गुरुवार, 2 मई 2019

बिकाऊ पत्रकारिता

बिकाऊ पत्रकारिता 
मीडिया हाउस भी यही चाहता है कि जनता उसके दिखाये मार्गों का ही अनुसरण करें, साथ ही ये आपस में भी एक दूसरों को नीचा दिखाने व दिल्ली में किसकी सरकार सत्ता पर काबिज होगी  इसकी हौड़ में लगें हैं । क्या ‘जी-न्यूज’ सत्ता में आयेगा कि ‘आजतक’ ? क्या ‘रजत शर्मा’ की सरकार बनेगी कि ‘अर्नब गोस्वामी’ की?  इसीप्रकार प्रिंट मीडिया में भी दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर इस दौड़ में सबसे आगे की पंक्ति में दिखाई दे रहें हैं। एक’आध को छोड़कर किसी ने भी अपनी ज़िम्मेदारी का सही से निर्वाहन नहीं किया है । सबके सब बिकाऊ पत्रकारिता का हिस्सा बन चुके हैं। 
देशभर में सातवें और अंतिम चरण के चुनाव का नामांकन भरे जा चुके हैं जिसका चुनाव आगामी 19 मई को होने जा रहा है इसके संपन्न होते ही चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों से निकलने वाले आंकड़ों का खेल खेलने लगेगी। गोदी मीडिया के डब्बों से भी भर-भर लौटा सीटें निकलने लगेगी। चुनाव में कौन जीतेगा या कौन हारेगा यह तो 23 मई या उसके बाद ही पता चल सकेगा परन्तु गोदी मीडिया यह पहले ही बता देगी कि देश में किस मीडिया हाउस की सरकार बनने जा रही है।
इसबार का चुनाव कई मायने में बहुआयामी और देश के पिछले सभी चुनावों से कुछ हठकर भी है। जहां सत्ताधारी मोदी पार्टी अपने कार्य पर नहीं, सेना की शहादत पर वोट मांग रही है तो वहीं विपक्ष एक सूर में अपनी अलग-अलग ताल ठोक उस गाने को चरितार्थ कर रहा है ‘‘मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा’’  बंगाल में ममता-माकपा-कांग्रेस और दिल्ली में ‘आप’ व कांग्रेस का गठबंधन अंतिम क्षणों तक फाँसी के फंदे पर हिचकोले लेता रहा। कभी हां, कभी ना, होता रहा । वहीं दूसरी तरफ पिछले पांच राज्यों के विधानसभा में सीटों के बँटवारे को लेकर नाराज़ चल रहे अखिलेश व मायावती की जोड़ी ने उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को ही किनारे लगा दिया । मोदी को सत्ता से हटाने का अंक गणित जिन आंकड़ों को लेकर विपक्ष चला रहा था वह अंक गणित, चुनाव शुरू होने से पहले ही धराशाही हो गया। सभी पार्टियां अपने जनाधार से कोई समझौता नहीं करना चाहती, सबकी यही इच्छा है कि उसे इतना मिल जाए कि सत्ता की भागीदारी में सौदा अच्छे से किया जा सके। यही हालात भाजपा के साथ भी है जिसमें शिवसेना के उद्धव ठाकरे व लोजपा के रामविलास पासवान बार-बार आँखें तरेर रहे थे। राजनीति दलों का जोड़-घटाव या गुणा-भाग तो समझ में आता है पर मीडिया हाउसेस का नहीं ।
यहां राजनीति पंडितों का यह आकलन भी गौर करने योग्य है कि विपक्ष के पास खोने को कुछ नहीं है जबकि मोदी पार्टी का जनाधार पिछले 2014 के लोकसभा चुनाव के अनुपात में काफी तेजी से नीचे गिरा है और ‘मोदी लहर’ नामक  कोई चीज 2019 के इस चुनाव में नहीं है जैसा 2014 में था। कुल मिलाकर सभी पक्षों ने यह तो स्वीकार कर ही लिया है कि इस बार के 17वीं लोकसभा के चुनाव में किसी एक दल की सरकार नहीं बनने वाली है। 
साथ ही 17वीं लोकसभा के चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर तरह-तरह के संदेह पैदा हुए हैं । बड़ी संख्या में ईवीएम मशीनों के खराबी की शिकायतें आती रही। चुनाव संचालन के रूल 49MA की शिकायतों को छुपाया गया, मतदाताओं को डरा कर बहार भगा दिया गया। यह सब चलता रहा, पर एक बात तो साफ हो गई कि जो ईवीएम मशीनें कल तक ठीक थी वे ही मशीनें वीवीपेट के आ जाने के बाद खराब कैसे हो गई? जो किसी गुप्त रहस्य की तरफ इशारा/संकेत करती है कि दाल में कहीं काला तो जरूर है नहीं तो चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों में शिकायतें आने के बाद बदली जाने वाली मशीनों के तथ्यों को छुपा क्यों रही है? साफ-साफ इस बात का जिक्र क्यों नहीं कर रही कि इन सभी मशीनों में एक ही तरह की शिकायत ही आ रही है कि वोट जिसे डाला जा रहा है उसे ना जाकर किसी अन्य दल को जा रहा है। जिन मशीनों को खराब बोल कर चुनाव आयोग ने हटा दिया उन मशीनों की कोर्ट की निगरानी में फॉरेंसिंग जांच करानी चाहिये कि मामला आखिर है क्या? 
पुनः जिस प्रकार बनारस में सेना के एक पूर्व सैनिक तेज बहादुर यादव के नामांकन को दबाव में आकर रद्द किया गया स्पष्ट रूप से चुनाव आयोग की भूमिका संदेह के घेरे में आ चुकी है । दूसरी तरफ भारत की प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा घड़ा जो ‘फेक-लहर’ के साथ-साथ इस बार ‘फेक जहर’ भी फैलाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहा है। ये दोनों ही बातें लोकतंत्र के लिये किसी खतरे से कम नहीं है।
17वीं लोकसभा के चुनाव में समाचारों में  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विचारों को जहरीले सांप ने डंस लिया है। हर घटना के पीछे कोई न कोई 'जहर' काम करता दिखाई दे रहा है। चाहे वह देशद्रोही बनाने का 'जहर' हो या फिर 'देश प्रेमी' बनाने का। एक जमाना जब मीडिया सिर्फ देशप्रेमी बनाने की हौड़ में लगी रहती थी। कवियों की कविताएं में देश भक्ति के भाव झलकते थे अब इनकी कविताओं में यह बताया जाता है कि देशद्रोही कौन है । खुदा ना खास्ता कल न उच्चतम अदालत भी कोई फैसला इनके खिलाफ कर देगी तो वह भी देशद्रोही की श्रेणी आ जायेगा। देश को लुटने वाले लोग अब अदालत में यह दलील भी देने लगे है कि यह राष्ट्र की सुरक्षा का मसला है । अतः उन समाचार पत्रों के मालिकों को भी जेल भेज देना चाहिये जो उनकी बातों से सहमत नहीं है। पत्रकारों को जान से मारने लेकर उनके परिवारों को धमकाने व उसे नौकरी से निकालने की शुरूआत तो हो ही चुकी है। इसके साथ ही 'फेक चैनल' के संचालन से लेकर 'फेक साक्षात्कार' का प्रसारण भी होने लगा है। यह सब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सहयोग के बिना कदापी संभव नहीं है। 
देश का कोई एक व्यक्ति मीडिया से भी बड़ा हो सकता है यह कल्पनाहीन बातें थी, कल तक गांव का एक पत्रकार सीना तानकर चलता था । उस पत्रकार से सरकार की तमाम एजेंसियां, पदाधिकारी व नेतागण घबड़ाते नजर आते थे, आज इसमें तेजी से ह्रास हुआ है । अब वही संवाददाता सही माना जा रहा है जो अफवाहों या फेक न्यूज को फैलाने में मीडिया हाउस का साथ दे रहा  है। 
मीडिया हाउस भी यही चाहता है कि जनता उसके दिखाये मार्गों का ही अनुसरण करें, साथ ही ये आपस में भी एक दूसरों को नीचा दिखाने व दिल्ली में किसकी सरकार सत्ता पर काबिज होगी इसकी हौड़ में लगें हैं । क्या ‘जी-न्यूज’ सत्ता में आयेगा कि ‘आजतक’ ? क्या ‘रजत शर्मा’ की सरकार बनेगी कि ‘अर्नब गोस्वामी’ की?  इसीप्रकार प्रिंट मीडिया में भी दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर इस दौड़ में सबसे आगे की पंक्ति में दिखाई दे रहें हैं। एक’आध को छोड़कर किसी ने भी अपनी ज़िम्मेदारी का सही से निर्वाहन नहीं किया है । सबके सब बिकाऊ पत्रकारिता का हिस्सा बन चुके हैं। 
अब हमें इस बात का इंतजार रहेगा कि 23 मई को किस मीडिया हाउस की सरकार दिल्ली की सत्ता पर काबिज होती है। सरकार किसी की भी बने किसी को लड्डू खाने मिलेगा,  किसी को रसगुल्ला, पर इतना तो तय है कि यह जहरीला होगा। इस बार के चुनाव मे इन मीडिया हाउसों के चंद पत्रकारों ने अपने निजी स्वार्थ के चलते पूरे पत्रकारों की प्रतिष्ठा को शक के दायरे में ला खड़ा किया है। अब पाठक वर्ग साफ-साफ कहने लगा है कि यह समाचार अमूक पार्टी द्वारा संचालित है। जो अब तक उसकी ऐसी छाप नहीं थी जो पत्रकारों के लिए एक सोचनीय विषय है। देश के हरे-भरे वातावरण में इन समाचार हाउसेज ने जो जहर फैलाया है उसे लोकतंत्र की हत्या के अपराध से कम नहीं आंका जा सकता है। जिसका दूरगामी परिणाम आने वाले दिनों में हमारे बच्चों के भविष्य पर भी पड़ेगा और अब नई पौध भी नाथुराम गोडसे से लेकर प्रज्ञा ठाकुर की मिशाल कायम कर सत्ता प्राप्ती का सुख लेना चाहेगी।  जयहिन्द ।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।  - शंभु चौधरी  




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