यह बात सही है कि मारवाड़ी समाज विकास मूलक,समाजसेवा के बहुत से कार्य करता रहा है, परन्तु यह बात भी उतनी ही कटु सत्य है कि अब इस समाज में समाज सेवा का रोजगार चल पड़ा है। हर तरफ एक समाजसेवा की दुकान ही खुल चुकी हो, रोजना महानगरों के हिन्दी समाचार पत्र इन सेवा कार्यों से भरा पड़ा है, मानो सेवा के नाम पर विज्ञापन का कारोबार चल रहा हो। हमें यह बात आज सोचनी होगी, कि इन सेवा कार्यों से मारवाड़ी समाज चाहता क्या है? पिछले कुछ वर्ष पूर्व कोलकाता के एक समाजसेवी ने खुद को चांदी में तुलवाने का नाटक रचा, उनकी समाजसेवा करोड़ों में खरीदी और बेची जाती है। समाज की कई संस्थाओं के लेखा-जोखा का काई अता-पता नहीं, धन का क्या इस्तेमाल हो रहा किसी को कुछ पता नहीं, जो जहां चिपक गया, वो उस संस्था को छोड़ने का नाम ही नहीं लेता, वो ही समाज में एक मात्र ईमानदार समाजसेवी है, दूसरे लोग संस्था में यदि किसी प्रकार आ गये तो ऐसे लोग पुनः एक नई संस्था बना लेते हैं। मारवाड़ियों में दान देने की भावना है, बस यह धन कौन पहले ले, इस बात की समाज में दौड़ चल रही है। जिसका जितना बड़ा नाम उसके यहां उतनी ही बड़ी लाइन लगी है। पहले के लोग समाजसेवा में क्या देते थे इस बात का किसी को कानों-कान भी खबर नहीं होती, आज समाज के समाजसेवी लोग दान देने से पहले अपना नाम चाहते हैं। शादी या अन्य समारोह में समाज सड़क पर नाचकर या स्वागत समारोह के नाम पर अपनी वैभवता का प्रदर्शन कर रहा है, कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं, मारवाड़ी समाज का समस्त वर्ग छोटा हो या बड़ा, सभी एक ही हमाम में नहा रहें हैं।
यह बात सही है कि हमें ऐसी बात नहीं करनी चाहिये जो इतर समाज को बोलने का हम ही मौक़ा दें, परन्तु हम कब तक इस तरह बच पायेंगे? हम समाज की बात नहीं सोचते, केवल अपने फायदे के लिए कुछ भी कर जाते हैं, जब कोई मारवाड़ी किसी इतर समाज की जमीन लेकर उस पर मकान बनाता है, उसके सामने ही वह उस जगह को लाखों में बैच रहा होता, और उसे दाम देने के नाम पे कानूनी दस्तावेज दिखाता हो, या पुलिस-थाने की धमकी देता हो तो, पैसे के बल पे कानून साथ तो दे देता है, परन्तु समाज यह बात भूल जाता है कि साथ देने वाला भी इतर समाज का ही होता है, और जब वह घर जाता है तो उसके मन में मारवाड़ी समाज के प्रति केवल घृणा ही षेश रह जाती है। समय-समय पर यह घृणा ही उनके शब्दों से उजागर होती है।
मारवाड़ी समाज यदी यह सोचता है कि उसे इन बातों से कोई लेना-देना नहीं तो उसे आने वाले दिनों में हिन्दुस्तान का कोई कानून नहीं बचा पायेगा। हमको किसी के बयान पर अपनी प्रतिक्रिया देने से पहले अपने घर को भी तलाशना होगा, कि हमारा समाज इसके लिये किस हद तक जिम्मेदार है, और है भी कि नहीं? हमने बंगाल, असम, उड़ीसा या अन्य प्रवासी प्रान्तों के साहित्य व संस्कृति में कितना योगदान किये, यह बात किसी से बोलने की नहीं, केवल और केवल धन बटोरने के हमने कुछ भी नहीं किया, जो कुछ पूर्वजों ने किया आज हम उन्हीं के बदौलत बचे हुए हैं, नहीं तो कब का बोरिया-बिस्तर समेट कर राजस्थान जाना पड़ता। हमें किसी की भावना के साथ खिलवाड़ करने का कोई हक नहीं बनता।
परन्तु समाज का हर तबक़ा आज हर कदम पे इस तरह की हरकत करता पाया जा रहा है, इसमें समाज के ही कुछ मीडिया कर्मी इनका सहयोग करते पाये जातें हैं, समाज को समय रहते इन बातों पर सोचना होगा। आज हम सबके सामने वक्त है, कि हम सोच सकें, यदि समाज अभी नहीं चेता तो हमें इस तरह की मानसिकता का बार-बार शिकार होना पड़ सकता है। जो किसी भी खतरनाक परिणाम का सूचक बन सकता है। लेख प्रकाशित - समाज विकास, कोलकाता, अंकः अप्रैल 2008 लेखक - शंभु चौधरी
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