहीं होते, कई बार सामाजिक जिम्मेदारियाँ भी निभाई जाती है, परन्तु ऎसे वक्त ये लोग बगले झांकते नजर आते हैं। ये लोग पत्रकारिता के सारे नियम-कायेदे को तोड़कर सिर्फ विज्ञापन की दुकानदारी चलाते नजर आते हैं। मेरा यह भी मानना है कि विज्ञापन ही समाचार पत्रों की अहम् खुराक है, लेकिन एक-एक इंच समाचार को विज्ञापन के नाम पर बैच देना यह कैसी पत्रकारिता है, इन दिनों मीडियावाले भी कुछ इस तरह का ही करने लगे हैं एक समय में 'आजतक' ने दूरदर्शन वालों को धुल चटा दी थी , आज इन लोगों ने भी समाचार के नाम से घर-घर में अश्लीलता, सनसनी समाचार फैलाने का मानो एक प्रकार से ठेका ही ले लिया हो, पिछले दिनों आदरणीय प्रभु चावलाजी इस विषय की एक बहस में हिस्सा लेते हुये इसे लोकतंत्र का जरूरी हिस्सा करार दिया। कई बार सोचता हूँ, इनकी मानसिकता कहाँ लुप्त हो गई, या फिर हमारी सोच को हमें ही बदलना होगा। हिन्दी समाचार पत्र कि एक और त्रासदी यह है कि रोजना बच्चों से जुड़ी घटनाओं को सेन्सर न कर उस समाचार को रोचक तरीके से प्रस्तुत कर ये लोग दुसरे बच्चों की मानसिकता पर गहरी छाप बना देते हैं। हर वर्ष बच्चों द्वारा की जा रही आत्महत्या के लिये मैं सीधे तौर पर इन समाचार पत्रों, और मीडिया वाले को दोषी ठहराता हूँ। इसमें हमारे समाज के पत्र भी शामिल हैं। मेरी दृष्टि में समाचार पत्र , समाचार खरीदते और पाठकों को बैचते हैं। तो क्यों नहीं इस समूह को भी "उपभोक्ता-कानून" के अन्तर्गत न लाया जाय? इससे न सिर्फ समाचार समुह को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होगा, समाज को हम सब मिलकर एक स्वस्थ वातावरण भी दे सकेगें। क्रमश: लेख आगे भी जारी रहेगा, आप अपने सूझाव से मुझे अवगत कराते रहें , अच्छे सूझाव को इस लेख का हिस्सा माना जायेगा। - शम्भु चौधरी , 17.02.2008 शाम 5.25 पिछले भाग यहाँ से पढ़ें:
http://groups.google.com/group/samajvikas

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

एमजे अकबर का दंगा?

कलकात्ता में जब एमजे अकबर साहेब 'टेलीग्राफ़' समाचार पत्र के सम्पादक हुआ करते थे, तब से आप दंगा पर शोध करने में लगे थे, अब इनका यह शोध समाप्त हो चुका है, वैगर किसी डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त किये इनका यह शोध पूरा भी हो गया, देखिये क्या लिखते हैं अकबर साहब " मैं सांप्रदायिक संघर्ष का हल ढूंढने के काफी करीब पहुंच चुंका हूँ। इसे लोभ की संज्ञा दी जा सकती है। एक लंबे अरसे तक, लगभग दो दशकों से हिंसक घटनाओं की रिपोर्टिंग करते हुए मुझे यह भ्रम रहा कि शांति मानवीय आवश्यकता की दृष्टि से एक अनिवार्य तार्किक परिणिति है। संघर्ष से अच्छा, विशिष्ट या सामान्य जैसा कोई भाव नहीं पैदा होता। सवाल है, क्या कभी अच्छी भावना मानव व्यवहार के लिए निर्धारक कारक रही है? घृणा की मूल प्रवृत्ति समाप्त करने के लिये उससे अधिक शक्तिशाली प्रतिरोध की जरूरत होती है। इस समस्या का समाधान लोभ में खोजा जा सकता है। ध्यान देने योग्य बात है कि पिछले 15 वर्षों के दौरान मात्र दो बड़े सांप्रदायिक दंगे हुऎ। एक बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद और दूसरा गुजरात में गोधरा घटना के बाद। ऎसा नहीं है कि इस दौरान छोटी घटनाएं नहीं हुई। 80 के दशक में मुरादाबाद, मेरठ,
भागलपुर
, दिल्ली आदि में मातम का माहौल देखा गया। कुछ शहरों में हुई हैवानियत न सिर्फ लोगों के मारे और जलाये जाने के गवाह बने, बल्कि चाकू घोंपने की वारदातें वहां बढ़ी। सांप्रदायिक जहर लोगों की नसों में दौड़ रहा था। ऎसे महौल में बदलाव नहीं आता।" आगे जाकर अकबर जी ने इस लेख का पूरा राजनीतिकरण कर दिया। जिस शौध की बात कर रहे थे, वो बस इन्ही चार पंक्तियों में समाप्त हो गया, तो मेंने सोचा कि क्यों न इनकी अधुरी बात को ओर आगे बढाया जाय।
मेरी चार पंक्तियों से अपनी बात शुरू करता हूँ :
'जब भी कोई दंगा होगा, कोई न कोई नंगा होगा।
हिन्दू-मुसलिम न हो भाई, ऎसा ही कोई बंदा होगा।।
अकबर साहब जरा गौर फरमाते तो यह भी पता लगाते कि दंगे की शुरूआत कब, कैसे और कहाँ से होती है। देश में दंगों का इतिहास इनके 20 साल में ही न ही शुरू हुआ और न ही इस लेख के बाद खतम और कम हो जायेगा। यदि ईमानदारी से दंगों के तह में जाने का प्रयास किया जाय तो एक नया दंगा हो जायेगा। दंगे कब और कैसे और किसने करवाये यह भी बताना जरूरी होगा। शायद यह बताने से अकबर साहब को कोई भी राजनीति दल अपनी पार्टी के कोटे से राज्यसभा का सदस्य नहीं बनायेगा। यह बात सही है कि इससे समस्त मानव जाति को क्षति उठानी पड़ती है। एम.जे.अकबर साहब को भले ही भ्रम हो सकता है, कि ' शांति मानवीय आवश्यकता की दृष्टि से एक अनिवार्य तार्किक परिणिति है। " परन्तु मुझे जरा भी झीझक नहीं कि यह प्रायोजित सांप्रदायिक दंगों के सुत्रपात सत्ता के गलियारे से शुरू हो कर वहीं दफ़न हो जाती है। भारत के पिछले दंगों के इतिहास को यदि ईमानदारी से देखा जाए, तो भारत के जिस-जिस क्षेत्र में दंगे हुए हैं, ( इंदिरा गांधी हत्या के बाद कांग्रेसी दंगे को छोड़कर ) वे हिन्दू बहुल क्षेत्र में न होकर मुस्लिम बाहुल क्षेत्र ही रहें हैं, ये दंगे ईद या बकरीद के समय नहीं होते, जब भी हुए हैं उस समय हिन्दूओं का कोई न कोई पर्व या त्योहार रहा है। गुजरात का मोदी सरकार प्रायोजित मार-काट भी गोधरा की कड़ी ही मानी जायेगी। जो लोग मानते हैं कि दंगे का फल दुःखदायी होता है, उनके मन की बात लेने के लिये सांप्रदायिकता फैलाई जाती है। अल्पसंख्यकवाद का सहारा लेकर देश में राजनीति की जाती है। दंगे का इतिहास कोई दो सौ साल पुराना नहीं, जिसपर शौध नहीं किया जा सकता। हाँ कुछ लिखने से पहले दिमाग की खिड़कियों को खोलना जरूरी है, जो शायद ही अकबर साहब कर पायेगें, उनको अपना हाल तस्लिमा जैसा तो कराना नहीं जो मुस्लमानों का कच्चा चिट्टा खोल कर रख दिया हो। सत्ताभोगिया कलम के लेखक में इतना दंम कहाँ कि वे दंगे की बात खुलकर कह सके।

-शम्भु चौधरी

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

प्रश्न समाज की व्यवस्था का है न कि प्यार का?

ज़नसत्ता कोलकाता संस्करण दिनांक 11.11.2007 के अंक में अलका सरावगी का लेख "चाहे जो कहिए" पढा़। इस बात से कोई दो मत नहीं कि प्रेम की राह में एक अच्छे इंसान की मौत हो गई। परन्तु यह भी हमें मानना पडे़गा कि इसमें न्याय दिलाने की आढ़ में शहर की प्रायः सभी राजनैतिक दलों ने वोटबेंक का ज्यादा से ज्यादा ख्याल रखा। देश में प्राय: रोजाना इस तरह के हादसे हो रहे हैं, प्रेम की आढ़ में सामाजिक संरचना चरमरा रही है, हम सभी घटनाओं को एक दृष्टि से देखने का प्रयास कर समाज के सामने नया संकट पैदा कर रहें है। जहाँ तक अलका जी के विचार 'प्रेम के उत्सव' से मेल खाते है वहीं इस घटना को मेरे दृष्टिकोण से देखता हूँ तो पाता हूँ कि रिजवानुर समाज की नजर में एक अपराधी करार दिया जाना चाहिये। रिजवानुर-प्रियंका का मामला हो या पटना कालेज के प्रोफेसर मटुक नाथ यह और भी इससे मिलते-जुलते कई मामले जैसे ; मालिक-नौकरानी का प्रेम नौकर- मालिक की लड़की का प्रेम, कर्मचारी के साथ मालिक के लड़के- लड़की का प्रेम शिक्षक का छात्राओं को पढ़ाने के नाम पर प्रेम और इसे प्रेम को उम्र की आढ़ में अदालती संरक्षण देना कितना उचित होगा, इस पहलु पर हमें नये शिरे से सोचना चाहिये। मैं मानता हूँ भारतीय समाज को प्रेम की भाषा समक्षने में अभी थोड़ा ओर वक्त लगेगा, मीडिया, समाचार पत्र और भारत का तथाकथित बुद्धिजीव वर्ग प्रेम को ज्यादा अच्छी तरह से परिभाषित कर सकते हैं, चुंकि उन्हें समाज की ज्यादा चिन्ता है। इस तरह के अप्रिय प्रेम जिसमें पारिश्रमिकता का संबंध बना रहता है, पहले हमें क्रमवार इसके अन्य पहलुओं को देखना भी जरूरी हो गया है, कि क्या हमारा समाज ऎसे प्रेम को प्रेम की मान्यता भी देगा या नहीं। बार-बार हमें सामाजिक ढाँचे पर चोट करने से पहले हमारे चिन्तन पर भी दस्तक देनी होगी, सड़क छाप साहित्यकार न बनकर समाज को अपने चिन्तन से नये विचार देने होगें। अलका जी एक बहुत अच्छी लेखिका हैं इनके कई लेख मैंने पढे़ थे, परन्तु इस लेख ने मुझे काफी हतोत्साहित किया। रिजवानुर एक शिक्षक था, पहले हमारे शास्त्र में शिक्षक को क्या स्थान दिया गया है इस पर एक साहित्यकार के नाते उन्हें ध्यान देने की भी जरूरत थी, संस्कृत का वह श्लोक तो हम सभी जानते ही होगें:

गुरूर्बह्मा
गुरूर्विषणुः, गुरूर्देवो महेश्वरः ।
गुरूः साक्षात्परं ब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।

भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने गुरू को माता पिता से भी उँचा दर्जा दिया है, इस लिये नहीं कि वे बच्चों को पढा़ने के नाम पर शिक्षा देते-देते बच्चे को बहला-फुसलाकर अपने प्रेमजाल में फंसाकर कानून और सड़क छाप पत्रकारिता के बलपर समाज को प्रेम की परिभाषा समझाने लगे। शायद ही दुनियां का कोई धर्म इस तरह की हरकतों को प्रेम की आढ़ देता होगा, यदि ऎसा हो जायेगा तो एक बाप - बेटी, माँ -बेटा, भाई-बहन के रिश्ते को भी उम्र और कानून की दहलीज पार करते ही प्रेम करने की राह से कोई नहीं रोक सकता। शायद प्रेम शब्द के इतने गलत प्रयोग के लिये हम जैसे साहित्यकार ही दोषी माने जायेंगे। आज हमारे शिक्षण संस्थानों को आगे बढ़कर इन प्रश्नों का समाधान खोजना होगा, कि उनके यहाँ कार्यरत शिक्षक इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल पाया जाय तो तत्काल ऎसे शिक्षक को समाज के सामने नंगाकर कानून के हवाले कर दिया जाना चाहिये।
हम यदि इस तरह के प्रेम को प्रेम की भाषा में तौलने का प्रयास करते रहे तो, घर-घर में कोई शिक्षक के नाम से, कोई नौकर बनकर, हमारी सामाजिक व्यवस्था को क्षिन्न-भिन्न कर देगें, सामाजिक व्यवस्था कानून से नहीं विश्वास से चलती है, इस विश्वास को कानून का जामा पहनाकर अपहरण करने वाले तत्वों को कानूनी संरक्षण देना कितना उचित होगा, इस पहलु पर भी हमें गम्भीरता से सोचने की जरूरत है। हमारा दायित्व बनता है कि प्रेम के बढ़ते इस तरह के अपराधिकरण को रोकने के लिये कानून में इसकी विस्तार से चर्चा हो, कि क्यों न इस तरह के अपराध को कानून के दायरे में लाया जाय ताकि कोई माँ-बाप अपने बच्चे को शिक्षा के लिये भेजे तो कोई शिक्षक उसको बहला-फुसलाने की जगह शिक्षा पर ही ध्यान दे, और कोई ऎसा नहीं कर प्यार का नाटक करता हो तो उसे, कानूनी समर्थन की जगह उस शिक्षक को समाज का सबसे बड़ा अपराधी करार दिया जाना चाहिये।
प्रेम के बीच कोई समाज बाधक नहीं बन सकता, परन्तु सामाजिक व्यवस्था भी कोई चीज होती है, ओर सामाजिक व्यवस्था से ही हमारा समाज चलता है, कानून मात्र सहायक होता है, कानून से समाज की सभी व्यवस्थाऎं नहीं चलाई जा सकती, समाज का काम होता है कानून का निर्माण करना, कानून से समाज नहीं बनता। इस तरह के प्रेम को कानूनी मान्यता मिलनी चाहिये कि नहीं इस बात को हमें नये सिरे से सोचने की जरूरत है। आपकी राय क्या है जरुर दें, प्रश्न समाज की व्यवस्था का है न कि प्यार का? - शम्भु चौधरी