अब इस बात को गौर करें कि ‘‘जयश्री राम’’ या ‘‘भारत माता की जय’’ का नारा हो या आजादी के समय स्वाधिनता का प्रतीक ‘‘वंदे मातरम्‘‘ नारे के स्वरूप को इस प्रकार प्रस्तुत किये जाने लगे कि इसे बोलने का अर्थ ही बदल गया। अब इन नारों में राजनीति बू आने लगी।
आइये अब हम कुछ इतिहास के पन्ने समेट लेते हैं। पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में सन् 1947 में जिन्ना ने नई सत्ता की शुरूआत की थी, वही 16वीं लोकसभा के गठन के बाद ही मोदी ने भी नई सत्ता की शुरूआत की। आप सोचेगें कि इन दोनों के बीच क्या सामन्यता है। आप पहले इनकी भाषा को पढ़ लें, फिर आगे बात करेगें।
पाकिस्तान आजाद होते ही अली जिन्ना ने अपने इस भाषण में पाकिस्तान के सभी नागरिकों का आभार व्यक्त करते हुए कहा था -
‘‘पाकिस्तान हमेशा उनका एहसानमंद रहेगा जिन्होंने पाकिस्तान बनाने में अपनी बड़ी कुर्बानियां दी हैं। हमें यह मौका भी दिया कि हम दुनिया को यह बता सकें कि किस तरह से अलग-अलग इलाकों को मिलाकर बने एक राष्ट्र में एकता रह सकती है और रंग और नस्ल के भेदभाव से परे होकर सबकी भलाई के लिए काम किया जा सकता है। उन्होंने पाकिस्तान की तरफ से अपने पड़ोसी देशों और दुनिया भर को शांति का संदेश दिया। जिन्ना ने कहा कि पाकिस्तान की कोई आक्रामक महत्वाकांक्षा नहीं है और यह देश संयुक्त राष्ट्र चार्टर के प्रति बाध्य है, पाकिस्तान दुनिया में शांति और समृद्धि के लिए काम करेगा।’’
वहीं 2014 में प्रधानमंत्री बनते ही मोदी जी का संसद में दिये गये पहले भाषण का एक अंश जो इस प्रकार है - ‘‘यह भारत के भाग्य के लिए एक शुभ संकेत है। राष्ट्रपति जी ने अपने अभिभाषण में चुनाव, मतदाता, परिणाम की सराहना की है। मैं भी देशवासियों का अभिनंदन करता हूँ, उनका आभार व्यक्त करता हूँ कि कई वर्षों के बाद देश ने स्थिर शासन के लिए, विकास के लिए, सुशासन के लिए, मत दे कर पांच साल के लिए विकास की यात्रा को सुनिश्चित किया है। भारत के मतदाताओं की ये चिंता, उनका यह चिंतन और उन्होंने हमें जो जिम्मेवारी दी है, उसको हमें परिपूर्ण करना है। लेकिन हमें एक बात सोचनी होगी कि दुनिया के अंदर भारत एक बड़ा लोकतांत्रिक देश है, इस रूप में तो कभी-कभार हमारा उल्लेख होता है। लेकिन क्या समय की माँग नहीं है कि विश्व के सामने हम कितनी बड़ी लोकतांत्रिक शक्ति हैं, हमारी लोकतांत्रिक परंपराएं कितनी ऊँची हैं, हमारे सामान्य से सामान्य, अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति की रगों में भी लोकतंत्र के प्रति श्रद्धा कितनी अपार है। अपनी सारी आशा और आकांक्षाओं को लोकतांत्रिक परंपराओं के माध्यम से परिपूर्ण करने के लिए वह कितना जागृत है। क्या कभी दुनिया में, हमारी इस ताकत को सही रूप में प्रस्तुत किया गया है? इस चुनाव के बाद हम सबका एक सामूहिक दायित्व बनता है कि विश्व को डंके की चोट पर हम यह समझाएं। विश्व को हम प्रभावित करें। ’’ इन्होंने भी अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाकर दुनिया को शांति व भाईचारे का संदेश दिया।
पिछले 70 सालों में भारत और पाकिस्तान के परिणाम हमारे सामने है। भारत न सिर्फ आर्थिक रूप से मजबूत हुआ, शिक्षा से लेकर विज्ञान तक, कल-कारखानों से लेकर व्यापार तक, कृषि से लेकर सुरक्षा तक सभी जगह भारत मजबूत होता चला गया। पंजाब में पृथकतावादी खालिस्तान आंदोलन से लेकर असम में उल्फा उग्रवादियों का सफाया यहां कि जनता ने खुद कर दिया। भारतीय हिस्से के कश्मीर में वे तमाम जन सुविधाएं उपलब्ध है जो भारत के अन्य राज्यों में में उपलब्ध है।
वहीं पाकिस्तान के मदरसों में मानव बम के कारखाने फलने-फूलने लगे। पाकिस्तान ने वही प्रयास भारत में भी भारतीय मुसलमानों को बहका कर करने का लगातार प्रयास किया गया जिसमें उसको कभी कामयाबी नहीं मिली। यही कारण है कि पाकिस्तान के मुसलमानों की सोच में और भारत के मुसलमानों की सोच में आकाश-पाताल का अंतर है। धर्म के नाम पर जो देश भारत से अलग होकर पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान बना। दुनिया भर को शांति का संदेश देने वाले मोहम्मद अली जिन्ना का सपना सन् 1971 में तब चकनाचूर हो गया जब पाकिस्तान भाषा के नाम पर दो हिस्सों में बँट गया। धर्म ने जिसे भारत से अलग किया वही धर्म एक समय लाखों बंगाली मुसलमानों के जान का दुश्मन बन चुका था। बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलायें अपने बच्चों के साथ भाग-भाग के भारत में शरण लेने लगी थी। शब्दों में ना लिखे जाने वाले काम पाकिस्तानी सेनाओं ने उनके साथ किया। यही हाल आज बलूचिस्तान का है। धर्म ना तो दो भाषा को बांध कर रख सका ना ही विकास कर सका । पाकिस्तान किस प्रकार अंदर ही अंदर खोखला बनता चला गया इस बात का भी अंदाजा उसे देखकर सहज लगाया जा सकता है।
वहीं भारत धर्मनिरपेक्षता के मार्ग का चयन किया। जहां हमें काफी सफलता मिली, परन्तु साथ ही धर्मनिरपेक्षता की आढ़ में मुसलमानों की तुष्टिकरण की राजनीति, सत्ता में आने के लिए किया जाने लगा। विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद जामा मस्जिद की राजनीति ने इसे और बल दिया। मुसलमानों की तुष्टिकरण से स्वाभाविक रूप् से हिन्दुओं में असंतोष फैलता चला गया। 2013 में मुजफ्फरनगर की घटना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। सेकुलरवाद की राजनीति करने वाले आजाम खान और सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाले हुकुम सिंह, संगीत सोम, सबके मुह में जहर भरा था, हर कोई धर्म की लहलहाती फसल को काटने में लगा था। जिसका परिणाम हमने 2014 में देखा कि किस प्रकार सेक्युलरवादी दलों का सफाया हिन्दी भाषी प्रान्तों से हो गया।
2014 में जो लोग, मुसलमानों के खिलाफ थे वे ही 2019 आते-आते मानवबम बनाते चले गये। मोदी सरकार भी स्नेह-स्नेह इस आग को अपने नेताओं के माध्यम से घी डलवाते रहे। 2019 लोकसभा के चुनाव में भोपाल से लेकर बंगाल तक हमने इसे देखा और सुना है कि किस प्रकार मोदी समूह की एक महिला एक तरफ महात्मा गांधी के कातिल को महिमामंडित कर रही थी तो दूसरी तरफ हिन्दुस्तान के महान समाज सुधारक ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, जिन्होंने विधवा-पुनर्विवाह कानून पारित करवाया, बाल विवाह का विरोध किया, बांग्ला लिपि के वर्णमाला पर काम किया, बँगला पढ़ाने के लिए सैकड़ों विद्यालय स्थापित किए तथा रात्रि पाठशालाओं की भी व्यवस्था की। संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास किया की प्रतिमा को एक झटके में खंडित कर दिया।
यह दो घटना सामान्य नहीं मानी जा सकती। यह आरएसएस विचारकों की सोच व्यक्त करती है। संवैधानिक संस्थाओं की बात छोड़ दें तो कहीं गाय के नाम पर, कहीं ‘‘जयश्री राम’’ के नाम पर, कहीं हिन्दुओं के अल्पसंख्यक हो जाने के नाम पर हिन्दू वोटों का पोलोराइजेशन (ध्रुवीकरण) किया गया। एक नये प्रकार का राष्ट्रवाद जिसमें हिन्दुओं में भी डर / खौफ पैदा कर दिया गया। भला हो भी क्यों नहीं? यदि मुसलमानों के वोटों का पोलोराइजेशन सेक्युलरवादी दलों के द्वारा किया जा सकता है तो सांप्रदायिक ताकतों ने हिन्दू वोटों का पोलोराइजेशन करके क्या गुणाह कर दिया?
कांग्रेस ने पिछले 50 सालों से मुसलमानों की तुष्टिकरण की राजनीति की, ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द धीरे-धीरे मुसलमानों की तुष्टिकरण का पर्यायवाची बन गया। वहीं अब ‘राष्ट्रवाद’ हिन्दू तुष्टिकरण का पर्यायवाची बनता जा रहा है।
अब इस बात को गौर करें कि ‘‘जयश्री राम’’ या ‘‘भारत माता की जय’’ का नारा हो या आजादी के समय स्वाधिनता का प्रतीक ‘‘वंदे मातरम्‘‘ नारे के स्वरूप को इस प्रकार प्रस्तुत किये जाने लगे कि इसे बोलने का अर्थ ही बदल गया। अब इन नारों में राजनीति बू आने लगी। हिन्दू तुष्टिकरण के रूप में इन नारों का प्रयोग खुल कर होने लगा ।
यदि हम महात्मा गांधी के हत्यारे पर इतना गर्व कर सकतें है इन्दिरा गांधी या राजिव गांधी के हत्यारे पर गर्व करने से हम किसी को कैसे मना कर सकतें हैं। गांधी की फिलोस्फी को मानने वाले दल के लोग ही उसके हत्यारे को महिमामंडित करने वाले लोगों को राजनीति पनाह देता हो, जनता उसको चुन कर संसद में भेजती हो तो भविष्य का आप खुद ही अंदाज लगा सकते हैं कि आने वाले दिनों में भारत में कैसी राजनीति पनपने वाली है ।
महाराष्ट्र में दो राजनीतिक दल है वे भी हिन्दुओं की राजनीति करते हैं परन्तु उनके राजनीति में मराठा हिन्दू है। युपी या बिहार के हिन्दू नहीं है। इसी प्रकार आंध्रा में एक राजनीति दल मुसलमानों की राजनीति करता है परन्तु उसकी भाषा में पूरा हिंदुस्तान के मुसलमानों को एकत्र करने की बात हो रही है। अब देश की एक बड़ी राजनीति पार्टी की जगह मैं उसे मोदी पार्टी बोलकर लिखूं तो ज्यादा उपयुक्त शब्द होगा उसके नेता अमित शाह व योगी आदित्यनाथ खुलकर हिन्दुओं की राजनीति करने लगे। इस बार के चुनाव में तो जमकर इस विचारधारा का प्रयोग किया गया। निश्चित रूप से यह एक ऐसा औजार बन चुका है जो धर्मनिरपेक्ष ताकतों की काट बन चुका है।
इसबार 2019 के लोकसभा के चुनाव में विपक्ष ने कहीं भी इस बात पर संगठित होने का प्रयास नहीं किया कि वे धर्मनिरपेक्ष ताकत है और सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से बहार रखना होगा। इस बार चुनाव में धर्मनिपेक्षता नहीं बल्की इनके संगठित होने का एक ही एजेंडा था ‘‘मोदी को सत्ता से कैसे बहार रखा जाए’’ यानि पिछले पांच सालों में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें जो महज एक मात्र मुसलमानों की सुरक्षा व उसके तुष्टिकरण को ही धर्मनिरपेक्ष समझती थी और जामा मस्जिद से इनकी राजनीति शुरू होती और वहीं जाकर समाप्त हो जाती थी में काफी बदलाव आया है। अब धर्मनिरपे़क्ष राजनीतिक दलों को यह बताना पड़ रहा है कि वे भी हिन्दू हैं।
अबतक मैंने दोनों पक्षों की बात जस की तस रख दी। अब आपके मन में यह प्रश्न रह गया होगा कि इस लेख में मैंने जिन्ना को क्यों घसीटा? सवाल वाजिब है। पाकिस्तान ने मानव को मानव बम में तब्दील किया आज विश्व में मुसलमानों की एक लंबी फौज तैयार हो गई जो दुनियाभर में आतंक का साम्राज्य बसा लेना चाहता है। विश्वभर में इसके खातमें को लेकर तरह-तरह की योजनाएं बनाई जा रही है। क्या भारत भी इसी रास्ते पर निकल पड़ा है ? ‘‘सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास’’ के फ्रेम का दायरा सुनने में जितना बड़ा लगता है। वास्तव में ऐसा है नहीं। यदि मोदी जी सच में भारत को यह संदेश देना चाहते हैं तो उनको सर्वप्रथम अपनी बात पर आना होगा कि ‘‘मैं अपने मन से माफ नहीं कर पाऊंगा’’ उस महिला को संसद पद से इस्तीफ़ा दिला के देश को यह संदेश दे कि वे ऐसे तत्वों को संसद में जाने से रोक देगें। यदि ऐसा नहीं होता है तो भारत को भी जिन्ना की राह पर चलने से मोदी रोक नहीं पायेगें।
लेखक स्वतंत्र व पत्रकार और विधिज्ञाता हैं। - शंभु चौधरी
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